सेहत-फिटनेस
अविश्वसनीय
अंबिकापुर सीट के मतों की गिनती रोमांचक रही है। न तो कांग्रेस, और न ही भाजपा के कई स्थानीय नेताओं को भरोसा था कि भाजपा प्रत्याशी राजेश अग्रवाल की जीत होगी। राजेश, सरगुजा राजघराने के मुखिया डिप्टी सीएम टीएस सिंहदेव को कड़े संघर्ष के बाद 94 मतों से हराने में कामयाब रहे।
बताते हैं कि जीत की घोषणा में विलंब हो रहा था। तभी केन्द्रीय राज्य मंत्री रेणुका सिंह का फोन एक कार्यकर्ता के पास पहुंचा, और फिर उन्होंने रेणुका सिंह की कलेक्टर से बात कराई। चर्चा है कि रेणुका सिंह का लहजा इतना सख्त था कि कलेक्टर भी हड़बड़ा गए, और फिर उन्होंने तुरंत राजेश अग्रवाल को विजयी प्रमाण पत्र जारी किया।
बाबा की हार की वजह
अंबिकापुर में टीएस सिंहदेव की हार में हकीम अब्दुल मजीद की भी अहम भूमिका रही है। जोगी पार्टी के प्रत्याशी अब्दुल हकीम ने करीब 12 सौ वोट हासिल किए। हकीम को अपने मुस्लिम समाज के वोट मिले, जो कि कांग्रेस के परम्परागत वोटर रहे हैं। यद्यपि सिंहदेव समर्थकों ने नामांकन से पहले उन्हें अपने पक्ष में करने की भरपूर कोशिश की थी, लेकिन वो सफल नहीं हो पाए।
मतगणना के दौरान अब्दुल मजीद, भाजपा प्रत्याशी राजेश अग्रवाल के साथ खड़े थे, और उन्हें दिलासा दे रहे थे। राजेश लगातार लीड घटने से घबराए हुए थे। अब्दुल हकीम उनसे मजाकिया लहजे में कह रहे थे कि घबराने की जरूरत नहीं है। उनके पास दवाई है। और जब टीएस सिंहदेव हार गए, तो उनके समर्थकों का गुस्सा अब्दुल हकीम पर फूट पड़ा, और उन्होंने हकीम के साथ झूमाझटकी की। बाद में पुलिस हस्तक्षेप के बाद हकीम किसी तरह बच पाए।
पार्टी का खर्च बचा
कांग्रेस के तमाम छोटे-बड़े नेताओं को सरकार के रिपीट होने का भरोसा था। तमाम एग्जिट पोल का भी नतीजा कुछ इसी तरह का था। मगर कांग्रेस को बुरी हार का सामना करना पड़ा।
बताते हैं कि सरकार के एक ताकतवर मंत्री के अति उत्साही करीबियों ने मतगणना की एक दिन पहले बंगले में विजयी पार्टी का भी आयोजन कर रखा था। इसमें एक हजार कार्यकर्ताओं, और कई नेताओं को बुलाने की तैयारी थी।
इसी बीच किसी ने मंत्री जी के कान में फूंक दिया कि पार्टी का खर्चा, चुनाव खर्च में जुड़ जाएगा। क्योंकि चुनाव आचार संहिता प्रभावशील है। फिर मंत्री जी ने पार्टी को कैंसल कर दिया। दिलचस्प बात यह है कि अगले दिन मंत्रीजी खुद बुरी तरह चुनाव हार गए। इस हार से मंत्री जी, और उनके समर्थक हतप्रभ हैं।
बूढ़ादेव प्रसन्न
गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने 23 साल बाद पाली-तानाखार में वापसी की है। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के संस्थापक हीरासिंग मरकाम अविभाजित मध्यप्रदेश में विधायक चुने गए थे। इसके बाद छत्तीसगढ़ बनने के बाद वे उतने सफल नहीं हो सके। पिछले साल उनका निधन हो गया और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी अनाथ जैसी हो गई। उनके बेटे तुलेश्वर ने कमान संभाली और पार्टी के फिर से खड़ा करने में जी जान लगा दी। इसमें उन्होंने गोंडवाना समाज के हर रीति-रिवाज का भी पालन किया। चुनाव के पहले वे गोंडवाना समाज के देव बूढ़ादेव के मंदिर पहुंचे। धमधा के त्रिमूर्ति महामाया मंदिर में पूजा-पाठ, अनुष्ठान भी किया। उन्होंने अपने इष्टदेव को प्रसन्न करने सारा जतन किया। इसके बाद समाज का साथ मिला। बूढ़ादेव भी प्रसन्न हो गए और भाजपा की आंधी और कांग्रेस से टक्कर लेते हुए उन्होंने गोंडवाना गणतंत्र पार्टी को एक सीट दिलाने में सफलता हासिल कर ही ली।
महंत साबित हुए असली लीडर
विधानसभा चुनाव के नतीजे भले ही कांग्रेस के अनुकूल नहीं रहे हैं। मगर विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत को अविभाजित जांजगीर-चांपा जिले में कांग्रेस की जीत का असली नायक कहा जा रहा है। डॉ. महंत न सिर्फ खुद सक्ती सीट से चुनाव जीते, बल्कि जिले की तमाम सीट जांजगीर-चांपा, अकलतरा, चंद्रपुर, पामगढ़, और जैजैपुर से कांग्रेस प्रत्याशी को जिताने में अहम भूमिका निभाई। सोशल मीडिया पर उन्हें असली लीडर कहा जा रहा है। जांजगीर-चांपा की तरह बालोद जिले में भी कांग्रेस के पक्ष में माहौल रहा, और यहां की तीनों सीटें पार्टी जीतने में कामयाब रही है।
सीटों और वोटों के बीच का फासला
किसी पार्टी को मिले वोट और उसकी जीतने वाली सीटों में अक्सर बड़ा फर्क होता है। मध्य प्रदेश में सन् 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 41 और कांग्रेस को 40.9 प्रतिशत मत मिले थे। पर वहां कांग्रेस को सीटें 114 मिल गई और भाजपा को 109 ही। कुल वोट कम मिलने के बावजूद कांग्रेस की वहां सरकार बन गई थी।
इस बार तीन राज्यों में कांग्रेस की बुरी तरह हार हो गई। पर उसे मिले वोटों का फासला सीटों की तुलना में देखना दिलचस्प होगा। जैसे राजस्थान में भाजपा को करीब 1 करोड़ 65 लाख वोट मिले, कांग्रेस को 1 करोड़ 56 लाख। दोनों के बीच वोटों का अंतर 9 लाख के आसपास है। मगर यहां भाजपा को 115 सीटें मिलीं जबकि कांग्रेस 69 सीटों पर रुक गई। मध्यप्रदेश में भाजपा को करीब 2 करोड़ 11 लाख मिले वहां कांग्रेस को 1 करोड़ 75 लाख। पर सीटों का अंतर बहुत अधिक आ गया। कांग्रेस 66 सीटों पर सिमट गई और भाजपा ने 163 सीटों पर जीत हासिल की। भाजपा ने कांग्रेस के दोगुने से भी अधिक सीटें हासिल कर ली। छत्तीसगढ़ में भाजपा को लगभग 72 लाख वोट मिले, कांग्रेस को 66 लाख। दोनों के बीच वोटों का अंतर करीब 6 लाख का ही है। पर भाजपा ने अब तक की सबसे बड़ी जीत हासिल करते हुए यहां 54 सीटों पर काबिज हुई और कांग्रेस 35 पर रह गई। राज्य बनने के बाद से लगातार सत्ता में रही भारत राष्ट्र पार्टी का भी तेलंगाना में यही हाल रहा। उसे करीब 87 लाख वोट मिले, पर कांग्रेस ने 5 लाख अधिक 92 लाख वोट लेकर उसे सत्ता से बेदखल कर दिया। बीआरएस ने 2018 के मुकाबले में 49 सीटें गंवा दी। यहां भाजपा ने भी 32 लाख वोट हासिल किए हैं। पर उसे सिर्फ 8 सीटें मिली। लोकसभा चुनावों में भी ऐसा ही होता है। भाजपा ने सन् 2019 में 37.36 प्रतिशत वोट हासिल किए लेकिन उसे 303 सीटें मिलीं। सन् 2014 के चुनाव में तो 31 प्रतिशत वोट ही मिले थे।
सीटों और वोटों के बीच का फासला
किसी पार्टी को मिले वोट और उसकी जीतने वाली सीटों में अक्सर बड़ा फर्क होता है। मध्य प्रदेश में सन् 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 41 और कांग्रेस को 40.9 प्रतिशत मत मिले थे। पर वहां कांग्रेस को सीटें 114 मिल गई और भाजपा को 109 ही। कुल वोट कम मिलने के बावजूद कांग्रेस की वहां सरकार बन गई थी।
इस बार तीन राज्यों में कांग्रेस की बुरी तरह हार हो गई। पर उसे मिले वोटों का फासला सीटों की तुलना में देखना दिलचस्प होगा। जैसे राजस्थान में भाजपा को करीब 1 करोड़ 65 लाख वोट मिले, कांग्रेस को 1 करोड़ 56 लाख। दोनों के बीच वोटों का अंतर 9 लाख के आसपास है। मगर यहां भाजपा को 115 सीटें मिलीं जबकि कांग्रेस 69 सीटों पर रुक गई। मध्यप्रदेश में भाजपा को करीब 2 करोड़ 11 लाख मिले वहां कांग्रेस को 1 करोड़ 75 लाख। पर सीटों का अंतर बहुत अधिक आ गया। कांग्रेस 66 सीटों पर सिमट गई और भाजपा ने 163 सीटों पर जीत हासिल की। भाजपा ने कांग्रेस के दोगुने से भी अधिक सीटें हासिल कर ली। छत्तीसगढ़ में भाजपा को लगभग 72 लाख वोट मिले, कांग्रेस को 66 लाख। दोनों के बीच वोटों का अंतर करीब 6 लाख का ही है। पर भाजपा ने अब तक की सबसे बड़ी जीत हासिल करते हुए यहां 54 सीटों पर काबिज हुई और कांग्रेस 35 पर रह गई। राज्य बनने के बाद से लगातार सत्ता में रही भारत राष्ट्र पार्टी का भी तेलंगाना में यही हाल रहा। उसे करीब 87 लाख वोट मिले, पर कांग्रेस ने 5 लाख अधिक 92 लाख वोट लेकर उसे सत्ता से बेदखल कर दिया। बीआरएस ने 2018 के मुकाबले में 49 सीटें गंवा दी। यहां भाजपा ने भी 32 लाख वोट हासिल किए हैं। पर उसे सिर्फ 8 सीटें मिली। लोकसभा चुनावों में भी ऐसा ही होता है। भाजपा ने सन् 2019 में 37.36 प्रतिशत वोट हासिल किए लेकिन उसे 303 सीटें मिलीं। सन् 2014 के चुनाव में तो 31 प्रतिशत वोट ही मिले थे।
परिणाम के पहले का माहौल..
छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस के नेता ही नहीं, कार्यकर्ता भी ओवरकांफिडेंट थे। जैसे छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल, राजस्थान में अशोक गहलोत का दोबारा मुख्यमंत्री बनना तय माना जा रहा था वैसे ही मध्यप्रदेश में कमलनाथ को सीएम मान लिया था। मध्यप्रदेश में ऐसे ही एक अति उत्साही कार्यकर्ता ने नतीजा आने से पहले ही सडक़ पर स्वागत द्वार लगा रखा था। ([email protected])
जैसे-जैसे एंटिबायोटिक दवाओं का असर कम हो रहा है, वैज्ञानिकों की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं. अब नई एंटिबायोटिक दवाएं बनाने की कोशिश हो रही है.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
सुपरबग यानी एंटीबायोटिक दवाओं का इंसानी शरीर पर खत्म हो जाना वैश्विक स्तर पर सेहत के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक माना जाता है. एक अनुमान के मुताबिक 2019 में इस वजह से 12.7 लाख लोगों की जान गई थी. संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 2050 तक यह खतरा इतना बड़ा हो जाएगा हर साल लगभग एक करोड़ लोगों की जानें सिर्फ इसलिए जा रही होंगी क्योंकि उन पर एंटीबायोटिक दवाएं असर नहींकर रही होंगी.
यह खतरा इतना बड़ा है इसलिए वैज्ञानिक इससे निपटने के लिए कई तरह की कोशिशें कर रहे हैं. इनमें नई तरह की एंटिबायोटिक दवाओं के विकास से लेकर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद लेने तक तमाम प्रयास शामिल हैं.
काम करना बंद कर रही हैं दवाएं
उत्तरी नाईजीरिया में काम कर रहीं डॉ. नुबवा मेदुगू कहती हैं कि जब उन्होंने 2008 में कानो शहर में अपने मेडिकल करियर की शुरुआत की थी तो टाइफॉयड से ग्रस्त बहुत से बच्चे अस्पताल में इसलिए आते थे क्योंकि दवाएं उन पर काम नहीं कर रही थीं. द कन्वर्सेशन मैग्जीन में एक पॉडकास्ट में डॉ. मेदुगू ने कहा, "मुझे तब पता नहीं था कि बहुत से मरीजों के संक्रमणों का ठीक ना होना एक बहुत बड़ी समस्या की झलक भर था.”
अब नाईजीरिया की राजधानी अबुजा के राष्ट्रीय अस्पताल में क्लिनिकल माइक्रोबायोलॉजिस्ट के रूप में शोध कर रहीं मेदुगू कहती हैं, "अब ऐसे इंफेक्शन खोजना लगभग असंभव हो गया है जिनमें कम से कम एक एंटिबायोटिक के लिए प्रतिरोधक क्षमता खत्म हो गई है.”
हाल ही में इस विषय पर एक शोध पत्र में उन्होंने बताया है कि कौन-कौन सी एंटिबायाटिक दवाओं का असर लगातार कम होता जा रहा है. वह कहती हैं कि सबसे ज्यादा चिंता की बात ये है कि जो दवाएं कभी आखरी इलाज हुआ करती थीं, उनका असर भी अब खत्म हो रहा है.
नई एंटीबायोटिक दवाओं की तलाश
दुनिया में कई वैज्ञानिक अब ऐसी नई एंटिबायोटिक दवाएं विकसित करने में लगे हैं जो पुरानी दवाओं से पार पा चुके संक्रमणों पर प्रभावी साबित हो सकें. न्यूयॉर्क के रोचेस्टर इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में बायोकेमिस्ट्री के प्रोफेसर आंद्रे हड्सन उन्हीं में से एक हैं. वह पारंपरिक बायोप्रोस्पेक्टिंग तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, जिसमें मिट्टी जैसे कुदरती तत्वों से संभावित एंटिबायोटिक्स निकालने की कोशिश की जाती है.
एक इंटरव्यू में हडसन बताते हैं कि पारंपरिक रूप से किसी एक बैक्टीरिया को निकालकर उसका डीएनए पर शोध किया जाता है और उससे उस बैक्टीरिया के पूरे समुदाय पर असर डालने वाली दवा बनाई जाती है. लेकिन अब कुछ वैज्ञानिक मेटाजेनोमिक्स नामक तकनीक का भी इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसमें किसी कुदरती तत्व जैसे कि मिट्टी में मौजूद बैक्टीरिया के पूरे समुदाय की सीक्वेंसिंग की जाती है.
साथ ही बहुत से वैज्ञानिक खोज की गति बढ़ाने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का भी इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि यह तकनीक उस सीमा तक सोच सकती है, जहां तक वैज्ञानिक भी नहीं सोच रहा हे हैं. हालांकि यह अभी सिर्फ सिद्धांत के स्तर पर ही है. (dw.com)
ध्वनि विश्लेषण एआई टाइप 2 डायबिटीज का पता करने के लिए एक उपयोगी टूल हो सकता है, लेकिन इसके साथ चेतावनी भी जुड़ी है.
डॉयचे वैले पर अलेक्जांडर फ्रॉएंड की रिपोर्ट-
उन्नत ध्वनि विश्लेषण का इस्तेमाल करने वाले मेडिकल डायग्नोस्टिक टूल्स तेजी से सटीक होते जा रहे हैं. स्पीच पैटर्न का विश्लेषण खासतौर पर पार्किंसंस या अल्जाइमर्स जैसी बीमारियों के लिए बहुमूल्य जानकारी मुहैया करा सकता है.
वॉयस एनालिसिस का इस्तेमाल करके मानसिक बीमारी, अवसाद, पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर और दिल की बीमारी का भी पता लगाया जा सकता है.
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी एआई संकुचित रक्त वाहिकाओं या थकावट के लक्षणों का भी पता लगा सकती है. इससे स्वास्थ्यकर्मियों को मरीजों का जल्द इलाज करने और किसी भी संभावित जोखिम को कम करने की अनुमति मिलती है.
अमेरिका के 'मेयो क्लिनिक प्रोसीडिंग्सः डिजिटल हेल्थ' मेडिकल जर्नल में छपे एक शोध के मुताबिक किसी व्यक्ति को टाइप 2 डायबिटीज है या नहीं यह आश्चर्यजनक सटीकता के साथ निर्धारित करने के लिए आवाज की एक छोटी रिकॉर्डिंग ही काफी है.
अज्ञात रोग
इस तकनीक का उद्देश्य अज्ञात डायबिटीज से पीड़ित लोगों की पहचान करने में मदद करना है. इस नई तकनीक के जरिए दुनियाभर में ऐसे 24 करोड़ लोगों को बहुत मदद मिलेगी जो टाइप-2 डायबिटीज के शिकार हैं, लेकिन उन्हें इसका पता ही नहीं है. यह आंकड़ा इंटरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन का है.
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल लांसेट में छपे इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के शोध के मुताबिक भारत के कुछ राज्यों में मधुमेह के मामले तेजी से बढ़े हैं. करीब दस करोड़ भारतीय लोग इस बीमारी से जूझ रहे हैं. टाइप 2 डायबिटीज वाले लोगों में दिल से जुड़ी बीमारियों, जैसे दिल का दौरा और स्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है.
10 सेकेंड में कैसे पता चलेगा टाइप-2 डायबिटीज का
वैज्ञानिकों ने लोगों की सेहत के बुनियादी डाटा जैसे उम्र, सेक्स, ऊंचाई और वजन के साथ-साथ आवाज के छह से दस सेकेंड लंबे सैंपल लेकर एआई मॉडल विकसित किया, जिसकी मदद से पता चल सके कि व्यक्ति को टाइप-2 डायबिटीज है या नहीं.
इस मॉडल का डायग्नोसिस 89 फीसदी महिलाओं और 86 फीसदी पुरुषों के मामले में सही साबित हुआ. अमेरिका की क्लिक लैब ने यह एआई मॉडल तैयार किया है, जिसमें वॉयस टेक्नॉलजी के साथ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करके मधुमेह का पता लगाने में प्रगति हुई है.
एआईको प्रशिक्षित करने के लिए कनाडा में ओंटारियो टेक यूनिवर्सिटी में जेसी कॉफमैन और उनकी टीम ने 267 व्यक्तियों की आवाजें रिकॉर्ड कीं, जिन्हें या तो मधुमेह नहीं था या जिन्हें पहले से ही टाइप 2 मधुमेह का पता था.
अगले दो सप्ताह के दौरान प्रतिभागियों ने अपने स्मार्टफोन पर हर रोज छह बार एक छोटा वाक्य रिकॉर्ड किया. 18,000 से अधिक आवाज के नमूने तैयार किए गए, जिनमें से 14 अकूस्टिक फीचर को अलग किया गया, क्योंकि वे मधुमेह वाले और बिना मधुमेह वाले प्रतिभागियों के बीच भिन्न थे.
जेसी कॉफमैन ने कहा, "फिलहाल जो तरीके इस्तेमाल होते हैं, उनमें बहुत वक्त लगता है, आना-जाना पड़ता है और ये महंगे पड़ सकते हैं. वॉयस टेक्नॉलजी में यह संभावना है कि इन सारी रुकावटों को पूरी तरह से दूर कर दे."
वॉयस एनालिसिस के खतरे
डायग्नोस्टिक टूल्स के रूप में वॉयस एनालिसिस के समर्थक उस गति और दक्षता पर जोर देते हैं जिसके साथ रोगी की आवाज का इस्तेमाल करके बीमारियों का पता लगाया जा सकता है. लेकिन भले ही एआई समर्थित टूल्स बहुत विशिष्ट जानकारी मुहैया करने में सक्षम हों, मुट्ठी भर आवाज के नमूने एक अच्छी तरह से स्थापित डायग्नोस्टिक टूल्स विकसित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.
क्या दुरुपयोग हो सकता है
आलोचकों और डाटा सुरक्षा ऐक्टिविस्टों ने स्पीच एनालिसिस सॉफ्टवेयर के भारी जोखिम के बारे में चेतावनी दी है, उदाहरण के लिए नियोक्ताओं या इंश्योरेंस कॉल सेंटरों द्वारा इसका गलत इस्तेमाल किया जा सकता है.
एक जोखिम यह भी है कि स्पीच एनालिसिस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल सहमति के बिना किया जा सकता है और व्यक्तिगत स्वास्थ्य जानकारी के आधार पर ग्राहकों या कर्मचारियों को नुकसान हो सकता है.
यही नहीं संवेदनशील मेडिकल जानकारी हैक हो सकती है, उसे बेचा जा सकता है या फिर उसका गलत इस्तेमाल हो सकता है. हालांकि डायग्नोस्टिक टूल्स के रूप में स्पीच एनालिसिस पर स्पष्ट नियम और सीमाएं वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित नहीं की जा सकती हैं. यह पूरी तरह से राजनीति के दायरे में आता है. (dw.com)
हम हर दिन कई बुरी खबरें पढ़ते हैं. कभी युद्ध की, तो कभी प्राकृतिक आपदाओं से लोगों के मरने की. क्या आपको पता है कि ये बुरी खबरें हमारे सेहत पर किस तरह असर डाल रही हैं?
फोन पर किसी तरह की सूचना आते ही हम उसे तुरंत खबर पढ़ने लगते हैं. चाह कर भी ज्यादा देर तक अपने डिवाइस से दूरी नहीं रख पाते. हम अक्सर बुरी खबरों के चक्र में वापस लौट आते हैं. हिंसा, युद्ध और आपदा हमारे न्यूज फीड पर हावी हैं.
बुरी खबरें पढ़ने का दौर लगातार पिछले कई वर्षों से जारी है. 2019 के आखिर और 2020 की शुरुआत में कोरोना महामारी, उसके बाद यूक्रेन युद्ध, फिर कई देशों में भूकंप और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं और अब मध्य-पूर्व में इस्राएल-हमास के बीच युद्ध. बुरी खबरों का दौर खत्म ही नहीं हो रहा है. ये सभी खबरें दिल दहलाने और हताश करने वाली कहानियों और तस्वीरों से भरी होती हैं. इन खबरों को लगातार पढ़ने की लत इंसानों को बीमार कर रही हैं.
डूमस्क्रोलिंग क्या है?
डूमस्क्रोलिंग का मतलब है, बुरी खबरों को स्क्रॉल करते रहना. तब भी जब यह हमें परेशान करती हैं. यह शब्द ‘डूम' और ‘स्क्रोलिंग' से मिलकर बना है. डूम का मतलब होता है आपदा, विनाश, अंत, भय. स्क्रोलिंग का मतलब है, इंटरनेट पर कुछ खोजना. डूमस्क्रोलिंग शब्द का इस्तेमाल यह बताने के लिए किया जा रहा है कि लोग किस तरह लगातार बुरी खबरें देख और पढ़ रहे हैं. यह शब्द वास्तव में महामारी के दौरान प्रचलन में आया.
पाषाण युग के निशान
डूमस्क्रोलिंग पूरी तरह से नकारात्मक पूर्वाग्रह के बारे में है. इंसानों का झुकाव नकारात्मकता की ओर ज्यादा होता है. उदाहरण के लिए, प्रशंसा की तुलना में आलोचना इंसानों के व्यवहार पर ज्यादा असर डालती है. यही बात अच्छी खबर की तुलना में बुरी खबर के लिए भी लागू होती है. न्यूरो साइंटिस्ट मारेन उर्नर ने कहा, "हमारा मस्तिष्क सकारात्मक शब्दों की तुलना में नकारात्मक शब्दों को तेजी से और बेहतर तरीके से प्रोसेस करता है. इसका मतलब है कि हम उन्हें ज्यादा याद रखते हैं.”
यह बात विकासवादी जीवविज्ञान के परिप्रेक्ष्य से समझ में आती है. उर्नर ने कहा, "नुकीले और बड़े दांत वाली बिल्लियों की प्रजातियां या मैमथ के समय में खतरे से अनजान रहना नुकसानदायक था.” हमारा दिमाग अभी भी व्यवस्थित रूप से जानकारी इकट्ठा करके अनिश्चितता को दूर करने में हमारी मदद करने की कोशिश कर रहा है. हम उन खतरों से निपटने के लिए तैयार रहना चाहते हैं जो हमारा इंतजार कर रहे हैं. जितनी अधिक बुरी खबरें हम सुनते हैं, उतना ही बेहतर तैयार महसूस करते हैं. हालांकि, यह एक भ्रांति है. हो सकता है कि इस तरह की सोच मैमथ के समय काम करती हो, लेकिन एप्लिकेशन और न्यूज फीड के युग में यह बेकार है.
चिप्स के बैग जैसे एप्लिकेशन
हमारे समाचार एप्लीकेशन हमें जुड़े रहने के लिए डिजाइन किए गए हैं. ‘कभी न खत्म होने वाले स्क्रोल' का विचार कोई भूल नहीं थी. यह एक मनोवैज्ञानिक चाल है जिसे 2000 के दशक की शुरुआत में शोधकर्ता ब्रायन वैनसिंक के ‘बॉटमलेस सूप बाउल एक्सपेरिमेंट' की मदद से चित्रित किया गया था.
इस प्रयोग में, प्रतिभागियों के एक समूह को सूप के ऐसे बाउल मिले जिसका कोई निचला हिस्सा नहीं था. इन बाउल में सूप को लगातार इस तरह से भरा गया कि प्रतिभागियों को पता नहीं चला. प्रयोग के नतीजे से यह जानकारी मिली कि इस समूह के लोगों ने उस दूसरे समूह की तुलना में 73 फीसदी अधिक सूप का सेवन किया जिन्हें तय मात्रा में सूप दिया गया था. ज्यादा सूप का सेवन करने वाले समूह के लोग ना तो यह बता सके कि उन्होंने अधिक सूप का सेवन किया और ना ही यह कहा कि उन्हें पेट भरा हुआ महसूस हुआ.
इसके अलावा, एप्लिकेशन डिजाइनर एक और ट्रिक इस्तेमाल करते हैं. वह है ‘पुल-टू-रिफ्रेश' फंक्शन. इस विचार को कैसिनों से लिया गया है. जैसे ही आप स्क्रीन को नीचे की ओर खींचते हैं, पेज फिर से लोड हो जाता है और आप इस उत्साह के साथ इंतजार करते हैं कि कोई नई खबर मिलने वाली है.
यह ठीक उसी तरह है जैसे पहले के जमाने में जुए की मशीनों को घुमाने के लिए लीवर को नीचे की ओर खींचना होता था. उस समय लोग यह उम्मीद करते थे कि इस बार उन्हें कुछ न कुछ इनाम मिलेगा. इस जीत की उम्मीद के इंतजार के दौरान हमारा दिमाग खुशी वाला हार्मोन डोपामाइन रिलीज करता है और हम जीत की उम्मीद में बार-बार ऐसा करना चाहते हैं. यही कारण है कि लोग हारने पर भी जुआ खेलते रहते हैं.
दिमाग में लगातार तनाव
परेशान करने वाली खबरें देखने और पढ़ने से हमारे सेरोटोनिन लेवल पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. हम थका हुआ, तनावग्रस्त, चिड़चिड़ा, मूडी महसूस करते हैं और सही से नींद नहीं आती है. ऐसी स्थिति में तनाव वाला हार्मोन कोर्टिसोल सक्रिय होता है. जब हम तनाव महसूस करते हैं, तो कोर्टिसोल हमें अस्थायी रूप से प्रोडक्टिव और सक्रिय महसूस करने में मदद कर सकता है. हालांकि, कोर्टिसोल का बढ़ा हुआ स्तर हानिकारक हो सकता है, क्योंकि इससे हम लगातार तनाव वाली स्थिति में आ सकते हैं.
डूमस्क्रॉलिंग अलग-अलग लोगों को अलग-अलग तरह से प्रभावित करता है. अध्ययनों के मुताबिक, बुरी खबरेंज्यादा पढ़ने से लोग अवसाद और तनाव का शिकार हो सकते हैं. ये लक्षण पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर वाले लोगों में दिखते हैं. मनोवैज्ञानिकों और मीडिया संस्थान हफिंगटन पोस्ट के संयुक्त अध्ययन से पता चला है कि जिन लोगों ने सुबह-सुबह बुरी खबरें पढ़ने में तीन मिनट बिताए थे, उनके छह से आठ घंटे बाद यह कहने की संभावना 27 फीसदी अधिक थी कि उनका दिन खराब रहा. उसी अध्ययन में शामिल एक अन्य समूह ने तथाकथित ‘समाधान-आधारित' समाचार पढ़ा और उनमें से 88 फीसदी ने कहा कि उनका दिन अच्छा गुजरा.
बुरी खबरें और मीडिया
मीडिया कंपनियों को पता है कि बुरी खबरों से उन्हें ज्यादा क्लिक मिल सकता है. ज्यादा क्लिक का मतलब है ज्यादा प्रसार और ज्यादा कमाई. हालांकि, सवाल यह है कि जब डूमस्क्रॉलिंग इतनी ज्यादा खतरनाक है, तो मीडिया घरानों को स्थिति में सुधार के लिए क्या करना चाहिए?
शोधकर्ता मारेन उर्नर ने कहा कि पत्रकारों को खुद से पूछना चाहिए कि ‘आगे क्या करना है'. कहानियां बताते समय किसी समस्या की जानकारी देना जरूरी है, लेकिन समाधान खोजना भी शोध का हिस्सा होना चाहिए.
खबर पढ़ने की आदत करें विचार
दुनिया में क्या चल रहा है, इस बारे में अपडेट रहना जरूरी है. हालांकि, आप हर समय अपडेट रहें, यह जरूरी नहीं है. इसलिए, दिन की शुरुआत करने का एक अच्छा तरीका यह है कि बिस्तर से उठते ही घर के सभी डिवाइसों को चालू करने से बचें. इस बात पर विचार करें कि आप कितनी खबरें पढ़ते हैं और ये खबरें कब पढ़नी चाहिए.
साथ ही, भरोसेमंद स्रोत, पूरी जानकारी वाली खबरें और कम क्लिकबेट वाली हेडलाइनें चुनकर डूमस्क्रॉल की इच्छा से लड़ें. समाचार पढ़ने के लिए एक समय तय करें, जैसे कि दोपहर में 20 से 30 मिनट. पूरे दिन लगातार स्क्रॉल करने से बचें. नोटिफिकेशन और ब्रेकिंग न्यूज अलर्ट बंद कर दें.
कोरोना वायरस महामारी के बाद भारत में युवाओं में हार्ट अटैक के मामले बढ़ जाने के बाद भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने इस विषय पर एक शोध किया है. आखिर हार्ट अटैक के मामले क्यों बढ़ रहे हैं.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी की रिपोर्ट-
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने इस मामले पर एक शोध किया है और कहा कि कोरोना के टीके से युवाओं में अचानक मौत का खतरा नहीं बढ़ा है, बल्कि टीके से खतरा कम हुआ है.
भारत में हार्ट अटैक से युवाओं की मौत के मामले हाल के दिनों में बढ़े हैं. कई मामले ऐसे सामने आए जिनमें लोग डांस करते हुए, गरबा खेलते हुए, गाना गाते हुए या फिर जिम में कसरत करते हुए हार्ट अटैक के शिकार हो गए.
देश में हार्ट अटैक से हुई अचानक मौतों के बाद आईसीएमआर ने एक स्टडी की थी. आईसीएमआर ने अपने शोध में कहा कि कोविड की वजह से अस्पताल में लंबे समय तक भर्ती रहना, ज्यादा मेहनत वाले काम करना या ज्यादा शराब पीना अचानक मौत के कुछ कारक हैं.
क्या कहता है शोध
आईसीएमआर के शोध में यह भी कहा गया है कि जिन लोगों को संक्रमण का गंभीर सामना करना पड़ा है, उन्हें कम से कम एक या दो साल तक अत्यधिक परिश्रम नहीं करना चाहिए. हालांकि यह शोध अभी तक कहीं प्रकाशित नहीं हुआ है. आईसीएमआर की रिपोर्ट की मानें तो, कोविड-19 के बाद दिल के मरीजों में 14 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई है.
आईसीएमआर ने अपने शोध के लिए भारत में 18-45 आयु वर्ग के स्वस्थ वयस्कों के बीच अचानक मौतों की जांच की. इस शोध से यह भी पता चला कि कोविड-19 वैक्सीन से अचानक मौत का खतरा नहीं बढ़ा है.
लोगों को क्यों हो रहे ज्यादा हार्ट अटैक
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया ने बीते दिनों एक बयान में कहा, "आईसीएमआर ने एक स्टडी जारी की है. स्टडी कहती है कि जिन्हें गंभीर कोविड हुआ, संक्रमण को ज्यादा वक्त ना हुआ हो...उन्हें ज्यादा शारीरिक मेहनत नहीं करनी चाहिए, तेज दौड़ने, हैवी वर्कआउट से बचना चाहिए. ये सावधानी एक से दो साल के लिए बरतनी है."
स्वास्थ्य मंत्री का यह बयान इस बार गरबा में बहुत ज्यादा मौतों के बाद आया है. अकेले गुजरात में नवरात्रि के जश्न के दौरान 473 लोगों की हार्ट अटैक के कारण मौत की शिकायतें अस्पतालों को मिली.
हेल्थ एक्सपर्ट कहते हैं कि अगर स्वास्थ्य मंत्री कह रहे हैं कि लोगों को ज्यादा मेहनत वाला काम या कठोर परिश्रम नहीं करना चाहिए तो उसके लिए सरकार ही एक पॉलिसी बनाए और बताए कि जिन लोगों का ऐसा पेशा है तो उनके लिए सरकार की क्या नीतियां हैं.
लंदन में सीनियर फिजिशियन और मेदांता अस्पताल में काम कर चुके डॉ. शुभांक सिंह डीडब्ल्यू से कहते हैं, "सरकार को ऐसा तंत्र बनाना चाहिए...जिसको भी गंभीर कोविड हुआ और उसके पास इसके सबूत हैं, तो सरकार कोई ऐसा तंत्र बनाए जिससे उन्हें दो साल तक नौकरी में आराम की सुविधा मिल सके."
डॉ. शुभांक सिंह कहते हैं कि जिस पेशे में भारी वजन उठाना पड़ता है, वैसे लोगों के लिए सरकार को जरूर कुछ नीति पेश करनी चाहिए ताकि उन्हें काम में आराम मिल सके.
लक्षण को ना करें नजरअंदाज
साथ ही डॉ. शुभांक सिंह कहते हैं कि जिन लोगों को गंभीर कोविड हुआ था या फिर वे लोग जो ऑक्सीजन सपोर्ट पर थे या उन्हें रेमडेसिविर दिया गया था तो उन्हें लाइफस्टाइल में बदलाव लाना पड़ेगा और उन्हें रेगुलर चेकअप कराना चाहिए.
वो कहते हैं कि जिसको मॉडरेट कोविड हुआ था, वे साल में एक बार तो जरूर कॉर्डियोलॉजिस्ट से चेकअप कराएं और जिन्हें गंभीर कोविड हुआ था वह साल में दो बार कॉर्डियोलॉजिस्ट से चेकअप कराएं.
डॉ. शुभांक सिंह का कहना है कि कई बार लोग शुरुआती लक्षणों को नजरअंदाज कर देते हैं जैसे कि एक-दो सीढ़ियां चढ़ने पर सांस फूल जाना, जल्दी सांस फूलना, छाती में बार-बार दर्द होना या पैरों में सूजन आ जाना, अगर ये लक्षण दिखते हैं तो इसे नजरअंदाज नहीं करना चाहिए और चेकअप करा लेना चाहिए.
कई कार्डियोलॉजिस्ट कहते हैं कि कोविड संक्रमण की वजह से कुछ लोगों में मायोकार्डिटिस हो गया है. यह वायरस के संक्रमण की वजह से होता है. इसमें दिल की मांसपेशी यानी मायोकार्डिटिस में सूजन आ जाती है. इससे दिल कमजोर हो जाता है. विशेषज्ञों का कहना है कि कोविड का संक्रमण दिल को नुकसान पहुंचाता है, जिसकी वजह से अचानक हार्ट अटैक का खतरा बढ़ जाता है. (dw.com)
वैज्ञानिकों ने ऐसी तकनीक विकसित की है, जिसके जरिए केवल 10 सेकेंड में यह पता लगाया जा सकता है कि किसी व्यक्ति को डाइबिटीज है या नहीं. यह एआई की मदद से संभव है. भारत में डायबिटीज के करीब 10 करोड़ मरीज हैं.
डॉयचे वैले पर स्वाति बक्शी की रिपोर्ट-
इस नई खोज की वजह से टाइप-2 डायबिटीज यानी मधुमेह का पता लगाना बेहद आसान हो जाएगा. इसके लिए जरूरत होगी अपने स्मार्टफोन में केवल दस सेकेंड तक बोलते रहने की. अमेरिका के मेयो क्लिनिक के प्रोसीडिंग्सः डिजिटल हेल्थ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक वैज्ञानिकों ने लोगों की सेहत के बुनियादी डाटा जैसे उम्र, सेक्स, ऊंचाई और वजन के साथ-साथ आवाज के छह से दस सेकेंड लंबे सैंपल लेकर एआई मॉडल विकसित किया, जिसकी मदद से पता चल सके कि व्यक्ति को टाइप-2 डायबिटीज है या नहीं.
इस मॉडल का डायग्नोसिस 89 फीसदी महिलाओं और 86 फीसदी पुरुषों के मामले में सही साबित हुआ. अमेरिका की क्लिक लैब ने यह एआई मॉडल तैयार किया है, जिसमें वॉइस टेक्नॉलजी के साथ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करके मधुमेह का पता लगाने में प्रगति हुई है.
कुछ वक्त पहले ब्रिटिश मेडिकल जर्नल लांसेट में छपे इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के शोध के मुताबिक भारत के कुछ राज्यों में मधुमेह के मामले तेजी से बढ़े हैं. करीब दस करोड़ भारतीय लोग इस बीमारी से जूझ रहे हैं.
क्लिक लैब्स का कमाल
लैब से जुड़ी वैज्ञानिक जेसी कॉफमैन ने कहा, "हमारा शोध डायबिटीज और बिना डायबिटीज वाले लोगों की आवाज में महत्वपूर्ण उतार-चढ़ाव दिखाता है और इससे डायबिटीज का पता लगाने की प्रक्रिया पूरी तरह से बदल सकती है. फिलहाल जो तरीके इस्तेमाल होते हैं, उनमें बहुत वक्त लगता है, आना-जाना पड़ता है और ये महंगे पड़ सकते हैं. वॉइस टेक्नॉलजी में यह संभावना है कि इन सारी रुकावटों को पूरी तरह से दूर कर दे.
इस अध्ययन में 18,000 आवाजों का इस्तेमाल हुआ, ताकि पता लगाया जा सके कि डायबिटीज के मरीजों और दूसरे लोगों की ध्वनियों में क्या फर्क है. सिग्नल प्रोसेसिंग के जरिए आवाज के सुर और गहनता में अंतर पता लगाया गया, जो सामान्य तौर पर इंसानी कानों को सुनाई नहीं देता.
बड़े काम की तकनीक
इस नई तकनीक के जरिए दुनियाभर में ऐसे 24 करोड़ लोगों को बहुत मदद मिलेगी, जो टाइप-2 डायबिटीज के शिकार हैं, लेकिन उन्हें इसका पता ही नहीं है. यह आंकड़ा इंटरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन का है.
यह ताजा रिसर्च हेल्थकेयर में एआई के बढ़ते रोल की तरफ इशारा करती है, जहां मशीन लर्निंग मॉडल और डाटा साइंस का मेल रोगियों के इलाज और मेडिकल प्रक्रिया को आसान बनाने में मददगार है. रिसर्चरों का दावा है कि यह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस मॉडल, जो सेहत से जुड़े बुनियादी डाटा का इस्तेमाल करते हैं, ताकि मधुमेह का पता लगाया जा सके, इनका इस्तेमाल दूसरी बीमारियों का पता लगाने में भी हो सकता है. (dw.com)
एक शोध के मुताबिक लंबे समय तक बैठे रहने से होने वाली मृत्यु के जोखिम को साइकिल चलाने, रेजिस्टेंस ट्रेनिंग, बागवानी जैसी सिर्फ 20-25 मिनट की शारीरिक गतिविधि से कम किया जा सकता है.
ब्रिटिश जर्नल ऑफ स्पोर्ट्स मेडिसिन में ऑनलाइन प्रकाशित अध्ययन से पता चला है कि शारीरिक गतिविधि की उच्च क्षमता कम जोखिम से जुड़ी हुई है, भले ही हर दिन बैठे रहने में कितना समय बिताया जाए.
नॉर्वे में ट्रोम्सो विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने कहा अत्यधिक गतिहीन जीवनशैली मृत्यु के बढ़ते जोखिम से जुड़ी है.
कम से कम 50 वर्ष की आयु के लगभग 12,000 लोगों के अध्ययन से पता चला है कि आठ घंटे की दैनिक गणना की तुलना में दिन में 12 घंटे से अधिक समय तक बैठे रहने से मृत्यु का खतरा 38 प्रतिशत बढ़ जाता है.
हर दिन 22 मिनट से अधिक की मध्यम से तीव्र शारीरिक गतिविधि मृत्यु के कम जोखिम से जुड़ी थी.
जबकि, जोरदार शारीरिक गतिविधि मृत्यु के कम जोखिम से जुड़ी थी, गतिहीन जीवनशैली और मृत्यु के बीच संबंध को काफी हद तक शारीरिक गतिविधि से दूर किया जा सकता है.
उदाहरण के लिए दिन में 10 मिनट की शारीरिक गतिविधि 10.5 से कम घंटे बिताने वालों में मृत्यु के 15 प्रतिशत कम जोखिम से जुड़ी थी. वहीं प्रतिदिन 10.5 घंटे से अधिक गतिहीन समय बिताने वालों में यह जोखिम 35 प्रतिशत कम था.
वहीं शारीरिक गतिविधि में ज्यादा कैलोरी बर्न करने वाले लोग जो रोजाना 12 घंटे से अधिक काम करते हैं उनमें मृत्यु का जोखिम कम था.
शोधकर्ताओं ने कहा यह एक अवलोकन अध्ययन है और इस प्रकार, कारण और प्रभाव स्थापित नहीं किया जा सकता है.
शोधकर्ताओं ने कहा, "कम शारीरिक गतिविधि भी मृत्यु दर के जोखिम को कम करने के लिए एक प्रभावी रणनीति हो सकती है. वहीं अगर 22 मिनट से अधिक शारीरिक गतिविधि की जाए तो यह जोखिम समाप्त कर देती है."
शोधकर्ताओं ने कहा, "शारीरिक गतिविधि को बढ़ावा देने के प्रयासों से व्यक्तियों के लिए पर्याप्त स्वास्थ्य लाभ हो सकते हैं."
एए/सीके (रॉयटर्स)
धरती पर ऐसे बहुत से जीव हैं जिनमें मस्तिष्क नहीं होता. लेकिन वे सीख रहे हैं और विज्ञान की इस समझ को चुनौती दे रहे हैं कि सीखने के लिए जटिल मस्तिष्क की जरूरत होती है.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
जेली फिश, कोरल, फुंगी, बैक्टीरिया और चिकनी काई, ये ऐ तमाम ऐसे जीव हैं जिनके पास मस्तिष्क नहीं होता. लेकिन इस बात से इनके विकास में कोई फर्क नहीं पड़ता. इस तथ्य ने वैज्ञानिकों को सोचने पर मजबूर किया है कि क्या मस्तिष्क के बिना जीवन संभव है.
सेंसरी एंड ईवॉल्यूशनरी इकोलॉजी लैब के निदेशक डॉ. टॉम व्हाइट ने इस बारे में गहन शोध किया है. ‘कन्वर्सेशन' पत्रिका में छपे लेख में डॉ. व्हाइट कहते हैं कि मस्तिष्क जैविक विकास की यात्रा का एक अद्भुत नतीजा है. वह लिखते हैं, "इस केंद्रीय अंग के व्यवहार को नियंत्रित करके इंसान समेत सभी प्राणी अप्रत्याशित माहौल में प्रतिक्रिया करने और फलने-फूलने की क्षमता हासिल करते हैं. सीखने का गुण बेहतर जीवन का मूल मंत्र साबित हुआ है.”
कितना जरूरी है मस्तिष्क?
बहुत से वैज्ञानिक इस सवाल से जूझते रहे हैं कि जिन प्राणियों के पास सीखने की यह क्षमता नहीं है, अगर वे भी विकसित हो रहे हैं, तो जीवन में मस्तिष्क की भूमिका कितनी अहम है. जेली फिश या फुंगी जैसे जीव सीखने की यह क्षमता नहीं रखते हैं पर उनका अस्तित्व इससे ज्यादा प्रभावित नहीं हुआ है.
सिडनी यूनिवर्सिटी में सीनियर लेक्चरर डॉ. व्हाइट लिखते हैं, "सीखना दरअसल व्यवहार में बदलाव करना है. यह कई तरीके का हो सकता है. नॉन-एसोसिएटिव यानी बिना किसी सीधे जुड़ाव के सीखना इस पूरी प्रक्रिया के एक सिरे पर है. आपने देखा होगा कि लोग टीवी या ट्रैफिक के शोर को बंद कर देते हैं. यह बार-बार के अनुभव से सीखना है.”
इसी तरह एसोसिएटिव लर्निंग यानी जुड़ाव से सीखना है जो व्यवहार आधारित होती है. मसलन, खुश्बू आते ही खाने के लिए चले आना या दूध उबलने की आवाज आने पर ही गैस बंद कर देना इसी तरह का सीखना है. परागकणों की खुश्बू से मधुमक्खियां फूलों तक पहुंच जाती है, यह उन्होंने सीखा है.
जटिल मस्तिष्क
भाषा, संगीत या इस तरह के कौशल सीखना ज्यादा जटिल प्रक्रियाएं हैं क्योंकि उसमें शरीर के विभिन्न हिस्सों का सामंजस्य बनाना सीखना होता है. यह सोचने की क्षमता का प्रतीक है. इसके लिए मस्तिष्क के भीतर एक विशेष ढांचे की जरूरत होती है. इसलिए यह कौशल कुछ विशेष प्रजातियों तक सीमित है जिनमें गणना की क्षमता है, यानी जिनका मस्तिष्क ज्यादा जटिल है.
हाल ही में प्रकाशित एक शोध में वैज्ञानिकों ने दिखाया कि मस्तिष्क रहित जीव बॉक्स जेली फिश में सीखने की क्षमता है. पिछले हफ्ते ‘जर्नल ऑफ करंट बायोलॉजी' में प्रकाशित यह शोध कहता है कि कैरेबियाई मैंग्रोव जंगलों में यह पाया जाने वाला जीव बॉक्स जेली फिश धूप और छाया में आना-जाना सीख गया है.
हालांकि बॉक्स जेली फिश अन्य जेली फिश से अलग होते हैं. इनके पास 24 आंखें होती हैं. लेकिन मस्तिष्क इनके पास भी नहीं होता और अपने शरीर को ये न्यूरॉन्स के जरिये नियंत्रित करते हैं.
मस्तिष्क के बिना सीखना
जेली फिश और कुछ अन्य समुद्री जीव प्राणियों के सबसे शुरुआती पूर्वजों में से हैं और उनके पास केंद्रीय मस्तिष्क नहीं होता. इसके बावजूद ये ऐसे कई काम करते हैं, जिनमें सीखने की क्षमता की जरूरत होती है. मसलन, बीडलेट एनेमन नामक जीव अन्य जीवों को अपने इलाके में नहीं आने देते और किसी भी घुसपैठ का हिंसक विरोध करते हैं. लेकिन जब इन्हीं की प्रजाति के जीव इलाके में आते हैं तो ये जीव धीरे-धीरे उन्हें पहचानने लगते हैं और अपना हिंसक व्यवहार बदल लेते हैं.
शोधकर्ता और साइंस पत्रकार एरिका टेनीहाउस कहती हैं कि जेली फिश, घोंघे और स्टारफिश जैसे जीवों ने यह साबित किया है कि सीखने के लिए मस्तिष्क की जरूरत नहीं होती. न्यू साइंटिस्ट पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में टेनीहाउस लिखती हैं, "ये बहुत साधारण से नजर आने वाले जीव बहुत अच्छे सीखने वाले हैं. और यह कोई बहुत हैरत की बात नहीं है क्योंकि उनमें स्नायु कोशिकाएं तो होती हैं. असल में सीखना स्नायु कोशिकाओं से जुड़ा मसला है और इनके शरीर में ये कोशिकाएं किसी एक जगह पर केंद्रित होने के बजाय कई जगहों में पसरी होती हैं.”
विज्ञान को चुनौती
लेकिन डॉ. व्हाइट कहते हैं कि ऐसे कई शोध हो चुके हैं जिन्होंने साबित किया है कि बिना स्नायु कोशिकाओं के भी सीखना संभव है. खाने के लिए रास्ता खोजना और उसे याद रखना, पहले के अनुभवों के आधार पर अपना व्यवहार बदलना और यहां तक कि किसी कड़वी चीज को एक बार चख लेने के बाद उसे दोबारा ना चखना ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं.
डॉ. व्हाइट कहते हैं कि पौधों को भी मस्तिष्क-रहित सोचने वाले जीवों में रखा जा सकता है. जैसे वीनस फ्लाईट्रैप अपने शिकार के स्पर्श को याद रखते हैं. इसी क्षमता के कारण वे सही समय पर पत्तों को बंद कर लेते हैं जिससे शिकार फंस जाता है. लेकिन वे उसे पचाने की क्रिया तभी शुरू करते हैं जब यह सुनिश्चित कर लें कि फंसा हुआ शिकार भरपूर पोषक भोजन है.
डॉ. व्हाइट कहते हैं, "सीखना सिर्फ मस्तिष्क से जुड़ी गतिविधि नहीं है. जैसे-जैसे मस्तिष्क-रहित जीवों में ज्ञान संबंधी क्षमताएं होने के सबूत मिल रहे हैं, संवेदनाएं, सोचना और आमतौर पर व्यवहार के विज्ञान को चुनौतियां मिल रही हैं.” (dw.com)
दुनिया में करीब 5.5 करोड़ लोग डिमेंशिया से पीड़ित हैं. दिमाग की कोशिकाएं क्यों मरती हैं इस बारे में हुई नई रिसर्च से वैज्ञानिकों को अल्जाइमर की कारगर दवाएं बनाने में मदद मिली है.
डॉयचे वैले पर अलेक्जांडर फ्रॉएंड की रिपोर्ट-
निया मेंडिमेंशिया से पीड़ित 5.5 करोड़ लोगों में एक बड़ी संख्या अल्झाइमर के रोगियों की है. डिमेंशिया से पीड़ित दो तिहाई लोग विकासशील देशों में रहते हैं. दुनिया की आबादी जिस तरीके से बूढ़ी हो रही है उससे अनुमान है कि 2050 तक डिमेंशिया के मरीजों की संख्या 13.9 करोड़ तक पहुंच जाएगी. इससे चीन, भारत, लातिन अमेरिका और उप सहारा अफ्रीका के देशों में रहने वाले लोग सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे.
रिसर्चर अल्जाइमर के इलाज के लिए कई दशकों से काम कर रहे हैं लेकिन उन्हें अब तक सीमित सफलता ही मिल सकी है. अब इस दिशा में एक नई उम्मीद जगी है. एक्टिव एजेंट लेकानेमाब की खोज के बाद खासतौर से रिसर्चर बहुत उत्साहित हैं. इस दवा को अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने मंजूरी दे दी है. इस दवा से ऐसे संकेत मिले हैं कि यह अल्जाइमर के शुरूआती दौर में उसके विकास को धीमा कर देती है.
दिमाग में जटिल प्रक्रियाएं
अल्जाइमर को रोकने के लिए दवा विकसित करना चुनौतीपूर्ण है क्योंकि रिसर्चर अभी तक यह पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं कि बीमारी की चपेट में आने के बाद दिमाग में क्या होता है. सबसे बड़ा सवाल यह है कि दिमाग की कोशिकाएं मरती क्यों हैं?
रिसर्चर यह जानते हैं कि एमिलॉयड और टाउ प्रोटीन दिमाग में विकसित होते हैं हालांकि हाल तक वो यह नहीं जानते थे कि ये दोनों साथ में कैसे काम करते हैं या कोशिकाओं की मौत पर असर डालते हैं. बेल्जियम और ब्रिटेन के रिसर्चरों का कहना है कि वो यह समझा सकते हैं कि अब क्या हो रहा है?
कोशिकाओं की मौत का रहस्य सुलझा
साइंस जर्नल में छपी रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक रिसर्चरों का कहना है कि इन असामान्य प्रोटीनों एमिलॉयड और टाउ के बीच एक सीधा संबंध है जिसे नेक्रोप्टोसिस या कोशिका की मौत कहा जाता है.
कोशिका की मौत आमतौर पर किसी संक्रमण या फिर सूजन के जवाब में प्रतिरक्षा है और यह शरीर को अवांछित कोशिकाओं से मुक्ति दिलाती है. इसकी वजह से शरीर में फिर स्वस्थ कोशिकाओं का विकास होता है. जब पोषक तत्वों की आपूर्ति रुक जाती है तो कोशिकाएं फूलने लगती हैं और प्लाज्मा झिल्ली नष्ट हो जाती है. कोशिकाएं फूल कर मर जाती हैं.
रिसर्चरों का कहना है कि अल्जाइमर के मरीज की कोशिकाएं दिमाग के न्यूरॉन्स में एमिलॉयड प्रोटीन के जाने से सूज जाती हैं. इसकी वजह से कोशिकाओं में आंतरिक रसायनों के गुण बदल जाते हैं. एमिलॉयड तथाकथित प्लेक के साथ झुंड बना लेते हैं और फाइबर जैसी टाउ प्रोटीन अपने बंडल बना लेते हैं जिन्हें टाउ टैंगल कहा जाता है.
जब ये दो चीजें होती हैं तो दिमाग की कोशिकाएं एक मॉलिक्यूल बनाती हैं जिसे एमईजी3 कहा जाता है. रिसर्चरों ने एमईजी3 को बनने से रोका और उनका कहना है कि जब वो उसे रोक सके तो दिमाग की कोशिकाएं जिंदा बच गईं.
यह काम करने के लिए रिसर्चरों ने इंसान के दिमाग की कोशिकाओं को जेनेटिकली मोडिफाइड चूहों के दिमाग में डाला जो बड़ी मात्रा में एमिलॉयड बनाते हैं.
ब्रिटेन की डिमेंशिया रिसर्च इंस्टिट्यूट के रिसर्चर ने बताया कि तीन चार दशकों में पहली बार अल्जाइमर के मरीजों में कोशिकाओं की मौत के संभावित कारण को समझने में सफलता मिली है.
नई दवाओं के लिए उम्मीद
बेल्जियम के केयू लॉयवेन और ब्रिटेन के डिमेंशिया रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के रिसर्चरों का कहना है कि उन्हें इस नई खोज से अल्जाइमर के मरीजों के लिए नई दवाओं और इलाज के विकास में मदद मिलने की उम्मीद है.
उनकी उम्मीद बेमानी नहीं है. लेकानेमैब दवा खासतौर से प्रोटीन एमिलॉयड को निशाना बनाती है. अगर एमईजी3 मॉलिक्यूल को बनने से रोका जा सका तो यह दवा दिमाग में कोशिकाओं की मौत को रोकने में सफल होगी. (dw.com)
एक ताजा शोध में कहा गया कि पिछले तीन दशकों में दुनिया भर में कैंसर से पीड़ित 50 साल से कम उम्र के लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है. लेकिन यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो पाया है कि ऐसा क्यों हो रहा है.
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल (ऑन्कोलॉजी) में छपे ताजा शोध के मुताबिक 1990 से लेकर 2019 के बीच 14 साल से लेकर 49 वर्ष के लोगों में कैंसर के मामले 18.2 करोड़ से बढ़कर 32.6 करोड़ हो गए हैं. शोध कहता है पिछले 30 सालों में 50 साल से कम उम्र के लोगों में कैंसर के मामलों में 80 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है.
कुछ विशेषज्ञों के अनुसार कैंसर फैलने का कारण वैश्विक जनसंख्या में वृद्धि है, जबकि कई अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि पचास वर्ष से कम उम्र के लोगों में निदान का चलन बढ़ा है और इसीलिए कैंसर के मामले भी सामने आ रहे हैं.
क्यों बढ़ रहा है कैंसर
हालांकि इस नए अध्ययन को करने वाले शोधकर्ताओं ने खराब आहार, तंबाकू और शराब के सेवन को कैंसर के खतरे को बढ़ाने वाले मुख्य कारकों के रूप में पहचाना है. अध्ययन में आगे कहा गया है कि कैंसर जैसी बीमारियों के तेजी से फैलने के पीछे के सभी कारण अभी भी अज्ञात हैं.
शोधकर्ताओं ने कहा लेकिन "शुरूआत में कैंसर के बोझ की बढ़ती प्रवृत्ति अभी भी स्पष्ट नहीं है." शोध में कहा गया है कि 2019 में 50 साल से कम उम्र के दस लाख लोगों की कैंसर से मौत हुई, जो 1999 की तुलना में 28 प्रतिशत अधिक है.
शोध के मुताबिक सबसे घातक कैंसर स्तन, फेफड़े, विंड पाइप और पेट के थे, जबकि पिछले तीन दशकों में स्तन कैंसर का सबसे अधिक निदान किया गया था. लेकिन जो कैंसर सबसे तेजी से फैलता या बढ़ता है वह नासॉफिरिन्क्स का होता है. यह वह जगह है जहां नाक का पिछला हिस्सा गले के ऊपरी हिस्से और प्रोस्टेट से मिलता है.
साल 1990 और 2019 के बीच प्रारंभिक शुरुआत वाले विंड पाइप और प्रोस्टेट कैंसर में वार्षिक 2.28 फीसदी और 2.23 फीसदी की बढ़ोतरी हुई.
इस अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने दुनिया के 204 देशों में 29 विभिन्न कैंसर की दरों का विश्लेषण करने के साथ-साथ 2019 के "ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी" के डेटा का इस्तेमाल किया है.
अध्ययन में कहा गया है कि कोई देश जितना अधिक विकसित होगा, 50 वर्ष से कम उम्र के लोगों में कैंसर होने की संभावना उतनी ही अधिक होगी.
2030 तक कैंसर और विकराल रूप लेगा
अध्ययन में कहा गया है कि इससे पता चलता है कि बेहतर स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली वाले अमीर देश कैंसर को पहले पकड़ लेते हैं, लेकिन केवल कुछ ही देश 50 से कम उम्र के लोगों में कैंसर के कुछ प्रकार की जांच कर पाने में सफल रहते हैं.
इन ट्रेंड्स के आधार पर शोधकर्ताओं ने अनुमान लगाया है कि 50 से कम उम्र के लोगों में वैश्विक कैंसर के मामलों की संख्या 2030 तक 31 प्रतिशत बढ़ जाएगी, ऐसा ज्यादातर 40-49 आयु वर्ग के लोगों में होगा.
एए/सीके (एएफपी)
प्रयागराज (यूपी), 3 सितंबर। इलाहाबाद विश्वविद्यालय (एयू) के पूर्व छात्र सहित विभिन्न देशों के वैज्ञानिकों ने एक शोध निष्कर्ष में दावा किया है कि तंबाकू का पत्ता कैंसर के कई रूपों से लड़ने की क्षमता रखता है।
यह निष्कर्ष एक हैरान करने वाला विरोधाभास पेश करता है, क्योंकि डब्ल्यूएचओ के अनुसार, तंबाकू का उपयोग दुनियाभर में कैंसर से संबंधित सभी मौतों में से एक चौथाई के लिए जिम्मेदार है और फेफड़ों के कैंसर का प्राथमिक कारण बना हुआ है।
यूके में टेलर एंड फ्रांसिस लिमिटेड के प्रकाशन 'जर्नल ऑफ बायोमोलेक्यूलर स्ट्रक्चर एंड डायनेमिक्स' में एयू के पूर्व छात्र अमित दुबे, भारतीय वैज्ञानिक आयशा तुफैल और मलेशियाई शोधकर्ताओं मिया रोनी और प्रोफेसर ए.के.एम. मोयेनुल हक के साथ की गई उल्लेखनीय खोज प्रकाशित हुई है।
शोध निष्कर्ष के अनुसार, "4-[3-हाइड्रॉक्सीनिलिनो]-6,7-डाइमेथॉक्सीक्विनाज़ोलिन" नामक एक अद्वितीय कैंसर-रोधी तत्व तंबाकू के पत्तों से निकाला जा सकता है, जिसका कोई स्पष्ट दुष्प्रभाव नहीं होता है।
अमित दुबे ने बताया, “कैंसर कोशिकाओं का प्रसार, अस्तित्व, आसंजन, प्रवासन और विभेदन सभी एपिडर्मल ग्रोथ फैक्टर रिसेप्टर (ईजीएफआर) से महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित होते हैं। ट्यूमर कोशिकाओं की दीवारों में ईजीएफआर होता है। उन्हें जीवित रहने और विकसित होने के लिए इस प्रोटीन की आवश्यकता होती है।''
अनुसंधान टीम ने ईजीएफआर प्रोटीन को लक्षित करने वाले ड्रग बैंक तत्वों की स्क्रीनिंग के लिए एक सहयोगात्मक दृष्टिकोण का उपयोग किया।
इसे ड्रग बैंक के माध्यम से अलबर्टा विश्वविद्यालय और अलबर्टा कनाडा में मेटाबोलॉमिक्स इनोवेशन सेंटर द्वारा बनाए गए एक व्यापक फ्री-एक्सेस ऑनलाइन डेटाबेस के माध्यम से सुविधाजनक बनाया गया था, जहां से टीम ने अपने अध्ययन के लिए तंबाकू के पत्तों में पाए जाने वाले तत्व को प्राप्त किया था।
अमित ग्रेटर नोएडा में क्वांटा कैलकुलस प्राइवेट लिमिटेड में वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं। (आईएएनएस)
न्यूयॉर्क, 19 अगस्त । अकेले रहने से लोगों में सोचने की क्षमता कमजोर होती है, ऐसे लोग अक्सर अपॉइंटमेंट्स भूल जाते हैं, समय पर मेडिसिन नहीं ले पाते, उनके पास इमरजेंसी के समय भी कांटेक्ट करने के लिए कोई नहीं होता है। नए शोध से ये खुलासा हुआ है।
जामा नेटवर्क ओपन में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, ऐसे रोगियों के लिए, अकेले रहना स्वास्थ्य का एक सामाजिक निर्धारक है जिसका प्रभाव गरीबी, नस्लवाद और कम शिक्षा जितना गहरा है।
एक अनुमान के अनुसार, 4 में से 1 वृद्ध अमेरिकी अकेला रहता है और इन्हें डीमेंसिआ है। इनको असुरक्षित ड्राइविंग, घर से बाहर घुमते समय भटक जाना, समय पर मेडिसिन नहीं लेना और मेडिकल अपॉइंटमेंट्स मिस कर जाने का खतरा होता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया-सैन फ्रांसिस्को (यूसीएसएफ) इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ एंड एजिंग की ऐलेना पोर्टाकोलोन ने कहा, "ये निष्कर्ष हमारी स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली पर प्रहार है, जो सभी के लिए घरेलू देखभाल सहायता प्रदान करने में विफल है।"
इस अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने 76 स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं का साक्षात्कार लिया, जिनमें चिकित्सक, नर्स, सामाजिक कार्यकर्ता, केस वर्कर, घरेलू देखभाल सहायक और अन्य शामिल थे।
प्रदाताओं ने रोगियों द्वारा मेडिकल अपॉइंटमेंट्स मिस करने, डॉक्टर के फ़ोन कॉल का उत्तर देने में विफल रहने और यह भूल जाने कि अपॉइंटमेंट्स क्यों की गई थीं, के बारे में चिंताएं व्यक्त कीं।
एक साक्षात्कार में एक चिकित्सक ने कहा, "जरूरी नहीं कि हमारे पास वास्तव में उन तक पहुंचने का प्रयास करने के लिए कर्मचारी हों।"
कुछ मरीज़ अपने डॉक्टर को पूरी जानकारी नहीं मुहैया करा सके, जिससे डॉक्टर सही से इलाज नहीं कर सके।
एक केस मैनेजर के अनुसार, कई लोगों के पास इमरजेंसी कांटेक्ट के लिए कोई नाम नहीं था, "परिवार का कोई सदस्य नहीं, संकट की स्थिति में भरोसा करने के लिए कोई दोस्त भी नहीं"।
अध्ययन में कहा गया है कि इन रोगियों को समर्थन देने वाले अस्थिर बुनियादी ढांचे का एक परिणाम यह था कि उनकी पहचान तब तक नहीं की जाती थी जब तक कि उन्हें अस्पताल नहीं भेजा जाता था।
यूसीएसएफ प्रभाग के लेखक केनेथ ई. कोविंस्की ने कहा, "हमें याद रखने की जरूरत है कि मेडिकेयर और अन्य भुगतानकर्ता डीमेंसिआ से पीड़ित कमजोर लोगों को आवश्यक सहायता प्रदान करने के लिए पैसे देने से इनकार करते हैं, जबकि खर्च काफी कम होता है।" (आईएएनएस)।
न्यूयॉर्क, 19 अगस्त । कम नमक और चीनी के साथ वेज खाना, पर्याप्त आराम, थोड़ी कसरत और सोशल लाइफ मृत्यु का जोखिम 28 प्रतिशत और कैंसर का जोखिम 29 प्रतिशत कम करता है। एक नए शोध में ये पाया गया है।
यूके में जो लोग भूमध्यसागरीय जीवनशैली यानि मेडिटेरेनियन लाइफस्टाइल का पालन करते हैं, उनमें सभी कारणों और कैंसर से मृत्यु दर का जोखिम कम पाया गया।
शोधकर्ताओं ने यूके बायोबैंक समूह के 110,799 सदस्यों की आदतों का विश्लेषण किया, जो इंग्लैंड, वेल्स और स्कॉटलैंड में भूमध्यसागरीय जीवन शैली (मेडलाइफ) का उपयोग करते हैं।
शोध लिखने वाले प्रमुख लेखक मर्सिडीज सोतोस प्रीतो ने कहा, मैड्रिड के स्वायत्त विश्वविद्यालय (एयूएम) और हार्वर्ड टी.एच. चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के अध्ययन में सुझाव है कि गैर-भूमध्यसागरीय आबादी के लिए स्थानीय रूप से उपलब्ध उत्पादों का उपयोग कर भूमध्यसागरीय आहार को अपनाना संभव है।
हार्वर्ड चैन स्कूल में पर्यावरणीय स्वास्थ्य के सहायक सहायक प्रोफेसर प्रीटो ने कहा, "हम जीवनशैली में परिवर्तन और स्वास्थ्य पर इसके सकारात्मक प्रभाव देख रहे हैं।"
अध्ययन में प्रतिभागियों की उम्र 40 से 75 वर्ष के बीच थी। उन्होंने सूचकांक द्वारा मापी गई तीन श्रेणियों के अनुसार अपनी जीवनशैली के बारे में जानकारी प्रदान की - भूमध्यसागरीय भोजन की खपत; भूमध्यसागरीय आहार संबंधी आदतें' और 'शारीरिक गतिविधि, आराम, और सोशल लाइफ'।
अध्ययन में शामिल लोगों में से, 4,247 का किसी न किसी बीमारी से निधन हो गया; 2,401 कैंसर से; और 731 हृदय रोग से मारे गए।
शोधकर्ताओं ने भूमध्यसागरीय लाइफस्टाइल के पालन और मृत्यु दर के जोखिम के बीच एक विपरीत संबंध देखा।
भूमध्यसागरीय लाइफस्टाइल का स्वतंत्र रूप से पालन सभी कारणों और कैंसर मृत्यु दर के जोखिम को कम करने से जुड़ा था।
शोधकर्ताओं ने कहा, "शारीरिक गतिविधि, आराम, और सोशल लाइफ" कम जोखिम सबसे मजबूती से जुड़ा हुआ था, और इसके अलावा हृदय रोग मृत्यु दर का जोखिम भी कम था। (आईएएनएस)।
एक अध्ययन से यह बात सामने आई है कि महिलाओं में होने वाले अल्जाइमर और यादाश्त कम हाने जैसे रोगों को सांसों पर ध्यान केंद्रित करने वाली योग क्रिया के माध्यम से ठीक किया जा सकता है.
यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, लॉस ऐंजलेस (यूसीएलए) के शोधकर्ताओं ने पाया कि जिस प्रकार एमआरआई का इस्तेमाल करके मस्तिष्क के क्षेत्रों और उप-क्षेत्रों में गतिविधि को मापा जाता है, उसी तरह 'कुंडलिनी योग' तनाव से प्रभावित मस्तिष्क के एक क्षेत्र में गतिविधि को बढ़ाता है, जिससे यादाश्त तेज होती है.
जर्नल ऑफ अल्जाइमर डिजीज के ऑनलाइन प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ताओं ने हिप्पोकैम्पस के उप-क्षेत्रों में कनेक्टिविटी पर स्मृति वृद्धि प्रशिक्षण (एमईटी) के दृष्टिकोण की तुलना में योग के प्रभावों का अध्ययन किया, जो सीखने और स्मृति के लिए मस्तिष्क का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है. एमईटी उन तकनीकों से यादाश्त सुधारने के लिए मौखिक और दृश्याों का सहारा लेते हैं.
यूसीएलए में लेट-लाइफ, मूड स्ट्रेस एंड वेलनेस रिसर्च प्रोग्राम की निदेशक और मनोचिकित्सक डॉ. हेलेन लावरेत्स्की ने कहा कि 'कुंडलिनी योग' प्रशिक्षण तनाव से संबंधित हिप्पोकैम्पस कनेक्टिविटी को बेहतर ढंग से लक्षित करता है, जबकि एमईटी हिप्पोकैम्पस के संवेदी-एकीकरण उप-क्षेत्रों को बेहतर ढंग से लक्षित कर सकता है, जो बेहतर स्मृति विश्वसनीयता का समर्थन करता है.
अध्ययन में 22 प्रतिभागियों को शामिल किया गया जो अल्जाइमर जोखिम पर योग के प्रभावों का अध्ययन करने वाले एक बड़े स्वतंत्र नियंत्रित परीक्षण का हिस्सा थे. 11 योग प्रतिभागियों की औसत आयु लगभग 61 थी, जबकि एमईटी समूह में यह आयु लगभग 65 रखी गई थी. सभी ने पिछले वर्ष के दौरान यादाश्त में गिरावट की रिपोर्ट की थी. साथ ही उनमें हृदय संबंधी जोखिम था, जो अल्जाइमर रोग के जोखिम को भी बढ़ा सकते हैं.
योग और एमईटी दोनों समूहों में यह सत्र 12 सप्ताह तक चला, प्रत्येक सप्ताह 60 मिनट का व्यक्तिगत प्रशिक्षण सत्र होता था. 'कुंडलिनी योग' प्रशिक्षण को ध्यान रूप क्रिया में समर्थित किया गया था.
नतीजों के आधार पर शोध के लेखकों ने कहा कि योग प्रशिक्षण तनाव से प्रभावित हिप्पोकैम्पस उप-क्षेत्र कनेक्टिविटी को बेहतर ढंग से लक्षित कर सकता है जो यादाश्त बढ़ाने में मदद कर सकता है.
लावरेत्स्की ने कहा, "मुख्य बात यह है कि यह अध्ययन मस्तिष्क के स्वास्थ्य के लिए योग के लाभों का समर्थन करने वाले साहित्य में शामिल है, विशेष रूप से यह उन महिलाओं के लिए जिन्हें अधिक तनाव या यादाश्त कम होने की बीमारी है. योग की क्रियाएं वृद्ध व्यस्कों के लिए आदर्श हैं."
अध्ययन से पता चलता है कि योग की इन क्रियाओं से उन महिलाओं को विशेष लाभ हो सकता है जो अक्सर तनाव का अनुभव करती हैं.
शोधकर्ताओं का कहना है कि हिप्पोकैम्पस कनेक्टिविटी और स्मृति पर योग और एमईटी के लाभकारी प्रभावों को स्पष्ट करने के लिए भविष्य में एक बड़े अध्ययन की जरूरत होगी.
एए/सीके (एपी)
बैक्टीरियोफेजस ऐसे वायरस हैं जो बैक्टीरिया को मारते हैं. एंटीबायोटिक दवाइयों के खिलाफ इंसानी शरीर में पैदा हुई प्रतिरोधक क्षमता का मुकाबला करने में इनका इस्तेमाल करना चाहते हैं.
एंटीबायोटिक दवाओं के असर में आती कमी को देखते हुए वैज्ञानिक मानते हैं कि बैक्टीरिया का शिकार कर उन्हें खत्म करने वाले बैक्टीरियाफेज यानी जीवाणुभोजी वायरस, बैक्टीरिया से होने वाले संक्रमणों का उपचार कर सकते हैं. यह वायरस हैं तो सूक्ष्म लेकिन इंसानों पर उनकी बहुत बड़ी मार पड़ी है. चेचक, जुकाम-नजला, एचआईवी और कोविड-19 जैसी वायरल बीमारियों के प्रकोप से अरबों लोग मार गए हैं और इन बीमारियों ने समूचे मानव इतिहास में समाजों के आकार में बुनियादी बदलाव किए हैं. हालांकि सभी वायरस जानलेवा नहीं होते. बैक्टीरिया की ही तरह कुछ "अच्छे" या "दोस्ताना" वायरस सेहत के लिए फायदेमंद भी हो सकते हैं.
वैज्ञानिक अब एक वायरोम की चर्चा करने लगे हैं. ये वे बिल्कुल ही अलहदा किस्म के वायरस हैं जो हमारे शरीरों में मौजूद होते हैं और स्वास्थ्य में योगदान देते हैं, बहुत कुछ माइक्रोबायोम बैक्टीरिया की मानिंद. ये वायरोम विशाल आकार का है. फिलहाल आपके शरीर पर या उसके भीतर 380 खरब वायरसों का निवास है– बैक्टीरिया की संख्या से 10 गुना ज्यादा तादाद में.
ये वायरस हमारे फेफड़ों और खून में छिपे रहते हैं, त्वचा पर जीवित रहते हैं और हमारी आंतो के जीवाणुओं के भीतर पड़े रहते हैं. सारे के सारे वायरस बुरे नहीं. ऐसे भी वायरस होते हैं जो कैंसर कोशिकाओं को खत्म करते हैं और ट्युमर को विखंडित करने में मदद करते हैं, कुछ ऐसे भी हैं जो हमारी प्रतिरोध प्रणाली को प्रशिक्षित कर उन्हें रोगाणुओं से लड़ने में मदद करते हैं. और कुछ तो गर्भावस्था में जीन व्यवहार को भी नियंत्रित करते हैं.
बैक्टीरियाफेजः बैक्टीरिया निरोधी गश्ती दल
हमारे भीतर बड़े पैमाने पर मौजूद अधिकांश वायरस, बैक्टीरिया को हजम कर जाने वाले यानी बैक्टीरियाफेज होते हैं- यानी वह वायरस जो हमारे माइक्रोबायोम में बैक्टीरिया को खत्म कर देते हैं. बैक्टीरीअफेज को फेज भी कहा जाता है. वे मानव कोशिकाओं को नुकसान नहीं पहुंचाते क्योंकि उन्हें वह अपने शिकार के तौर पर नहीं पहचानते हैं. वह बैक्टीरिया को खोज कर उनका शिकार करते हैं, बैक्टीरिया की कोशिका की सतह से जुड़ जाते हैं. और उसके बाद उस कोशिका में अपनी डीएनए सामग्री पहुंचा देते हैं.
वायरल डीएनए फिर बैक्टीरिया के भीतर रेप्लीकेट करता है, कभी-कभार बैक्टीरिया का अपना डीएनए रेप्लीकेशन का साजो सामान अपने काम में ले आता है. एकबारगी बैक्टीरिया की कोशिका में पर्याप्त मात्रा में नये वायरस बन जाते हैं तो कोशिका फट जाती है और नये वायरल कण निकल जाते हैं. इस पूरी प्रक्रिया में सिर्फ 30 मिनट लगते हैं. मतलब एक वायरस दो घंटो में बहुत सारे वायरसों में तब्दील हो सकता है.
फेज थेरेपीः एक संक्षिप्त इतिहास
बैक्टीरिया को चट कर जाने वायरसों की इसी क्षमता ने 20वीं सदी की शुरुआत में वैज्ञानिकों को सोचने पर मजबूर किया कि क्या उनका इस्तेमाल बैक्टीरिया से होने वाली बीमारियों में किया जा सकता है. लेकिन जब पेनिसिलिन जैसी एंटीबायोटिक दवाएं आ गईं तो वो रिसर्च भी पीछे छूट गई. लेकिन बैक्टीरिया के कई स्ट्रेन यानी स्वरूप एंटीबायोटिक निरोधी हैं और उनकी संख्या बढ़ने लगी है, जानकार कहते हैं कि वैश्विक समुदायों के सामने एंटीबायोटिक प्रतिरोध सबसे बड़ी मेडिकल चुनौतियों में से एक है.
नतीजतन, अब वैज्ञानिक एंटीबायोटिक एजेंटों के नये रूपों की तलाश में जुट गए हैं. इसी सिलसिले में जीवाणुभोजी वायरस भी बैक्टीरिया जनित संक्रमणों से निपटने की लड़ाई के तहत उनकी सूची में लौट आए हैं. येना यूनिवर्सिटी अस्पताल में इन्स्टीट्यूट फॉर इंफेक्शियस मेडिसन एंड हॉस्पिटल हाइजीन के निदेशक माथियस प्लेत्स कहते हैं, "बैक्टीरिया खाने वाले वायरसों के लाभ, प्रत्येक बहु-प्रतिरोधी रोगाणु के खिलाफ उनकी प्रभाविता में निहित हैं."प्लेत्स ये भी बताते हं कि ये वायरस, बैक्टीरिया के सभी रूपों को खत्म करने के मामले में कतई अचूक होते हैं. इतनी सफाई से अपना काम करते हैं कि आंतों के माइक्रोबायोम को बिल्कुल भी नुकसान नहीं पहुंचाते, जैसा कि एंटीबायोटिक दवाएं कर डालती हैं. सैद्धांतिक तौर पर लगता यही है कि ये वायरस एंटीबैक्टीरियल प्रतिरोध के खिलाफ हमारी लड़ाई में एक बड़ा भारी वरदान हो सकते हैं, लेकिन वास्तव में साक्ष्य क्या कहते हैं?
बैक्टीरियाभोजी वायरस सोवियत दवा थी
ये वायरस हर जगह से इस्तेमाल से बाहर नहीं हो गए. सोवियत दौर के रूस में एंटीबायोटिक्स की कमी के चलते, इनका इस्तेमाल बैक्टीरिया जनित संक्रमणों के इलाज में होता था. जॉर्जिया, यूक्रेन और रूस में दशकों से ये इस्तेमाल जारी रहा. फेज टूरिज्म का हॉटस्पॉट है- जॉर्जिया. दुनिया भर से मरीज वहां इलाज के लिए जाते हं. उन्ही क्लिनिकों से मिले परिणामों के आधार पर ही कुछ वैज्ञानिक कहते हैं कि पारंपरिक बैक्टीरिया निरोधी एजेंटों के खिलाफ प्रतिरोध विकसित कर चुके संक्रमणों से निपटने में इन वायरसों के योगदान के अच्छे सबूत मौजूद हैं.
जॉर्जिया फेज थेरेपी के एक प्रमुख वैश्विक केंद्र के रूप में विकसित हो चुका है. उसके पास उपचार के लिए दुनिया में बैक्टीरियाभोजी वायरसों के सबसे बड़े संग्रहों में से एक है. लेकिन बेल्जियम और अमेरिका जैसे देश, विशेषीकृत थेरेपी केंद्रों में भी असाधारण मामलों के लिए फेजों का इस्तेमाल करने लगे हैं. जर्मनी भी फेज थेरेपियों में दिलचस्पी लेने लगा है. 18 जुलाई को प्रकाशित एक रिसर्च रिपोर्ट में नीतिनिर्माताओं को ये सुनिश्चित करने का आग्रह किया गया कि बैक्टीरिया खाने वाले वायरसों को बेहतर ढंग से खंगाला और इस्तेमाल में लाया जाए, न सिर्फ दवा के रूप में बल्कि खाद्यजनित संक्रमणों के खिलाफ और फसल सुरक्षा के उपाय के रूप में भी.
कितने कारगर होंगे बैक्टीरिया खाने वाले वायरस?
क्या ये वायरस एंटीबैक्टीरियल प्रतिरोध की समस्याओं का जवाब हो सकते हैं? शायद हां, जानकार कहते हैं. लेकिन वे इसके लिए भी आगाह करते हैं कि व्यापक रूप से अमल में लाने की मंजूरी देने से पहले जान लेना चाहिए कि फेज थेरेपियों के नुकसान भी हैं जिन पर ध्यान देना होगा. जर्मनी के कोलोन स्थित यूनिवर्सिटी अस्पताल में संक्रामक बीमारी के विशेषज्ञ गेर्ड फैटकेनह्युअर कहते हैं, "मुख्य समस्या ये है कि थेरेपी का कोई मानकीकरण तो है नहीं. फेज थेरेपी ठीक-ठीक उसी बैक्टीरिया के खिलाफ की जानी चाहिए जो मरीज को संक्रमित करता है."
वो कहते हैं कि विभिन्न विशेषताओं वाले बैक्टीरिया से संक्रमण हो सकता है, तो थेरेपी के लिए आपको अलग अलग किस्म के फेजों का कॉकटेल चाहिए. इन वायरसों का ये मिश्रण, संक्रमण के बेकाबू होने से पहले ही, तत्काल रूप से उपलब्ध कराया जाना होगा क्योंकि बैक्टीरिया भी फेज थेरेपी के खिलाफ प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं. लेकिन फेज थेरेपी की सुरक्षा को लेकर अच्छा रिकॉर्ड है. प्लेत्स कहते हैं कि इंसान अपने खाने के जरिए ऐसे अरबों वायरस रोजाना हजम कर जाते हैं. इसके कोई उल्लेखनीय नकारात्मक प्रभाव भी नहीं होते. इसका मतलब हमारा शरीर फेज थेरेपी को भी भली-भांति बर्दाश्त करने लायक होना चाहिए.
जर्मन शोध ने सिफारिश की है कि अगले कदम के रूप में व्यापक पैमाने पर शोध कराए जाने चाहिए और क्लिनिकल प्रोजेक्ट चलाए जाने चाहिए जिससे अलग अलग किस्म के संक्रमणों के लिए असरदार फेज थेरेपियां चिन्हित की जा सकें. अभी के लिए, बैक्टीरिया खाने वाले वायरस (बैक्टीरीअफेज) एंटीबायोटिक्स की जगह लेने से तो रहे. लेकिन वैज्ञानिक आशावादी हैं कि मिलाकर इस्तेमाल करने से एंटीबायोटिक्स को ज्यादा असरदार बनाने में वे काम आ सकते हैं, खासतौर पर बैक्टीरिया के प्रतिरोधी रूपों (स्ट्रेन्स) के खिलाफ.
रिसर्चरों ने मल्टीपल स्केलेरोसिस बीमारी की वजह से किसी व्यक्ति की स्थिति खराब होने से जुड़े जेनेटिक वैरिएंट की खोज की है. वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि उनकी खोज से इस बीमारी के इलाज के लिए नए तरीके ईजाद हो सकते हैं.
एक अंतरराष्ट्रीय शोध समूह ने मल्टीपल स्केलेरोसिस (एमएस) बीमारी के बढ़ने से जुड़े पहले जेनेटिक वैरिएंट की खोज की है. सैन फ्रांसिस्को में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (यूसीएसएफ) और ब्रिटेन के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के नेतृत्व में शोध समूह ने अलग-अलग जीनोम के हिसाब से अध्ययन करते हुए मल्टीपल स्केलेरोसिस के करीब 22,000 रोगियों के डेटा का विश्लेषण किया. जेनेटिक वैरिएंट को खास लक्षणों से जोड़ने के लिए आंकड़ों का बेहद सावधानी से इस्तेमाल किया गया. इस अध्ययन के नतीजे बीते बुधवार को नेचर जर्नल में प्रकाशित किए गए.
अध्ययन में शामिल रिसर्चर बताते हैं कि मल्टीपल स्केलेरोसिस के जिन रोगियों को यह वैरिएंट अपने माता-पिता, दोनों से विरासत में मिलता है उन्हें ऐसे रोगियों की तुलना में औसतन चार साल पहले ही छड़ी की मदद से चलना पड़ता है जिन्हें यह वैरिएंट माता-पिता से विरासत में नहीं मिलता.
यह जेनेटिक वैरिएंट दो जीनों के बीच पाया जाता है. इसमें से एक जीन क्षतिग्रस्त कोशिकाओं की मरम्मत में शामिल होता है, तो दूसरा वायरल संक्रमण को नियंत्रित करता है. ये दोनों जीन मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी (स्पाइनल कॉर्ड) के भीतर सक्रिय होते हैं.
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में न्यूरोलॉजी के प्रोफेसर और नेचर में प्रकाशित अध्ययन के सह-वरिष्ठ लेखक स्टीफन सॉसर कहते हैं, "इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि आप मल्टीपल स्केलेरोसिस से अच्छी तरह निपट रहे हैं या उसकी वजह से आपकी हालत खराब है. यह इससे काफी ज्यादा प्रभावित होता है कि आपका मस्तिष्क प्रतिरक्षा प्रणाली के हमलों से कितनी अच्छी तरह निपट सकता है. यह हमला मल्टीपल स्केलेरोसिस के दौरान अक्सर होता है.
सॉसर ने 1990 के दशक के मध्य में मल्टीपल स्केलेरोसिस पर अपनी पीएचडी थीसिस लिखी थी और तब से इस बीमारी को लेकर बड़े स्तर पर अध्ययन कर रहे हैं. नेचर के अध्ययन में इस जेनेटिक वैरिएंट की पहचान को लेकर जो जानकारी दी गई है वह मल्टीपल स्केलेरोसिस को लेकर किए जा रहे अनुसंधान के क्षेत्र में एक बड़ी प्रगति है.
सॉसर ने डीडब्ल्यू को बताया, "मैंने इस पर कई दशकों तक काम किया है और यह मेरी अब तक की सबसे महत्वपूर्ण खोज है.”
मल्टीपल स्केलेरोसिस क्या है?
यह समझने के लिए कि जेनेटिक वैरिएंट से जुड़ी यह खोज इतनी महत्वपूर्ण और अन्य खोजों से अलग क्यों है, हमें मल्टीपल स्केलेरोसिस के बारे में ज्यादा जानना होगा. यह एक ऑटोइम्यून बीमारी है, जिसमें प्रतिरक्षा प्रणाली गलती से मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी पर हमला करती है.
ये हमले माइलिन को नुकसान पहुंचाते हैं. यह वसायुक्त पदार्थ तंत्रिका तंत्र के तंतुओं के चारों ओर सुरक्षात्मक परत के तौर पर काम करता है. माइलिन को नुकसान पहुंचने से आपके मस्तिष्क और शरीर के बाकी हिस्सों के बीच होने वाला संचार बाधित होता है. इससे आपकी नसें खराब हो सकती हैं, जिनका ठीक हो पाना मुश्किल होता है.
इसकी वजह से कई तरह की समस्याएं हो सकती हैं, जैसे कि शरीर का कोई हिस्सा सुन्न हो जाना, मूड में बदलाव, याददाश्त से जुड़ी समस्याएं, दर्द, थकान, अंधापन या लकवा मारना.
मल्टीपल स्केलेरोसिस की वजह से कोई व्यक्ति कितना गंभीर रूप से प्रभावित हो सकता है या कितनी बार इसकी चपेट में आ सकता है, यह हर रोगी के लिए अलग-अलग होता है.
सॉसर मल्टीपल स्केलेरोसिस के रोगियों का इलाज भी करते हैं. वह कहते हैं, "कुछ रोगियों में कोई लक्षण नहीं होते हैं. कभी-कभी हमें पोस्टमार्टम के बाद इसके बारे में पता चलता है. कभी-कभी तो हमें पता भी नहीं चलता कि वे मल्टीपल स्केलेरोसिस से पीड़ित थे.”
वह आगे कहते हैं, "उनमें काफी हल्के लक्षण हो सकते हैं, जो उन्हें कुछ समय के लिए परेशान करते हैं और फिर लंबे समय तक वापस नहीं आते. मेरे पास हाल ही में एक महिला आई थी, जिससे मैं पहली बार 15 साल पहले मिला था और अब वह दोबारा इतने समय बाद आयी. इस दौरान वह पूरी तरह ठीक थी. हालांकि, कभी-कभी कोई गंभीर रूप से भी प्रभावित हो सकता है. उसके बगल वाले बिस्तर पर जो महिला थी उसकी हालत काफी ज्यादा खराब हो गई थी. उसे खुद से खाना खाने में भी परेशानी होती थी.”
मल्टीपल स्केलेरोसिस में जेनेटिक वैरिएंट क्यों महत्वपूर्ण है
मल्टीपल स्केलेरोसिस से जुड़े जितने भी वैरिएंट की अब तक पहचान की गई है वे किसी व्यक्ति में इस रोग के विकसित होने के जोखिम का पता लगाने में मददगार हैं. हाल में जिस नए वैरिएंट की पहचान हुई है उससे यह पता लगाया जा सकता है कि कोई व्यक्ति इस बीमारी की वजह से कितना गंभीर रूप से प्रभावित हो सकता है. यह खोज, बीमारी के इलाज से जुड़े उपायों को ढूंढने के लिए महत्वपूर्ण है.
फिलहाल, एमएस से जुड़े लक्षणों से दोबारा प्रभावित होने से बचाने के लिए बाजार में कई दवाएं उपलब्ध हैं, लेकिन ऐसी कोई दवा नहीं है जिससे इस बीमारी को बढ़ने से रोका जा सके. इसका मतलब है कि कुछ रोगियों की स्थिति दूसरों की तुलना में तेजी से बिगड़ सकती है.
यूसीएसएफ में न्यूरोलॉजी के प्रोफेसर और रिसर्च रिपोर्ट के सहलेखक सर्जियो बारानजिनी ने डीडब्ल्यू को एक ईमेल में लिखा, "एमएस के लक्षणों की फिर से वापसी को नियंत्रित करने के लिए विकसित की गई सभी दवाएं इम्यूनोमॉड्यूलेटरी (प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत करने वाली) हैं, जो एमएस के जोखिम से जुड़े 200 से अधिक जेनेटिक वैरिएंट से मेल खाती हैं. बीमारी की गंभीरता से जुड़े नए जेनेटिक से पता चलता है कि नए चिकित्सा उपायों के तहत केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर ध्यान देना चाहिए.”
मल्टीपल स्केलेरोसिस के इलाज की दिशा में प्रगति
तथ्य यह है कि रोगियों के जिस समूह में नए खोजे गए जेनेटिक वैरिएंट, माता और पिता दोनों से विरासत में मिले उन्हें चलने के लिए काफी कम समय में ही सहायता यानी छड़ी की जरूरत पड़ी. हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि इस वैरिएंट का इस्तेमाल हर रोगी की भविष्य की स्थिति बताने के लिए किया जा सकता है.
सॉसर का कहना है कि किसी रोगी को लेकर भविष्यवाणी करने से पहले कई और जेनेटिक वैरिएंट की पहचान करने की जरूरत है. इसलिए, जीनोम के आधार पर और ज्यादा अध्ययन करने की जरूरत है.
फिर भी, सॉसर का कहना है कि अब वे मल्टीपल स्केलेरोसिस बढ़ने को लेकर एक खास वैरिएंट की ओर इशारा कर सकते हैं. साथ ही, उन्हें पता है कि इसमें मस्तिष्क के भीतर सामान्य रूप से सक्रिय जीन शामिल हैं. इसलिए, अब इस बात की ज्यादा संभावना है कि दवा कंपनियां इस बीमारी को बढ़ने से रोकने वाली दवा बनाने के लिए निवेश करना शुरू कर सकती है.
सॉसर ने कहा, "मल्टीपल स्केलेरोसिस के रोगियों की सबसे बड़ी जरूरत दवा है. बिना दवा के इस बीमारी का इलाज नहीं हो सकता. और अब उस दवा के विकसित होने की संभावनाएं बन रही हैं.”
भारत में डायबिटीज से पीड़ित मरीजों की संख्या 10 करोड़ से ज्यादा है. 2019 में यह संख्या लगभग सात करोड़ थी. हाल ही में ब्रिटेन के मेडिकल जर्नल लांसेट में भारत में डायबिटीज की स्थिति से जुड़ा शोध छपा है.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी की रिपोर्ट-
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल लांसेट में छपे इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के शोध के मुताबिक कुछ राज्यों में डायबिटीज के मामले स्थिर हैं, तो वहीं कुछ राज्यों में मामले तेजी से बढ़े हैं. इस शोध में बताया गया है कि जिन राज्यों में डायबिटीज के मामलों में तेजी आई है, वहां इस बीमारी को रोकने के लिए फुर्ती से कदम उठाने होंगे.
शोध में कहा गया है कि देश की 15.3 फीसदी या लगभग 13.6 करोड़ आबादी प्री-डायबिटीक हैं, जबकि देश की 11.4 फीसदी आबादी डायबिटीक है. यानी अगले कुछ सालों में ऐसे लोगों की डायबिटीज की चपेट में आने की आशंका है. शोध में यह भी कहा गया है कि 35 प्रतिशत से अधिक आबादी हाइपरटेंशन और हाई कोलेस्ट्रॉल की शिकार है. वहीं मोटापे की बात करें, तो शोध कहता है कि देश की 28.6 फीसदी आबादी इससे ग्रस्त है.
क्या होता है प्री-डायबिटीक
डायबिटीज के दो प्रकार हैं, टाइप-1 और टाइप-2. टाइप-1 आनुवांशिक होता है. यह बच्चों और युवाओं में देखने को मिलता है, लेकिन इसके मामले बहुत ही कम होते हैं. टाइप-2 डायबिटीज ज्यादा जीवनशैली से जुड़ा है और दुनिया भर में तेजी से फैल रहा है. लेकिन अगर प्री-डायबिटीक की बात की जाए, तो वह एक गंभीर स्वास्थ्य स्थिति है. इसमें शुगर का स्तर सामान्य से अधिक होता है, लेकिन इतना ज्यादा नहीं कि उसे टाइप-2 डायबिटीज की श्रेणी में रखा जा सके.
शोध में कहा गया है कि गोवा में 26.4 फीसदी, पुदुचेरी (26.3), केरल (25.5) और चंडीगढ़ (20.4 फीसदी) में अधिकतम प्रसार देखा गया. शोध में यह भी बताया गया कि कम प्रसार वाले राज्य यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में आने वाले कुछ सालों में "डायबिटीज विस्फोट" हो सकता है.
ये वैज्ञानिक कामयाब रहे तो नहीं रहेगी इंसुलिन के इंजेक्शन की जरूरत
बढ़ जाएंगे डायबिटीज के मरीज
अध्ययन की प्रमुख लेखक डॉक्टर आरएम अंजना के मुताबिक, "जब प्री-डायबिटीज के प्रसार की बात आती है, तो लगभग ग्रामीण और शहरी विभाजन नहीं दिखाई देता है. इसके अलावा प्री-डायबिटीज का स्तर उन राज्यों में अधिक पाया गया, जहां डायबिटीज का मौजूदा प्रसार कम था. यह एक टिक-टिक करने वाले टाइम बम जैसा है."
उन्होंने आगे कहा, "अगर आपको प्री-डायबिटीज है, तो हमारी आबादी में डायबिटीज में परिवर्तन बहुत-बहुत तेजी से होता है. प्री-डायबिटीज वाले 60 प्रतिशत से अधिक लोग अगले पांच वर्षों में डायबिटीज के शिकार हो जाएंगे. इसके अलावा भारत की लगभग 70 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है. इसलिए अगर डायबिटीज का प्रसार 0.5 से 1 प्रतिशत भी बढ़ जाता है, तो असल संख्या बहुत बड़ी हो जाएगी."
इस शोध के लिए वैज्ञानिकों ने 31 राज्यों में एक लाख से अधिक शहरी और ग्रामीण लोगों को सर्वे में शामिल किया. सर्वे में शामिल लोगों की 18 अक्टूबर, 2008 और 17 सितंबर, 2020 के बीच जांच की गई. सर्वे में शामिल लोगों की उम्र 20 वर्ष या उससे अधिक थी. और उसके बाद इस शोध के नतीजे सामने आए. (dw.com)
धूम्रपान छोड़ने के बाद जिंदगी में कई सकारात्मक बदलाव होने लगते हैं. इसके बावजूद, कई लोगों के लिए धूम्रपान छोड़ना आसान नहीं होता. ‘सिर्फ एक’ सिगरेट की चाह उनकी आदतों को फिर से खराब कर देती है. आखिर ऐसा क्यों होता है?
"मॉम, तुम धूम्रपान से मर जाओगी!” जब भी मेरा बेटा मुझे धूम्रपान करते हुए देखता था, तो डर की वजह से अपने सिर पर हाथ फेरने लगता था. इससे मुझे भी लगता था कि मेरी यह आदत सही नहीं है. फिर मैंने धूम्रपान करना छोड़ दिया. वह साल था 2019. दो महीने बाद भी मैंने सिगरेट को हाथ नहीं लगाया.
व्यसन से जुड़े मामलों का इलाज करने वाले चिकित्सक टोबियास रूथर मेरे धूम्रपान बंद करने से रोमांचित थे. वह म्यूनिख के लुडविग मैक्सिमिलियन यूनिवर्सिटी अस्पताल में तम्बाकू की लत छुड़ाने के लिए बनाए गए स्पेशल आउट पेशेंट क्लिनिक के प्रमुख हैं. रूथर ने कहा, "जब आप धूम्रपान बंद कर देते हैं, तो आपके जीवन में बहुत जल्दी सकारात्मक बदलाव होने लगते हैं.”
जल्द ही होते हैं कई बदलाव
रूथर ने मुझे बताया कि धूम्रपान छोड़ने के महज आठ घंटे बाद शरीर को बेहतर तरीके से ऑक्सीजन मिलने लगता है. सिर्फ एक से दो दिनों बाद कई लोगों की गंध और स्वाद फिर से बेहतर हो जाते हैं. दो सप्ताह बाद फेफड़े बेहतर तरीके से काम करने लगते हैं, जिससे खेलने के दौरान परेशानी नहीं होती. मैंने भी धूम्रपान छोड़ने के बाद खुद को पहले की तरह ही फिट महसूस किया.
रूथर कहते हैं, "आपको पहले की तुलना में तेज खांसी आ सकती है. इसकी वजह यह है कि फेफड़े खुद को साफ करना शुरू कर देते हैं. फेफड़े में स्प्रिंग जैसी जो संरचना होती है उसकी सफाई में करीब एक महीने का समय लगता है. इसके अलावा, एक महीने बाद आपकी प्रतिरक्षा प्रणाली काफी मजबूत हो जाती है.”
लगातार तीन महीने तक धूम्रपान न करने पर आपको रात में अच्छी नींद भी आ सकती है. रूथर ने कहा, "धूम्रपान करने वालों को रात में ऐसा लगता है कि शरीर में निकोटीन की कमी हो गई है और आपको निकोटीन चाहिए. इस वजह से सोने के दौरान बेचैनी बढ़ जाती है. हालांकि, तीन महीने बाद सामान्य तौर पर नींद आने लगती है.”
सिगरेट पीने से कई और तरह के नुकसान
मैंने पूरी तरह सिगरेट छोड़ने से पहले यह सोचा कि इसे कम करने पर भी इंसान स्वस्थ हो सकता है, लेकिन यह पूरी तरह सच नहीं है. दो से ज्यादा सिगरेट शरीर को नुकसान पहुंचाने के लिए काफी हैं.
रूथर ने कहा, "3 से 20 सिगरेट पीने पर हृदय संबंधी जोखिम, यानी स्ट्रोक या दिल का दौरा पड़ने का खतरा बढ़ जाता है. वहीं, कैंसर को लेकर अलग कहानी है. हर एक सिगरेट कैंसर के जोखिम को बढ़ाता है.” रूथर ने बताया, "यह वाकई में बहुत अच्छी बात है कि आपने पूरी तरह सिगरेट पीना छोड़ दिया.” वे इस बात को लेकर काफी खुश थे.
धूम्रपान करने वाले दो लोगों में से एक की मौत तंबाकू की लत के कारण होती है और उनमें से 50 फीसदी की मौत 70 वर्ष की आयु से पहले हो जाती है. रूथर ने कहा कि मैं 50 वर्ष की आयु तक धूम्रपान के नतीजों को महसूस कर लूंगी.
फिर से धूम्रपान शुरू कर देते हैं 95 फीसदी लोग
मेरे हाथों को सिगरेट से दूर रखने के लिए निकोटीन पैच या एक्यूपंचर जैसे उपायों की जरूरत नहीं थी, जिनका इस्तेमाल धूम्रपान छोड़ने में मदद के लिए किया जाता है. सच्चाई यह है कि सिर्फ मेरी इच्छा शक्ति ही पर्याप्त थी. रूथर के मुताबिक, इसकी वजह यह हो सकती है कि मैंने देर से धूम्रपान करना शुरू किया, 21 वर्ष की उम्र के बाद.
रूथर ने कहा, "धूम्रपान करने वाले ज्यादातर लोग 12 से 16 वर्ष की उम्र के बीच ही ऐसा करना शुरू कर देते हैं. उस समय तक हमारा मस्तिष्क पूरी तरह विकसित भी नहीं हुआ होता है. निकोटीन एक अत्यंत सक्रिय न्यूरोट्रांसमीटर है जो मस्तिष्क में तंत्रिका के विकास पर गहरा असर डालता है. इसकी वजह से लोग आजीवन के लिए इस लत से ग्रसित हो जाते हैं. ऐसे में दृढ़ इच्छा शक्ति से ही इस लत से छुटकारा पाया जा सकता है.”
उन्होंने आगे कहा, "बिना किसी की मदद से धूम्रपान छोड़ने वाले आपके जैसे 100 लोगों में से 95 लोग फिर से एक साल के अंदर धूम्रपान शुरू कर देते हैं.”
धूम्रपान करने वाले का भ्रम
फिर से धूम्रपान शुरू करने का एक कारण है ‘धूम्रपान करने वाले का भ्रम'. इसे निकोटीन की घटिया मनोवैज्ञानिक चाल भी कह सकते हैं. रूथर ने बताया कि सिगरेट की लत में मनोवैज्ञानिक निर्भरता बहुत मजबूत होती है. इसलिए मैं भी धूम्रपान करने वाले के भ्रम में पड़ गई. सालों तक मैंने खुद को आश्वस्त किया कि धूम्रपान से मुझे शांति मिलेगी, तनाव दूर होगा और मुझे थोड़ी देर के लिए राहत मिलेगी. जबकि, हकीकत यह है कि हर सिगरेट दिल की धड़कन को बढ़ाता है और आपको ज्यादा बेचैन करता है.
सच्चाई यह है कि धूम्रपान ने मुझे ज्यादा शांत महसूस कराया, क्योंकि मैं सिगरेट के बिना एक लंबी अवधि के बाद, सिगरेट छोड़ने पर होने वाली बेचैनी के लक्षणों का अनुभव कर रही थी. मेरा शरीर निकोटीन की तलाश कर रहा था. रूथर ने कहा, "सिगरेट सिर्फ उस बेचैनी को दूर करता है जो आपको तब नहीं होती थी, जब आप धूम्रपान नहीं करती थीं.”
आदत बन जाती है सिगरेट
दोस्तों, संगीत और शराब के साथ पहली सिगरेट मुक्त शाम काफी अजीब थी. ऐसा लग रहा था जैसे कुछ छूट रहा हो और यह अजीब लग रहा था. वर्षों तक मैं सिर्फ यह मान रही थी कि धूम्रपान सिर्फ कुछ स्थितियों का हिस्सा था, जैसे कि शराब के साथ, कॉफी के साथ या ब्रेक के दौरान.
रूथर ने समझाया, "यह पावलोव के कुत्ते की तरह काम करता है. आप कुत्ते को कुछ खाने के लिए देते हैं और उसी समय घंटी बजाते हैं. कुछ समय बाद, सिर्फ घंटी बजाना ही पर्याप्त होता है और कुत्ता अपनी लार टपकाते हुए आ जाता है.”
धूम्रपान करने वालों के लिए यह घंटी स्थायी रूप से बजती है. आराम करने के दौरान या किसी काम को करने से पहले वे धूम्रपान करते हैं. जैसे कि खाने के बाद, बस का इंतजार करते समय या सेक्स के बाद. धीरे-धीरे यह सूची लंबी होती जाती है. रूथर ने कहा, "मूल बात यह है कि धूम्रपान लोगों की जिंदगी का हिस्सा बन जाता है.”
मुझे धूम्रपान छोड़ना है. आखिर ऐसा कैसे करूं?
जो कोई भी धूम्रपान छोड़ना चाहता है उसके लिए यह काफी मुश्किल काम है. जैसे टोबियास रूथर शुरू में अपने मरीजों को आश्वस्त करते हैं कि विफलता सामान्य है और यह इस प्रक्रिया का हिस्सा है.
उन्होंने बताया, "जब मरीज मुझे बताते हैं कि वे पहले ही पांच बार धूम्रपान छोड़ने की कोशिश कर चुके हैं, तो मैं पहले के इन प्रयासों को स्वीकार करता हूं. आखिरकार यह उनके लिए चिंता का एक महत्वपूर्ण विषय है. धूम्रपान की आदतों को छोड़ना, साइकिल चलाना सीखने जैसा है. गिरना इस प्रक्रिया का हिस्सा है. महत्वपूर्ण बात है उठकर खड़ा होना, फिर से कोशिश जारी रखना और आखिरकार अपने काम में सफल होना.”
इसके अलावा, मस्तिष्क को यह संकेत देना महत्वपूर्ण है कि कुछ बदल गया है. रूथर के मुताबिक, "सुबह सामान्य से अलग कुर्सी पर बैठें. कॉफी के बजाय चाय पिएं. पौधे को अपने ऑफिस में एक नए स्थान पर लगाएं. यानी, अपने मस्तिष्क को यह बताना है कि अब कई चीजें बदल गई हैं.
और सबसे बड़ी बात कि अगर आपकी इच्छा फिर से सिगरेट पीने की करती है, तब भी न पिएं. रूथर कहते हैं, "सिर्फ एक सिगरेट ही वापस आपको पहले वाली स्थिति में ला सकता है, दूसरे की जरूरत नहीं है.” (जूलिया वर्जिन)
न्ययॉर्क, 5 जून | एक नई गोली ने फेफड़ों के कैंसर से मौत के जोखिम को आधे से कम करके नई उम्मीद जगाई है। एक दशक के लंबे वैश्विक क्लीनिकल ट्रायल के परिणामों में यह बात सामने आई है। क्लीनिकल ट्रायल से पता चला कि सर्जरी के बाद एस्ट्राजेनेका द्वारा विकसित ओसिमर्टिनिब दवा लेने से रोगियों के मरने का जोखिम 51 प्रतिशत तक कम हो गया। शिकागो में अमेरिकन सोसाइटी ऑफ क्लिनिकल ऑन्कोलॉजी (एस्को) की वार्षिक बैठक में ट्रायल के परिणाम प्रस्तुत किए गए।
ओसिमर्टिनिब, जिसका टैग्रिसो के रूप में विपणन किया जा रहा है, एक विशेष प्रकार के म्यूटेशन वाले लंग कैंसर के आम प्रकार नॉन-स्मॉल सेल कैंसर को निशाना बनाती है।
फेफड़े का कैंसर दुनिया में कैंसर से होने वाली मौतों का प्रमुख कारण है, जिससे हर साल लगभग 18 लाख लोगों की मौत होती है।
येल कैंसर सेंटर के उप निदेशक डॉ, रॉय हर्बस्ट ने कहा, तीस साल पहले, हम इन मरीजों के लिए कुछ भी नहीं कर सकते थे। अब हमारे पास यह शक्तिशाली दवा है।
किसी भी बीमारी में पचास प्रतिशत एक बड़ी बात है, लेकिन फेफड़ों के कैंसर जैसी बीमारी में तो निश्चित रूप से, जो आमतौर पर उपचारों के लिए बहुत प्रतिरोधी रही है।
परीक्षण में 26 देशों में 30 से 86 वर्ष की आयु के रोगियों को शामिल किया गया और यह देखा गया कि क्या गोली नॉन स्मॉल सेल लंग कैंसर के रोगियों की मदद कर सकती है।
परीक्षण में प्रत्येक व्यक्ति में ईजीएफआर जीन का म्यूटेशन था - जो वैश्विक फेफड़ों के कैंसर के लगभग एक-चौथाई मामलों में पाया जाता है - और एशिया में 40 प्रतिशत मामलों के लिए जिम्मेदार है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं में ईजीएफआर म्यूटेशन अधिक आम है, और उन लोगों में भी जो कभी धूम्रपान नहीं करते हैं या हल्के धूम्रपान करने वाले हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि अपने ट्यूमर को हटाने के बाद दैनिक गोली लेने वाले 88 प्रतिशत रोगी पांच साल बाद भी जीवित हैं। (आईएएनएस)
भारत में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ने के साथ साथ इससे जुड़ा स्वास्थ्य उद्योग भी बढ़ रहा है. हालांकि सामाजिक मानदंडों को नहीं मानने वाले कई लोगों का कहना है कि मदद मांगने पर उन्हें गलत साबित करने की कोशिश की गई.
डॉयचे वैले पर तनिका गोडबोले की रिपोर्ट-
मुंबई में रहने वाली एक छात्रा ने परिवार के सामने लेस्बियन के तौर पर अपनी पहचान जाहिर करने के बाद इलाज कराने की मांग की. अलीना (बदला हुआ नाम) ने डीडब्ल्यू को बताया, "यह मेरे जीवन का एक भयानक समय था. मेरे पिता ने मुझे अपनाने से इनकार कर दिया था और मैं हर समय खुद को दोषी मानती थी. मुझे लगा कि मैं अपने परिवार को नीचा दिखा रही हूं. उनके सम्मान पर चोट पहुंचा रही हूं.”
25 वर्षीय अलीना ने कहा कि मदद मांगने के बाद उसे ऐसा महसूस हुआ कि वह गलत है, उसका आत्म-सम्मान कम हुआ, और उसका भविष्य अनिश्चित है. अलीना ने कहा, "मेरे चिकित्सक ने उस समय मुझसे कहा था कि मेरे पिता केवल वही चाहते हैं जो मेरे लिए अच्छा है और मुझे उनसे माफी मांगनी चाहिए. इससे मुझे ऐसा लगा जैसे मुझे अपनी सेक्सुअलिटी यानी यौन रुझान पर शर्म आनी चाहिए.” कुछ सेशन के बाद अलीना ने चिकित्सक से मिलना बंद कर दिया.
उन्होंने बताया, "मुझे अब सौभाग्य से क्वियर समुदाय का सहयोग मिलने लगा है. साथ ही, एक बेहतर चिकित्सक मिल गया है. कई काउंसलर और चिकित्सक विज्ञापन देते हैं कि वे क्वियर समुदाय के लोगों के साथ दोस्ताना व्यवहार करते हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है. यह बहुत से लोगों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए काफी खतरनाक है. खासकर ऐसे लोगों के लिए जो रूढ़िवादी या पारंपरिक विचार वाले परिवारों से आते हैं.”
एक ओर जहां भारत की शीर्ष अदालत में समलैंगिक विवाह पर बहस जारी है, वहीं दूसरी ओर भारतीय मनोरोग सोसायटी ने समान अधिकारों के लिए अपना समर्थन बढ़ाया है. 2018 में इस सोसायटी ने एक बयान जारी कर कहा कि समलैंगिकता सामान्य लैंगिक रुझान की तरह ही है, किसी तरह की बीमारी नहीं है. एलजीबीटीक्यूआईए+ (लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल, ट्रांसजेंडर, क्वियर, इंटरसेक्स, एसेक्सुअल) समुदाय के सदस्यों के प्रति समान व्यवहार किया जाना चाहिए.
भारत में समलैंगिक विवाह पर बहस
हालांकि, कुछ चिकित्सकों का यौन रुझान के प्रति अब भी पुराना विचार ही है. मारीवाला हेल्थ इनिशिएटिव की निदेशक राज मारीवाला कहती हैं, "मनोवैज्ञानिक व्यवस्था ऐतिहासिक रूप से सामाजिक मानदंडों पर आधारित है और इलाज का इस्तेमाल लोगों को सही करने या उन्हें दंडित करने के लिए किया जाता था.” उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "महिलाओं में हिस्टीरिया का इलाज किया
जाता था. अब भी कुछ जगहों पर ऐसा किया जाता है. सामान्य तौर पर माना जाता है कि कोई भी व्यक्ति अपने जन्म के आधार पर विषमलिंगी और शारीरिक रूप से सक्षम होता है. इस व्यवस्था की वजह से चिकित्सकों ने यह नहीं समझा कि शारीरिक संरचना के बावजूद किसी का लैंगिक रुझान अलग हो सकता है. यही वजह रही कि उपलब्ध कराई जाने वाली चिकित्सा में काफी अंतर है.”
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के अनुसार, 5.6 करोड़ भारतीय अवसाद से ग्रसित हैं और लगभग 3.8 करोड़ लोग चिंता से जुड़े लक्षणों से पीड़ित हैं. धीरे-धीरे भारत में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ रही है, खासकर शहरी इलाकों में. यूनिवडाटोस मार्केट इनसाइट्स के एक अध्ययन से पता चलता है कि 2022 से 2028 तक मानसिक स्वास्थ्य उद्योग हर साल 15 फीसदी की दर से बढ़ सकता है.
मानसिक स्वास्थ्य को लेकर बढ़ रही जागरूकता
30 वर्षीय श्रीराम ने अपने मनोचिकित्सक के साथ बच्चे न होने के कारणों को साझा किया. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "कुछ सेशन बाद जब इस बात पर फिर से चर्चा हुई, तो उस मनोचिकित्सक ने मुझसे कहा कि मैं स्वार्थी हूं, इसलिए बच्चे नहीं चाहता. मुझे समझ नहीं आया कि उस समय मुझ पर इस बात का क्या प्रभाव पड़ा. जब मैं दूसरे चिकित्सक के पास गया तब जाकर मुझे समझ आया कि मेरा अनुभव कितना भयानक था.”
उन्होंने आगे कहा, "उस मनोचिकित्सक ने पोर्न देखने की मेरी लत को भी गंभीरता से नहीं लिया. मैं किसी को भी उसके पास जाने की सलाह नहीं दूंगा. वह अक्सर दूसरे रोगियों की कहानियां मेरे साथ साझा करती थीं. इसका मतलब यह है कि वह मेरी कहानी भी दूसरों के साथ साझा करती होंगी.”
चिन्मय मिशन अस्पताल में मनोचिकित्सक हरिनी प्रसाद ने डॉयचे वेले को बताया, "अविवाहित रहना और बच्चे न पैदा करने का फैसला लेना ऐसे विकल्प हैं जिनका चिकित्सकों को सम्मान करना चाहिए. हालांकि, अगर किसी काउंसलर को यह पता नहीं हो कि वह किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित है और ऐसी स्थिति में किसी को परामर्श देता है, तो उसके फैसले पूर्वाग्रह से ग्रसित हो सकते हैं.”
मीडिया क्षेत्र में काम करने वाली ऋतिका ने एक वयस्क के तौर पर अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (एडीएचडी) के लिए जांच कराने का फैसला किया. इसके लिए वह एक मानसिक स्वास्थ्य क्लिनिक में गईं. वहां व्यवहार से जुड़े लक्षणों का आकलन करने के लिए काफी महंगी जांच की गई, जिसमें काफी समय भी लगा.
हालांकि, जांच के बाद उन्हें ऐसी रिपोर्ट दी गई जिसमें उस डिसऑर्डर का जिक्र ही नहीं था. इसमें सिर्फ यह बताया गया कि उन्हें सामान्य चिंता और हल्का अवसाद था, जिसके लिए वह पहले से ही इलाज करा रही थीं और दवा ले रही थीं.
'हानिकारक' सलाह
ऋतिका ने कहा, "मैंने अपने पूरे जीवन में न्यूरोडाइवर्जेंसी के साथ संघर्ष किया है और आखिरकार जब मेरी जिंदगी पूरी तरह से प्रभावित होने लगी, तब मैंने जांच कराने का फैसला किया. हालांकि, जिस मनोचिकित्सक से मैंने परामर्श लिया उसे उस स्थिति का कोई व्यवहारिक ज्ञान ही नहीं था. इसके अलावा, इस जांच के दौरान मेरे व्यवहार का आकलन उस तरीके से करने का प्रयास किया गया जो अपमानजनक और मुझे दुखी करने वाला था.”
उन्होंने आगे कहा, "मुझे किसी से बातचीत करने में परेशानी होती थी और इस वजह से किसी के साथ ज्यादा लंबे समय के लिए मेरे बेहतर संबंध नहीं बन पाते थे. मैंने कम्युनिकेशन के क्षेत्र में काम किया है, मेरे पास बेहतर सपोर्ट सिस्टम है और दशकों से मैं अपने पार्टनर के साथ रह रही हूं. इसलिए, मुझे नहीं पता था कि वे किस आधार पर मेरा आकलन कर रहे थे. वे सिर्फ मुझसे बात करके मेरे बारे में ज्यादा जान सकते थे. उनकी जांच की प्रक्रिया न सिर्फ बेकार थी, बल्कि हानिकारक भी थी.”
जब ऋतिका ने इस बात पर सवाल उठाया कि एडीएचडी का जिक्र क्यों नहीं किया गया, तो उन्हें बताया गया कि वह इसके लिए ‘योग्य नहीं' थीं. उन्होंने कहा कि उस पूरी प्रक्रिया से वह गुस्सा हो गई.
बाद में उन्होंने किसी अन्य की सलाह पर दूसरे पेशेवर से परामर्श मांगा जिसके पास बेहतर अनुभव था. उन्होंने कहा, "अब मैं केवल उन पेशेवरों की सलाह लेती हूं जिनकी सिफारिश मेरे किसी भरोसेमंद व्यक्ति ने की हो.”
भारतीय मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम 2017 के तहत, लोगों को यह अधिकार मिलता है कि अगर उन्हें सेवाओं के दौरान किसी तरह की कमी महसूस होती है, तो वे इसकी शिकायत कर सकते हैं.
मारीवाला हेल्थ इनिशिएटिव (एमएचआई), क्वियर अफर्मेटिव काउंसलिंग प्रैक्टिस कोर्स आयोजित करता है. इसके माध्यम से इसने भारत में अब तक लगभग 500 मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों को प्रशिक्षित किया है. यह अपनी वेबसाइट पर उन पेशेवरों का नाम जारी करता है जिन्होंने इस पाठ्यक्रम को पूरा कर लिया है.
मारीवाला हेल्थ इनिशिएटिव की निदेशक राज मारीवाला ने डॉयचे वेले से कहा, "क्वियर, किसी जाति या दिव्यांगों के प्रति दोस्ताना व्यवहार अपनाना किसी एक पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं है. इस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को दोस्ताना व्यवहार अपनाने की कोशिश करनी चाहिए. साथ ही, उन्हें खुद को नियमित तौर पर लगातार अपडेट करना चाहिए.”
जब ‘खराब चिकित्सा' की बात आती है, तो पेशेवरों का कहना है कि लोगों को इससे निराश होने की जरूरत नहीं है. चिन्मया मिशन अस्पताल की हिरानी प्रसाद कहती हैं, "क्लाइंट को यह विश्वास करना होगा कि वे चिकित्सक, काउंसलर या मनोचिकित्सक के आसपास कैसा महसूस करते हैं. एक ही व्यक्ति उन सभी के लिए काम का नहीं हो सकता जिन्हें सहायता की जरूरत है. लोगों को काउंसलर से पूछना चाहिए कि वे इलाज के लिए किन तरीकों का इस्तेमाल करते हैं और सहमति से जुड़ी उनकी नीति क्या है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्लाइंट खुद को सम्मानित महसूस करें, आपकी पसंद का सम्मान किया जाता है और सम्मानजनक तरीके से बातचीत की जानी चाहिए.” (dw.com)
पेंक्रियाटिक यानी अग्न्याशय का कैंसर सबसे घातक कैंसरों में से एक है. एक नयी एमआरएनए वैक्सीन, सर्जरी के बाद ट्यूमर को फिर से उभरने से रोक सकती है.
डॉयचे वैले पर आना कार्टहाउज की रिपोर्ट-
पेंक्रियाटिक कैंसर से पीड़ित 10 में से 9 लोग दम तोड़ देते हैं. पिछले करीब 60 साल से सरवाइवल दर में कोई सुधार नहीं आया है. कोई असरदार उपचार भी बामुश्किल ही उपलब्ध है. इसीलिए थेरेपी में हर किस्म की प्रगति किसी क्रांति से कम नहीं. अभी ठीक यही हो रहा है.
अमेरिका में शोधकर्ताओं ने अग्न्याशयी कैंसर के 16 मरीजों को एमआरएनए वैक्सीन लगाई. उससे पहले उनके ट्यूमर निकाल लिए गये थे. 18 महीने की ट्रायल अवधि के अंत में, आधे मरीजों में बीमारी दोबारा नहीं हुई. सर्जरी के कुछ ही महीनों में लौट आने वाली कैंसर जैसी बीमारी के उपचार में ये प्रयोग एक बड़ी कामयाबी है.
चिकित्सा विज्ञान की दुनिया में चमत्कार कम ही होते हैं. इस मामले में पेंक्रियाटिक कैंसर के विशेषज्ञ कुछ ज्यादा ही उत्हासित हैं. हाइडलबर्ग में जर्मन कैंसर शोध केंद्र में ट्यूमर इम्युनोलॉजिस्ट नील्स हलामा ने ताजा घटनाक्रम को "अद्भुत" और "अप्रत्याशित" समाचार बताया. उल्म स्थित ग्रैस्टोएंट्रोलॉजिस्ट थोमास ज्युफरलाइन ने इसे "पूरी तरह से नयी पद्धति वाली" एक निर्णायक सफलता करार दिया. उनके सहकर्मी अलेक्सांद्र क्लेगर ने इसे चिकित्सा क्षेत्र में क्रांति लाने वाला एक "बड़ा कदम" बताया.
सिर्फ 16 मरीजों पर किए गए इस अध्ययन के निष्कर्ष नेचर पत्रिका में प्रकाशित किए गए. अध्ययन का दायरा छोटा था. लेकिन सबसे घातक और लगभग लाइलाज कैंसरों में से एक के उपचार में एमआरएनए टेक्नोलॉजी के सफल उपयोग का यह पहला उदाहरण है. मरीजों के ट्यूमरों के लिहाज से ढले कैंसर के टीकों को बनाने में सालों की कोशिश के बाद यह निर्णायक सफलता भी है.
अध्ययन के दौरान क्या हुआ?
न्यूयॉर्क स्थित मेमोरियल स्लोन केटरिंग कैंसर सेंटर में, मरीजों के ट्यूमर यानी रसौलियां निकालकर जर्मनी भेजे गये. बायोनटेक नाम की कंपनी ने ट्यूमर के टिश्यू के जीनोम की सीक्वेंसिंग की और उनमें, तथाकथित नियोएंटीजन के म्युटेशनों की मौजदूगी के लिए जांच की गई.
इसके बाद, हर मरीज के लिए लक्षित नियोएंटीजन के एक चयन को कम्पाइल किया गया. सालों की रिसर्च पर आधारित ये काफी पेचीदा प्रक्रिया है. फिर इससे एमआरएनए वैक्सीन पैदा की गई. कोविड-19 की एमआरएनए वैक्सीन की तरह लक्ष्य था इन नियोएंटीजन संरचनाओं के खिलाफ एक प्रतिरोधी प्रतिक्रिया पैदा करने का.
अग्न्याशय में प्राइमरी ट्यूमर को सर्जरी से निकालने के नौ हफ्ते बाद पहली बार मरीजों को टीका लगाया गया. इसके अलावा, मरीजों को कीमोथेरेपी भी दी गई. चेकपॉइंट इनहिबिटर्स (कैंसर को प्रतिरोध प्रणाली बंद करने से रोकने वाले मॉलीक्यूल) भी लगाये गये.
इम्यून रिस्पॉन्स दिखाने वाले आठ मरीजों में, अध्ययन के अंत तक ट्यूमर लौट कर नहीं आया. दूसरे आठ मरीजों में प्रतिरोध प्रणाली ने काम नहीं किया. उनका कैंसर लौट आया.
माउंट सिनाई में न्यूयार्क के इकाह्न स्कूल ऑफ मेडेसिन में कैंसर इम्युनोलॉजी की शोधकर्ता नीना भारद्वाज ने कहा, "मैं इस तथ्य को लेकर काफी उत्साहित हूं कि प्रतिरोध कायम करने और ज्यादा लंबे समय तक के बचाव के शुरुआती संकेत के बीच एक स्पष्ट सहसंबंध मिला है." उनके मुताबिक ज्यादा व्यापक और बड़े क्लिनिकल ट्रायलों के जरिए निष्कर्षों की पुष्टि किये जाने की जरूरत है.
पेंक्रियाटिक कैंसर इतना घातक क्यों है?
पेंक्रियाज यानी अग्न्याशय, पेट के भीतर गहराई में मौजूद एक छोटा सा अंग है. वहां पनपने वाला कैरकीनोमा दुनिया भर में कैंसर से होने वाली मौत की प्रमुख वजहों में से एक है. मुख्य समस्या ये है कि पेंक्रियाटिक कैंसर का पता बहुत आखिरी अवस्था में चल पाता है. शुरू में शिनाख्त का कोई तरीका नहीं है, और कैंसर के असामान्य रूप से बड़ा होने या दूसरे अंगों में फैलने से पहले, मरीजों में कोई लक्षण भी नहीं नजर आते. रसौली को सर्जरी से निकालना भले ही संभव है लेकिन वो अक्सर फिर से पनप उठती है.
थेरेपी को जटिल बनाने वाली दूसरी चीज ये है कि कैंसर लगातार बदलता रहता है. वो न सिर्फ पर्यावरण को बदलता है बल्कि खुद भी पर्यावरण से बदल जाता है. नतीजतन, दो पेंक्रियाटिक कैंसर ऐसे जैसे नहीं होते. यह चीज उपचार को खासतौर पर कठिन बना देती है.
अलेक्सांद्र क्लेगर कहते हैं, "हर पेंक्रियाटिक कैंसर अपने स्तर पर एक अलग बीमारी जैसा है." थोमास ज्युफलेन समझाते हैं कि "इसीलिए हर कैंसर के ट्यूमर के लिए आप एक व्यक्तिनिष्ठ थेरेपी तैयार करना चाहते हैं."
टीके की करामात से हैरान वैज्ञानिक
टीकों की मदद से कैंसर के खिलाफ लड़ाई का विचार नया नहीं है. 2010 में प्रोस्टेट कैंसर के खिलाफ वैक्सीन को अमेरिका में मंजूरी मिल गई थी. पिछले कुछ समय से कैंसर की एमआरएनए वैक्सीनों पर रिसर्च भी जारी है. हाल ही में, मॉडर्ना और मर्क कंपनियों की बनायी एक एमआरएनए वैक्सीन, हाई-रिस्क मेलानोमा के इलाज में सफल रही है.
फिर भी कई वैज्ञानिक ये उम्मीद नहीं करते थे कि पेंक्रियाटिक कैंसर के खिलाफ कोई वैक्सीन काम कर जाएगी. ये कैंसर आखिरकार "कोल्ड ट्यूमर" यानी "ठंडा निष्प्राण ट्यूमर" के रूप में श्रेणीबद्ध है. मतलब ये एक मजबूत प्रतिरोधी प्रतिक्रिया नहीं दिखाता और इसीलिए प्रतिरोध प्रणाली के खिलाफ बेहतर ढंग से छिपा रहता है. कोल्ड ट्यूमर आमतौर पर इम्युनोथेरेपी पर प्रतिक्रिया नहीं देते.
पेन्सिलवेनिया यूनिवर्सिटी में इम्युनोलजिस्ट ड्रियू वाइजमान कहते हैं, "मुझे पता है कि अलग अलग किस्म के कैंसरों की तलाश की जा रही थी कि किस पर ये वैक्सीन असर करेगी. मुझे हैरानी है कि पेंक्रियाटिक कैंसर पर इसने इतना बढ़िया काम कर दिखाया."
सचेत आशावाद- और कई अनसुलझे सवाल
तमाम शुरुआती उत्साह के बावजूद, थोड़ी सावधानी और सजगता बरतना भी जरूरी है. अध्ययन का आकार छोटा था. सिर्फ 16 मरीज थे. 18 महीने पर्यवेक्षण की अवधि भी छोटी थी. इसे कंट्रोल ग्रुप के बिना भी अंजाम दिया गया था. यानी उस तुलना समूह के बिना जिसे सिर्फ सर्जरी, कीमोथेरेपी और चेकपॉइंट इनहिबिटर दिया गया था. इसीलिए टीकाकरण के असर को मापना मुश्किल है और पहले के थेरेपी तरीकों से तुलना भी मुश्किल है. हर मरीज को एक टेलर-मेड वैक्सीन दी गई थी- ये तथ्य भी अध्ययन के नतीजों का एक तुलनात्मक आकलन कर पाने में मुश्किलें खड़ी करता है.
यह अभी भी अस्पष्ट है कि टीका सिर्फ आधे मरीजो में ही क्यों कैंसर के खिलाफ प्रतिरोध पैदा कर पाया या भविष्य में नियोएंटीजन का चयन किया जा सकता है या नहीं या कैसे किया जा सकता है. दिलचस्प बात है कि उसी अवधि के दौरान कोविड-9 के खिलाफ दी गई एमआरएनए वैक्सीन ने सभी मरीजों में प्रतिरोध विकसित कर दिया. ये इस बात का संकेत था कि नियोएंटीजन के प्रति उनकी प्रतिक्रिया किसी भी रूप में बाधित या क्षतिग्रस्त नहीं थी.
यह भी अस्पष्ट है कि टीकाकरण से उन मरीजों को मदद मिलती है या नहीं जिनके ट्यूमर पहले से इतने बढ़े हुए होते हैं कि उनका ऑपरेशन हो ही नहीं सकता. अध्ययन में सिर्फ वे मरीज शामिल किए गए थे जिनके ट्यूमर निकाले जा सकते थे.
नीना भारद्वाज कहती हैं, "बीमारी की उच्च अवस्था में, मेरे ख्याल से स्थिति अलग होती है. प्रतिरोध को दबाने वाले बहुत सारे फैक्टर पहले ही सक्रिय हो चुके होते हैं. और अगर आप एक सही प्रतिरोध प्रतिक्रिया पैदा करते हैं, सही कोशिकाएं ट्यूमर में डाल पाते हैं- इस मामले में टी सेल्स- तो ये अपने आप में मुश्किल हो सकता है. ये एक बड़ा मोटा ट्यूमर है."
इसी वजह से, टीकाकरण अपने आप में एक अपर्याप्त उपचार साबित हो सकता है. लेकिन विशेषज्ञ जोर देते हैं कि माना जा सकता है कि इसे एक पूरक थेरेपी के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, जैसे कि मेटास्टेटिक अवस्था में.
एमआरएनए टीका- इलाज में क्रांति?
इस अवस्था में दूसरे बहुत से व्यवहारिक सवाल भी सामने आ जाते हैं. मसनल, प्रक्रिया को कितना तेज बनाया जा सकता है? एक बार स्थापित हो गई तो वैक्सीन कितनी महंगी होगी? बायोएनटेक के संस्थापक उगुर साहिन ने न्यूयॉर्क टाइम्स को बताया कि पिछले कुछ साल में कंपनी उत्पादन समय को छह सप्ताह से कम रखने में समर्थ रही है और उत्पादन का खर्च प्रति उपचार 350,000 डॉलर से 100,000 डॉलर कर पाई है. ट्यूमर इम्युनोलजिस्ट नील्स हलामा का कहना है, "इस पैमाने पर क्लिनिकल एप्लीकेशन के साथ हम मान सकते हैं कि आगे चलकर और अवसर आएंगे और कीमतों में और कटौती हो पाएगी."
ये सवाल भी है कि क्या ये प्रक्रिया, जिसे जानकार बड़ा ही पेचीदा बताते हैं, विशेषीकृत केंद्रों के बाहर स्थापित की जा सकती है या नहीं. ड्रियू वाइजमान कहते हैं, "ये वो वैक्सीन है जिसे अभी शायद दुनिया में दो या तीन कारगर केंद्रों की दरकार है. लेकिन अंततः हम ऐसी वैक्सीन चाहते हैं जो पूरी दुनिया में इस्तेमाल की जा सके."
इस बारे में अभी काफी कुछ किया जाना बाकी है. कई सवालों के जवाब अभी नहीं मिले हैं. ड्रियु वाइजमान के मुताबिक अभी के लिए, ट्रायल एंड एरर यानी कोशिश और गलती वाला तरीका ही काम का नजर आता है. उन्हें यकीन है कि सारे कैंसर आरएनए वैक्सीन से नहीं जाने वाले. लिहाजा ये तरीका शायद अभी एक क्रांति न कहलाए लेकिन पेंक्रियाटिक कैंसर के मौजूदा उपचार में आमूलचूल बदलाव के लिए एक अहम अगला कदम जरूर साबित हो सकता है. (dw.com)
मरने के बाद क्या होता है? यह सवाल विज्ञान जगत के लिए आज भी अनबूझ पहेली है. लेकिन कुछ वैज्ञानिकों ने इस बारे में नई जानकारियां हासिल की हैं.
जो लोग मौत के बहुत करीब तक पहुंचकर लौटे हैं, वे अक्सर बताते हैं कि उन्हें कुछ अविश्वसनीय अनुभव हुए. कई लोग कहते हैं कि उन्हें एक सुरंग नजर आई, जिसके दूसरी तरफ रोशनी की किरण थी. कुछ लोगों को अपने ही शरीर के बाहर हवा में तैरने का अनुभव हुआ तो कुछ को वे करीबी लोग दिखाई दिए, जिनकी पहले मौत हो चुकी है. एक अनुभव अपनी जिंदगी की घटनाओं को सिनेमा के पर्दे की तरह देखने का भी बताया जाता है.
इन कहानियों में इतनी समानताएं हैं और ये इतने विविध लोगों द्वारा सुनाई गई हैं कि विशेषज्ञ मानते हैं कि इस तरह के अनुभव का कोई शारीरिक या मस्तिष्क में मौजूद कारण हो सकता है, जिसे विज्ञान अभी तक खोज नहीं पाया है.
सोमवार को ‘प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल अकैडमी ऑफ साइंस' पत्रिका में एक शोध पत्र प्रकाशित हुआ है, जिसमें मिशिगन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने ऐसे अनुभवों का कारण खोजने की कोशिश की है. उन्होंने मरते हुए मरीजों के अध्ययन में पाया कि उस वक्त मस्तिष्क में गतिविधियां बहुत तेज हो गई थीं, जिनका संबंध चेतना से था.
कई नई जानकारियां
यह अपनी तरह का पहला शोध नहीं है लेकिन मुख्य शोधकर्ता जीमो बोरिजिन कहती हैं कि इस बार जो बारीक जानकारियां मिली हैं, वे पहले कभी नहीं मिलीं. बोरिजिन की प्रयोगशाला चेतना के न्यूरोबायोलॉजिकल आधार को समझने पर काम कर रही है.
वैज्ञानिकों के इस दल ने चार ऐसे लोगों के रिकॉर्ड्स का अध्ययन किया जिनकी मौत ईईजी के दौरान हुई थी यानी तब उनकी धड़कनों को दर्ज किया जा रहा था. ये चारों मरीज अपनी मौत से पहले कोमा में थे और डॉक्टरों के सुझाव पर इनका लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटा लिया गया था.
जब वेंटिलेटर हटाए गए तो चार में से दो मरीजों के दिलों की धड़कनें तेज हो गईं और मस्तिष्क में गतिविधियां बढ़ गईं. 24 और 77 साल की इन महिलाओं के मस्तिष्क में गामा फ्रीक्वेंसी की लहरें उठीं, जो मस्तिष्क में सबसे तेज गतिविधि होती है और जिसे चेतना से जोड़ा जाता है.
पहले हुए अध्ययनों में भी मरने से ठीक पहले व्यक्ति के मस्तिष्क में गामा किरणों की गतिविधि देखी गई है. 2022 में 87 वर्षीय एक व्यक्ति की मौत गिरने से हुई थी और उसके मस्तिष्क में भी ठीक ऐसी ही गतिविधियां दर्ज की गई थीं.
क्या देखा-सुना
मिशिगन विश्वविद्यालय के शोधकर्ता इन गतिविधियों की गहराई में गए. उन्होंने जानना चाहा कि इस दौरान मस्तिष्क के किन हिस्सों में सक्रियता सबसे ज्यादा रही. शोधकर्ताओं ने पाया कि मस्तिष्क के उन हिस्सों में सक्रियता सबसे ज्यादा थी, जिन्हें चेतना से जुड़ा माना जाता है. इनमें पोस्टीरियर कॉर्टिकल हॉट जोन यानी कान के पीछे का हिस्सा शामिल था.
बोरिजिन कहती हैं, "इस हिस्से में सक्रियता इतनी ज्यादा थी जैसे आग लगी हुई हो. यह मस्तिष्क का वो हिस्सा है जो अगर सक्रिय होता है तो उसका अर्थ है कि मरीज कुछ देख-सुन रहा है और शरीर में संवेदनाओं को भी महसूस कर सकता है.”
मरीजों की मौत तक आखिरी कुछ घंटों में मस्तिष्क और दिल की गतिविधियों पर पल-पल की निगरानी रखी गई थी जिससे विश्लेषण को और गहराई मिली. वैज्ञानिक अभी इस बात का जवाब देने की स्थिति में नहीं हैं कि ये गतिविधियां सिर्फ दो मरीजों के अंदर हुईं और दो अन्य मरीजों में क्यों नहीं हुईं. लेकिन बोरिजिन का अनुमान है कि इन मरीजों को दौरा पड़ने की समस्या रही थी, जिसका कोई असर रहा हो सकता है.
हालांकि विशेषज्ञ मानते हैं कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए यह सैंपल साइज बहुत छोटा है. और यह जानना भी संभव नहीं है कि मरीजों ने वाकई उस दौरान कुछ देखा, सुना. बोरिजिन उम्मीद करती हैं कि आने वाले समय में इसी तरह का सैकड़ों लोगों का डेटा उपलब्ध होगा, जिससे मृत्यु को और गहराई से समझा जा सकेगा.
वीके/सीके (एएफपी)
लग्नराशि पर आधारित कलाशांति ज्योतिष साप्ताहिक राशिफल में जानिए, आपका पारिवारिक जीवन, आर्थिक दशा, स्वास्थ्य व कार्यक्षेत्र में आपकी स्थिति इस सप्ताह कैसी रहेगी और यह भी कि इस सप्ताह आपको क्या-कुछ मिलने वाला है, आपके लिए क्या-क्या करना फायदेमंद रहेगा और परेशानियों से बचने के लिए आपको कौन-कौन सी सावधानियां बरतनी चाहिए। मेष लग्नराशि : इस सप्ताह मन में कोई अनजाना डर बना रह सकता है। लाभ को लेकर स्तिथियां आपके पक्ष में रहेंगी। दैनिक बोलचाल मे अपनी वाणी पर संयम बरतें। बड़े भाइयों का सहयोग मिलने से लाभ की स्थिति उत्पन्न हो सकती है तथा उनको भी लाभ प्राप्त होगा। धार्मिक कार्यो में खर्च हो सकता है। संतान पक्ष से खुशखबरी मिल सकती है। कार्यक्षेत्र में स्थिति सामान्य रहेगी।
वृषभ लग्नराशि : इस सप्ताह में भाई-बहनों के मध्य मतभेद उत्पन्न हो सकते हैं। स्वास्थ्य को लेकर परेशानी रह सकती हैं। नौकरी में बदलाव हो सकते हैं तथा प्रमोशन प्राप्त हो सकता है। आलस्य में वृद्धि होने से कार्य समय से पूर्ण न हो पाने से मन व्यथित हो सकता है। माता-पिता का सहयोग प्राप्त होगा। यात्राओं के योग बनेंगे। जातकों के प्रेम प्रसंग विवाह में तब्दील हो सकते हैं।
मिथुन लग्नराशि : इस सप्ताह में अनेक प्रकार के लाभों की प्राप्ति हो सकती है। पराक्रम में वृद्धि होगी तथा समाज में मान-सम्मान में वृद्धि होगी। वाणी पर संयम रखें अन्यथा बनते कार्य बिगड़ सकते हैं। दांतो में तकलीफ उत्पन्न हो सकती है, सचेत रहें। पति-पत्नी तथा व्यापारिक साझेदारों के मध्य मतभेद की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। माता को तकलीफ रह सकती है। नौकरी में स्थिति सामान्य रहेगी।
कर्क लग्नराशि : इस सप्ताह धन को लेकर आर्थिक स्थिति अच्छी बनी रहेगी। मानसिक तनाव बना रह सकता है। स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हो सकते हैं। सिरदर्द की समस्या हो सकती है। नौकरी कर रहे जातकों के लिए हफ्ता अच्छा रहेगा। नयी जॉब प्राप्त हो सकती है। वैवाहिक जीवन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। हफ्ते का अंत मानसिक राहत प्रदान करेगा।
सिंह लग्नराशि : इस सप्ताह खचरे में वृद्धि हो सकती है, कुछ व्यर्थ के खर्चे भी संभव हैं। खचरें के हिसाब से धन का आगमन भी होगा। लाभ के नए रास्ते मिलेंगे। हफ्ते के मध्य में संतान तथा शिक्षा के क्षेत्र में कुछ परेशानी मिल सकती है। भाग्य का साथ मिलेगा, नयी नौकरी के ऑफर मिल सकते हैं। पारिवारिक माहौल खुशनुमा बना रहेगा। यात्राओं के योग बन रहे हैं।
कन्या लग्नराशि : इस सप्ताह आलस्य के होने से कार्य धीमी गति से पूर्ण होंगे। स्वास्थ्य के लिहाज से रक्त से सम्बंधित कोई परेशानी हो सकती है। भवन तथा वाहन में खर्च कर सकते है। सरकारी कार्य हेतु यात्रा पर जा सकते हैं। छात्रों को पढ़ाई के क्षेत्र में परेशानी मिल सकती है। इस हफ्ते मन विचलित बना रहेगा। सकारात्मक सोच के साथ कार्यों को करें। माता के सुख में कमी आएगी तथा उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखें।
तुला लग्नराशि : इस सप्ताह लाभ की नई स्तिथियां उतप्न्न होंगी। छात्रों को अपने परिश्रम का अच्छा फल मिलेगा। संतान की और से शुभ समाचार प्राप्त होंगे, पारवारिक माहौल अच्छा बना रहेगा। माता को कष्ट हो सकता है, ध्यान रखें। नौकरी कर रहे जातकों को अधिक परिश्रम करना पड़ सकता है। अधिक कार्य होने से मन व्यथित हो सकता है। पति-पत्नी के मध्य स्थिति सामान्य बनी रहेगी।
वृश्चिक लग्नराशि : इस सप्ताह लाभ कम तथा खचरें की अधिकता हो सकती है। नौकरी के लिए किये गए प्रयासों में सफलता मिल सकती है। उच्च अधिकारियो से तालमेल अच्छा बना रहेगा तथा उनके सहयोग से कार्य समय से पूर्व संपन्न हो सकते हैं। वाणी की कटुता से काम बिगड़ सकते हैं, सचेत रहें। बड़े भाई से मतभेद हो सकते हैं। नकारत्मक विचारों के चलते परेशान हो सकते है।
धनु लग्नराशि : इस सप्ताह भाग्य का साथ होने से आपके सभी कार्य पूर्ण होते रहेंगे। अचानक धन लाभ की प्राप्ति हो सकती है। विदेश यात्रा के योग बनेंगे। मान-सम्मान में कमी होगी। वैवाहिक जीवन में परेशानियां आ सकती हैं। छात्रों के लिए ये हफ्ता बहुत अच्छा व्यतीत होगा। वे अपने सभी कार्य सरलता से पूर्ण करेंगे। दादा तथा पिता को कष्ट हो सकता है, तनाव लेने से बचें।
मकर लग्नराशि : इस सप्ताह मानसिक तनाव बड़ सकते हैं। बायीं आंख में परेशानी हो सकती है। अनचाही यात्रा हो सकती है। क्रोध के चलते कार्य बिगड़ सकते हैं। खचरें में अधिकता रहेगी। जीवनसाथी के ऊपर किसी प्रकार का खर्चा हो सकता है। नौकरी में स्थिति सामान्य रहेगी, कार्य का बोझ अधिक हो सकता है। हफ्ते के अंतिम दिनों में स्थितियां सामान्य होंगी, तथा लाभ प्राप्त होगा।
कुंभ लग्नराशि : इस सप्ताह भाई तथा मित्रों से बहसबाजी हो सकती है, बचाव करें। वाहन चलाते समय सावधानी बरतें। यात्राओं के कारण शारीरिक परेशानियां हो सकती हैं। धन की स्थिति ठीक रहेगी, जिन लाभों के बारे में सोचा था, वे हफ्ते के अंत तक हो सकते हैं। पारिवारिक जीवन अच्छा चलेगा। कार्यक्षेत्र में कार्यों की अधिकता हो सकती है। संतान को शारीरिक कष्ट हो सकता है।
मीन लग्नराशि : इस सप्ताह नौकरी कर रहे जातकों को उच्च अधिकारियों से तनाव मिल सकता है। सहकर्मियों का सहयोग अल्प मात्रा में मिल सकता है। पिता से मतभेद हो सकते हैं। कोई आपको नीचा दिखाने की कोशिश कर सकता है। छात्रों को परिश्रम अनुसार फल की प्राप्ति में कमी होगी। संतान पक्ष से तकलीफ मिल सकती है। किसी भी प्रकार का निवेश करने से बचें।
(ज्योतिषी विशाल वाष्र्णेय कलाशांति ज्योतिष के संस्थापक हैं। यह साप्ताहिक राशिफल आपकी लग्नराशि के आधार पर आधारित है। ये समस्त राशिफल सामान्य हैं। किसी भी निश्चित परिणाम पर पहुंचने के लिए ज्योतिषी से दशा-अंतर्दशा और जन्मपत्री का पूर्ण रूप से अध्ययन कराना उचित रहता है।)
कोई काम जो नुकसान पहुंचाता हो, उसे कोई इंसान बार-बार क्यों करता है? यह मानव मन की ऐसी गुत्थी है जिसे मनोवैज्ञानिक बरसों से समझने की कोशिश कर रहे हैं. ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने कुछ जवाब खोजे हैं.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
रात को बहुत ज्यादा शराब पीने के बाद सुबह सिर दर्द के साथ उठते लोग अक्सर कहते या कम से कम सोचते हैं कि वे दोबारा ऐसा नहीं करेंगे. लेकिन यह बात बेमायने होती है क्योंकि वे ऐसा फिर करते हैं. लेकिन क्यों? अगर लोगों को पता है कि कोई चीज या काम उनके लिए हानिकारक है तो वे क्यों अपने आपको दोहराते हैं? ऑस्ट्रेलिया के मनोविज्ञानियों ने इस सवाल का जवाब खोजने की कोशिश की है.
ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स यूनिवर्सिटी और वेस्टर्न सिडनी यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिकों ने इस बात पर शोध किया है कि जो लोग हानिकारक व्यवहार को दोहराते हैं, वे ऐसा क्यों करते हैं. प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल अकैडमी ऑफ साइंसेज (पीएनएएस) में छपा यह शोध बताता है कि जो लोग बार-बार गलतियां करते हैं, उनकी खुद को बदलने की इच्छा में कोई कमी नहीं होती बल्कि वे अपने अनुभवों से जो सीखते हैं, उसका सही कारण समझने की कमी के कारण वे उन्हीं अनुभवों को दोहराते हैं.
कैसे हुआ शोध?
सवाल का जवाब जानने के लिए वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया. उन्होंने कुछ इच्छुक युवाओं को एक साधारण वीडियो गेम खेलने के लिए बुलाया. यह वीडियो गेम ब्रह्मांड में मौजूद अलग-अलग मायावी ग्रहों पर आधारित था. खेलने वालों को दो ग्रहों पर क्लिक करना था जिसके बदले उन्हें अंक मिलते. इन अंकों के आधार पर उन्हें पैसे मिलने थे.
लेकिन वैज्ञानिकों ने प्रयोग में शामिल युवाओं को यह नहीं बताया था कि जब भी वे किसी ग्रह पर क्लिक करते, तो कुछ नए स्पेसशिप पैदा हो जाते. एक ग्रह पर क्लिक करने से जो स्पेसशिप पैदा हो रहे थे वे उनके अंकों को चुरा सकते थे जबकि दूसरे ग्रह पर क्लिक करने से पैदा होने वाले यान कोई नुकसान नहीं पहुंचाते.
जिन युवाओं ने गेम में अच्छा प्रदर्शन किया, उन्हें वैज्ञानिकों ने संवेदनशील का नाम दिया. ये वे लोग थे जिन्होंने बुरे ग्रह और उस पर क्लिक करने की वजह से पैदा हो रहे पाइरेट शिप में संबंध को समझ लिया था और अपने व्यवहार में बदलाव करके उस बुरे ग्रह पर क्लिक करने से परहेज किया.
लेकिन वैज्ञानिकों ने पाया कि कई दौर खेले जाने के बाद भी ऐसे लोग थे जो पाइरेट शिप और बुरे ग्रह में संबंध को समझ नहीं पाए थे और नुकसान के बावजूद बार-बार बुरे ग्रह पर क्लिक किए जा रहे थे. जब उन्हें यह संबंध समझाया गया तो ज्यादातर लोगों ने अपना व्यवहार बदल लिया और बुरे ग्रह पर क्लिक करने से परहेज किया. लेकिन वैज्ञानिकों को हैरत इस बात से हुई कि समझाए जाने के बावजूद कुछ लोगों ने बुरे ग्रह पर क्लिक करना बंद नहीं किया.
क्या पता चला?
मुख्य शोधकर्ता डॉ. फिलिप ज्याँ-रिचर्ड-डिट-ब्रेसेल लिखते हैं, "हम इसी वीडियो गेम के जरिए अब तक हुए शोधों के आधार पर यह जानते हैं कि बहुत से लोग इस बात को समझने में नाकाम रहते हैं कि उनके व्यवहार का असर नतीजों पर पड़ रहा है. लेकिन हमारे प्रयोग ने यह पाया कि समझाए जाने के बाद कुछ लोगों का व्यवहार बदल गया लेकिन तब भी ऐसे लोग थे जो अपने व्यवहार में कोई बदलाव नहीं कर पाए थे.”
ऐसे लोगों को वैज्ञानिकों ने कंपल्सिव नाम दिया. शोध में शामिल बिहेवियरल न्यूरोसाइंटिस्ट प्रोफेसर गैवन मैकनैली कहते हैं कि इस प्रयोग को समग्र रूप में देखा जाना चाहिए क्योंकि असल जिंदगी में लोग आमतौर पर इससे ज्यादा लचीले होते हैं. वह कहते हैं कि उनका शोध इस बात पर रोशनी डालता है कि मस्तिष्क के अंदर ऐसी परिस्थितियों में क्या चल रहा होता है.
अब तक खुद को नुकसान पहुंचाने वाले व्यवहार की दो व्याख्याएं उपलब्ध हैं. एक कहती है कि नशीली दवाओं या जुए की लत जैसी आदतों में लोग अपने किए को बाकी सबसे ऊपर समझते हैं इसलिए नुकसान के बावजूद उसे करते जाते हैं. एक और व्याख्या यह है कि उनकी आदत उनके नियंत्रण या समझ से बाहर की चीज होती है.
प्रोफेसर मैकनली कहते हैं, "हम यह दिखा रहे हैं कि उनका व्यवहार के लिए जागरूकता की कमी या नैतिक मूल्यों में कमी जिम्मेदार नहीं है बल्कि वे यह समझ ही नहीं पाते हैं कि उनकी हरकतें उन्हें नुकसान पहुंचा रही हैं. इसे यूं समझ सकते हैं कि वे अनुभवों से गलत बात ही सीखते हैं.” (dw.com)
लग्नराशि पर आधारित कलाशांति ज्योतिष साप्ताहिक राशिफल में जानिए, आपका पारिवारिक जीवन, आर्थिक दशा, स्वास्थ्य व कार्यक्षेत्र में आपकी स्थिति इस सप्ताह कैसी रहेगी और यह भी कि इस सप्ताह आपको क्या-कुछ मिलने वाला है, आपके लिए क्या-क्या करना फायदेमंद रहेगा और परेशानियों से बचने के लिए आपको कौन-कौन सी सावधानियां बरतनी चाहिए। मेष लग्नराशि: हफ्ते की शुरुआत अच्छी होगी। किये जा रहे प्रयासों में सफलता मिलने के संकेत है। नौकरी कर रहे जातकों को कार्यस्थल में थोड़ी परेशानी हो सकती है। हफ्ते के मध्य में स्वास्थ्य बिगड़ सकता है। किसी से भी बहसबाजी से बचें। प्रेम सम्बन्धों के लिए ये हफ्ता मिलाजुला रहने वाला है। आसपास की किसी यात्रा का योग बन सकता है। खर्चा थोड़ा बढ़ सकता है। किसी के द्वारा दिया गया व्यापारिक सुझाव आपको फायदा दे सकता है।
वृषभ लग्नराशि: सुखो मैं वृद्धि के योग है। अपने रहन सहन पर खर्च कर सकते है। नौकरी तथा व्यापार मैं स्तिथि अच्छी बनी रहेगी। किसी भी कार्य को जल्दबाजी से करने से बचे। पारिवारिक माहौल अच्छा बना रहेगा। पुराने लोगो से मुलाकात हो सकती है। ये हफ्ता विद्यार्थी वर्ग के लिए बहुत अच्छा जायेगा। स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही न बरते। मन ना होने पर भी किसी यात्रा पर जाना पड सकता है।
मिथुन लग्नराशि : इस हफ्ते आप अपने स्वास्थ्य पर ज्यादा ध्यान देंगे। नौकरी तथा व्यापार की तलाश में भटक रहे लोगो को शुभ अवसर प्राप्त हो सकते हैं। उधार दिया पैसा वापस मिल सकता है। परिवार के साथ घूमने का प्रोग्राम बना सकते है। वार्तालाप करते समय शब्दों का ध्यान रखें। अन्यथा बनते काम बिगड़ सकते हैं। बुजुर्ग लोगों और सरकारी कार्यों में अड़चन आ सकती है।
कर्क लग्नराशि: हफ्ते की शुरुआत से ही लाभ के योग बनेंगे। बैंकों तथा किसी पॉलिसी से लाभ मिलने के योग हैं। इस हफ्ते आपको स्वास्थ्य पर बहुत ध्यान देना पड़ सकता है। पति पत्नी और व्यापारिक साझेदारों के मध्य मनमुटाव की स्तिथि उत्पन्न हो सकती है। नौकरी कर रहे लोगो को उच्च अधिकारियो का साथ न मिलने से मन खिन्न हो सकता है। माता तथा भूमि से आपको लाभ संभव है।
सिंह लग्नराशि: हफ्ते की शुरुआत में स्वास्थ्य से सम्बंधित कोई विकार परेशान कर सकता है। खचरें में वृद्धि से आर्थिक पक्ष कमजोर बन सकता है। कार्य के सिलसिले में व्यर्थ की भागदौड़ परेशान कर सकती है। इस हफ्ते विदेश यात्रा के योग भी बनेंगे। हफ्ते के मध्य भाग से आर्थिक पक्ष मजबूत हो सकता है तथा व्यवसाय में लाभ सम्भव है। पारिवारिक लोगों का साथ रहने से कई परेशानियों पर विजय प्राप्त करेंगे।
कन्या लग्नराशि: हफ्ते की शुरुआत में आप अपने अटके हुए कार्यों को पूरा करने में समय देंगे। भावनाओं में बहकर कोई भी कार्य न करें अन्यथा नुकसान हो सकता है। लाभ की स्तिथि बनी रहेगी। पारिवारिक वातावरण अच्छा बना रहेगा। विद्यार्थी वर्ग को थोड़ी परेशानी हो सकती है। माता की तबीयत बिगड़ सकती है। अचानक कोई लाभ होने से मन खुश होगा।
तुला लग्नराशि: हफ्ते की शुरुआत से ही आप अपने रुके हुए कार्यों में गति देने के लिए ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। भाइयों का भरपूर सहयोग प्राप्त होगा। नौकरी तथा व्यवसाय में आपका रुतबा बढ़ेगा और नौकरी में पदोन्नति भी सम्भव है। आर्थिक स्थिति सामान्य बनी रहेगी और लाभ की स्थिति बनेगी। जीवनसाथी तथा संतान के साथ खुशियों भरा समय व्यतीत करेंगे।
वृश्चिक लग्नराशि: हफ्ते की शुरुआत में आप अपने कार्य पर बहुत ध्यान देंगे। स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। सहकर्मियों का भरपूर साथ मिलेगा। भाइयो का साथ देंगे तथा उनके कार्यो में मदद भी करेंगे। अचानक लाभ की स्तिथि बनी रहेगी। खचरें में बढ़ोतरी हो सकती है। कार्यक्षेत्र में आपका लोगों से मिलना जुलना बढ़ेगा। पारिवारिक जीवन मधुरता बाला रहेगा। शत्रुओं पर विजय प्राप्त होगी।
धनु लग्नराशि: इस हफ्ते किये जा रहे प्रयासों में सफलता मिलेगी। भाग्य का साथ मिलेगा। मान सम्मान में वृद्धि के योग है। पिता तथा सरकारी कार्यों में अवरोध आ सकते हैं। पूजा पाठ में ध्यान बढ़ सकता है। आर्थिक स्तिथि में वृद्धि के योग हैं। यात्राएं लाभकारी सिद्ध होंगी। नौकरी कर रहे जातकों को उच्च अधिकारियो द्वारा प्रसंशा प्राप्त होगी। माता की सेवा कर सकते हैं।
मकर लग्नराशि: इस हफ्ते स्वास्थ्य को लेकर चिंता रह सकती है। यात्राओं के बनेंगे जो शारीरिक और मानसिक रूप से थकाने वाली हो सकती है। व्यर्थ के वातार्लाप से दूर रहें अन्यथा मानसिक अशांति उत्पन्न हो सकती है। कार्यक्षेत्र में सहकर्मियों का सहयोग मिलेगा। आर्थिक स्तिथि में सुधार होगा तथा खर्चा भी बहुत रहेगा। पति पत्नी तथा संतान के मध्य तालमेल बिगड़ सकता है। किसी के द्वारा गिफ्ट प्राप्त हो सकता है।
कुंभ लग्नराशि: इस हफ्ते आप कई कार्यो में व्यस्त रह सकते हैं। नौकरी की तलाश कर रहे जातकों को सफलता प्राप्त हो सकती है। आपका पराक्रम और आत्मविश्वास बढ़ाचढ़ा रहेगा। ऑफिस में आप उत्तम समय व्यतीत करेंगे। यात्रा के योग बन सकते हैं। स्वास्थ्य का ध्यान रखे थकावट तथा सिरदर्द की परेशानी हो सकती है। रुका पैसा मिलने के योग बन सकते हैं। भाग्य का साथ बन रहेगा।
मीन लग्नराशि: इस हफ्ते आपका स्वास्थ्य कुछ नरम रह सकता है। पेट से संबंधित कोई विकार उत्पन्न हो सकता है। विद्यार्थी वर्ग को पढ़ाई में अवरोध आ सकते हैं। हफ्ते के मध्य में जीवनसाथी से सहयोग प्राप्त हो सकता है। वरिष्ठ लोगो से मतभेद हो सकता है। मित्रों के साथ समय व्यतीत कर सकते हैं। नौकरी के लिए किए आवेदन में सफलता प्राप्त हो सकती है।
(ज्योतिषी विशाल वाष्र्णेय कलाशांति ज्योतिष के संस्थापक हैं। यह साप्ताहिक राशिफल आपकी लग्नराशि के आधार पर आधारित है। ये समस्त राशिफल सामान्य हैं। किसी भी निश्चित परिणाम पर पहुंचने के लिए ज्योतिषी से दशा-अंतर्दशा और जन्मपत्री का पूर्ण रूप से अध्ययन कराना उचित रहता है।)