सेहत-फिटनेस
चिली के वैज्ञानिकों ने एक वैक्सीन विकसित की है जो जानवरों की अस्थायी नसबंदी कर सकती है. बड़े पैमाने पर जानवरों की नसबंदी करने में बिना सर्जरी की यह प्रक्रिया काफी फायदेमंद साबित हो सकती है.
फिंडली का नसीब अच्छा है कि वह एक वैज्ञानिक प्रयोग का हिस्सा बना. इस छोटे सफेद और भूरे चिलियन टेरियर कुत्ते की नसबंदी एक नई तकनीक के जरिए बिना किसी सर्जरी के हो गई. फिंडली दुनिया के उन पहले कुत्तों में से एक है जिनकी नसबंदी बिना किसी सर्जरी के हुई.
यह प्रक्रिया सैंटियागो में उसके घर पर ही की गई. तब उसकी मालकिन उसे पकड़कर रखे हुए थी. प्रक्रिया के दौरान और बाद में खाने के लिए उसे ट्रीट्स दी गईं. इसके बाद, वह ऐसा दिखा मानो कुछ हुआ ही न हो और मस्ती से इधर-उधर दौड़ने लगा.
प्रक्रिया के लिए ना तो फिंडली को बेहोश किया गया और ना ही कोई चीरफाड़ हुई. बस एक साधारण इंजेक्शन दिया गया, जिसे वैक्सीन के रूप में विकसित करने वालों ने 'इम्यूनोकैस्ट्रेशन वैक्सीन' कहा है. इस वैक्सीन का नाम है "एगालिटे".
कई तरह के फायदे
इस वैक्सीन को विकसित करने वाले चिली यूनिवर्सिटी के वेटरनरी विशेषज्ञ और प्रोफेसर लियोनार्डो साएंज का कहना है कि यह वैक्सीन उस हॉर्मोन को ब्लॉक करती है जो प्रजनन के लिए जिम्मेदार होता है, और यह प्रक्रिया वापस पलटी जा सकती है.
उन्होंने समझाया, "अगर हम उस हॉर्मोन को ब्लॉक कर देते हैं, तो गोनाडोट्रोपिन नहीं निकलता और इसीलिए सेक्सुअल हार्मोन्स भी नहीं बनते, जिससे जानवर नसबंदी की स्थिति में रहता है."
यह वैक्सीन नर और मादा दोनों के लिए इस्तेमाल की जा सकती है और इसकी कीमत लगभग 50,000 चिलियन पेसोस (करीब 4,500 भारतीय रुपये) है. इसके लिए पशु चिकित्सक की पर्ची और यह सुनिश्चित करने के लिए जांच की जरूरत होती है कि कुत्ता इस प्रक्रिया के लिए उपयुक्त है या नहीं.
साएंज का कहना है कि यह उत्पाद बड़े पैमाने पर जानवरों की नसबंदी में भी मदद कर सकता है, क्योंकि यह सर्जिकल नसबंदी से कम जटिल और कम आक्रामक है. भारत जैसे देशों में यह तकनीक कामयाब हो सकती है जहां आवारा कुत्तों की नसबंदी एक चुनौतीपूर्ण काम होता है.
उन्होंने कहा, "इंजेक्शन देना बहुत आसान है और अगर आपको प्रजनन नियंत्रण के लिए बड़ी संख्या में जानवरों का टीकाकरण करना हो, तो यह एक अच्छा विकल्प है."
मालिकों के लिए सुविधाजनक
फिंडली की मालकिन तामारा जामोरानो कहती हैं कि उन्होंने यह तरीका इसलिए चुना क्योंकि एक तो यह बहुत सरल है और स्थायी नहीं है.
उन्होंने कहा, "दूसरी प्रक्रिया, यानी सर्जिकल नसबंदी से हम थोड़े डरे हुए थे. यह प्रक्रिया न सिर्फ सरल है, बल्कि उलटी भी जा सकती है, ताकि अगर हम भविष्य में उसका प्रजनन करना चाहें, तो सही समय पर कर सकें."
फिंडली ने इस प्रक्रिया पर कोई टिप्पणी नहीं की, हालांकि इंजेक्शन के दौरान वह थोड़ा हिला, लेकिन बाद में उसने खुशी-खुशी पशु चिकित्सक के हाथ को चाटा और अपनी मस्ती में वापस लौट गया.
वीके/सीके (रॉयटर्स)
मोटापा घटाने के लिए काफी लोकप्रिय हो चुकी वीगोवी और ओजेंपिक जैसी दवाएं असल में टाइप-2 डायबिटीज के लिए स्वीकार की गई थीं.
डॉयचे वैले पर फ्रेड श्वालर की रिपोर्ट-
कोरोना महामारी के दौरान ही वीगोवी और ओजेंपिक आम लोगों के बीच काफी चर्चा में आ गए थे. तब से इन दवाओं ने वजन घटाने से जुड़े उद्योग में तूफान मचा दिया है. ध्यान देने वाली बात यह है कि दोनों उत्पाद एक ही दवा या इंग्रेडिएंट ‘सेमाग्लूटाइड' पर आधारित हैं, लेकिन वीगोवी और ओजेंपिक मूल रूप से अलग-अलग मामलों में इस्तेमाल के लिए बनाए गए थे.
ओजेंपिक को पहली बार 2017 में यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने ‘भोजन और व्यायाम के अलावा, टाइप 2 मधुमेह वाले वयस्कों में शुगर लेवल को कम करने वाली इंजेक्शन योग्य दवा' के तौर पर अनुमति दी थी.
उसी वर्ष वीगोवी को व्यस्कों और 12 वर्ष या उससे ज्यादा उम्र के ऐसे बच्चों के लिए अनुमति दी गई थी जिनका वजन काफी ज्यादा था या जो मोटापे से ग्रसित थे. सेमाग्लूटाइड को टैबलेट के रूप में भी लिया जा सकता है, जिसे राइबेलसस नाम से बेचा जाता है.
जब मशहूर हस्तियों ने घटाया वजन
तकनीकी क्षेत्र के दिग्गज से लेकर ऑनलाइन प्लैटफॉर्म पर मशहूर हस्तियों ने इस दवा का समर्थन किया है. इनमें ओपरा विनफ्रे, केली क्लार्कसन और एमी शूमर जैसे लोग शामिल हैं. टेस्ला के सीईओ इलॉन मस्क से जब किसी ने पूछा, "आप इतना तंदुरुस्त और स्वस्थ कैसे दिखते हैं? इसका क्या राज है?, तो उन्होंने अक्टूबर 2022 में एक ट्वीट किया कि वे वीगोवी ले रहे थे.”
मशहूर हस्तियों ने जब इन दवाओं का समर्थन किया, तो सामाजिक स्तर पर इसका काफी प्रभाव पड़ा है. हालांकि, इसका वित्तीय प्रभाव भी पड़ा है. यह खास तरह के इलाज के लिए दवा थी, लेकिन अब इसका प्रभाव काफी ज्यादा बढ़ गया है. यह फैशन कैटवॉक पर भी दिखने लगा है.
डेनमार्क की दवा कंपनी नोवो नॉर्डिस्क इस दवा के तीनों वर्जन बनाती और बेचती है. मई में इस कंपनी की वैल्यू 570 अरब डॉलर थी, जो डेनमार्क की पूरी अर्थव्यवस्था या जीडीपी से भी ज्यादा है.
सेमाग्लूटाइड कैसे काम करता है?
सेमाग्लूटाइड जीएलपी-1 नामक एक प्राकृतिक हार्मोन की नकल करके भूख को कम करता है. जीएलपी-1 हमारे खाने के बाद रिलीज होता है. यह मस्तिष्क में जाता है और संकेत देता है कि हमारा पेट भर चुका है. यह पाचन तंत्र में भी जाता है, जहां भोजन पचने की प्रक्रिया को धीमा कर देता है.
सेमाग्लूटाइड अग्न्याशय को अधिक इंसुलिन बनाने में मदद करके ब्लड शुगर के लेवल को कम करता है. ओजेंपिक दवा इसी आधार पर असर करती है और इससे टाइप 2 मधुमेह वाले लोगों का इलाज करने में मदद मिलती है, क्योंकि उनका शरीर अपनी जरूरत के हिसाब से इंसुलिन का उत्पादन नहीं कर पाता है.
ब्रिटेन में स्थित किंग्स कॉलेज लंदन में फिजीशियन-डॉक्टर पेनी वार्ड ने कहा, "ओजेंपिक मधुमेह वाले लोगों के लिए हृदय संबंधी जटिलताओं के जोखिम को भी कम कर सकता है.” वार्ड ने ईमेल के माध्यम से डीडब्ल्यू को बताया, "जब वजन घटाने की दवा के रूप में वीगोवी का इस्तेमाल किया जाता है, तो उसे काफी ज्यादा मोटापे से जूझ रहे लोगों को आहार और व्यायाम के सप्लीमेंट के रूप में लेने का सुझाव दिया जाता है.”
क्लिनिकल ट्रायल में पता चला है कि वजन घटाने के इलाज के दौरान जिन लोगों ने वीगोवी का इस्तेमाल किया, उनका वजन 68 सप्ताह बाद 5 से 15 फीसदी तक कम हो गया. हालांकि, इस दवा को इस्तेमाल करने का सुझाव सिर्फ उन लोगों को दिया जाता है जिनका बॉडी मास इंडेक्स या बीएमआई 30 किग्रा/एम2 से अधिक है. इतना ज्यादा मोटापा किसी भी व्यक्ति के सेहत के लिए खतरा माना जाता है.
अगर किसी व्यक्ति का बीएमआई 25.0 और 29.9 किग्रा/एम2 के बीच है या उसका वजन सामान्य है, तो वैसे लोगों को वीगोवी का इस्तेमाल करने का सुझाव नहीं दिया जाता है.
खुद को फिट दिखाने के लिए नहीं है वीगोवी
वार्ड और अन्य स्वास्थ्य विशेषज्ञ चिंतित हैं कि कुछ लोग तुरंत वजन कम करने के लिए इस दवा का दुरुपयोग कर रहे हैं. वार्ड ने कहा कि वीगोवी ऐसी दवा नहीं है जिसे खुद को फिट दिखाने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए.
वीगोवी और ओजेंपिक से कई तरह के साइड इफेक्ट हो सकते हैं. जैसे, मतली, उल्टी, दर्द, थकान या किडनी के काम करने की क्षमता को नुकसान पहुंचना. ब्रिटेन के एंग्लिया रस्किन यूनिवर्सिटी में फिजियोलॉजिस्ट साइमन कॉर्क ने कहा कि अधिकांश लक्षण हल्के और थोड़े समय के लिए होते हैं. हालांकि, कुछ गंभीर दुष्परिणाम भी हो सकते हैं, जैसे कि पित्ताशय की पथरी और पैन्क्रियाटाइटिस.
कई बार आंतों में रुकावट, गर्भावस्था संबंधी जटिलताएं और आंखों की रोशनी जाने जैसे दुर्लभ और गंभीर दुष्प्रभावों की रिपोर्टें भी मिली हैं. कॉर्क ने कहा कि ऐसा इसलिए हो सकता है, क्योंकि लोग ‘चिकित्सीय सीमाओं के बाहर, या तो लाइसेंस के बिना या अवैध तरीके से' खुराक लेते हैं.
वार्ड ने कहा, "साइड इफेक्ट का मतलब है कि सेमाग्लूटाइड दवाओं को काफी ज्यादा मोटापे से जूझ रहे लोगों को ही लेना चाहिए, जिन्हें हृदय संबंधी बीमारियों का खतरा है और वह भी चिकित्सकों की निगरानी में.”
बढ़ रही है वजन घटाने वाली दवाओं की नकल
तुरंत वजन घटाने का दावा करने वाले नुस्खे पुराने समय से प्रचारित किए जा रहे हैं. वीगोवी और ओजेंपिक के लोकप्रिय होने के बाद वे और ज्यादा बढ़ गए हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि ऑनलाइन बाजार में वीगोवी और ओजेंपिक की तरह दिखने वाली नकली दवाएं भर गई हैं.
कुछ विक्रेता तो वीगोवी और ओजेंपिक के विकल्प के तौर पर, वजन घटाने की दवा के रूप में "प्राकृतिक" और "साइड-इफेक्ट मुक्त" दवा उपलब्ध कराने का वादा करते हैं. सेलिब्रेटी और कारोबारी कॉर्टनी कार्डेशियन भी इस ट्रेंड में शामिल हो गई हैं. उन्होंने अपने सप्लीमेंट ब्रांड लेम्मे के माध्यम से ‘जीएलपी-1 डेली' लॉन्च किया है. हालांकि, नाम के बावजूद सप्लीमेंट में प्राकृतिक या सिंथेटिक रूप में कोई जीएलपी-1 नहीं है और सप्लीमेंट हार्मोन की तरह काम नहीं करता है. कैप्सूल में नींबू, केसर और संतरे के खाने वाले अर्क होते हैं.
इसे ‘मेटाबोलिक हेल्थ के लिए एक नई खोज के रूप में प्रचारित किया जाता है, जो आपके शरीर में जीएलपी-1 के उत्पादन को स्वाभाविक रूप से बढ़ाने, भूख को कम करने और वजन घटाने के लिए तैयार किया गया है.' हालांकि, डीडब्ल्यू ने जिन विशेषज्ञों से संपर्क किया उन्हें संदेह था कि यह सप्लीमेंट काम करेगा. कॉर्क ने कहा कि उन्हें ‘कोई ठोस सबूत नहीं मिला' है. वहीं, वार्ड ने कहा कि उत्पाद के बारे में दावे ‘तथ्य के बजाय प्रचार' पर आधारित थे.
वार्ड ने कहा, "यह ध्यान रखना जरूरी है कि ‘ब्रांड एंबेसडर' को अक्सर किसी उत्पाद को बढ़ावा देने के लिए भुगतान किया जाता है. कई दावे किए गए हैं, लेकिन नियम बनाने वाली संबंधित संस्था ने इनमें से किसी की भी समीक्षा नहीं की है और न ही अनुमति दी है. उत्पाद के बारे में जिन अध्ययन की जानकारी दी गई है वे बेहतर गुणवत्ता वाले नहीं हैं.”
उन्होंने आगे बताया, "सुरक्षा से जुड़ी बातों पर किसी तरीके की चर्चा नहीं की गई है. इसलिए यह जानना संभव नहीं है कि क्या इसे लेने से किसी तरह का दुष्प्रभाव हुआ है या नहीं. इसलिए, फिलहाल मैं किसी ऐसे रोगी को यह दवा लेने का सुझाव नहीं दूंगी जिसे ब्लड शुगर को कम रखना है या हृदय संबंधी जोखिम को कम करना है.” (dw.com)
अमेरिकी न्यूरोसाइंटिस्ट्स ने एक गर्भवती महिला के मस्तिष्क को गर्भावस्था से पहले, उस दौरान और उसके बाद लगातार स्कैन किया. गर्भावस्था में महिलाओं के दिमाग में बदलावों को देखने के लिए ऐसी स्टडी पहली बार हुई है.
डॉयचे वैले पर फ्रेड श्वालर की रिपोर्ट-
हम जानते हैं कि गर्भावस्था के दौरान एक मां का शरीर पूरी तरह से बदल जाता है, लेकिन एक नए शोध में मां बनने वाली महिला के दिमाग में कई दिलचस्प बदलाव दिखाए गए हैं.
एक स्वस्थ 38 वर्षीय महिला के दिमाग को दो वर्षों तक स्कैन कर वैज्ञानिकों ने पहली बार गर्भावस्था के दौरान मस्तिष्क में आए बदलावों का एक व्यापक मानचित्र बनाया है. नेचर न्यूरोसाइंस जर्नल में प्रकाशित हुए यह आंकड़े मां के मस्तिष्क के बदलावों की ओर इशारा करते हैं. ऐसे बदलाव जो गर्भावस्था के दौरान पूरी तरह से अलग दिख रहे हैं.
मस्तिष्क के लगभग सभी हिस्सों में इस दौरान अपने कार्य और संरचना में बदलाव दिखे. यहां तक कि सामाजिक और भावनात्मक प्रक्रिया में भी कुछ बदलाव आए- जो बच्चे के जन्म के बाद मां में दो वर्षों तक बने रहे.
यह शोध महिलाओं की गर्भावस्था पर केंद्रित था. इसमें एक और छोटा सा अध्ययन शामिल था जो मां बनने के सफर के दौरान शरीर में आए बदलावों को देखता था. इस बदलाव को मेट्रेसेंस कहा जाता है जो विकास का एक अगला चरण है.
वैज्ञानिक अब यह भी खोज रहे हैं कि गर्भावस्था और मातृत्व के दौरान मस्तिष्क में आए हार्मोनल बदलाव शारीरिक संरचना और कार्य पर किस तरह असर डालते हैं. ऐसा किशोरावस्था और मेनोपॉज के दौरान भी होता है.
अमेरिका के सेंटा बारबरा में यूनिवर्सिटी ऑफ केलिफोर्निया में कार्यरत इस शोध की मुख्य लेखक एमिली जेकब्स कहती हैं, "ऐसा लगता है कि गर्भावस्था के दौरान मानव मस्तिष्क एक कोरियोग्राफ किये गए बदलाव से गुजरता है और हम अंततः असल समय में इस तरह के बदलाव को ऑब्जर्व कर पा रहे थे.”
गर्भावस्था के दौरान आते हैं बड़े बदलाव
इस शोध के लिए एलिजाबेथ क्रैस्टिल के मस्तिष्क का अध्ययन किया गया है. वे खुद भी यूनिवर्सिटी ऑफ केलिफोर्निया, इरविन में एक न्यूरोसाइंटिस्ट हैं. शोधकर्ता क्रैस्टिल के मस्तिष्क को हर कुछ हफ्तों में मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग (एमआरआई) के जरिए स्कैन करते थे और यह सिलसिला गर्भावस्था के पहले से लेकर बच्चे को जन्म देने के दो साल बाद तक चलता रहा.
क्रैस्टिल ने जेकब्स के साथ मीडिया में दिए एक बयान में कहा, "यह एक बहुत ही गहन कार्य था. हमने पहले 26 स्कैन किये.” शोधकर्ताओं को गर्भावस्था के दौरान सप्ताह-दर-सप्ताह सामने आए मस्तिष्क के न्यूरोएनाटॉमी में पूरी तरह से बदलाव देखने को मिले. क्रैस्टिल के मस्तिष्क के अंदर ग्रे मैटर वॉल्यूम, कॉर्टिकल थिकनेस, व्हाइट मैटर, माइक्रोस्ट्रक्चर और वेंट्रीकल वॉल्यूम सब कुछ बदल चुका था.
अमेरिका के न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी, लैंगोन हेल्थ के न्यूरोसाइंटिस्ट क्लेयर मैककॉरमैक कहते हैं, "इसके निष्कर्ष दिलचस्प थे. यह दिखाते हैं कि कम समय में गर्भावस्था दिमाग को पूरी तरह बदल सकती है, जैसे कि किशोरावस्था के दौरान जीवन में बदलाव के कई स्तर आते हैं.” मैककॉरमैक इस अध्ययन का हिस्सा नहीं थे.
क्रैस्टिल के दिमाग के कुछ व्हाइट मैटर गर्भावस्था के दूसरी तिमाही में बहुत ही मजबूती से विकसित हो गए थे. व्हाइट मैटर दिमाग के अलग अलग जगहों में जानकारियां भेजे जाने वाले रास्ते हैं. व्हाइट मैटर के मजबूत होने का मतलब है कि जानकारी और बेहतर तरीके से एक जगह से दूसरी जगह भेजी जा रही है.
क्रैस्टिल ने कहा, "बदलाव पूरे दिमाग में थे. मेरे मस्तिष्क के 80 फीसदी हिस्से में ग्रे मैटर वॉल्यूम में कमी भी देखी गई.” ग्रे मैटर दिमाग के टिश्यू हैं जिनमें न्यूरोसेल बॉडीज (तंत्रिका तंत्र) की बड़ी मात्रा (कॉन्सेन्ट्रेशन) होती है, यहां पर जानकारी प्रोसेस की जाती है. ग्रे मैटर वॉल्यूम में गिरावट कभी-कभी याददाश्त कमजोर होने और कुछ अन्य क्रियाकलाप से जुड़ी हो सकती है.
हालांकि अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि ग्रे मैटर में गिरावट गर्भावस्था के दौरान हमेशा गलत नहीं हो सकती. यह मस्तिष्क के लिए एक लहर के जैसी हो सकती है क्योंकि मस्तिष्क स्वयं को मातृत्व के लिए तैयार कर रहा है- उसी तरह जैसे संगमरमर का एक टुकड़ा किसी मूर्ति का आकार ले रहा हो.
जैकब्स कहती हैं, "इस तरह के बदलाव न्यूरल सर्किट में बेहतर ट्यूनिंग को दर्शा सकते हैं. इस तरह की प्रक्रियाएं मस्तिष्क को और अधिक स्पेशलाइज्ड (विशिष्ट) बनाने में मदद करती हैं.”
गर्भावस्था वाले बदलावों को समझने के कई फायदे
क्रैस्टिल के मस्तिष्क में आए बदलाव एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टरॉन हार्मोन के बदलते स्तर से भी जुड़े थे. लेकिन इस शोध से यह पता नहीं चल पाया है कि इन शारीरिक बदलावों से मां के मानसिक स्वास्थ्य में क्या बदलाव आ रहे हैः क्या दिमाग में आए बदलाव उनके मूड को बदलने या गर्भावस्था के दौरान नींद में परेशानी का कारण बन सकते हैं? कौन से बदलाव मातृत्व प्रेम (वात्सल्य) के बंधन को मजबूत करते हैं? वैज्ञानिकों को अब तक इसका पता नहीं चला है.
कई और महिलाओं के साथ अब यह निर्धारित करने के लिए शोध चल रहे हैं कि मस्तिष्क में इस तरह के परिवर्तन मां के मनोविज्ञान और स्वास्थ्य पर कैसे प्रभाव डालते हैं.
इसके निष्कर्ष गर्भावस्था के बाद होने वाले पोस्टनेटल डिप्रेशन और प्रीक्लेम्पसिया की स्थिति को समझने में मदद कर सकते हैं. प्रीक्लेम्पसिया गर्भावस्था के दौरान उच्च रक्तचाप को कहा जाता है.
मैककॉरमैक ने डीडब्ल्यू को बताया, "इस शोध में कई महत्वपूर्ण कदम शामिल हैं जो गर्भावस्था के दौरान होने वाले पेरिनेटल मूड और एंजाइटी की परेशानियों को समझ कर इलाज करने में मददगार हो सकते हैं. इससे जन्म देने वाली हर पांच में से एक मां पर असर पड़ता है.”
हालांकि क्रैस्टिल रहती हैं, "वास्तव में यह अध्ययन जवाबों से ज्यादा सवालों को उठाता है. हमने गर्भावस्था के दौरान मस्तिष्क की समझ को देखना बस शुरू किया है.”
गर्भावस्था पर शोध की कमी ‘आश्चर्यजनक'
सबसे ज्यादा "अचंभे" वाली तो यह रही कि गर्भावस्था के दौरान मस्तिष्क में आने वाले बदलावों को लगातार मैप करने वाला यह अपनी तरह का पहला शोध है.
जैकब्स कहती हैं, "यह 2024 है और हम पहली बार इतने बेहतरीन न्यूरोलॉजिकल बदलावों की झलक देख पा रहे हैं. गर्भावस्था की न्यूरोबायोलॉजी के बारे में बहुत कुछ ऐसा है जिसको अभी तक हम समझ नहीं पाए हैं. यह इस बात का उदाहरण है कि बायोसाइंस के इतिहास में अब तक महिलाओं के स्वास्थ्य को नजरअंदाज किया जाता रहा है. ”
जैकब्स ने कहा कि पिछले 30 वर्षों में ब्रेन इमेजिंग के जो करीब 50 हजार लेख प्रकाशित हुए लेकिन उनमें गर्भावस्था जैसे महिला स्वास्थ्य के मुद्दों पर केंद्रित लेख एक फीसदी से भी कम थे.
अमेरिका के इरविन में यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की हॉर्मोन विशेषज्ञ डायना क्रॉउस कहती हैं, "पुरुष और महिला के मस्तिष्क की गतिविधियों में अंतर को क्लीनीशियन या न्यूरोसाइंटिस्ट्स ने पारंपरिक रूप से कभी नहीं सराहा.”
क्रॉउस ने डीडब्ल्यू से कहा, "क्यों? एक महिला वैज्ञानिक होने के नाते मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं है, लेकिन साफ तौर पर सेक्स और हार्मोन का काफी प्रभाव पड़ता है और यह देखकर अच्छा लग रहा है कि इस तरह के मामलों पर अब ध्यान केंद्रित किया जा रहा है.”
इस नई स्टडी से 'मैटर्नल ब्रेन प्रोजेक्ट' यानि मातृत्व मस्तिष्क प्रोजेक्ट की शुरुआत हो गई है. यह महिला के दिमाग पर प्रेगनेंसी के असर को समझने के लिए चलाया जाने वाला एक अंतरराष्ट्रीय प्रयास है. अमेरिका और स्पेन की महिलाएं और उनके साथी एक बड़े पैमाने पर इन अध्ययनों का हिस्सा बन रहे हैं. (dw.com)
नई दिल्ली, 4 सितंबर । हरी सब्जियां न केवल स्वादिष्ट होती हैं बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी फायदेमंद होती हैं। इनके नियमित सेवन से शरीर को कई तरह के पोषक तत्व मिलते हैं। हरी सब्जियों में पोषक तत्वों से भरपूर कुंदरू की सब्जी सेहत के लिए बहुत फायदेमंद होती है। कुंदरू, जिसे अंग्रेजी में "टेंडर गॉर्ड" या "कन्फ्यूजन गार्ड" के नाम से भी जाना जाता है। इस पौष्टिक सब्जी का उपयोग भारत में प्राचीन काल से किया जाता रहा है।
यह सब्जी न केवल अपने स्वाद के लिए जानी जाती है बल्कि इसके कई स्वास्थ्य लाभों के कारण भी इसका सेवन किया जाता है। कुंदरू सब्जी का सेवन कई तरह की बीमारियों की रोकथाम के लिए वरदान साबित हो सकता है। हम आपको कुंदरू सब्जी के स्वास्थ्य लाभ, इसके पोषण और इसे अपने आहार में शामिल करने के तरीके के बारे में बताने जा रहे हैं। कुंदरू में विटामिन ए, सी और के भरपूर मात्रा में होते हैं।
विटामिन ए आंखों के स्वास्थ्य के लिए जरूरी है, जबकि विटामिन सी प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करता है। विटामिन के हड्डियों के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है। इसके अलावा कुंदरू में आयरन, कैल्शियम और फास्फोरस जैसे खनिज भी होते हैं, जो शरीर को पूर्ण रूप से स्वास्थ्य बनाए रखने में मदद करते हैं। कुंदरू में फाइबर भरपूर मात्रा में होता है जो पाचन तंत्र को सुचारू रूप से काम करने में मदद करता है। फाइबर कब्ज और अन्य पाचन समस्याओं से राहत देता है और आंत के स्वास्थ्य में सुधार करता है। इसके नियमित सेवन से पेट की समस्याएं कम होती हैं और पाचन बेहतर होता है। कुंदरू में फाइबर भी भरपूर मात्रा में होता है और यह ब्लड शुगर को नियंत्रण में रखता है। इन गुणों के कारण कुंदरू डायबिटीज के मरीजों के लिए फायदेमंद हो सकता है।
कुंदरू की सब्जी कैलोरी की कम मात्रा के कारण वजन बढ़ने से रोकती है। इसके नियमित सेवन से शरीर में अतिरिक्त चर्बी को कम किया जा सकता है। कुंदरू की सब्जी को कई तरह से बनाकर अपने आहार में शामिल किया जा सकता है। मसालेदार सब्जी बनाने के लिए कुंदरू को हल्दी, मिर्च, धनिया और जीरे के साथ पकाया जाता है। यह सब्जी तीखी और मसालेदार होती है। आप इसे रोटी या चावल के साथ सेवन करके इसका आनंद ले सकते हैं। कुंदरू की सब्जी को दही और मसाले भी डालकर पकाया जा सकता है। यह सब्जी न केवल स्वादिष्ट होती है बल्कि पाचन शक्ति को भी मजबूत करती है।
कुंदरू को उबालकर और मसाले डालकर चटनी बनाई जा सकती है। यह चटनी रोटी या पराठे के साथ बहुत स्वादिष्ट लगती है और स्वास्थ्य लाभ भी प्रदान करती है। कुंदरू की सब्जी को दैनिक आहार में शामिल करने से आपको कई स्वास्थ्य समस्याओं से राहत मिल सकती है और कई स्वास्थ्य समस्याओं में सुधार हो सकता है। इसलिए, कुंदरू की सब्जी को अपने खाने की सूची में शामिल करना न भूलें और इसके स्वास्थ्य लाभों का आनंद लें। -- (आईएएनएस)
वैज्ञानिक झड़ चुके बालों को दोबारा उगाने के तरीके ढूंढ़ते रहते हैं. कई बार ऐसा उपाय चूहों पर परीक्षण करने के दौरान गलती से भी मिल जाता है. चलिए जानते हैं कि ये उपाय गंजेपन को खत्म करने में कितने कारगर हैं.
डॉयचे वैले पर फ्रेड श्वालर की रिपोर्ट-
समाज में गंजे लोगों को कम सुंदर समझा जाता है. 1993 में एमी अवार्ड जीतने के बाद कॉमेडियन लैरी डेविड ने कहा था कि यह सब बहुत अच्छा और बढ़िया है, लेकिन मैं अभी भी गंजा हूं. डेविड के पास उन गंजे लोगों के लिए बड़े सबक हैं, जो बालों के झड़ने को स्वीकार करने की बजाय उसकी भरपाई करने की कोशिश करते हैं. साल 2000 में डेविड ने न्यूयॉर्क टाइम्स मैगजीन के लिए एक आर्टिकल लिखा था, जिसका शीर्षक था- "मेरे सिर को चूमिए.”
डेविड ने लिखा था, "मैं एक गंजा व्यक्ति हूं. मैं टोपी, हैट, दाढ़ी या ट्रांसप्लांट का सहारा नहीं लेता. अगर हम इन हास्यास्पद तरीकों का सहारा लेंगे तो कोई भी गंजे लोगों की इज्जत क्यों करेगा. यही वजह है कि बालों वाले लोग खुद को हमसे बेहतर मानते हैं.”
85 फीसदी पुरुष अपने जीवनकाल में बाल झड़ने की समस्या का सामना करते हैं. लेकिन यह सिर्फ पुरुषों तक सीमित नहीं है. 33 फीसदी महिलाओं को भी बालों के झड़ने या पतले होने की समस्या होती है. डेविड लैरी जैसे लोगों के प्रयासों के बावजूद कई लोग हेयर ग्रोथ को वापस पाने के तरीके ढूंढ़ते रहते हैं. पहले की तुलना में अब इसके लिए विकल्प भी काफी ज्यादा उपलब्ध हैं.
लेकिन सबसे पहले जान लेते हैं कि गंजापन होता क्यों है?
क्या मां से विरासत में मिलता है गंजापन?
अधिकतर मामलों में व्यक्ति के गंजे होने का संबंध उसके जींस से होता है. इसको लेकर कई अलग-अलग अनुमान हैं, लेकिन गंजे होने का 60 से 70 फीसदी खतरा जेनेटिक्स से जुड़ा है. बाल झड़ने की सबसे आम वजह को आनुवंशिक-पैटर्न वाला गंजापन कहा जाता है. इसका तकनीकी नाम एंड्रोजेनेटिक अलोपीशिया है. यह 50 फीसदी पुरुषों और महिलाओं को प्रभावित करता है.
एक चुटकुला सुनाया जाता है कि पुरुषों को गंजापन अपनी मां से विरासत में मिलता है. लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है. यह बात सही है कि गंजेपन का एक जीन से बेहद मजबूत संबंध होता है. यह जीन एक्स क्रोमोसोम पर पाया जाता है, जो व्यक्ति को उसकी मां से प्राप्त होता है. इसे एआर जीन कहते हैं. लेकिन गंजापन पॉलीजेनिक है, यानी इसमें कई जींस की भूमिका रहती है.
कुछ अनुमानों के मुताबिक, इसमें लगभग 200 जींस शामिल होते हैं. इनमें से कुछ जींस ही मां की ओर से प्राप्त होते हैं. वहीं, बहुत सारे जीन पिता से मिलते हैं. इसलिए गंजेपन के लिए मां के जीन को जिम्मेदार ठहराना पूरी तरह से सही नहीं है. कई रिसर्च में सामने आया है कि बाल झड़ने की समस्या का सामना कर रहे 80 फीसदी लोगों के पिता भी गंजे हैं या गंजे थे.
निश्चित नहीं है गंजा होना
आपके जींस आपके बालों का भविष्य तय नहीं करते हैं. भले ही आपके घर के सभी पुरुष गंजे हों, तो भी यह पक्का नहीं होता कि भविष्य में आपके बाल भी उड़ ही जाएंगे. इसके अलावा बहुत सारे गंजे लोग ऐसे भी होते हैं, जिनके घर में सभी के अच्छे बाल होते हैं.
कुछ पर्यावरण संबंधी कारक भी बाल झड़ने की वजह बनते हैं. इनमें तनाव और पोषण का सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है. तनाव से भरी नौकरी और घरेलू जिंदगी, कीमोथेरेपी और पोषण की कमी से स्थायी या अस्थायी तौर पर बाल झड़ सकते हैं. इसमें पोनीटेल जैसी कुछ हेयरस्टाइल की भी भूमिका हो सकती है, जिनमें बालों को कसकर बांधा जाता है. इसका एक और कारण अलोपीशिया एरीटा है, जो ऑटोइम्यून रिएक्शन की वजह से होता है.
गंजेपन में हॉर्मोनों की भी भूमिका होती है. यह कहा जाता है कि टेस्टोस्टेरोन हॉर्मोन की अधिकता से गंजापन होता है. लेकिन यह आंशिक रूप से ही सही है. गंजेपन का संबंध कुछ विशिष्ट हॉर्मोन और बालों पर उनके प्रभाव से होता है. खासकर सेक्स हॉर्मोन डीहाइड्रोटेस्टोस्टेरोन (डीएचटी) से, जो टेस्टोस्टेरोन से प्राप्त होता है. डीएचटी हॉर्मोन के प्रति हेयर फॉलिकल्स की संवेदनशीलता से बालों का झड़ना प्रभावित होता है.
ऐसा नहीं है कि हॉर्मोनों की वजह से सिर्फ पुरुषों के बाल ही झड़ते हैं. 80 साल की उम्र तक आते-आते आधी से ज्यादा महिलाओं को बाल झड़ने की समस्या झेलनी पड़ती है. इसकी मुख्य वजह हॉर्मोन संबंधी बदलाव हैं जो मेनोपॉज, गर्भावस्था और बच्चे के जन्म के समय होते हैं.
झड़ते बालों को दोबारा कैसे उगाएं
हेयर ग्रोथ प्रोडक्ट्स का व्यवसाय तेजी से बढ़ रहा है. 2020 में बाल झड़ने की समस्या का उपचार करने वाले उत्पादों का कुल मार्केट साइज करीब 300 करोड़ डॉलर था. माना जा रहा है कि यह 2030 तक दोगुना हो जाएगा. जिन लोगों के बाल झड़ रहे हैं, उनके बाल दोबारा से उगाने के लिए बाजार में कई उपचार मौजूद हैं, मानो गंजापन कोई बीमारी हो.
हाल के दशकों में हेयर ट्रांसप्लांट सर्जरी की लोकप्रियता भी बढ़ी है. हेयर ट्रांसप्लांट के दौरान शरीर में पहले से मौजूद हेयर फॉलिकल्स को गंजेपन वाली जगह पर लगाया जाता है. हेयर ट्रांसप्लाट और दूसरी कॉस्मेटिक सर्जरी करवाने की इच्छा रखने वाले लोगों के बीच तुर्की एक लोकप्रिय स्थान बन गया है.
हेयर ग्रोथ के लिए दवाइयां भी आती हैं, जिनके लिए डॉक्टर के पर्चे की जरूरत होती है. उनमें से एक है फिनास्टेराइड. यह दवाई डीएचटी हॉर्मोन को रोकने का काम करती है, जिससे वह हेयर फॉलिकल्स को प्रभावित ना करे. एक मिनोक्सिडिल है जो रक्त वाहिकाओं को खोलने वाली दवाई है. हालांकि, यह पूरी तरह समझा नहीं गया है कि यह हेयर ग्रोथ को कैसे बढ़ाती है.
हेयर ग्रोथ का एक मान्यता प्राप्त उपाय लेजर हेयर थेरेपी भी है. वैज्ञानिकों को यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि यह थेरेपी कैसे काम करती है, लेकिन जब हर दिन कम तीव्रता वाला लेजर ट्रीटमेंट छह से 12 महीनों तक दिया जाता है, तो उससे हेयर फॉलिकल्स की ग्रोथ बढ़ती है. यह स्टेम सेल एक्टिविटी के बढ़ने की वजह से होता है.
लेकिन वैज्ञानिक बाल झड़ने की समस्या के लिए और भी उपाय खोजने में लगे हए हैं.
शुगर जेल से बढ़ती है हेयर ग्रोथ
चूहों पर किए गए एक अध्ययन में इंसानों और जानवरों में प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली एक शुगर का परीक्षण किया गया था. इसका नाम टू-डिऑक्सी-डी-राइबोज (टूडीडीआर) था. स्टडी में इसकी घाव भरने में मदद करने की क्षमता का परीक्षण किया गया था. इसी दौरान रिसर्चरों ने पाया कि इस शुगर की वजह से घाव के आसपास हेयर ग्रोथ बढ़ गई.
इसके बाद रिसर्चर्स ने हेयर ग्रोथ के लिए इसका परीक्षण किया और पाया कि 21 दिनों तक इस शुगर को जेल की तरह लगाने से हेयर फॉलिकल्स तेजी से बढ़ते हैं. लेकिन इसमें एक पेंच यह है कि अभी तक इसका परीक्षण सिर्फ चूहों पर हुआ है. इसलिए निकट भविष्य में इसके बाजार में आने की उम्मीद नहीं की जा सकती.
तब तक डेविड की इस बात को ध्यान में रखिए कि गंजे लोग अच्छे प्रेमी होते हैं. उन्होंने सालों पहले लिखा था, "हमें टेस्टोस्टेरोन काफी मात्रा में मिला है. इसलिए हम सबसे पहले गंजे हो गए.” (dw.com)
रोबिना (ऑस्ट्रेलिया), 25 जुलाई सोशल मीडिया ऐसे दावों से भरा पड़ा है कि रोजमर्रा की आदतें आपकी त्वचा को नुकसान पहुंचा सकती हैं। यह उन उत्पादों की सिफ़ारिशों या विज्ञापनों से भी भरा है जो आपकी सुरक्षा कर सकते हैं।
अब सोशल मीडिया पर हमारे उपकरणों की नीली रोशनी पर इसकी नजर है।
तो क्या फ़ोन पर स्क्रॉल करने से सचमुच आपकी त्वचा को नुकसान पहुँच सकता है? और क्या क्रीम या लोशन लगाने से मदद मिलेगी?
यहां बताया गया है कि सबूत क्या कहते हैं और हमें वास्तव में किस पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
मुझे बताएं, नीली रोशनी वास्तव में क्या है?
नीली रोशनी दृश्यमान प्रकाश स्पेक्ट्रम का हिस्सा है। सूर्य का प्रकाश इसका सबसे प्रबल स्रोत है। लेकिन हमारे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण - जैसे हमारे फोन, लैपटॉप और टीवी - भी इसे उत्सर्जित करते हैं, भले ही 100-1,000 गुना कम स्तर पर।
यह देखते हुए कि हम इन उपकरणों का उपयोग करने में इतना समय बिताते हैं, हमारी आंखों और नींद सहित हमारे स्वास्थ्य पर नीली रोशनी के प्रभाव के बारे में कुछ चिंताएं पैदा हुई हैं।
अब, हम हमारी त्वचा पर नीली रोशनी के प्रभाव के बारे में और अधिक सीख रहे हैं।
नीली रोशनी त्वचा को कैसे प्रभावित करती है?
त्वचा पर नीली रोशनी के प्रभाव के प्रमाण अभी भी सामने आ रहे हैं। लेकिन कुछ दिलचस्प निष्कर्ष भी हैं।
1. नीली रोशनी पिग्मेंटेशन को बढ़ा सकती है
अध्ययनों से पता चलता है कि नीली रोशनी के संपर्क में आने से मेलेनिन का उत्पादन उत्तेजित हो सकता है, जो त्वचा को प्राकृतिक तौर पर उसका रंग देता है।
इसलिए बहुत अधिक नीली रोशनी संभावित रूप से हाइपरपिग्मेंटेशन को खराब कर सकती है - मेलेनिन के अत्यधिक उत्पादन के कारण त्वचा पर काले धब्बे हो जाते हैं - विशेष रूप से गहरे रंग की त्वचा वाले लोगों में।
2. नीली रोशनी आपको झुर्रियाँ दे सकती है
कुछ शोध से पता चलता है कि नीली रोशनी कोलेजन को नुकसान पहुंचा सकती है, जो त्वचा की संरचना के लिए आवश्यक प्रोटीन है, जो संभावित रूप से झुर्रियों के गठन को तेज कर सकता है।
एक प्रयोगशाला अध्ययन से पता चलता है कि ऐसा तब हो सकता है जब आप अपने उपकरण को अपनी त्वचा से एक सेंटीमीटर की दूरी पर कम से कम एक घंटे के लिए रखें।
हालाँकि, अधिकांश लोगों के लिए, यदि आप अपने उपकरण को अपनी त्वचा से 10 सेमी से अधिक दूर रखते हैं, तो इससे आपका जोखिम 100 गुना कम हो जाएगा। इसलिए इसके महत्वपूर्ण होने की संभावना बहुत कम है।
3. नीली रोशनी आपकी नींद में खलल डाल सकती है, जिससे आपकी त्वचा प्रभावित हो सकती है
यदि आपकी आंखों के आसपास की त्वचा सुस्त या सूजी हुई दिखती है, तो इसके लिए सीधे नीली रोशनी को दोष देना आसान है। लेकिन जैसा कि हम जानते हैं कि नीली रोशनी नींद को प्रभावित करती है, आप शायद जो देख रहे हैं वह नींद की कमी के कुछ स्पष्ट लक्षण हैं।
हम जानते हैं कि नीली रोशनी मेलाटोनिन के उत्पादन को दबाने में विशेष रूप से अच्छी होती है। यह प्राकृतिक हार्मोन आमतौर पर सोने का समय होने पर हमारे शरीर को संकेत देता है और हमारे सोने-जागने के चक्र को नियंत्रित करने में मदद करता है।
मेलाटोनिन को दबाने से, सोने से पहले नीली रोशनी का संपर्क इस प्राकृतिक प्रक्रिया को बाधित करता है, जिससे सोना मुश्किल हो जाता है और संभावित रूप से आपकी नींद की गुणवत्ता कम हो जाती है।
स्क्रीन सामग्री की उत्तेजक प्रकृति नींद में और बाधा डालती है। सोशल मीडिया फ़ीड, समाचार लेख, वीडियो गेम, या यहां तक कि काम के ईमेल भी हमारे दिमाग को सक्रिय और सतर्क रख सकते हैं, जिससे नींद आने में बाधा आ सकती है।
लंबे समय तक नींद की समस्या मुँहासे, एक्जिमा और रोसैसिया जैसी त्वचा की मौजूदा स्थितियों को भी खराब कर सकती है।
नींद की कमी कोर्टिसोल के स्तर को बढ़ा सकती है, एक तनाव हार्मोन जो कोलेजन को तोड़ता है और त्वचा की मजबूती के लिए जिम्मेदार प्रोटीन है। नींद की कमी त्वचा के प्राकृतिक स्वरूप को भी कमजोर कर सकती है, जिससे यह पर्यावरणीय क्षति और शुष्कता के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती है।
क्या त्वचा की देखभाल मेरी रक्षा कर सकती है?
सौंदर्य उद्योग ने नीली रोशनी के बारे में चिंताओं का फायदा उठाया है और मिस्ट, सीरम और लिप ग्लॉस जैसे सुरक्षात्मक उत्पादों की एक श्रृंखला पेश की है।
व्यावहारिक दृष्टिकोण से, संभवतः मेलास्मा नामक अधिक परेशानी वाले हाइपरपिग्मेंटेशन वाले लोगों को ही उपकरणों से निकलने वाली नीली रोशनी के बारे में चिंतित होने की आवश्यकता है।
इस स्थिति के लिए त्वचा को हर समय सभी दृश्य प्रकाश से अच्छी तरह से संरक्षित करने की आवश्यकता होती है। एकमात्र उत्पाद जो पूरी तरह से प्रभावी हैं, जो सभी प्रकाश को रोकते हैं, अर्थात् खनिज-आधारित सनस्क्रीन या कुछ सौंदर्य प्रसाधन। यदि वह अपारदर्शी हैं तो वे प्रभावी होंगे।
लेकिन प्रयोगशालाओं के बाहर गैर-अपारदर्शी उत्पादों के लिए कठोर परीक्षण की कमी है। इससे यह आकलन करना मुश्किल हो जाता है कि क्या वे काम करते हैं और क्या उन्हें आपकी त्वचा देखभाल की दिनचर्या में शामिल करना उचित है।
फिर मैं नीली रोशनी को कम करने के लिए क्या कर सकता हूँ?
यहां कुछ सरल कदम दिए गए हैं, जिन्हें अपनाकर आप नीली रोशनी के संपर्क में आने को कम कर सकते हैं, खासकर रात में जब यह आपकी नींद में खलल डाल सकती है:
शाम के समय नीली रोशनी के संपर्क में आने को कम करने के लिए अपने डिवाइस पर "नाइट मोड" सेटिंग का उपयोग करें या ब्लू-लाइट फ़िल्टर ऐप का उपयोग करें
सोने से पहले स्क्रीन पर बिताए जाने वाले समय को कम करें और सोने के समय की आरामदायक दिनचर्या बनाएं ताकि नींद में आने वाली उन परेशानियों से बचा जा सके जो आपकी त्वचा के स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकती हैं।
नीली रोशनी के संपर्क को कम करने के लिए अपने फोन या डिवाइस को अपनी त्वचा से दूर रखें
सनस्क्रीन का प्रयोग करें। टाइटेनियम डाइऑक्साइड और आयरन ऑक्साइड युक्त खनिज और भौतिक सनस्क्रीन नीली रोशनी सहित व्यापक सुरक्षा प्रदान करते हैं।
संक्षेप में
नीली रोशनी के संपर्क को कुछ त्वचा संबंधी चिंताओं से जोड़ा गया है, विशेष रूप से गहरे रंग की त्वचा वाले लोगों के लिए पिग्मेंटेशन। हालाँकि, शोध जारी है।
जबकि त्वचा की देखभाल नीली रोशनी से बचाने का वादा दिखाती है, यह निर्धारित करने के लिए कि यह काम करती है या नहीं, अधिक परीक्षण की आवश्यकता है।
अभी के लिए, ब्रॉड-स्पेक्ट्रम सनस्क्रीन के साथ अच्छी धूप से सुरक्षा को प्राथमिकता दें, जो न केवल यूवी से बचाता है, बल्कि प्रकाश से भी बचाता है। (द कन्वरसेशन)
पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध का ज्यादातर हिस्सा भीषण गर्मी का सामना कर रहा है. प्रशासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य के विशेषज्ञ लोगों को सुरक्षित रहने के लिए चेतावनी दे रहे हैं. आखिर यह भीषण गर्मी इंसानों पर क्या असर डालती है.
चीन, भारत, मध्य पूर्व, दक्षिणी यूरोप और अमेरिका के कई हिस्सों में ऊंचा तापमान नया रिकॉर्ड बनाने की आशंका पैदा कर रहा है. भीषण गर्मी सेहत पर कई तरह से असर डालती है. गर्मी की वजह से शरीर को थकावट का अनुभव होता है. इसमें सिरदर्द, चक्कर आना, प्यास और शरीर के लड़खड़ाने जैसी समस्याएं होती हैं. ऐसा किसी के भी साथ हो सकता है. आमतौर पर यह गंभीर नहीं होता है. 30 मिनट के अंदर अगर ठंडक मिल जाए तो ये समस्याएं अपने आप खत्म भी हो जाती है.
सबसे गंभीर समस्या है लू लगना. यह स्थिति तब आती है शरीर के अंदर का तापमान 40.6 डिग्री सेल्सियस के पार चला जाता है. यह सेहत के लिए आपातकाल की स्थिति है. इसकी वजह से लंबे समय के लिए कोई अंग बेकार या फिर मौत भी हो सकती है. सांस की गति तेज होना, उलझन या फिर सदमा और मितली आना इसके सामान्य लक्षण हैं.
जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान आने वाले सालों में लगातार बढ़ता ही जाएगा. ऐसे में नमी का खतरा भी बढ़ने की आशंका है. गर्म हवाएं ज्यादा नमी को रोके रख सकती हैं. हवा में ज्यादा नमी होने का मतलब है कि पसीना नहीं आएगा जिससे कि शरीर ठंडा हो और उसे राहत मिल सके.
गर्मी का सबसे ज्यादा खतरा किसे?
गर्मी का खतरा कुछ लोगों के लिए ज्यादा है. इसमें छोटे बच्चे और बुजुर्ग सबसे पहले आते हैं. इसके साथ ही उन लोगों के लिए भी ज्यादा खतरा है. जो ज्यादा देर तक गर्म वातावरण में काम करते या फिर रहते हैं जैसे कि बेघर लोग.
इन लोगों में अगर पहले से सांस या दिल की बीमारी हो या फिर डायबिटीज हो तो इनके लिए खतरा गर्मी की वजह से कई गुना ज्यादा बढ़ जाता है.
कई देशों में गर्मी को मौत की खास वजह के रूप में दर्ज नहीं किया जाता. इस वजह से इन देशों में गर्मी का खतरा झेल रहे समुदायों के बारे में कोई आंकड़ा नहीं है. हालांकि 2021 में विज्ञान पत्रिका द लांसेट ने एक रिसर्च के जरिए बताया था कि हर साल लगभग पांच लाख लोगों की मौत अत्यधिक गर्मी की वजह से हो रही है. यह आंकड़े सही तस्वीर नहीं दिखाते क्योंकि कम आय वाले कई देशों में गर्मी से होने वाली मौत का आंकड़ा मौजूद नहीं है. भारत में भी गर्मी से सैकड़ों लोगों के मरने की बात कही जा रही है.
यूरोप में बहुत से लोग 2022 जैसी गर्मी पड़ने की आशंका जता रहे हैं. उस साल यहां गर्मी की वजह से 61,000 लोगों की मौत हुई थी. गर्मी से खतरा आने वाले दशकों में और बढ़ते रहने की आशंका है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान लगातार ऊपर ही जा रहा है.
गर्मी के वो खतरे जो दिखाई नहीं देते
शरीर के अंदर के तापमान को प्रभावित करने के साथ ही अत्यधिक गर्मी कई और खतरे पैदा कर सकती है. गर्म वातावरण बैक्टीरिया और कवकों के विकास को बढ़ावा देता है. इसकी वजह से गर्मी बढ़ने पर हैजे जैसी बीमारी फैलाने वाले बैक्टीरिया पानी को प्रदूषित कर सकते हैं. इसके साथ ही तालाब, कुएं या इस तरह के जलस्रोत जहरीले कवकों की वजह से पीने के लायक नहीं रहते.
गर्मी फसलों को भी बर्बाद कर देती है जिसके कारण खाद्य सुरक्षा को लेकर चिंता पैदा होती है.
डब्ल्यूएचओ के मुताबिक विशेषज्ञों को आशंका है कि 2030 के बाद जलवायु से जुड़े चार खतरों के कारण सेहत पर आया संकट हर साल मरने वाले लोगों की संख्या 2,50,000 और बढ़ जाएगी. यह खतरे हैं गर्मी, खाद्य असुरक्षा की वजह से कुपोषण, मलेरिया और डायरिया.
गर्मी के कारण सूखने वाले पेड़ और झाड़ियां जंगल की आग को न्यौता देते हैं और फिर भयानक स्तर का वायु प्रदूषण होता है. इसकी वजह से फेफड़ों में सूजन और ऊतकों को नुकसान होता है. रिसर्चों से पता चला है कि अत्यधिक गर्मी और जंगल की आग के धुएं के संपर्क में आने की वजह से नवजात शिशुओं का वजन घटता है और इनके संपर्क में मां के आने से बच्चे समय से पहले पैदा भी हो जाते हैं.
गर्मी के कारण मानसिक स्वास्थ्य पर भी काफी असर होता है. गर्मी बढ़ने से लोगों के नींद की आदतें खराब हो जाती हैं और मानसिक स्वास्थ्य के और बिगड़ने का खतरा रहता है.
समय का प्रभाव
विशेषज्ञों का कहना है कि ज्यादा मौतें तब होती हैं जब लोगों के शरीर को गर्मी के लिए तैयार होने का मौका नहीं मिलता. यानी जब गर्मी का मौसम एकाएक धावा बोल देता है. इसके साथ ही जगह का भी प्रभाव होता है. ऐसी जगहों के लोगों के लिए ज्यादा खतरा है जिन्हें इस तरह की गर्मी झेलने की आदत नहीं है. इनमें यूरोप के कुछ हिस्से शामिल हैं.
भीषण गर्मी के मौसम में घर से बाहर निकलना बेहद खतरनाक है. कुछ देशों और इलाकों में इसी वजह से स्कूल बंद कर दिए जाते हैं और दुकान और दफ्तरों के लिए कामकाजी घंटे दिन के वक्त घटाए जाते हैं. कई जगहों पर तो दोपहर में पूरी तरह से काम ठप्प कर दिया जाता है.
भीषण गर्मी से बचने के लिए क्या करें
अमेरिका और भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य एजेंसियों ने लोगों के लिए सलाह और दिशानिर्देश जारी किए हैं. लोगों को ठंडा रहने की सलाह दी जा रही है. जितना संभव हो घर के अंदर रहने और लगातार पानी या तरल पीते रहना चाहिए ताकि शरीर में पानी की मौजूदगी लगातार एक स्तर तक बनी रहे.
अधिकारी इस प्रयास में हैं कि कूलिंग सेंटर बनाएं. लोगों को पीने का पानी मुहैया कराने की कोशिशें हो रही हैं और साथ ही सार्वजनिक परिवहन में मुफ्त एसी की व्यवस्थाएं विकसित की जा रही हैं. वैज्ञानिकों के मुताबिक कामकाजी लोगों को ज्यादा ब्रेक लेना चाहिए और साथ ही अपने कपड़े भी बदलने चाहिए. बुजुर्ग और कमजोर लोगों का ध्यान रखा जाना खासतौर से बहुत जरूरी है. लू लगना एक आपातकालीन स्थिति है और इसमें तुरंत डॉक्टर से सलाह लेना जरूरी है.
एनआर/एडी (रॉयटर्स)
एस्ट्राजेनेका ने माना है कि अति दुर्लभ मामलों में उसकी कोरोना वैक्सीन से खून में थक्के बन सकते हैं और प्लेटलेट्स भी कम हो सकते हैं. महामारी के दौरान भारत में कोविशील्ड के नाम से ये वैक्सीन करोड़ों लोगों को लगाई गई.
डॉयचे वैले पर ओंकार सिंह जनौटी की रिपोर्ट-
जर्मनी की अदालत में शुरुआती झटका लगने के बाद ब्रिटेन में भी एंग्लो -स्वीडिश दवा निर्माता कंपनी एस्ट्राजेनेका को धक्का लगा है. सोमवार को ब्रिटेन की एक अदालत में एस्ट्राजेनेका ने स्वीकार किया कि उसकी कोविड-19 वैक्सीन से "अति दुर्लभ मामलों में" थ्रोम्बोसाइटोपेनिया सिंड्रोम (टीटीएस) की शिकायत हो सकती है. टीटीएस के चलते शरीर में खून में थक्के बनने लगते हैं और प्लेटलेट्स की संख्या भी गिर जाती है.
स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक ऐसे थक्कों के कारण स्ट्रोक और हार्ट अटैक जैसी गंभीर परेशानियां भी हो सकती हैं.
दिग्गज फॉर्मास्यूटिकल कंपनी की कोविड-19 वैक्सीन, महामारी के दौरान दुनिया भर में अरबों लोगों को लगाई गई. इसे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के साथ मिलकर तैयार किया था. कुछ देशों में इस वैक्सीन को कोविशील्ड और वैक्सजेवरिया नाम भी दिया गया. भारत में इसे सीरम इंस्टीट्यूट ने बनाया था. भारतीय अखबार बिजनेस स्टैंडर्ड के मुताबिक भारत में 29 अप्रैल 2024 तक 1.7494 अरब वैक्सीन लगाई गईं. अखबार ने यह जानकारी भारत सरकार के कोविन पोर्टल के हवाले से दी है.
जर्मनी से हुई शुरुआत
ब्रिटेन से पहले अप्रैल 2024 में जर्मनी में भी एक महिला ने एस्ट्राजेनेका के खिलाफ शुरुआती कानूनी लड़ाई जीती. 33 साल की महिला ने एस्ट्राजेनेका की वैक्सजेवरिया वैक्सीन के संभावित साइड इफेक्ट्स के खिलाफ याचिका दायर की थी. दक्षिणी जर्मनी के बामबेर्ग हायर रिजनल कोर्ट के प्रवक्ता ने फैसले के बाद कहा, कंपनी को वैक्सीन के अब तक पता चले सभी साइड इफेक्ट्स और इससे जुड़ी ऐसी अहम जानकारियां सार्वजनिक करनी चाहिए "जो टीटीएस वाले थ्रोम्बोसिस से जुड़ी हों."
जर्मन अदालत के मुताबिक वैक्सीन को अप्रूवल मिलने की तारीख 27 दिसंबर, 2020 से लेकर 19 फरवरी, 2024 तक की जानकारी उपलब्ध कराई जानी चाहिए. याचिकाकर्ता महिला ने यह वैक्सीन मार्च, 2021 में लगवाई. महिला का दावा है कि वैक्सीन के बाद से उनकी आंतों की धमनियों में खून के थक्के बनने लगे. हालत इतनी बिगड़ी कि वह कोमा में चली गईं और अंत में उनकी आंत का एक हिस्सा हटाना पड़ा.
महिला के वकील फोल्कर लॉषनर के मुताबिक अदालत के इस फैसले से उन तमाम लोगों को राहत मिलेगी, जो एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन लगाने के बाद गंभीर साइड इफेक्ट्स से जूझ रहे हैं.
भारत में भी बीते दो साल में युवाओं में हार्ट अटैक के मामले काफी बढ़े हैं. कुछ लोग शक जताते हैं कि इनमें से कुछ मौतों के लिए कोविड वैक्सीन जिम्मेदार है. हालांकि भारत के स्वास्थ्य मंत्रालय ने ऐसे आरोपों को खारिज किया है.
महामारी के लंबे साइड इफेक्ट्स
2019 के अंत में चीन के वुहान प्रांत में एक रहस्यमयी बीमारी फैलनी शुरू हुई. श्वसन तंत्र और फेफड़ों पर घातक हमला करने वाली यह बीमारी असल में एक वायरस के जरिए तेजी से लोगों में फैल रही थी. जनवरी 2020 तक कोविड-19 नाम की यह बीमारी कई और देशों में फैल गई. इसके बाद दुनिया भर के देशों में सख्त लॉकडाउन लगाए गए. वायरस को रोकने के लिए लोगों को मास्क लगाने और एक दूसरे से दूरी बनाए रखने (सोशल डिस्टेंसिंग) के निर्देश दिए गए. कोविड-19 के कारण दुनिया भर में 70 लाख से ज्यादा लोग मारे गए.
- बीमारी फैलने के करीब साल भर बाद बॉयोनटेक, मॉर्डेना और एक्स्ट्राजेनेका जैसी दिग्गज कंपनियों ने सार्स कोव वी-2 वायरस के खिलाफ सफल वैक्सीन बनाने का दावा किया. बड़ी संख्या में लोगों की मौत और ऑक्सीजन की कमी जैसी मेडिकल इमरजेंसी के बीच कई सरकारों ने फटाफट कोविड वैक्सीनेशन प्रोग्राम शुरू किए. कुछ विशेषज्ञों ने तब भी चेताया था कि पर्याप्त क्लीनिकल ट्रायल के बिना इन वैक्सीनों को लगाना भविष्य में कुछ परेशानियां खड़ी कर सकता है. (डीपीए) (dw.com)
दुनियाभर में लगभग चार प्रतिशत बच्चे फूड एलर्जी से जूझ रहे हैं. एक नए अध्ययन में फूड एलर्जी को दूर करने के लिए दिशा-निर्देश दिए गए हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि यह मैराथन के लिए प्रशिक्षण लेने जैसा है.
बच्चों के लिए फूड एलर्जी एक बड़ी समस्या हो सकती है. स्कूल में टिफिन बांटकर खाने से भी उन्हें फूड एलर्जी होने का खतरा होता है. इससे बच्चों और उनके माता-पिता को चिंता और तनाव झेलना पड़ता है. उनकी रोजमर्रा की सामाजिक जिंदगी प्रभावित हो सकती है. उनके घूमने-फिरने की योजनाओं और पार्टियों में जाने पर भी असर पड़ सकता है.
रिसर्चर्स ने पहली बार इसके लिए मानकीकृत दिशा-निर्देश तैयार किए हैं. जो बच्चों में फूड एलर्जी कर सकने वाले खाद्य पदार्थों के प्रति सहनशक्ति विकसित करने में मदद करेंगे.
इस थेरेपी को ओरल इम्यूनोथेरेपी कहा जाता है. इसमें बच्चों को मूंगफली जैसे एलर्जी कर सकने वाले खाद्य पदार्थ बहुत थोड़ी मात्रा में दिए जाते हैं. धीरे-धीरे उनकी मात्रा बढ़ाई जाती है ताकि बच्चों में उनके प्रति सहनशक्ति विकसित हो सके.
अब तक, डॉक्टरों के पास साक्ष्य-आधारित दिशा-निर्देश बेहद कम थे. जिन्हें वे अपने बच्चों को इम्यूनोथेरेपी दे रहे माता-पिता के साथ साझा कर पाते. लेकिन इन नए दिशा-निर्देशों से डॉक्टरों को बहुत मदद मिलेगी. वे फूड एलर्जी से पीड़ित बच्चों और उनके परिवारों के साथ बेहतर तरीके से काम कर पाएंगे.
डगलस मैक इस अध्ययन के प्रमुख लेखक और कनाडा की मैकमास्टर यूनिवर्सिटी में बाल रोग विशेषज्ञ हैं. वह कहते हैं, "यह हमारे क्षेत्र में एक ऐतिहासिक अध्ययन है क्योंकि ऐसा पहले कभी नहीं किया गया और कभी इस प्रक्रिया का मानकीकरण नहीं किया गया. हमें ओरल इम्यूनोथेरेपी के बारे में मार्गदर्शन की बहुत जरूरत है.”
कितनी आम हैं खाने से एलर्जी?
दुनियाभर में लगभग चार फीसदी बच्चे और एक फीसदी वयस्क फूड एलर्जी से जूझ रहे हैं. पश्चिमी देशों में यह समस्या थोड़ी ज्यादा है. वहां आठ फीसदी बच्चों और चार फीसदी वयस्कों को फूड एलर्जी है.
एक बच्चे का खाना दूसरे बच्चे को बीमार कर सकता है. मूंगफली से होने वाली एलर्जी ब्रिटेन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में ज्यादा होती है. एशिया में यह एलर्जी उतनी अधिक नहीं है. यहां पर गेहूं, अंडे और दूध से होने वाली एलर्जी सबसे ज्यादा आम है.
पिछले दो दशकों से फूड एलर्जी के मरीज बढ़ रहे हैं. स्वास्थ्य वैज्ञानिकों का मानना है कि यह बढ़ती साफ-सफाई और स्वच्छता की वजह से हो रहा है. इसके पीछे की सोच यह है कि जब बच्चों के आस-पास कम कीटाणु होते हैं, तो उनका इम्यून सिस्टम मूंगफली और दूध जैसी सामान्य चीजों के खिलाफ ही काम करने लगता है. विटामिन डी की कमी भी इसका एक कारण है.
कई देशों के स्वास्थ्य अधिकारियों का कहना है कि एलर्जी को रोकने के लिए बच्चों को धीरे-धीरे एलर्जी कर सकने वाले खाद्य पदार्थों के संपर्क में लाना चाहिए. ऐसे परिवार जिनमें पहले भी फूड एलर्जी की समस्या रही है, उन्हें बाल रोग विशेषज्ञ के मार्गदर्शन में काम करना चाहिए.
ओरल इम्यूनोथेरेपी का फूड एलर्जी से पीड़ित बच्चों की मदद करने का लंबा और सफल इतिहास रहा है. इसका पहली बार इस्तेमाल 1908 में किया गया था. तब इसके जरिए एक बच्चे की अंडे से एलर्जी ठीक की गई थी. शुरुआत में बच्चे को अंडे का दस हजारवां हिस्सा खिलाया गया. छह महीने बाद वह बिना किसी परेशानी के अंडे खाने लगा.
जूलिया ऐप्टन कनाडा में बच्चों के एक अस्पताल में क्लिनिकल इम्यूनोलॉजिस्ट हैं. वह कहती हैं, "हमारे पास एक ऐसा उपचार है, जो काम करता है. जिसे लेकर अलग-अलग क्षेत्रों के डॉक्टरों के बीच व्यापक सहमति है. अध्ययनों में कई अलग-अलग तरीकों की जांच की जा रही है, जिससे उपचार बेहतर होता रहे और आगे चलकर सुरक्षा बेहतर हो, मेडिकल जरूरतें कम हों और इलाज की पहुंच बढ़े.”
मदद करती है ओरल इम्यूनोथेरेपी
ओरल इम्यूनोथेरेपी देने के दौरान देखभाल करने वाले व्यक्ति को एक नौसिखिए स्वास्थ्यकर्मी की तरह व्यवहार करना होता है. यह भी देखना होता है कि बच्चे का एलर्जी करने वाले खाद्य पदार्थ के साथ संपर्क खतरनाक स्तर पर ना पहुंच जाए. इस दौरान बच्चों में पेट दर्द और उल्टी जैसे दुष्प्रभाव नजर आना आम बात है.
एप्टन ने डीडब्ल्यू से कहा, "परिवारों को फूड एलर्जी, एनाफिलेक्सिस (एलर्जी की गंभीर प्रतिक्रिया) और इम्यूनोथेरेपी के बारे में जानना चाहिए. उन्हें यह भी सीखना चाहिए कि खाने को सही तरीके से कैसे खिलाएं, किन चीजों का ध्यान रखें, कब इलाज करें और कब डॉक्टरों से संपर्क करें.”
अध्ययनकर्ताओं के मुताबिक, करीब एक तिहाई मरीजों को उपचार शुरू करने से पहले कोई तैयारी नहीं करवाई गई.
मैकमास्टर यूनिवर्सिटी के मैक कहते हैं, "यदि परिवार ओरल इम्यूनोथेरेपी के लिए तैयार नहीं होंगे, तो वे सफल नहीं होंगे या यह असुरक्षित हो जाएगी. इन परिवारों को हर दिन यह थेरेपी देनी होगी. इसलिए यह दिशा-निर्देश इतने जरूरी हैं.”
मैराथन की ट्रेनिंग जैसा
ये दिशा-निर्देश डॉक्टरों के लिए बनाए गए हैं. ये सीधे तौर पर माता-पिता और परिवारों के लिए नहीं हैं. इसलिए यह जरूरी है कि माता-पिता डॉक्टरों के साथ मिलकर काम करें और फूड एलर्जी को सुरक्षित और प्रभावी तरीके से खत्म करने में अपने बच्चों की मदद करें.
हालांकि इस अध्ययन में माता-पिता और देखभाल करने वाले अन्य लोगों के लिए भी काम की जानकारी दी गई है.
एप्टन कहती हैं, "यह दिखाता है कि सुरक्षा से जुड़ी प्रमुख सलाहों और संभावित परिणामों को लेकर मजबूत सहमति है. उदाहरण के लिए, इम्यूनोथेरेपी से पहले और इसके दौरान अस्थमा को नियंत्रण में रखना बहुत जरूरी है. सुरक्षा और खुराक से जुड़े कई निर्देशों का भी पालन करना होता है.”
एप्टन इस थेरेपी को मैराथन के लिए दी जाने वाली ट्रेनिंग की तरह देखती हैं. बच्चों को रोजाना यह थेरेपी लेनी होती है. अगर वे ओरल इम्यूनोथेरेपी को पूरी तरह से बंद कर देते हैं तो उनकी सहनशक्ति कम हो जाती है.
एप्टन कहती हैं, "फूड एलर्जी से पीड़ित कई लोगों में इम्यूनोथेरेपी से होने वाला सुधार इस बात पर निर्भर करता है कि वे एलर्जी करने वाले खाद्य पदार्थों के कितने संपर्क में आ रहे हैं. इसके लिए अक्सर काफी ज्यादा काउंसलिंग की जरूरत होती है. ऐसे में परिवारों के लिए यह देखना बहुत मददगार होता है कि उस पर (थेरेपी पर) व्यापक सहमति है.”
सर्वप्रिया सांगवान
आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह को इसी सप्ताह सुप्रीम कोर्ट से सशर्त जमानत मिली, जिसके बाद वह जेल से बाहर आए हैं।
दिल्ली की आबकारी नीति में कथित घोटाले के आरोप में वह करीब छह महीने से जेल में बंद थे।
इसी मामले में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया भी जेल में बंद हैं।
बाहर निकलने के बाद संजय सिंह ने बीबीसी की सर्वप्रिया सांगवान के साथ खास बातचीत में शराब नीति में कथित भ्रष्टाचार के केस, इंडिया गठबंधन, लोकतंत्र, नेताओं के एक पार्टी से दूसरे में जाने और आगामी लोकसभा चुनाव पर अपनी राय रखी।
पढि़ए इस बातचीत के कुछ खास अंश।
सवाल- जब जेल में पता चला कि अरविंद केजरीवाल भी गिरफ़्तार हो गए हैं, तब कैसा लगा? क्या ऐसा लगा कि सब ख़त्म हो गया?
संजय सिंह- एक पल को बहुत तकलीफ हुई। उस समय मुझे ये लगा कि इस समय मुझे बाहर होना चाहिए था, तो मैं और मजबूती से लड़ पाता। लेकिन फिर जब मैंने देखा कि हमारे कार्यकर्ता लाठियां खा रहे हैं, घसीटे जा रहे हैं, विधायकों को, मंत्रियों को बसों में भरा जा रहा है, फिर भी वो एकदम संघर्ष कर रहे हैं, तो बड़ा अच्छा लगा।
अगर पार्टी के लिहाज से देखेंगे तो हमारे सबसे बड़े नेता और हमारे मुखिया को जेल में डाल दिया। ये पार्टी खत्म करने की साजिश है बीजेपी की। उसी को लेकर इन्होंने सारे खेल किए हैं, लेकिन ये कामयाब नहीं होंगे। हम लोग इनसे पहले भी लड़ते रहे हैं और आगे भी लड़ते रहेंगे।
सवाल- बहुत लोग जेल से डरते हैं। क्या है ये जेल जाने का डर?
संजय सिंह- बाहर बैठे व्यक्ति की जेल के बारे में धारणा है कि चार खाने वाला कुर्ता होता है, उसी का पायजामा होता है, टोपी लगानी है और पत्थर तोडऩा होता है। ऐसा कुछ नहीं होता है आज की जेलों में। आज की जेलें बहुत परिवर्तित हो चुकी हैं। दूसरी बात है कि कष्ट होता है, इसमें कोई दोराय नहीं।
11 दिनों तक मुझे एक कोठरी में रखा गया। लोगों से मिलने की इजाजत नहीं थी। छह महीने तक जब तक जेल में रहा, खुद से अपना सारा काम किया। बर्तन मांजना, कपड़े धोना, झाड़ू लगाना हो। सब किया। छह महीने इस जेल के दौरान दूसरा अच्छा पक्ष ये है कि उतनी किताबें पढ़ीं, जितनी छह साल में नहीं पढ़ पाता। फोन नहीं थे हमारे पास, दिन में थोड़ी देर सो लेते थे। म्यूजिक़ रूम में गाना गाने पहुंच जाता था।
मैं आज की तारीख में देखता हूं कि ये नेता डर के चला गया, वो चला गया। डरिए मत। क्योंकि इससे लोगों का विश्वास टूटता है। आज आप बीजेपी के खिलाफ बोल रहे हैं, कल को आप बीजेपी का झंडा उठा ले रहे हैं, सिर्फ ईडी-सीबीआई के डर से। क्या हो जाएगा, राजनीति कर रहे हैं, चार-छह महीने जेल में रहना पड़ेगा तो कोई बात नहीं। कितने क्रांतिकारियों, राजनेताओं ने जेल काटी है।
मैं ये लोगों से कहूंगा कि इस वक्त देश के अंदर जो तानाशाह सरकार है, जो निर्वाचित सरकारों को तोड़ती है, गिराती है, विधायकों को खरीदती है, डराती-धमकाती है, डरो मत। डरोगे तो कायर के रूप में याद किए जाओगे, लड़ोगे तो बहादुर के रूप में याद किए जाओगे।
संजय सिंह को जमानत मिलने से क्या आम आदमी पार्टी को लोकसभा चुनावों में फायदा होगा?
सवाल- शराब नीति में कुछ तो हुआ होगा कि ईडी ने इतनी बड़ी कार्रवाई कर दी?
संजय सिंह- मुझे लगता है कि दिल्ली में तो किसी दिन हंसी घोटाला भी आ जाएगा। कहा जाएगा कि 15 मिनट हंसने का टाइम है, आम आदमी पार्टी वाले तो 18 मिनट तक हंसे। हमारे खिलाफ आज से नहीं, 2015 से लगे हैं ये लोग। आपको याद होगा तब भी केजरीवाल जी के दफ्तर में सीबीआई का छापा पड़ा था। तब भी इस्तीफा मांग रहे थे।
(संजय सिंह एक शख्स की प्रधानमंत्री मोदी के साथ तस्वीर दिखाते हुए) मोदी जी के साथ फोटो में मंगुटा रेड्डी हैं, जिनको ईडी शराब का घोटालेबाज कह रही थी और उनके बेटे को गिरफ्तार किया था शराब घोटाले में। अब 2024 में ये प्रधानमंत्री मोदी की फ़ोटो लगाकर वोट मांग रहे हैं।
मंगुट्टा रेड्डी साहब के घर ईडी का छापा पड़ा। इनसे पूछा गया केजरीवाल जी को जानते हो। इन्होंने कहा हां मिले थे चैरिटेबल ट्रस्ट की जमीन के मामले में। 10 फऱवरी 2022 को इनके बेटे राघव रेड्डी को गिरफ़्तार कर लिया गया।
10 फऱवरी से 16 जुलाई तक राघव रेड्डी के सात बयान लिए जाते हैं, मंगुट्टा रेड्डी के तीन बयान लिए जाते हैं। जब बाप-बेटे का तीन और सात मिलाकर 10 बयान होता है, और आठ बयानों में वे केजरीवाल के खिलाफ नहीं बोलते हैं। एक-दो बयानों में बोलते हैं, उन लोगों को जमानत मिल जाती है। राघव रेड्डी को 18 जुलाई को जमानत मिल जाती है।
एक सबसे बड़ी बात जो आठ बयान केजरीवाल जी के खिलाफ नहीं दिए गए थे, उन्हें ईडी ने छिपा दिया। उसको कोर्ट के सामने नहीं रखा। शरद रेड्डी को 2022 में गिरफ्तार किया गया। 12 बयानों में नाम नहीं लेते हैं और अंतिम के एक-दो बयानों में लेने के बाद ही उनकी जमानत हो जाती है ।
शरद रेड्डी 10 नवंबर ईडी की हिरासत में जाते हैं और 15 नवंबर को 5 करोड़ की रिश्वत भाजपा को पेश करवाते हैं। अपनी गिरफ़्तारी से लेकर उसके बाद तक कुल वह 55 करोड़ रुपये भारतीय जनता पार्टी को देते हैं, इलेक्टोरल बॉन्ड्स के ज़रिए।
सवाल- लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड्स के ज़रिए पैसे तो आम आदमी पार्टी को भी मिले हैं?
संजय सिंह- हम तो कह रहे हैं कागज़ातों की जाँच करवाइए। भाजपा का जो सच है, जिसमें उनका घोटाला सामने आ रहा है उसपर जाँच क्यों नहीं करवा रहे।
सवाल- दिल्ली में संवैधानिक संकट हुआ तो आप लोग क्या करेंगे?
संजय सिंह- इसका कोई सवाल ही नहीं है। दिल्ली का काम चल रहा है। हमारे मंत्री अच्छे से काम कर रहे हैं। मणिपुर एक साल से जल रहा है। वहां पर करगिल के फौजी की पत्नी को निर्वस्त्र कर के घुमाया जाता है। हिंसा हो रही है, दंगे हो रहे हैं और वहां के मुख्यमंत्री को तो भाजपाई माला पहनाकर, कंधे पर लेकर घूम रहे हैं। वहां कोई संकट नहीं?
सवाल- आप कहते हैं कि केंद्रीय जाँच एजेंसियों का दुरुपयोग कर रही है बीजेपी, लेकिन राहुल गांधी, ममता बनर्जी पर भी आरोप है। लेकिन वो जेल में नहीं हैं?
संजय सिंह- उनके ख़िलाफ़ भी तो हो ही रहा है दुरुपयोग। मुकदमे हो रहे हैं। उनको भी जेल में डाल देंगे।
सवाल- अगर इंडिया गठबंधन की सरकार बनी तो क्या पीएमएलए के सख्त प्रावधानों को हटाएंगे, क्या ईडी की पावर को कम करेंगे?
संजय सिंह- वो मामला अभी सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। उसपर फैसला आने दीजिए। न्यायालय पर भरोसा करते हैं।
सवाल- मौजूदा विपक्ष में लोकतंत्र को बचाने की ताकत है?
संजय सिंह-अगर ताकत नहीं है तो पैदा करनी पड़ेगी। कोई विकल्प नहीं है। इंडिया गठबंधन इस बार चुनाव जीतेगा और बीजेपी हारेगी। एनडीए हारेगा और इसी घबराहट का नतीजा है कि ये गिरफ्तारियां हो रही हैं। कोई भी राजनेता इस समय में ऐसे काम नहीं करता है, जो काम मोदी जी कर रहे हैं।
अगर ये 400 पार कर रहे होते तो क्या जरूरत थी केजरीवाल और हेमंत सोरेन को गिरफ्तार करने की। इसका मतलब घबराहट है। इसका मतलब मोदी जी जान रहे हैं कि नीचे सब कुछ ठीक नहीं है। क्योंकि पिछले चुनाव में तो सैचुरेशन पॉइंट पर था सब। हर जगह जीते ही थे, तो अब नीचे ही आना है न।
सवाल- पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार पर आलोचकों को दबाने के आरोप पर क्या कहेंगे?
संजय सिंह- आम आदमी पार्टी की सरकार में पंजाब के अंदर भी कहीं दुर्भावना से काम नहीं किया। वहां भी हम शिक्षा, स्वास्थ्य के मॉडल पर काम कर रही है। हमने तो गलत पाने के बाद अपने मंत्री पर भी केस किया। सिर्फ विपक्ष पर ही थोड़े कार्रवाई कर रहे हैं। (bbc.com/hindi)
अक्सर कहा जाता है कि सर्दी या बारिश में जोड़ों या कमर का दर्द बढ़ जाता है. लेकिन ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने एक शोध के बाद कहा है कि इस मान्यता में कोई सच्चाई नहीं है.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
यह पुरानी मान्यता है कि मौसम बदलने पर जोड़ों या मांसपेशियों का दर्द बढ़ जाता है. बहुत से लोग कहते हैं कि गठिये का दर्द भी मौसम के हिसाब से कम या ज्यादा हो सकता है. लेकिन एक ताजा अध्ययन के बाद वैज्ञानिकों ने इस समझ को चुनौती दी है.
ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं को जोड़ों के दर्द और मौसम में कोई संबंध नहीं मिला. शोधकर्ताओं ने पाया कि अधिक तापमान और कम उमस में गाउट का खतरा दोगुना हो सकता है. अपने शोध में उन्होंने पाया कि गर्मी के मौसम में शरीर में पानी की कमी होने से गाउट के मरीजों में यूरिक एसिड की मात्रा बढ़ गई.
तापमान से संबंध नहीं
दुनियाभर में बड़े पैमाने पर लोग जोड़ों के दर्द से पीड़ित रहते हैं. ऑस्ट्रेलिया में ही इनकी संख्या एक चौथाई आबादी के करीब है. वैज्ञानिकों ने अपने शोध के जरिए इस आम समझ को चुनौती दी है कि मौसम का असर इस दर्द पर होता है. उन्होंने कहा कि जोड़ों के दर्द को लेकर बहुत सी गलतफहमियां हैं और इसके इलाज के विकल्प बहुत कम हैं.
सिडनी यूनिवर्सिटी की ओर से जारी एक बयान में शोधकर्ता प्रोफेसर मानुएला फरेरा ने कहा, "आमतौर पर लोग मानते हैं कि किसी खास मौसम में कमर, कूल्हे या जोड़ों के दर्द और गठिये के दर्द में वृद्धि हो जाती है. हमारा शोध इस समझ को चुनौती देता है और दिखाता है कि बारिश हो या धूप, मौसम का हमारे अधिकतर दर्दों से कोई संबंध नहीं है.”
सिडनी के कोलिंग इंस्टिट्यूट की प्रोफेसर फरेरा और उनकी टीम ने मांसपेशियों और हड्डियों (मस्कोस्केलटल) के दर्द को लेकर अब तक हुए तमाम अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों के डेटा का विश्लेषण किया. लगभग 15 हजार मरीजों के इस डेटा में दर्द के बढ़ने के 28 हजार से ज्यादा मामले शामिल थे. इनमें सबसे ज्यादा मामले घुटने या कूल्हे के गठिये के थे. उसके बाद कमर के निचले हिस्से का दर्द सबसे ज्यादा पाया गया.
मौसम के भरोसे ना रहें
विश्लेषण में वैज्ञानिकों ने पाया कि हवा के तापमान, नमी या दबाव में बदलाव या बारिश से दर्द में बढ़ने के मामलों में कोई बदलाव नहीं हुआ था. यानी ऐसा नहीं हुआ कि जब मौसम बदला तो मरीजों का दर्द के इलाज के लिए आना बढ़ गया या कम हो गया. उसमें कोई बदलाव नहीं हुआ.
यह पहला ऐसा अध्ययन है जिसमें जोड़ों या मांसपेशियों के दर्द का मौसम से संबंध होने पर खोज की गई. शोधकर्ता कहते हैं कि उनके नतीजे उस समझ को एक भ्रांति साबित करते हैं. साथ ही वे मरीजों को भी चेताते हैं कि मौसम के असर के इंतजार में अपने दर्द को नजरअंदाज ना करें.
प्रोफेसर फरेरा कहती हैं, "दर्द में राहत के लिए मरीजों और डॉक्टरों को वजन में कमी और व्यायाम जैसी चीजों पर ध्यान देना चाहिए ना कि इस इंतजार में रहना चाहिए कि मौसम बदलेगा तो दर्द कम हो जाएगा.” (dw.com)
(जस्टिन रॉबर्ट्स, जोसेफ लिलिस और मार्क कॉर्टनेज, एंग्लिया रस्किन विश्वविद्यालय)
कैंब्रिज, 25 जनवरी। बुढ़ापा जीवन का एक अपरिहार्य हिस्सा है, जो दीर्घायु की खोज के प्रति हमारे मजबूत आकर्षण को समझा सकता है। शाश्वत यौवन का आकर्षण अपने जीवनकाल को बढ़ाने की उम्मीद रखने वाले लोगों के लिए अरबों पाउंड के उस उद्योग को संचालित करता है, जो बुढ़ापा रोधी उत्पादों से लेकर पूरक और आहार तक का कारोबार करते हैं।
यदि आप 20वीं सदी की शुरुआत पर नजर डालें तो ब्रिटेन में औसत जीवन प्रत्याशा लगभग 46 वर्ष थी। आज ये 82 साल के करीब है. हम वास्तव में पहले से कहीं अधिक लंबे समय तक जी रहे हैं, संभवतः चिकित्सा प्रगति और बेहतर रहने और काम करने की स्थितियों के कारण।
लेकिन लंबे समय तक जीवित रहने की भी कीमत चुकानी पड़ी है। अब हम पुरानी और अपक्षयी बीमारियों की उच्च दर देख रहे हैं - हृदय रोग इस सूची में लगातार शीर्ष पर है। इसलिए जबकि हम इस बात से रोमांचित हैं कि हमें लंबे समय तक जीने में क्या मदद मिल सकती है, शायद हमें लंबे समय तक स्वस्थ रहने में अधिक रुचि होनी चाहिए। हमारी "स्वस्थ जीवन प्रत्याशा" में सुधार करना एक वैश्विक चुनौती बनी हुई है।
दिलचस्प बात यह है कि दुनिया भर में कुछ ऐसे स्थानों की खोज की गई है जहां उल्लेखनीय शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य वाले शतायु लोगों का अनुपात अधिक है।
उदाहरण के लिए, सार्डिनिया, इटली के एकेईए अध्ययन ने एक "ब्लू जोन" की पहचान की (यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि इसे नीले पेन से चिह्नित किया गया था), जहां व्यापक सार्डिनियन समुदाय के मुकाबले मध्य-पूर्वी पहाड़ी इलाकों में रहने वाले ऐसे स्थानीय लोगों की संख्या अधिक थी जो अपने 100 वें जन्मदिन पर पहुंच गए थे। ।
इस दीर्घायु हॉटस्पॉट का तब से विस्तार हुआ है, और अब इसमें दुनिया भर के कई अन्य क्षेत्र भी शामिल हैं, जिनमें लंबे समय तक जीवित रहने वाले, स्वस्थ लोगों की संख्या भी अधिक है। सार्डिनिया के साथ-साथ, इन ब्लू जोन में अब लोकप्रिय रूप से शामिल हैं: इकारिया, ग्रीस; ओकिनावा, जापान; निकोया, कोस्टा रिका; और लोमा लिंडा, कैलिफ़ोर्निया।
अपने लंबे जीवन काल के अलावा, इन क्षेत्रों में रहने वाले लोग कुछ अन्य समानताएं भी साझा करते दिखाई देते हैं, जो एक समुदाय का हिस्सा होने, जीवन का उद्देश्य रखने, पौष्टिक, स्वस्थ भोजन खाने, तनाव के स्तर को कम रखने और उद्देश्यपूर्ण दैनिक व्यायाम या शारीरिक कार्य करने पर केंद्रित हैं।
उनकी दीर्घायु उनके पर्यावरण से भी संबंधित हो सकती है, ज्यादातर ग्रामीण (या कम प्रदूषित) होने के कारण, या विशिष्ट दीर्घायु जीन के कारण।
हालाँकि, अध्ययनों से संकेत मिलता है कि आनुवंशिकी केवल लगभग 20-25% दीर्घायु के लिए जिम्मेदार हो सकती है - जिसका अर्थ है कि किसी व्यक्ति का जीवनकाल जीवनशैली और आनुवंशिक कारकों के बीच एक जटिल तालमेल है, जो लंबे और स्वस्थ जीवन में योगदान देता है।
क्या इसका रहस्य हमारे आहार में है?
जब आहार की बात आती है, तो प्रत्येक ब्लू जोन का अपना दृष्टिकोण होता है - इसलिए एक विशिष्ट भोजन या पोषक तत्व उल्लेखनीय दीर्घायु की व्याख्या नहीं करता है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि पौधों के खाद्य पदार्थों (जैसे स्थानीय रूप से उगाई जाने वाली सब्जियां, फल और फलियां) से भरपूर आहार इन क्षेत्रों में उचित रूप से सुसंगत प्रतीत होता है।
उदाहरण के लिए, लोमा लिंडा के सेवेंथ-डे एडवेंटिस्ट मुख्यतः शाकाहारी हैं। ओकिनावा में सौ साल के लोगों के लिए, बैंगनी शकरकंद, सोया और सब्जियों से फ्लेवोनोइड्स (आमतौर पर पौधों में पाया जाने वाला एक रासायनिक यौगिक) का उच्च सेवन बेहतर हृदय स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है - जिसमें निम्न कोलेस्ट्रॉल स्तर और स्ट्रोक और हृदय रोग की कम घटनाएं शामिल हैं।
निकोया में, स्थानीय रूप से उत्पादित चावल और फलियों की खपत को टेलोमेयर की अधिक लंबाई के साथ जोड़ा गया है। टेलोमेयर हमारे गुणसूत्रों के अंत में संरचनात्मक भाग हैं जो हमारी आनुवंशिक सामग्री की रक्षा करते हैं। हर बार कोशिका के विभाजित होने पर हमारे टेलोमेयर छोटे हो जाते हैं - इसलिए जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती है, वे उत्तरोत्तर छोटे होते जाते हैं।
कुछ जीवनशैली कारक (जैसे धूम्रपान और खराब आहार) भी टेलोमेयर की लंबाई को छोटा कर सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि टेलोमेयर की लंबाई उम्र बढ़ने के बायोमार्कर के रूप में कार्य करती है - इसलिए लंबे टेलोमेयर का होना, आंशिक रूप से, दीर्घायु से जुड़ा हो सकता है।
लेकिन पौधे आधारित आहार ही एकमात्र रहस्य नहीं है। उदाहरण के लिए, सार्डिनिया में, स्थानीय रूप से उगाई जाने वाली सब्जियों और पारंपरिक खाद्य पदार्थों जैसे कि एकोर्न ब्रेड, पैन कारासौ (एक खट्टी रोटी), शहद और नरम पनीर के अधिक सेवन के साथ ही मांस और मछली का सेवन कम मात्रा में किया जाता है।
कई ब्लू ज़ोन क्षेत्रों में जैतून का तेल, वाइन (संयम के साथ - दिन में लगभग 1-2 गिलास), साथ ही चाय का भी समावेश देखा गया है। इन सभी में शक्तिशाली एंटीऑक्सीडेंट होते हैं जो उम्र बढ़ने के साथ हमारी कोशिकाओं को क्षति से बचाने में मदद कर सकते हैं।
शायद फिर, यह इन शतायु लोगों के आहार में विभिन्न पोषक तत्वों के सुरक्षात्मक प्रभावों का एक संयोजन है, जो उनकी असाधारण दीर्घायु की व्याख्या करता है।
इन दीर्घायु गर्म स्थानों का एक और उल्लेखनीय अवलोकन यह है कि भोजन आमतौर पर घर पर ताजा तैयार किया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि पारंपरिक ब्लू ज़ोन आहार में अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थ, फास्ट फूड या शर्करा युक्त पेय शामिल नहीं होते हैं जो उम्र बढ़ने में तेजी ला सकते हैं। तो जितना यह जानना जरूरी है कि ये लंबे समय तक जीवित रहने वाली आबादी क्या कर रही है, उतना ही यह जानना भी जरूरी है कि वह क्या नहीं कर रही है।
ऐसा प्रतीत होता है कि 80% पेट भरने तक खाने का एक पैटर्न है (दूसरे शब्दों में आंशिक कैलोरी में कमी। यह इस बात का समर्थन करने में भी महत्वपूर्ण हो सकता है कि हमारी कोशिकाएं उम्र बढ़ने के साथ क्षति से कैसे निपटती हैं, जिसका अर्थ लंबा जीवन हो सकता है।
इन ब्लू ज़ोन आहारों को बनाने वाले कई कारक - मुख्य रूप से पौधे-आधारित और प्राकृतिक संपूर्ण खाद्य पदार्थ - हृदय रोग और कैंसर जैसी पुरानी बीमारियों के कम जोखिम से जुड़े हैं। ऐसे आहार न केवल लंबे, स्वस्थ जीवन में योगदान दे सकते हैं, बल्कि अधिक विविध आंत माइक्रोबायोम का समर्थन कर सकते हैं, जो स्वस्थ उम्र बढ़ने के साथ भी जुड़ा हुआ है।
जब दीर्घायु की बात आती है तो आहार बड़ी तस्वीर का केवल एक हिस्सा है, यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसके बारे में हम कुछ कर सकते हैं। वास्तव में, यह न केवल हमारे स्वास्थ्य की गुणवत्ता में सुधार के केंद्र में हो सकता है, बल्कि हमारी उम्र बढ़ने की गुणवत्ता में भी सुधार ला सकता है।
द कन्वरसेशन एकता एकता 2501 1158 कैंब्रिज (द कन्वरसेशन)
सिडनी, 22 जनवरी । एक शोध से यह बात सामने आई है कि बचपन में हुई फूड एलर्जी से अस्थमा और फेफड़ों की कार्यक्षमता कम हो जाती है।
मर्डोक चिल्ड्रेन्स रिसर्च इंस्टीट्यूट के नेतृत्व में किए गए शोध में पाया गया कि प्रारंभिक जीवन में फूड एलर्जी अस्थमा के बढ़ते जोखिम और छह साल की उम्र में फेफड़ों के विकास में कमी से जुड़ी थी।
अध्ययन में 5,276 शिशुओं को शामिल किया गया, जिन्होंने खाद्य एलर्जी के परीक्षण के लिए मूंगफली और अंडे और मौखिक भोजन की चुनौतियों सहित आम फूूड एलर्जी के लिए परीक्षण किया। छह साल की उम्र में बच्चों का खाद्य एलर्जी और फेफड़ों के कार्य परीक्षण किया गया।
लांसेट चाइल्ड एंड एडोलेसेंट हेल्थ में प्रकाशित नतीजों से पता चला कि छह साल की उम्र तक, 13.7 प्रतिशत ने अस्थमा के डायग्नोसिस की सूचना दी। बिना फूड एलर्जी वाले बच्चों की तुलना में, छह साल की उम्र में फूड एलर्जी वाले शिशुओं में अस्थमा विकसित होने की संभावना लगभग चार गुना अधिक थी।
इसका असर उन बच्चों पर सबसे ज़्यादा पड़ा जिनकी फूड एलर्जी छह साल की उम्र तक बनी रही, उन लोगों की तुलना में जिनकी एलर्जी की उम्र बढ़ चुकी थी। फूड एलर्जी से पीड़ित बच्चों में फेफड़ों की कार्यक्षमता कम होने की संभावना भी अधिक थी।
मर्डोक चिल्ड्रेन में एसोसिएट प्रोफेसर राचेल पीटर्स ने कहा, ''बचपन में हुई फूड एलर्जी, चाहे इसका समाधान हो या नहीं, बच्चों में खराब श्वसन परिणामों से जुड़ी हुई थी। यह संबंध बचपन में फेफड़ों के विकास में कमी को देखते हुए वयस्कता में श्वसन और हृदय की स्थिति सहित स्वास्थ्य समस्याओं से जुड़ा है।''
“फेफड़ों का विकास बच्चे की ऊंचाई और वजन से संबंधित होता है और फूड एलर्जी वाले बच्चे बिना एलर्जी वाले अपने साथियों की तुलना में छोटे और हल्के हो सकते हैं। यह फूड एलर्जी और फेफड़ों की कार्यप्रणाली के बीच संबंध को समझा सकता है। फूड एलर्जी और अस्थमा दोनों के विकास में समान प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाएं शामिल होती हैं।''
पीटर्स ने कहा, “फूड एलर्जी वाले शिशुओं के विकास की निगरानी की जानी चाहिए। हम उन बच्चों को आहार विशेषज्ञ की देखरेख में रहने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जो अपनी एलर्जी के कारण भोजन से परहेज कर रहे हैं ताकि स्वस्थ विकास सुनिश्चित करने के लिए पोषण प्रदान किया जा सके।''
मर्डोक चिल्ड्रेन एंड यूनिवर्सिटी ऑफ मेलबर्न की प्रोफेसर श्यामली धर्मगे ने कहा कि निष्कर्षों से चिकित्सकों को रोगी की देखभाल में मदद मिलेगी और श्वसन स्वास्थ्य की निगरानी पर अधिक सतर्कता को बढ़ावा मिलेगा।
फूड एलर्जी वाले बच्चों को निरंतर प्रबंधन और शिक्षा के लिए क्लिनिकल इम्यूनोलॉजी या एलर्जी विशेषज्ञ द्वारा प्रबंधित किया जाना चाहिए।
प्रोफेसर धर्मेज ने कहा कि चिकित्सकों और माता-पिता को फूड एलर्जी वाले बच्चों में अस्थमा के लक्षणों के प्रति भी सतर्क रहना चाहिए क्योंकि खराब नियंत्रित अस्थमा गंभीर भोजन-प्रेरित एलर्जी प्रतिक्रियाओं और एनाफिलेक्सिस के लिए एक जोखिम कारक था। (आईएएनएस)।
मिशेल रॉबर्ट्स
कैंसर से जूझ रहे कुछ बच्चों का ब्रिटेन में एक नई तरह की दवा से इलाज किया जा रहा है. ये दवा कीमोथेरेपी से बहुत कम ज़हरीली है.
11 साल के अर्थर को ब्लड कैंसर के इलाज के लिए लंदन के ग्रेट ऑरमंड स्ट्रीट अस्पताल में यह दवा दी गई. वह इस दवा को लेने वाले शुरुआती लोगों में से एक हैं.
उनके परिवार के लोग इस नई थेरेपी को ‘उम्मीद की एक किरण’ बता रहे हैं क्योंकि इससे अर्थर की तबीयत ज़्यादा ख़राब नहीं हुई.
ख़ास बात यह है कि इसे कहीं पर भी मरीज़ को दिया जा सकता है. इस वजह से अर्थर घर पर परिवार के साथ ज़्यादा समय बिता पाए और अपनी पसंद के काम भी कर पाए.
वह इस दवा को पीठ पर पहने जाने वाले बैग (पिट्ठू) में लेकर घूम सकते थे. इस बैग को ‘ब्लीना बैकपैक’ कहा जाता है.
जब बेअसर हुई कीमोथेरेपी
अर्थर के इलाज के लिए ब्लीनाटूमोमैब या ब्लीना ही एकमात्र विकल्प था क्योंकि कीमोथेरेपी से कैंसर ठीक नहीं हो पा रहा था और उसके साइड इफ़ैक्ट से वह कमज़ोर भी हो गए थे.
वयस्कों में कैंसर के इलाज के लिए ब्लीना को इस्तेमाल करने का लाइसेंस पहले से ही मिला हुआ था. मगर अब विशेषज्ञों को उम्मीद है कि यह बच्चों के लिए भी सुरक्षित रहेगी.
यूके में क़रीब 20 ऐसे सेंटर हैं, जहां बी-सेल एक्यूट लिंफोब्लास्टिक ल्यूकेमिया (बी-ऑल) से जूझ रहे बच्चों के इलाज के लिए इसका ऑफ़-लेबल इस्तेमाल किया जा रहा है.
ऑफ़-लेबल का मतलब है- मंज़ूर की जा चुकी दवा को उसके इस्तेमाल के लिए मंज़ूर किए गए ढंग के अलावा किसी और तरीक़े या किसी और बीमारी के लिए इस्तेमाल करना.
यह दवा इम्यूनोथेरेपी पर आधारित है. यानी ये शरीर में कैंसर वाली कोशिकाओं की पहचान करती है ताकि शरीर का अपना प्रतिरोधक तंत्र उन्हें पहचाने और फिर नष्ट कर दे.
यह काम बहुत ही बारीक़ी से होता है. स्वस्थ कोशिकाएं एकदम सुरक्षित रहती हैं, जबकि कीमोथेरेपी में ऐसा नहीं होता.
ब्लीना एक बैग के अंदर तरल रूप में आती है. इसे पतली सी प्लास्टिक की ट्यूब के माध्यम से सीधे मरीज़ की नस में डाला जाता है. यह ट्यूब कई महीनों तक मरीज़ की बांह से जुड़ी रहती है.
बैटरी से चलने वाला एक पंप तय मात्रा में ख़ून में दवा डालता रहता है. इस दवा का एक बैग कई दिनों तक चलता है.
ये पूरी किट एक छोटे से बैग में डालकर कहीं भी ले जाई जा सकती है. इसका आकार नोटबुक से भी छोटा है.
छोटे आकार और बैग में डाले जा सकने का मतलब था कि अर्थर अपनी पसंद के कोई भी काम कर सकते थे. जैसे कि वह घर के बगल के पार्क में झूला झूल सकते थे और उसी समय उनका इलाज भी चल रहा होता था.
वहीं, एक तो कीमोथेरेपी उनके लिए बेअसर रही थी और फिर उसने उन्हें इतना कमज़ोर कर दिया था कि वो मौज-मस्ती भी नहीं कर पाते थे.
शुरुआती दिक्कतें
ब्लीना का इस्तेमाल कर रहे बाक़ी मरीज़ों की तरह अर्थर को शुरू में एक दवा दी गई थी ताकि उन्हें नई क़िस्म से इलाज से कोई गंभीर रिएक्शन या साइड इफ़ेक्ट न हो जाए.
शुरू में उन्हें कुछ दिन बुख़ार आया और उस दौरान उन्हें जांच के लिए अस्पताल में रहना पड़ा.
लेकिन जल्द ही वह घर जा पाए.
दवा का यह बैग लगातार अर्थर के पास रहा. उनके बिस्तर पर भी. भले ही इसका पंप थोड़ी आवाज़ करता है, लेकिन रात को वह आराम से सो पाते थे.
कीमो करवाना अर्थर के लिए बहुत मुश्किलों भरा रहा था. उनकी मां सैंडरीन कहती हैं कि ब्लीना से उन्हें बहुत राहत मिली.
उन्होंने कहा, “उसकी हालत बहुत ख़राब हो गई थी. मुश्किल यह थी कि दवा (कीमो) की मार उसके शरीर पर पड़ रही थी.”
“एक ओर हम उसका इलाज कर रहे थे मगर दूसरी ओर उसी इलाज से उसकी तबीयत बिगाड़ रहे थे. इस दौर से गुज़रना बहुत मुश्किल भरा होता है.”
बड़ा क़दम
अर्थर को हर चार दिन में अस्पताल जाना पड़ा ताकि डॉक्टर ब्लीना किट में फिर से दवा भर सकें. बाक़ी समय घर पर रहकर ही इलाज चलता रहा.
उनकी मां सैंडरीन ने कहा, “उसे इस बात से ख़ुशी हुई कि वह इसे (दवा के बैग को) पकड़ सकता है, ज़िम्मेदारी उठा सकता है. वो इस सब में ढल गया था.”
अप्रैल 2023 के अंत में अर्थर का आख़िरी ऑपरेशन हुआ और उनकी बांह से ट्यूब निकाल ली गई.
सैंडरीन कहती हैं, “ये एक बड़ा क़दम था. उसे आज़ादी मिल गई थी.”
डॉक्टर कहते हैं कि ब्लीना के इस्तेमाल से कीमोथेरेपी की ज़रूरत बहुत कम की जा सकती है, शायद 80% तक.
यूनाइटेड किंगडम में हर साल क़रीब 450 बच्चों में उसी तरह के कैंसर पाया जाता है, जो अर्थर को हुआ था.
कीमो के साइड इफ़ैक्ट
चीफ़ इन्वेस्टिगेटर और कंसल्टेंट पीडिएट्रिक हेमेटोलॉजिस्ट, प्रोफ़ेसर अजय वोरा ने बताया, “कीमोथेरेपी में ऐसे ज़हर होते हैं जो ल्यूकेमिया वाली कोशिकाओं को मारते हैं. लेकिन ये सामान्य कोशिकाओं को भी नुक़सान पहुंचाते हैं . इसी कारण कीमो के साइड इफ़ेक्ट देखने को मिलते हैं.”
वह कहते हैं, “ब्लीनाटूमोमैब एक कोमल और कम कष्ट देने वाला इलाज है.”
हाल के दिनों में कैंसर के इलाज के लिए एक और इम्यूनोथेरेपी आधारित दवा- किमेरिक एंटीजन रिसेप्टर टी-सेल थेरेपी (सीएआर-टी) भी उपलब्ध हुई है.
लेकिन ये ब्लीना से महंगी है. इसमें मरीज़ों की कोशिकाएं ली जाती हैं, उनमें प्रयोगशाला में बदलाव करके फिर से मरीज़ के शरीर में दवा के तौर पर डाला जाता है. इस पूरी प्रक्रिया में समय भी लगता है.
अर्थर का इलाज सफल रहा है और कैंसर ख़त्म हो गया है.
सैंडरीन कहती हैं, “हमें न्यू इयर पर पता चला कि ब्लीना ने काम किया है और अब कैंसर के कोई निशान बाक़ी नहीं हैं. ऐसे में हमारी ख़ुशियां दोगुनी हो गईं.” (bbc.com)
नयी दिल्ली, 8 जनवरी। एक अध्ययन के अनुसार आंख की रेटिना में रक्त के प्रवाह में परिवर्तन से पता चल सकता है कि माइग्रेन के कुछ रोगियों को दृश्यता से संबंधित लक्षण क्यों अनुभव होते हैं।
रेटिना अधिकांश कशेरुकी श्रेणी के और कुछ मोलस्का (स्थलीय अथवा जलीय) श्रेणी के प्राणियों की आंखों के ऊतकों की सबसे भीतरी, प्रकाश के प्रति संवेदनशील परत होती है।
पत्रिका ‘हेडेक: द जर्नल ऑफ हेड एंड फेस पेन’ में यह अध्ययन प्रकाशित हुआ है। अध्ययन के निष्कर्ष के अनुसार माइग्रेन के रोगियों में इस अवलोकन का उपयोग चिकित्सक इस स्थिति के नैदानिक उपचार में सहायता के लिए कर सकते हैं।
माइग्रेन के रोगियों को अक्सर आंखों के आसपास दर्द, प्रकाश के प्रति संवेदनशीलता और दृश्यता संबंधी धुंधलापन जैसे लक्षणों का अनुभव होता है। इन लक्षणों के लिए क्या तंत्र जिम्मेदार है इसे अब तक अच्छी तरह से समझा नहीं गया है।
अमेरिका में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, लॉस एंजिलिस के अनुसंधानकर्ताओं ने माइग्रेन के लक्षण उभरने के दौरान और बीच में माइग्रेन के रोगियों की रेटिना रक्त वाहिकाओं में परिवर्तन को देखने के लिए एक ‘नॉन-इनवेसिव इमेजिंग’ तकनीक का उपयोग किया जिसे ऑप्टिकल सुसंगत टोमोग्राफी एंजियोग्राफी या ओसीटीए के रूप में जाना जाता है।
ये प्रयोग औरा (कुछ कुछ समय के अंतराल पर दिखने वाले) लक्षणों वाले 37 माइग्रेन रोगियों, गैर ‘औरा’ लक्षणों वाले 30 माइग्रेन रोगियों और 20 स्वस्थ रोगियों पर किया गया था।
अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि ‘औरा’ लक्षणों वाले और गैर ‘औरा’ लक्षणों वाले दोनों माइग्रेन रोगियों के लिए माइग्रेन के लक्षण उभरने के दौरान रेटिना में रक्त का प्रवाह कम हो जाता है। (भाषा)
अभी भी कुछ लोगों के सीने में यह कृत्रिम हृदय धड़क रहा है, लेकिन अहम सवाल यह है कि आम लोगों तक यह तकनीक कब पहुंचेगी?
डॉयचे वैले पर आना कार्टहाउज की रिपोर्ट-
हृदय वास्तव में हमारे शरीर का एक काफी सरल अंग होता है. यह एक पंप है, जिसमें चार चैम्बर, कुछ वाल्व, ट्यूब और वायरिंग होते हैं. इसमें मौजूद दो चैंबर में पुराना खून आता है और दो चैंबरों से साफ खून बाहर निकलता हैं. स्मार्ट वाल्व ट्रैफिक लाइट की तरह खून के एकतरफा प्रवाह को नियंत्रित करते हैं.
किसी इंसान में यह प्रक्रिया लगातार जारी रहती है. हालांकि, जब पंप सही तरीके से काम नहीं करता है, तो इंसान की स्थिति गंभीर होने लगती है. स्थिति ज्यादा खराब होने पर पंप इतना कमजोर हो जाता है कि यह पूरे शरीर में रक्त को प्रभावी ढंग से नहीं पहुंचा पाता.
ऐसी स्थिति में लोगों को सांस लेने में भी बेहद तकलीफ होती है. उनके शरीर के अलग-अलग हिस्सों तक पर्याप्त रक्त की आपूर्ति नहीं हो पाती है, इसलिए ऑक्सीजन और पोषक तत्वों की कमी हो जाती है. ऐसे में सिर्फ एक रास्ता बचता है कि उस इंसान में नया हृदय प्रत्यारोपित किया जाए.
हालांकि, हृदय दान करने वाले लोगों की संख्या काफी कम है. जर्मनी में स्थिति ज्यादा गंभीर है, क्योंकि अंग दान के लिए लोगों की लोगों की सहमति जरूरी होती है. साथ ही, अगर इस बात की कोई जानकारी नहीं होती कि किसी व्यक्ति ने मरने से पहले अंगदान की इच्छा जाहिर की है या नहीं, तो उसके परिजनों को अंतिम निर्णय लेना होता है.
1982 में पहला कृत्रिम हृदय
हृदय रोग विशेषज्ञ और हृदय सर्जन 60 वर्षों से अधिक समय से कृत्रिम हृदय बनाने की कोशिश कर रहे हैं. जिन मरीजों का हृदय पूरी तरह खराब नहीं होता है उनके लिए कुछ ऐसी प्रणालियां हैं जो हृदय के कुछ हिस्सों को सहारा दे सकती हैं. हालांकि, जिनका हृदय पूरी तरह खराब हो चुका होता है उनके लिए सिर्फ एक ही उपाय बचता है और वो है नया हृदय प्रत्यारोपित करना.
वर्ष 1982 में पहली बार पूरा और स्थायी हृदय अमेरिका में प्रत्यारोपित किया गया था. हालांकि, ये हृदय सिर्फ जरूरी काम ही करते हैं. वे मरीज की सभी जरूरतों को पूरा नहीं कर पाते हैं.
यही वजह है कि मरीज की सभी जरूरतों को पूरा करने वाले पहले कृत्रिम हृदय के प्रत्यारोपण की खबर काफी सुर्खियों में रही. इसके पीछे के मास्टर माइंड फ्रांसीसी हृदय सर्जन एलेन कारपेंटियर ने इससे पहले हार्ट वाल्व को लेकर काफी नाम कमाया था. उन्होंने पुरानी और आर्टिफिशियल मटीरियल को बदलने के लिए बायोमटीरियल का इस्तेमाल किया, जैसे कि सुअर का कार्टिलेज.
इसका फायदा यह हुआ कि नए हृदय वाले रोगियों को जीवन भर थक्कारोधी दवा लेने की जरूरत खत्म हो गई जबकि, कृत्रिम मटीरियल वाले हृदय में इन दवाओं की जरूरत होती है, लेकिन इनमें काफी ज्यादा खून बहने का खतरा होता है.
हाल के वर्षों में बढ़ा प्रत्यारोपण
कारपेंटियर ने पूरे हृदय में बायोमटीरियल का इस्तेमाल किया. उन्होंने जटिल सेंसर जैसे कई अन्य हिस्सों में भी बदलाव किया, ताकि वे अच्छे से काम करें. इस तरीके से उन्होंने नई तकनीक वाला कृत्रिम हृदय बनाने में सफलता पाई. यह हृदय किसी व्यक्ति की शारीरिक गतिविधि के अनुकूल हो सकता है.
इस कृत्रिम हृदय में कोमल बायोमटीरियल और संवेदकों की श्रृंखलाएं लगाई गईं जिसकी मदद से ये असली हृदय की तरह सिकुड़ता और फैलता है. अगर आपको बैठना, चलना, दौड़ना या डांस करना है, तो आपको ऐसे हृदय की जरूरत होती है जो यह सब करने में मदद कर सके. नए हृदय के साथ कोई व्यक्ति इन सभी कामों को कर पाता है.
फ्रांस की बायोमेडिकल कंपनी के वैज्ञानिकों द्वारा कारमेट के बनाए गए इस कृत्रिम हृदय को 76 वर्षीय एक मरीज के शरीर में लगाया गया. यह मरीज गंभीर हृदय रोग से पीड़ित था. नए पंप के साथ वह 74 दिनों तक जीवित रहा. कारमेट के प्रमुख स्टीफन पियाट बताते हैं कि हाल के वर्षों में हृदय बनाने में इस्तेमाल किए जाने वाले मटीरियल, सॉफ्टवेयर और पंपों में कई तरह के बदलाव किए गए हैं.
इस तरह के 50 हृदय अब तक रोगियों में प्रत्यारोपित किए जा चुके हैं. 14 रोगियों के लिए वे तत्कालीन समाधान के तौर पर लगाए गए थे, क्योंकि उन्हें किसी और का हृदय मिलने में देर हो रही थी. फिलहाल, करीब 15 लोगों में कारमेट का कृत्रिम दिल अब भी धड़क रहा है. वहीं, बाकी मरीजों की मौत हो चुकी है.
जटिल है कारमेट हृदय की तकनीक
कभी-कभी, तकनीकी संवेदनाओं में भी छोटी-मोटी समस्याएं हो सकती हैं. उदाहरण के लिए, कारमेट हृदय बहुत बड़ा होता है. इस वजह से छोटे सीने वाले लोगों के लिए यह उपयुक्त नहीं है. खासकर, महिलाओं में अक्सर इसे प्रत्यारोपित नहीं किया जा सकता.
इसके अलावा, यह काफी जटिल भी है. इसमें करीब 250 कॉम्पोनेंट होते हैं. बर्लिन चैरिटी अस्पताल में जर्मन हार्ट सेंटर के एवगेनिज पोटापोव बताते हैं, "इसमें से हर एक कॉम्पोनेंट के टूटने का खतरा रहता है.”
इस वजह से अन्य कृत्रिम हृदय की तुलना में कारमेट हृदय अधिक असुरक्षित होता है. साथ ही, हमेशा की तरह हर सुविधा के लिए एक कीमत चुकानी होती है. हर एक कारमेट हृदय की कीमत करीब 2,00,000 डॉलर है, जो काफी महंगा है.
एवगेनिज पोटापोव कहते हैं कि कंपनी के मुताबिक हृदय प्रत्यारोपित कराने वाले आधे मरीज छह महीने से ज्यादा जीवित नहीं रह पाते. हालांकि, इन लोगों की मौत कारमेट हृदय की वजह से नहीं होती, बल्कि जिन लोगों में कृत्रिम हृदय लगाया जाता है वे आमतौर पर पहले से ही गंभीर रूप से बीमार होते हैं.
जिन लोगों में हृदय से जुड़ी समस्याएं ज्यादा गंभीर नहीं होती हैं वे अन्य सहायता प्रणालियों की मदद से कई वर्षों तक जीवित रहते हैं और अंगदान करने वाले किसी व्यक्ति की तलाश में रहते हैं.
अस्थायी समाधान है कृत्रिम हृदय
क्या लंबे समय तक कारमेट हृदय की मदद से जिंदा रहना संभव है? इस सवाल के जवाब में पियाट कहते हैं कि इसका जवाब काफी मुश्किल है.
पियाट ने घोषणा की है कि कंपनी आने वाले समय में लॉन्ग-टर्म थेरेपी की दिशा में आगे बढ़ेगी. अब तक कारमेट हृदय को सिर्फ यूरोपीय बाजार में तत्काल समाधान के तौर पर अनुमति दी गई है.
वहीं एवगेनिज पोटापोव कहते हैं, "अगर इसका आकार आधा होता और इसमें कोई तकनीकी समस्या नहीं होती, तो मैं तुरंत इसका इस्तेमाल शुरू कर देता.” वहीं, 2021 के अंत में कंपनी को गुणवत्ता से जुड़ी समस्याओं की वजह से अपने इस उत्पाद को एक साल के लिए बाजार से हटाना पड़ा.
इस बीच शोधकर्ता आनुवंशिक रूप से बेहतर बनाए गए सुअर के दिल और संशोधित टिश्यू पर प्रयोग कर रहे हैं. हालांकि, अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि वे कारमेट हृदय की अगली वर्षगांठ से पहले तक कृत्रिम हृदय की तुलना में ज्यादा सफल होंगे या अंग दान करने वाले लोगों की संख्या बढ़ने से भविष्य में इस कृत्रिम समाधान की जरूरत कम हो जाएगी? (dw.com)
वैज्ञानिकों का कहना है कि उन्होंने डायबिटीज का एक ऐसा इलाज खोजा है, जो अगर कामयाब रहा तो इंसुलिन के टीके लेने की जरूरत नहीं रहेगी.
ऑस्ट्रेलिया के बेकर हार्ट इंस्टिट्यूट के वैज् ञानिकों ने शोधपत्र में कहा है कि अपनी रिसर्च के दौरान वे पेंक्रियाटिक स्टेम सेल्स में ऐसे बदला व करने में कामयाब रहे, जिनके बाद कोशिकाएं ज्यादा इंसुलिन पैदा करने लगीं.
मेलबर्न के इन शोधकर्ताओं ने कैंसर की दवाओं का इ स्तेमाल किया और इस दिशा में पहले से जारी शोध को आ गे बढ़ाया है.मोनाश यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकइस दिशा में पहले शोध कर चुके हैं, जिसे बेकर हार् ट के वैज्ञानिक एक कदम और आगे ले जाने में कामयाब र हे.
हालांकि वैज्ञानिकों का कहना है कि उनकी रिसर्च अभी शुरुआती दौर में है और इसका अगला कदम जानवरों पर ट्रायल के रूप में होगा. लेकिन बेकर इंस्टिट्यूट के वैज्ञानिक सैम अल-ओस ्ते कहा कि भविष्य में यह इलाज, दोनों के लिए काफ ी फायदेमंद साबित हो सकता है.
मेलबर्न के एबीसी रेडियो से बातचीत में उन्होंन े कहा, "हमने मरीज की बची हुई पेंक्रियाटिक कोशिकाओ ं को प्रभावित करने का तरीका खोजा है जिससे उन्हें बीटा कोशिकाओं की तरह इंसुलिन पैदा करना सिखाया जा सके.”
अल-ओस्ता ने कहा कि यह इलाज टाइप-1 डायबिटीज का रास ्ता बदल कर हर वक्त इंसुलिन लेने की जरूरत को खत्म कर सकता है.
कैंसर की दवाओं ने किया काम
डायबिटीज एक ऐसी बीमारी है जिसमें मरीज के शरीर म ें कुदरती तौर पर इंसुलिन पैदा होना बंद या कम हो ज ाता है. या फिर उनका शरीर हॉर्मोन को उस तरह इस्तेमाल नही ं करता, जैसा उसे करना चाहिए. बहुत से लोगों को इंसुलिन की इस जरूरत को पूरा करने के लिए नियमित तौर पर इंसुलिन के इंजेक्शन लि पड़ते हैं.
बेकर इंस्टिट्यूट के शोधकर्ताओं ने अपनी रिसर्च में कैंसर की दो दवाओं का इस्तेमाल किया है. ये दवाएं अमेरिका की फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रे शन द्वारा मान्यता प्राप्त हैं. प्रोफेसर अल-ओस्ता ने बताया, "हम इन दवाओं को अलग त रह से इस्तेमाल करने में कामयाब रहे हैं.”
शोध के लिए वैज्ञानिकों ने टाइप-1 डायबिटीज के मर ीजों द्वारा दान किए गए उत्तकों को एक प्लेट में रख ा और उन पर कैंसर की दवाओं का इस्तेमाल किया. नेचर पत्रिका के 'सिग्नल ट्रांसडक्शन एंड टारगेट ेड थेरेपी' में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक कुछ ही दिनों में वे इंसुलिन पैदा करने लगे. इनमें बच्चों और वयस्कों, दोनों के उत्तक शामिल थ े.
बढ़ रही है डायबिटीज
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनियाभर में डायबिटीज के 42 करोड़ से ज्यादा मरीद हैं. इनमें से ज्यादातर कम आय वाले देशों में हैं. हर साल यह बीमारी 15 लाख से ज्यादा लोगों की जान ले ती है. पिछले कुछ दशकों से मरीजों की संख्या लगा तार बढ़ रही है.
डायबिटीज के मरीजों की संख्या के मामले में भारत दुनिया के दस सबसे बड़े देशों में है. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की 2022 की रिपोर् ट के अनुसार 95,600 लोगों को टाइप-1 डायबिटीज थी.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसारभारत में 18 वर्ष से ऊपर केलगभग 7.7 करोड़ लोग डायबिटीज (टाइप-2) से पीड़ित हैं और करीब ढ़ाई करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें यह बीमारी होने का खतरा है. 50 प्रति जागरूक भी न हीं हैं.
एक अध्ययन के अनुसार यह बीमारी 2050 तक दुनिया के 1.3 अरब लोगों को अपनी चपेट में ले सकती है. भारत के सामने भी हालात बहुत अच्छे नहीं हैं.भारत में टाइप 2 डायबिटीज को अब तक बढ़ती उम्र के साथ जुड़ी हुई बीमारी माना जाता है.
'लांसेट' पत्रिका मेंपिछले साल प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया कि अ गले 30 € और क्षेत्र में फैल जाएगी. इसके पीड़ितों में से 96 प्रतिशत लोगों को टाइप 2 ड ायबिटीज है. (dw.com)
लंदन, 24 दिसंबर । अक्सर कहा जाता है कि महिलाओं के आँसू देखकर पुरुष पिघल जाते हैं। अब वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि इसका राज उनके आँसुओं के गंध में छिपा है।
शोधकर्ताओं ने पाया है कि महिलाओं के आंसू सूंघने से पुरुषों में आक्रामकता से संबंधित मस्तिष्क की गतिविधि कम हो जाती है, जिससे आक्रामक व्यवहार में कमी आती है।
इज़रायल में वीज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस ने अध्ययन किया, जिसमें पता चला कि मानव आंसुओं में एक रासायनिक संकेत शामिल होता है जो आक्रामकता से संबंधित दो मस्तिष्क क्षेत्रों में गतिविधि को कम कर देता है।
पीएलओएस बायोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में संस्थान की ब्रेन साइंस लैब से पीएचडी छात्र शनि एग्रोन के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने यह निर्धारित करने के लिए काम किया कि क्या आंसुओं का लोगों में आक्रामकता-अवरोधक प्रभाव उतना ही है जितना कि कृंतकों (चूहे आदि) में होता है।
प्रयोगों की एक श्रृंखला में, पुरुषों को या तो महिलाओं के भावनात्मक आँसुओं और नमकीन पानी में से एक सूँघने के लिए दिया गया, बिना यह बताये कि वे क्या सूँघ रहे हैं।
इसके बाद, उन्होंने दो-खिलाड़ियों का खेल खेला जो एक खिलाड़ी में दूसरे के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार उत्पन्न करने के लिए डिज़ाइन किया गया था, जिसे धोखाधड़ी के रूप में चित्रित किया गया था।
अवसर मिलने पर, पुरुष कथित धोखेबाज़ों से बदला लेने के लिए उन्हें पैसे का नुकसान करा सकते थे, हालाँकि उन्हें खुद कुछ हासिल नहीं होना था।
शोधकर्ताओं ने पाया कि महिलाओं के भावनात्मक आंसुओं को सूंघने के बाद, पूरे खेल के दौरान आक्रामक व्यवहार करने वाले पुरुषों के प्रतिशोध में 44 प्रतिशत या लगभग आधे की गिरावट आई।
शोधकर्ताओं ने उल्लेख किया कि यह परिणाम कृंतकों में देखे गए प्रभाव के बराबर लगता है, लेकिन कृंतकों की नाक में एक संरचना होती है जिसे वोमेरोनसाल अंग कहा जाता है जो सामाजिक रासायनिक संकेतों को पकड़ता है।
मस्तिष्क विज्ञान विभाग के प्रमुख प्रोफेसर नोम सोबेल ने कहा, "इन निष्कर्षों से पता चलता है कि आंसू एक रासायनिक कवच है जो आक्रामकता के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है - और यह प्रभाव कृंतकों और मनुष्यों और शायद अन्य स्तनधारियों के लिए भी आम है।"
एग्रोन ने कहा: "हम जानते थे कि आंसू सूंघने से टेस्टोस्टेरोन कम होता है, और टेस्टोस्टेरोन कम होने से महिलाओं की तुलना में पुरुषों में आक्रामकता पर अधिक प्रभाव पड़ता है, इसलिए हमने पुरुषों पर आंसुओं के प्रभाव का अध्ययन करना शुरू किया क्योंकि इससे हमें परिणाम मिलने की अधिक संभावना थी।" (आईएएनएस)
संतान की पैदाइश को सुगम बनाने वाली जीन्स यानी आप में फर्टिलिटी बढ़ाने की जिम्मेदार जीन्स ही समय से पहले आपका काल बन सकती हैं. ये कहना है एक नए अध्ययन का.
डॉयचे वैले पर फ्रेड श्वालर की रिपोर्ट-
उत्पत्ति से जुड़ी कई पहेलियों में से एक ये है कि प्रजनन क्षमता खोते ही बुढ़ापे में हम ढह क्यों जाते हैं. वैज्ञानिक मानते हैं कि प्रजनन के लिए हमने जो विकास किया उसका संबंध हमारे बुढ़ापे से हो सकता है. ये लाखों-करोड़ों साल से चले आए प्राकृतिक चयन का नतीजा है.
यूके बायोबैंक के 2,76,406 प्रतिभागियों की जीनों का विश्लेषण करने वाले एक अध्ययन ने पाया कि प्रजनन को बढ़ावा देने वाली जीनों के वाहक लोगों में बुढ़ापे में बचने की संभावना कम होती है.
अमेरिका में मिशिगन यूनिवर्सिटी से जुड़ी और साइंस जर्नल में प्रकाशित उक्त अध्ययन की वरिष्ठ लेखक जियानची चियांग ने बताया, "हमारी एंटागोनिस्टिक प्लीओट्रोपी परिकल्पना कहती है कि प्रजनन को प्रोत्साहित करने वाले जीन म्युटेशनों में उम्र को कम करने की संभावना ज्यादा होती है."
शोध के मुताबिक, जिन लोगों में प्रजनन को प्रोत्साहित करने वाली जीन होती हैं उनमें 76 साल की उम्र तक आते, मरने की आशंका ज्यादा होती है. अध्ययन ये भी दिखाता है कि 1940 से 1969 के दरमियान पीढ़ियों में प्रजनन के लिए जिम्मेदार जीन्स की संख्या बढ़ी थी. मतलब इंसान अभी भी इस लक्षण या खासियत को विकसित और मजबूत कर रहे हैं.
अमेरिका में बरमिंघम की अलाबामा यूनिवर्सिटी में एजिंग रिसर्च के जानकार स्टीफन ऑस्टड कहते हैं, "ये दिखाता है कि उच्च प्रजनन और निम्न बचाव (और इसका उलट भी) का विकासमूलक पैटर्न आधुनिक मनुष्यों में अभी भी मौजूद है. हमारे जीन वैरियंट, सैकड़ों हजार साल के क्रमिक विकास का नतीजा हैं. हैरान करने वाली बात ये है कि इंसानों का स्वास्थ्य पहले की अपेक्षा कहीं बेहतर हुआ है, उसके बावजूद ये पैटर्न अभी भी कायम है." स्टीफन ऑस्टड खुद इस अध्ययन में शामिल नहीं थे.
बुढ़ापे में मनुष्य ज्यादा प्रजनन-सक्षम क्यों नहीं रहते?
वैज्ञानिक कुछ समय से बुढ़ापे के विकासपरक उद्गमों पर माथापच्ची करते आ रहे हैं. विकासपरक नजरिये से ये अस्पष्ट है कि प्रजनन की हमारी क्षमता उम्र के साथ गिरती क्यों जाती है. निश्चित ही बुढ़ापे में ज्यादा जनन-सक्षम होना विकासपरक नजरिए से लाभप्रद है, तो क्या इससे अपनी जीन्स को आगे बढ़ाने का हमें और समय मिल जाता है?
एंटागोनिस्टिक प्लीओट्रोपी हाइपोथेसिस के मुताबिक ऐसा नहीं है. ये परिकल्पना कहती है कि शुरुआती जीवन में प्रजनन सक्षमता के लाभ बुढ़ापे की डरावनी कीमत चुकाने का कारण बनते हैं. ये नया अध्ययन अब अपने निष्कर्षों के समर्थन में इंसानों के एक विशाल सैंपल से ठोस प्रमाण मुहैया कराता है.
स्पेन के बार्सिलोना की पोम्पिओ फाब्रा यूनिवर्सिटी में आनुवांशिकी विज्ञानी अरकादी नवारो कुआर्तिलास कहते हैं, "कुछ लक्षण (और उन्हें उभारने वाले जेनेटिक वेरियंट) युवा उम्र में महत्वपूर्ण होते हैं, हमें मजबूत, ताकतवर और जनन-सक्षम बनाए रखने में मदद करते हैं.
लेकिन जब हम उम्रदराज होते हैं, वही लक्षण या खासियतें, समस्याएं पैदा करने लगते हैं, हमें कमजोर और अस्वस्थ बनाकर. ये ऐसा है मानो कुछ म्युटेशनों (जीन परिवर्तनों) के दो पहलू हों, एक अच्छा पहलू, जब हम युवा होते हैं और थोड़ा खराब पहलू, जब हम बूढ़े होते हैं." अरकादी खुद इस अध्ययन में शामिल नहीं थे.
इसकी एक मिसाल है महिलाओं में माहवारी बंद होने और प्रजनन क्षमता खत्म हो जाने से जुड़े प्रभाव. एक स्त्री के जीवनकाल के दौरान उसके अंडाणु पूरी तरह खत्म हो जाते हैं. इसकी वजह से जवानी में वो ज्यादा जनन सक्षम रहती है लेकिन आगे चलकर माहवारी बंद हो जाने से उसकी वो उर्वरता भी चली जाती है.
जीवविज्ञानियों का मानना है कि प्रजनन के नियमित चक्रों के लाभ, उम्र के साथ जनन सक्षमता खत्म हो जाने की स्थिति पर भारी पड़ सकते हैं. इसमें समस्या यही है कि माहवारी के बंद होने से बुढ़ापे की गति तेज हो जाती है. स्टीफन ऑस्टड कहते हैं, "दूसरा उदाहरण ये है कि एक जीन वैरियंट जनन सक्षमता को इतना बढ़ा देता है कि औरत को जुड़वा बच्चे पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है.
विकासमूलक तौर पर ये फायदेमंद हो सकता है क्योंकि वो औरत, एक बच्चा पैदा करने वाली औरत की अपेक्षा, अपने उस वैरियंट की और प्रतियां छोड़ कर जा सकती है. लेकिन जुड़वां बच्चों की पैदाइश का असर उनके शरीर पर पड़ता है और वो ज्यादा तेजी से बूढ़ी होती जाती है. एक प्रतिपक्षी प्लीओट्रोपी प्रक्रिया यही है."
उनके मुताबिक इसका उलट भी उतना ही सच है. जीवन में शुरुआती दौर में जनन सक्षमता को घटाने वाले जीन वैरियंट के चलते व्यक्ति को कम बच्चे पैदा होंगे या एक भी नहीं होगा. लिहाजा व्यक्ति में बुढ़ापा धीरे धीरे आएगा.
बुढ़ापे पर पर्यावरण का असर?
वैसे इस प्रतिपक्षी प्लीओट्रोपी परिकल्पना की आलोचना भी हो रही है. एक आलोचना ये है कि ये परिकल्पना, बुढ़ापे पर पर्यावरण और सामाजिक-आर्थिक बदलावों के व्यापक प्रभावों को अपने विश्लेषण में शामिल नहीं करती. अध्ययन भी इस बारे में खामोश है.
आखिरकार, इतिहास में मनुष्य पहले के मुकाबले ज्यादा लंबे समय तक जी रहे हैं और इसकी बड़ी वजह आनुवंशिक विकास नहीं बल्कि बेहतर स्वास्थ्य देखरेख है.
चियांग कहती हैं, "समान लक्षण वाले बदलावों के ये रुझान, पर्यावरणीय बदलावों से संचालित हैं जिनमें जीवनशैलियों और तकनीकों के बदलाव भी शामिल हैं. ये विषमता या अंतर इस बात का संकेत है कि यहां अध्ययन के लिए आए फेनोटाइपिक बदलावों में, पर्यावरणीय कारकों के मुकाबले आनुवंशिक कारकों की भूमिका छोटी है."
ऑस्टड का कहना है कि अध्ययन का एक आश्चर्यजनक निष्कर्ष ये रहा कि प्रजनन के लिए जिम्मेदार जीनों का बुढ़ापे पर इस कदर मजबूत और गौरतलब असर होता है. वो कहते हैं, "पर्यावरणीय कारक इतने अहम है कि मैं वाकई हैरान हूं कि उनकी अहमियत के बावजूद इस अध्ययन में देखे गए पैटर्न बने रहे. मेरे ख्याल से अध्ययन में सैकड़ों हजारों लोगों को शामिल करने का फायदा है."
शोध निष्कर्षों का बुढ़ापे पर प्रभाव
ऑस्टड के मुताबिक प्रतिपक्षी प्लीओट्रोपी परिकल्पना के पास इस पर्चे से पहले प्रमाणों के ढेर थे लेकिन इंसानों के लिए नहीं. इंसानों पर रिसर्च और इतने विशाल आकार के सैंपल के साथ, ये अध्ययन बुढ़ापे से संबंधित रोगों को समझने के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है.
उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "आखिरकार, इनमें से कुछ वैरियंटों की अब जांच हो सकती है, ये देखने के लिए कि क्या जीवन के उत्तरार्ध में उनका किसी स्वास्थ्य समस्या से संबंध है या नहीं. इस तरह उन समस्याओं पर करीब से निगाह रखी जा सकती है और संभवतः उन्हें रोका भी जा सकता है."
वैज्ञानिक मानते हैं कि परिकल्पना ये समझाने में भी मदद कर सकती है कि बहुत सारे गंभीर आनुवंशिक विकार हमारे लंबे विकासपरक इतिहास में आखिर क्यों बने रहते आए. इस प्रतिपक्षी प्लीओट्रोपी का एक अच्छा उदाहरण है सिकल सेल एनीमिया. जहां एनीमिया का कारण बनने वाला विरासत में आया एक रक्त विकार, दरअसल मलेरिया के खिलाफ एक सुरक्षात्मक मेकेनिज्म के रूप में विकसित हुआ.
चियांग ने डीडब्ल्यू को बताया कि प्रतिपक्षी प्लीओट्रोपी, हंटिंग्टन रोग में भी काम आ सकती है. उन्होंने कहा, "स्नायु तंत्र में खराबी लाने वाले हंटिंग्टन रोग को पैदा करने वाले म्युटेशन, उत्पादकता को भी बढ़ा देते हैं." ऐसी परिकल्पनाएं भी सामने आई हैं जिनके मुताबिक इस बीमारी के जीन म्युटेशन, कैंसर के मामलों में भी कमी ले आते हैं.
चियांग का कहना है कि बुढ़ापा विरोधी विज्ञान के लिए भी इस रिपोर्ट से कुछ नतीजे निकाले जा सकते हैं. "सैद्धांतिक तौर पर, उम्र बढ़ाने के लिए उन प्रतिपक्षी प्लीओट्रोपी वाले म्युटेशनों में इधर-उधर थोड़ी मरम्मत की जा सकती है, लेकिन प्रजनन क्षमता में कमी या देरी का नुकसान भी साथ में जुड़ा है." (dw.com)
लंदन, 20 दिसंबर । एक शोध से यह बात सामने आई है कि 12 सप्ताह तक चुकंदर का रस लेने से क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) से पीड़ित लोगों में सुधार हुआ है।
सीओपीडी एक गंभीर फेफड़ों की स्थिति है जो दुनिया भर में लगभग 400 मिलियन लोगों को प्रभावित करती है, जिसमें क्रोनिक ब्रोंकाइटिस और वातस्फीति (एम्फाइजिमा) शामिल है, जिससे सांस लेने में कठिनाई होती है और लोगों की शारीरिक गतिविधि की क्षमता गंभीर रूप से सीमित हो जाती है।
इससे दिल के दौरे और स्ट्रोक का खतरा भी बढ़ जाता है।
यूरोपियन रेस्पिरेटरी जर्नल में प्रकाशित नए शोध में एक केंद्रित चुकंदर के रस के पूरक का परीक्षण किया गया, जिसमें चुकंदर के रस के मुकाबले नाइट्रेट की मात्रा अधिक होती है, जो दिखने और स्वाद में समान था। लेकिन, नाइट्रेट हटा दिया गया था।
इंपीरियल कॉलेज लंदन यूके के प्रोफेसर निकोलस हॉपकिंसन ने कहा, ''कुछ सबूत हैं कि नाइट्रेट के स्रोत के रूप में चुकंदर के रस का उपयोग एथलीटों द्वारा अपने प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिए किया जा सकता है और साथ ही रक्तचाप को देखते हुए कुछ अल्पकालिक अध्ययन भी किए गए हैं।''
हॉपकिंसन ने कहा, ''रक्त में नाइट्रेट का उच्च स्तर नाइट्रिक ऑक्साइड की उपलब्धता को बढ़ा सकता है, एक रसायन जो रक्त वाहिकाओं को आराम देने में मदद करता है। यह मांसपेशियों की कार्यक्षमता को भी बढ़ाता है यानी समान कार्य करने के लिए उन्हें कम ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है।''
अध्ययन में सीओपीडी वाले 81 लोगों को शामिल किया गया और जिनका सिस्टोलिक रक्तचाप 130 मिलीमीटर पारा (एमएमएचजी) से अधिक था।
मरीजों के रक्तचाप की निगरानी करने के साथ-साथ, शोधकर्ताओं ने परीक्षण किया कि अध्ययन की शुरुआत और अंत में मरीज छह मिनट में कितनी दूर तक चल सकते हैं।
प्रतिभागियों को 12 महीने के कोर्स में नाइट्रेट से भरपूर चुकंदर का रस दिया गया और कई रोगियों को बिना नाइट्रेट वाला चुकंदर का रस दिया गया।
शोधकर्ताओं ने पाया कि नाइट्रेट युक्त पूरक लेने वालों ने नाइट्रेट लेने वालों की तुलना में सिस्टोलिक रक्तचाप में 4.5 मिमी/एचजी की औसत कमी का अनुभव किया।
नाइट्रेट से भरपूर चुकंदर का जूस पीने वाले मरीज छह मिनट में कितनी दूर तक चल सकते हैं, इसमें भी औसतन लगभग 30 मीटर की वृद्धि हुई।
प्रोफेसर हॉपकिंसन ने कहा, "अध्ययन के अंत में हमने पाया कि नाइट्रेट युक्त चुकंदर का जूस पीने वाले लोगों का रक्तचाप कम था और उनकी रक्त वाहिकाएं कम कठोर हो गईं। जूस से यह बात भी सामने आई कि सीओपीडी वाले लोग छह मिनट में कितनी दूर तक चल सकते हैं।
यह इस क्षेत्र में अब तक के सबसे लंबी अवधि के अध्ययनों में से एक है। परिणाम बहुत आशाजनक हैं, लेकिन इसके लिए दीर्घकालिक अध्ययनों की आवश्यकता होगी।''
स्वीडन में कारोलिंस्का इंस्टिट्यूट के प्रोफेसर अपोस्टोलोस बोसियोस ने कहा, "सीओपीडी को ठीक नहीं किया जा सकता है, इसलिए मरीजों को इस स्थिति के साथ बेहतर जीवन जीने और उनके हृदय रोग के खतरे को कम करने में मदद करने की सख्त जरूरत है।"
हालांकि, बोसियोस ने निष्कर्षों की पुष्टि के लिए लंबी अवधि तक रोगियों का अध्ययन करने की आवश्यकता पर बल दिया। (आईएएनएस)
लंदन, 20 दिसंबर । एक शोध से यह बात सामने आई है कि 12 सप्ताह तक चुकंदर का रस लेने से क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) से पीड़ित लोगों में सुधार हुआ है।
सीओपीडी एक गंभीर फेफड़ों की स्थिति है जो दुनिया भर में लगभग 400 मिलियन लोगों को प्रभावित करती है, जिसमें क्रोनिक ब्रोंकाइटिस और वातस्फीति (एम्फाइजिमा) शामिल है, जिससे सांस लेने में कठिनाई होती है और लोगों की शारीरिक गतिविधि की क्षमता गंभीर रूप से सीमित हो जाती है।
इससे दिल के दौरे और स्ट्रोक का खतरा भी बढ़ जाता है।
यूरोपियन रेस्पिरेटरी जर्नल में प्रकाशित नए शोध में एक केंद्रित चुकंदर के रस के पूरक का परीक्षण किया गया, जिसमें चुकंदर के रस के मुकाबले नाइट्रेट की मात्रा अधिक होती है, जो दिखने और स्वाद में समान था। लेकिन, नाइट्रेट हटा दिया गया था।
इंपीरियल कॉलेज लंदन यूके के प्रोफेसर निकोलस हॉपकिंसन ने कहा, ''कुछ सबूत हैं कि नाइट्रेट के स्रोत के रूप में चुकंदर के रस का उपयोग एथलीटों द्वारा अपने प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिए किया जा सकता है और साथ ही रक्तचाप को देखते हुए कुछ अल्पकालिक अध्ययन भी किए गए हैं।''
हॉपकिंसन ने कहा, ''रक्त में नाइट्रेट का उच्च स्तर नाइट्रिक ऑक्साइड की उपलब्धता को बढ़ा सकता है, एक रसायन जो रक्त वाहिकाओं को आराम देने में मदद करता है। यह मांसपेशियों की कार्यक्षमता को भी बढ़ाता है यानी समान कार्य करने के लिए उन्हें कम ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है।''
अध्ययन में सीओपीडी वाले 81 लोगों को शामिल किया गया और जिनका सिस्टोलिक रक्तचाप 130 मिलीमीटर पारा (एमएमएचजी) से अधिक था।
मरीजों के रक्तचाप की निगरानी करने के साथ-साथ, शोधकर्ताओं ने परीक्षण किया कि अध्ययन की शुरुआत और अंत में मरीज छह मिनट में कितनी दूर तक चल सकते हैं।
प्रतिभागियों को 12 महीने के कोर्स में नाइट्रेट से भरपूर चुकंदर का रस दिया गया और कई रोगियों को बिना नाइट्रेट वाला चुकंदर का रस दिया गया।
शोधकर्ताओं ने पाया कि नाइट्रेट युक्त पूरक लेने वालों ने नाइट्रेट लेने वालों की तुलना में सिस्टोलिक रक्तचाप में 4.5 मिमी/एचजी की औसत कमी का अनुभव किया।
नाइट्रेट से भरपूर चुकंदर का जूस पीने वाले मरीज छह मिनट में कितनी दूर तक चल सकते हैं, इसमें भी औसतन लगभग 30 मीटर की वृद्धि हुई।
प्रोफेसर हॉपकिंसन ने कहा, "अध्ययन के अंत में हमने पाया कि नाइट्रेट युक्त चुकंदर का जूस पीने वाले लोगों का रक्तचाप कम था और उनकी रक्त वाहिकाएं कम कठोर हो गईं। जूस से यह बात भी सामने आई कि सीओपीडी वाले लोग छह मिनट में कितनी दूर तक चल सकते हैं।
यह इस क्षेत्र में अब तक के सबसे लंबी अवधि के अध्ययनों में से एक है। परिणाम बहुत आशाजनक हैं, लेकिन इसके लिए दीर्घकालिक अध्ययनों की आवश्यकता होगी।''
स्वीडन में कारोलिंस्का इंस्टिट्यूट के प्रोफेसर अपोस्टोलोस बोसियोस ने कहा, "सीओपीडी को ठीक नहीं किया जा सकता है, इसलिए मरीजों को इस स्थिति के साथ बेहतर जीवन जीने और उनके हृदय रोग के खतरे को कम करने में मदद करने की सख्त जरूरत है।"
हालांकि, बोसियोस ने निष्कर्षों की पुष्टि के लिए लंबी अवधि तक रोगियों का अध्ययन करने की आवश्यकता पर बल दिया। (आईएएनएस)
सिकल सेल के लिए उपलब्ध जीन थेरेपी सिर्फ तीन देशों में उपलब्ध है, जहां इस रोग के मरीज सबसे कम पाए जाते हैं. भारत और अफ्रीकी देशों में इसके मरीज सबसे ज्यादा हैं लेकिन वहां इलाज नहीं है.
भारत के गौतम डोंगरे के दो बच्चे हैं. तंजानिया के पस्कासिया माजेजे का एक बेटा है. दोनों ही लोग अपने-अपने बच्चों की बीमारियों को लेकर परेशान हैं. तीनों बच्चों को एक ही बीमारी है जो उन्हें अपने-अपने माता-पिता से विरासत में मिली है. उनके खून में एक ऐसी गड़बड़ी है जिसके कारण रक्त-कोशिकाओं में भयंकर दर्द होता है. इसे सिकल सेल डिजीज यानी रक्त कोशिकाओं का रोग कहते हैं.
अब इन रोगियों को जीन थेरेपी से ठीक होने की उम्मीद दिख रही है लेकिन डोंगरे कहते हैं, "हम बस प्रार्थना कर रहे हैं कि यह इलाज हमारे लिए भी उपलब्ध हो जाए."
पर निकट भविष्य में डोंगरे की प्रार्थना का असर होने की संभावना कम ही है. विशेषज्ञ कहते हैं कि भारत और अफ्रीका के उन दूर-दराज इलाकों में यह इलाज लोगों की पहुंच में नहीं है, जिन इलाकों में यह रोग सबसे ज्यादा पाया जाता है.
बस तीन देशों में इलाज
जीन थेरेपी अब भी ज्यादातर विकसित देशों में ही उपलब्ध है. यह दुनिया के सबसे महंगे इलाजों में से है और भारत या अफ्रीका के आदिवासी इलाकों में इसका खर्च वहन कर पाना लोगों के बस में नहीं है. दिक्कत सिर्फ इलाज की अधिक कीमत ही नहीं है. इसके लिए लंबे समय तक अस्पताल में भर्ती रहना पड़ता है और अत्याधुनिक उपकरणों व कुशल डॉक्टरों की जरूरत होती है.
सिकल सेल डिजीज के लिए दो जीन थेरेपी मान्यता प्राप्त हैं. अमेरिका ही ऐसा देश है जहां ये दोनों थेरेपी उपलब्ध हैं. इसके अलावा ब्रिटेन और बहरीन में भी एक-एक थेरेपी उपलब्ध है.
अमेरिका के न्यू ऑरलीन्स में सिकल सेल थेरेपी के विशेषज्ञ डॉ. बेंजामिन वॉटकिंस कहते हैं, "अधिकतर मरीज उन इलाकों में रहते हैं जहां इस तरह की थेरेपी उपलब्ध ही नहीं है. हम चिकित्सा जगत के लोगों को और पूरे समाज को इस बारे में सोचना होगा.”
लंदन में इस साल एक चिकित्सा सम्मेलन हुआ था जिसका केंद्रीय विषय जीन थेरेपी था. वहां भी सिकल सेल थेरेपी के अत्याधिक खर्च और जहां जरूरत है, वहां अनुपलब्धता को लेकर चर्चा हुई. उसके बाद पत्रिका नेचर में छपे संपादकीय में लिखा गया कि इतनी अधिक कीमत के कारण गरीब और विकासशील देशों के लोगों की पहुंच से इसका बाहर होना इस क्षेत्र में विकास के लिए भी हानिकारक है.
कुछ वैज्ञानिक इस बात को लेकर भी चिंतित हैं कि नए इलाज अगर सही मरीजों तक नहीं पहुंचे तो भविष्य में और नए इलाज कभी नहीं खोजे जाएंगे और सिकल डिजीज का पूरी तरह खत्म करने की संभावना हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी.
गरीब देशों पर मार
विकासशील और गरीब देशों में सिकल सेल रोग से मरने या अपंग होने की संभावना धनी देशों की तुलना में कहीं ज्यादा है. इसका देर से पता चलना और आधारभूत इलाज भी मुश्किल से मिलना घातक साबित होता है. डॉ. वॉटकिंस कहते हैं कि जीन थेरेपी इस बीमारी के इलाज में एक बहुत बड़ा कदम है लेकिन उन मरीजों को नहीं भुलाया जा सकता जिन्हें असल में इसकी जरूरत है.
सिकल सेल रोग जन्म के साथ ही होता है और मरीज पर जन्म से ही मार करता है. उसका हीमोग्लोबिन प्रभावित होता है. इस रोग के कारण लाल रक्त कोशिकाओं का आकार सिकल यानी दरांती जैसा हो जाता है. इससे रक्त प्रवाह प्रभावित होता है और असहनीय दर्द होता है. यह अंगों को नुकसान पहुंचा सकता है और स्ट्रोक का भी खतरा होता है. फिलहाल इसका एकमात्र इलाज बोन मैरो ट्रांसप्लांट है, जिसके अपने खतरे और सीमाएं हैं.
दुनिया में सिकल सेल रोग के कितने मरीज हैं, इस बारे में कोई पुख्ता आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. विशेषज्ञ उनकी संख्या 60 से 80 लाख के बीच आंकते हैं. यह रोग उन इलाकों में ज्यादा पाया जाता है जहां मलेरिया का खतरा ज्यादा होता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि सिकल सेल यानी इस रोग से ग्रस्त कोशिकाएं मलेरिया से लड़ सकती हैं.
भारत में चुनौतियां
एक अनुमान के मुताबिक भारत में इस रोग के करीब 10 लाख मरीज हैं जबकि अफ्रीका में 50 लाख से ज्यादा लोग इससे पीड़ित हैं.
डोंगरे नागपुर में रहते हैं. वह नेशनल अलायंस फॉर सिकल सेल ऑर्गेनाइजेशंस के अध्यक्ष हैं और अपने परिवार के अलावा दूसरे रोगियों के रोजमर्रा के संघर्ष को देखते हैं. वह कहते हैं कि आम लोगों में ही नहीं, डॉक्टरों में भी रोग को लेकर जागरूकता नहीं है.
वह बताते हैं कि उनके बेटे गिरीश को जब वह पेट और टांगों में दर्द के लिए डॉक्टरों के पास लेकर जाते थे तो उन्हें कुछ समझ नहीं आता था. डोंगरे कहते हैं कि ढाई साल तक डॉक्टर यह पता नहीं लगा सके थे कि गिरीश को सिकल सेल रोग है. अन्य लोगों को तो सालों साल तक पता ही नहीं चलता कि उन्हें इतना दर्द क्यों होता है.
जुलाई में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सिकल सेल उन्मूलन अभियान की शुरुआत की थी. इस अभियान का मकसद जागरूकता, शिक्षा, जल्द इस रोग का पता लगाना और इलाज उपलब्ध कराना है. डोंगरे इस कोशिश की तारीफ करते हैं लेकिन कहते हैं कि चुनौतियां बहुत बड़ी हैं.
वीके/एए (एपी)
(निक फुलर, सिडनी विश्वविद्यालय)
सिडनी, 11 दिसंबर। अमेरिका के संस्थापकों में से एक बेंजामिन फ्रैंकलिन का एक प्रसिद्ध कथन है कि मृत्यु और करों के अलावा कुछ भी निश्चित नहीं है। लेकिन मुझे लगता है कि हम एक और बात कि "जब आप अपना वजन कम करने की कोशिश कर रहे होंगे तो आपको ज्यादा भूख लगेगी" को निश्चितता की सूची में शामिल कर सकते हैं।
वजह है बेसिक बायोलॉजी। तो यह कैसे काम करता है - और आप इसके बारे में क्या कर सकते हैं?
हार्मोन हमारी भूख की भावना को नियंत्रित करते हैं
कई हार्मोन हमारी भूख और तृप्ति की भावनाओं को नियंत्रित करने में आवश्यक भूमिका निभाते हैं। सबसे महत्वपूर्ण हैं घ्रेलिन - जिसे अक्सर भूख हार्मोन कहा जाता है - और लेप्टिन।
जब हम भूखे होते हैं, तो हमारे पेट से घ्रेलिन निकलता है, जो हमारे मस्तिष्क के हाइपोथैलेमस नामक हिस्से को सूचित करता है और हमें खाने के लिए कहता है।
जब खाना बंद करने का समय होता है, तो हमारी आंत और वसा ऊतक जैसे विभिन्न अंगों से लेप्टिन सहित कुछ हार्मोन निकलते हैं, जो मस्तिष्क को संकेत देते हैं कि हमारा पेट भर गया है।
डाइटिंग इस प्रक्रिया को बाधित करती है
लेकिन जब हम अपना आहार बदलते हैं और वजन कम करना शुरू करते हैं, तो हम भूख बढ़ाने वाले इन हार्मोनों की कार्यप्रणाली को बाधित कर देते हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया को ट्रिगर करता है जो हमारे पूर्वजों तक जाती है। उनके शरीर ने इस तंत्र को अभाव की अवधि के अनुकूल होने और भुखमरी से बचाने के लिए एक प्रतिक्रिया के रूप में विकसित किया।
हमारी भूख को प्रबंधित करने वाले हार्मोन का स्तर बढ़ जाता है, जिससे हमें और अधिक भूख लगती है, जबकि हमें यह संकेत देने के लिए कि हमारा पेट भर गया है, वे अपने स्तर को कम कर देते हैं, जिससे हमें लगता ही नहीं कि हमारा पेट भर गया है।
इससे हमारी कैलोरी की खपत बढ़ जाती है और हम कम हुआ वजन वापस पाने के लिए अधिक खाते हैं।
लेकिन इससे भी बुरी बात यह है कि वज़न वापस बढ़ने के बाद भी, हमारे भूख हार्मोन अपने सामान्य स्तर पर बहाल नहीं होते हैं - वे हमें अधिक खाने के लिए कहते रहते हैं ताकि हम थोड़ी अतिरिक्त वसा प्राप्त कर सकें। यह हमारे शरीर का डाइटिंग के रूप में भुखमरी के अगले दौर के लिए तैयारी करने का तरीका है।
सौभाग्य से, ऐसी कुछ चीजें हैं जो हम अपनी भूख को नियंत्रित करने के लिए कर सकते हैं, जिनमें शामिल हैं:
1. हर दिन नाश्ते में भरपूर और स्वस्थ आहार लेना
दिन भर की हमारी भूख की भावनाओं को प्रबंधित करने का सबसे आसान तरीका यह है कि हम अपना अधिकांश भोजन दिन में पहले खा लें और अपने भोजन के आकार को कम कर दें ताकि रात का खाना सबसे छोटा भोजन हो।
शोध से पता चलता है कि कम कैलोरी या कम नाश्ते से पूरे दिन भूख की भावना, विशेष रूप से मिठाइयों की भूख बढ़ जाती है।
एक अन्य अध्ययन में भी यही प्रभाव पाया गया। प्रतिभागियों ने दो महीने के लिए कैलोरी-नियंत्रित आहार लिया, जहां उन्होंने पहले महीने के लिए नाश्ते में 45%, दोपहर के भोजन में 35% और रात के खाने में 20% कैलोरी खाई, इसके बाद उन्होंने शाम को अपना सबसे बड़ा भोजन और नाश्ते में सबसे छोटा भोजन करना शुरू किया। नाश्ते में सबसे ज्यादा भोजन करने से पूरे दिन भूख कम लगती है।
शोध से यह भी पता चलता है कि हम शाम की तुलना में सुबह भोजन से 2.5 गुना अधिक कुशलता से कैलोरी जलाते हैं। इसलिए रात के खाने के बजाय नाश्ते पर जोर देना न केवल भूख नियंत्रण के लिए, बल्कि वजन प्रबंधन के लिए भी अच्छा है।
2. प्रोटीन को प्राथमिकता देना
प्रोटीन भूख की भावना को नियंत्रित करने में मदद करता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्रोटीन युक्त खाद्य पदार्थ जैसे लीन मीट, टोफू और बीन्स भूख बढ़ाने वाले घ्रेलिन को दबाते हैं और पेप्टाइड वाईवाई नामक एक अन्य हार्मोन को उत्तेजित करते हैं जो आपको पेट भरा हुआ महसूस कराता है।
और जिस तरह नाश्ता करना हमारी भूख को नियंत्रित करने के लिए महत्वपूर्ण है, उसी तरह हम जो खाते हैं वह भी महत्वपूर्ण है, शोध से पता चलता है कि अंडे जैसे प्रोटीन युक्त खाद्य पदार्थों वाला नाश्ता हमें लंबे समय तक तृप्त महसूस कराएगा।
लेकिन इसका मतलब सिर्फ प्रोटीन वाले खाद्य पदार्थ खाना नहीं है। भोजन संतुलित होना चाहिए और इसमें हमारी आहार संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्रोटीन, साबुत अनाज कार्ब और स्वस्थ वसा का स्रोत शामिल होना चाहिए।
उदाहरण के लिए, साबुत अनाज वाले टोस्ट पर अंडे और साथ में एवोकैडो।
3. अच्छी वसा और फाइबर से भरपूर मेवे खाएं
सूखे मेवों को लेकर अक्सर यह गलत धारणा रहती है कि वे वजन बढ़ाते हैं - लेकिन मेवे हमारी भूख और वजन को नियंत्रित करने में हमारी मदद कर सकते हैं। मेवों में पाए जाने वाले फाइबर और अच्छी वसा को पचने में अधिक समय लगता है, जिसका अर्थ है कि हमारी भूख लंबे समय तक संतुष्ट रहती है।
अध्ययनों से पता चलता है कि आप अपने वजन को प्रभावित किए बिना प्रति दिन 68 ग्राम तक मेवे खा सकते हैं।
एवोकैडो में फाइबर और हृदय के लिए उपयोगी मोनोअनसैचुरेटेड वसा भी उच्च मात्रा में होती है, जो उन्हें तृप्ति की भावनाओं को प्रबंधित करने के लिए एक और उत्कृष्ट भोजन बनाती है। यह एक अध्ययन द्वारा समर्थित है जिसमें पुष्टि की गई है कि जिन प्रतिभागियों ने नाश्ते में एवोकैडो शामिल किया था, वे उन प्रतिभागियों की तुलना में अधिक संतुष्ट और कम भूख महसूस करते थे, जिन्होंने समान कैलोरी वाला लेकिन कम वसा और फाइबर सामग्री वाला भोजन खाया था।
इसी तरह, घुलनशील फाइबर से भरपूर खाद्य पदार्थ - जैसे बीन्स और सब्जियाँ - खाने से हमें पेट भरा हुआ महसूस होता है। इस प्रकार का फाइबर हमारी आंत से पानी को आकर्षित करता है, जिससे एक जैल बनता है जो पाचन को धीमा कर देता है।
4. मन लगाकर खाना
जब हम वास्तव में जागरूक होने और जो भोजन खा रहे हैं उसका आनंद लेने में समय लगाते हैं, तो हम धीमे हो जाते हैं और बहुत कम खाते हैं।
68 अध्ययनों की समीक्षा में पाया गया कि मन लगाकर खाने से हमें तृप्ति की भावनाओं को बेहतर ढंग से पहचानने में मदद मिलती है। ध्यानपूर्वक भोजन करने से हमारे मस्तिष्क को हमारे पेट से आने वाले उन संकेतों को पहचानने और उनके अनुकूल ढलने के लिए पर्याप्त समय मिलता है जो हमें बताते हैं कि हमारा पेट भर गया है।
खाने की मेज पर बैठकर अपने भोजन की खपत को धीमा कर दें और प्रत्येक कौर के साथ खाने की मात्रा को कम करने के लिए छोटे बर्तनों का उपयोग करें।
5. पर्याप्त नींद लेना
नींद की कमी हमारे भूख हार्मोन को परेशान करती है, जिससे भूख की भावना बढ़ती है और लालसा पैदा होती है। इसलिए रात में कम से कम सात घंटे की निर्बाध नींद लेने का लक्ष्य रखें।
अपने शरीर में मेलाटोनिन जैसे नींद लाने वाले हार्मोन के स्राव को बढ़ाने के लिए सोने से दो घंटे पहले अपने उपकरणों को बंद करने का प्रयास करें।
6. तनाव प्रबंधन
तनाव हमारे शरीर में कोर्टिसोल के उत्पादन को बढ़ाता है और भोजन की लालसा को बढ़ाता है।
इसलिए जब आपको ज़रूरत हो तब समय निकालें और तनाव-मुक्त गतिविधियों के लिए समय निर्धारित करें। 2019 के एक अध्ययन में पाया गया कि सप्ताह में कम से कम तीन बार बाहर बैठने या टहलने से कोर्टिसोल का स्तर 21% तक कम हो सकता है।
7. कुछ खाद्य पदार्थों को प्रतिबंधित करने से बचना
जब हम वजन कम करने या स्वस्थ भोजन करने के लिए अपना आहार बदलते हैं, तो हम आम तौर पर कुछ खाद्य पदार्थों या खाद्य समूहों को प्रतिबंधित करते हैं।
हालाँकि, यह हमारे मेसोकोर्टिकोलिम्बिक सर्किट - मस्तिष्क के इनाम प्रणाली भाग - में गतिविधि को बढ़ाता है - जिसके परिणामस्वरूप अक्सर हमें उन खाद्य पदार्थों की लालसा होती है जिनसे हम बचने की कोशिश कर रहे हैं। जो खाद्य पदार्थ हमें खुशी देते हैं वे एंडोर्फिन नामक अच्छा महसूस कराने वाले रसायन और डोपामाइन नामक सीखने वाले रसायन छोड़ते हैं, जो हमें उस अच्छी प्रतिक्रिया को याद रखने में सक्षम बनाते हैं।
जब हम अपना आहार बदलते हैं, तो हमारे हाइपोथैलेमस में गतिविधि - मस्तिष्क का चतुर हिस्सा जो भावनाओं और भोजन सेवन को नियंत्रित करता है - भी कम हो जाती है, जिससे हमारा नियंत्रण और निर्णय कम हो जाता है। यह अक्सर एक मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया को ट्रिगर करता है जिसे "भाड़ में जाओ प्रभाव" कहा जाता है। ऐसा तब होता है जब हम किसी ऐसी चीज़ में लिप्त होते हैं जिसे करके हमें लगता है कि हमें दोषी महसूस नहीं करना चाहिए और फिर हम बार-बार वही करते हैं।
जब आप डाइट पर जाएं तो अपने पसंदीदा भोजन को पूरी तरह से बंद न करें या भूख लगने पर खुद को इससे दूर न रखें। इससे खाने का आनंद खत्म हो जाएगा और अंततः आप अपनी तलब के सामने घुटने टेक देंगे।
द कन्वरसेशन एकता एकता 1112 1045 सिडनी (द कन्वरसेशन)
अविश्वसनीय
अंबिकापुर सीट के मतों की गिनती रोमांचक रही है। न तो कांग्रेस, और न ही भाजपा के कई स्थानीय नेताओं को भरोसा था कि भाजपा प्रत्याशी राजेश अग्रवाल की जीत होगी। राजेश, सरगुजा राजघराने के मुखिया डिप्टी सीएम टीएस सिंहदेव को कड़े संघर्ष के बाद 94 मतों से हराने में कामयाब रहे।
बताते हैं कि जीत की घोषणा में विलंब हो रहा था। तभी केन्द्रीय राज्य मंत्री रेणुका सिंह का फोन एक कार्यकर्ता के पास पहुंचा, और फिर उन्होंने रेणुका सिंह की कलेक्टर से बात कराई। चर्चा है कि रेणुका सिंह का लहजा इतना सख्त था कि कलेक्टर भी हड़बड़ा गए, और फिर उन्होंने तुरंत राजेश अग्रवाल को विजयी प्रमाण पत्र जारी किया।
बाबा की हार की वजह
अंबिकापुर में टीएस सिंहदेव की हार में हकीम अब्दुल मजीद की भी अहम भूमिका रही है। जोगी पार्टी के प्रत्याशी अब्दुल हकीम ने करीब 12 सौ वोट हासिल किए। हकीम को अपने मुस्लिम समाज के वोट मिले, जो कि कांग्रेस के परम्परागत वोटर रहे हैं। यद्यपि सिंहदेव समर्थकों ने नामांकन से पहले उन्हें अपने पक्ष में करने की भरपूर कोशिश की थी, लेकिन वो सफल नहीं हो पाए।
मतगणना के दौरान अब्दुल मजीद, भाजपा प्रत्याशी राजेश अग्रवाल के साथ खड़े थे, और उन्हें दिलासा दे रहे थे। राजेश लगातार लीड घटने से घबराए हुए थे। अब्दुल हकीम उनसे मजाकिया लहजे में कह रहे थे कि घबराने की जरूरत नहीं है। उनके पास दवाई है। और जब टीएस सिंहदेव हार गए, तो उनके समर्थकों का गुस्सा अब्दुल हकीम पर फूट पड़ा, और उन्होंने हकीम के साथ झूमाझटकी की। बाद में पुलिस हस्तक्षेप के बाद हकीम किसी तरह बच पाए।
पार्टी का खर्च बचा
कांग्रेस के तमाम छोटे-बड़े नेताओं को सरकार के रिपीट होने का भरोसा था। तमाम एग्जिट पोल का भी नतीजा कुछ इसी तरह का था। मगर कांग्रेस को बुरी हार का सामना करना पड़ा।
बताते हैं कि सरकार के एक ताकतवर मंत्री के अति उत्साही करीबियों ने मतगणना की एक दिन पहले बंगले में विजयी पार्टी का भी आयोजन कर रखा था। इसमें एक हजार कार्यकर्ताओं, और कई नेताओं को बुलाने की तैयारी थी।
इसी बीच किसी ने मंत्री जी के कान में फूंक दिया कि पार्टी का खर्चा, चुनाव खर्च में जुड़ जाएगा। क्योंकि चुनाव आचार संहिता प्रभावशील है। फिर मंत्री जी ने पार्टी को कैंसल कर दिया। दिलचस्प बात यह है कि अगले दिन मंत्रीजी खुद बुरी तरह चुनाव हार गए। इस हार से मंत्री जी, और उनके समर्थक हतप्रभ हैं।
बूढ़ादेव प्रसन्न
गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ने 23 साल बाद पाली-तानाखार में वापसी की है। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के संस्थापक हीरासिंग मरकाम अविभाजित मध्यप्रदेश में विधायक चुने गए थे। इसके बाद छत्तीसगढ़ बनने के बाद वे उतने सफल नहीं हो सके। पिछले साल उनका निधन हो गया और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी अनाथ जैसी हो गई। उनके बेटे तुलेश्वर ने कमान संभाली और पार्टी के फिर से खड़ा करने में जी जान लगा दी। इसमें उन्होंने गोंडवाना समाज के हर रीति-रिवाज का भी पालन किया। चुनाव के पहले वे गोंडवाना समाज के देव बूढ़ादेव के मंदिर पहुंचे। धमधा के त्रिमूर्ति महामाया मंदिर में पूजा-पाठ, अनुष्ठान भी किया। उन्होंने अपने इष्टदेव को प्रसन्न करने सारा जतन किया। इसके बाद समाज का साथ मिला। बूढ़ादेव भी प्रसन्न हो गए और भाजपा की आंधी और कांग्रेस से टक्कर लेते हुए उन्होंने गोंडवाना गणतंत्र पार्टी को एक सीट दिलाने में सफलता हासिल कर ही ली।
महंत साबित हुए असली लीडर
विधानसभा चुनाव के नतीजे भले ही कांग्रेस के अनुकूल नहीं रहे हैं। मगर विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत को अविभाजित जांजगीर-चांपा जिले में कांग्रेस की जीत का असली नायक कहा जा रहा है। डॉ. महंत न सिर्फ खुद सक्ती सीट से चुनाव जीते, बल्कि जिले की तमाम सीट जांजगीर-चांपा, अकलतरा, चंद्रपुर, पामगढ़, और जैजैपुर से कांग्रेस प्रत्याशी को जिताने में अहम भूमिका निभाई। सोशल मीडिया पर उन्हें असली लीडर कहा जा रहा है। जांजगीर-चांपा की तरह बालोद जिले में भी कांग्रेस के पक्ष में माहौल रहा, और यहां की तीनों सीटें पार्टी जीतने में कामयाब रही है।
सीटों और वोटों के बीच का फासला
किसी पार्टी को मिले वोट और उसकी जीतने वाली सीटों में अक्सर बड़ा फर्क होता है। मध्य प्रदेश में सन् 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 41 और कांग्रेस को 40.9 प्रतिशत मत मिले थे। पर वहां कांग्रेस को सीटें 114 मिल गई और भाजपा को 109 ही। कुल वोट कम मिलने के बावजूद कांग्रेस की वहां सरकार बन गई थी।
इस बार तीन राज्यों में कांग्रेस की बुरी तरह हार हो गई। पर उसे मिले वोटों का फासला सीटों की तुलना में देखना दिलचस्प होगा। जैसे राजस्थान में भाजपा को करीब 1 करोड़ 65 लाख वोट मिले, कांग्रेस को 1 करोड़ 56 लाख। दोनों के बीच वोटों का अंतर 9 लाख के आसपास है। मगर यहां भाजपा को 115 सीटें मिलीं जबकि कांग्रेस 69 सीटों पर रुक गई। मध्यप्रदेश में भाजपा को करीब 2 करोड़ 11 लाख मिले वहां कांग्रेस को 1 करोड़ 75 लाख। पर सीटों का अंतर बहुत अधिक आ गया। कांग्रेस 66 सीटों पर सिमट गई और भाजपा ने 163 सीटों पर जीत हासिल की। भाजपा ने कांग्रेस के दोगुने से भी अधिक सीटें हासिल कर ली। छत्तीसगढ़ में भाजपा को लगभग 72 लाख वोट मिले, कांग्रेस को 66 लाख। दोनों के बीच वोटों का अंतर करीब 6 लाख का ही है। पर भाजपा ने अब तक की सबसे बड़ी जीत हासिल करते हुए यहां 54 सीटों पर काबिज हुई और कांग्रेस 35 पर रह गई। राज्य बनने के बाद से लगातार सत्ता में रही भारत राष्ट्र पार्टी का भी तेलंगाना में यही हाल रहा। उसे करीब 87 लाख वोट मिले, पर कांग्रेस ने 5 लाख अधिक 92 लाख वोट लेकर उसे सत्ता से बेदखल कर दिया। बीआरएस ने 2018 के मुकाबले में 49 सीटें गंवा दी। यहां भाजपा ने भी 32 लाख वोट हासिल किए हैं। पर उसे सिर्फ 8 सीटें मिली। लोकसभा चुनावों में भी ऐसा ही होता है। भाजपा ने सन् 2019 में 37.36 प्रतिशत वोट हासिल किए लेकिन उसे 303 सीटें मिलीं। सन् 2014 के चुनाव में तो 31 प्रतिशत वोट ही मिले थे।
सीटों और वोटों के बीच का फासला
किसी पार्टी को मिले वोट और उसकी जीतने वाली सीटों में अक्सर बड़ा फर्क होता है। मध्य प्रदेश में सन् 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 41 और कांग्रेस को 40.9 प्रतिशत मत मिले थे। पर वहां कांग्रेस को सीटें 114 मिल गई और भाजपा को 109 ही। कुल वोट कम मिलने के बावजूद कांग्रेस की वहां सरकार बन गई थी।
इस बार तीन राज्यों में कांग्रेस की बुरी तरह हार हो गई। पर उसे मिले वोटों का फासला सीटों की तुलना में देखना दिलचस्प होगा। जैसे राजस्थान में भाजपा को करीब 1 करोड़ 65 लाख वोट मिले, कांग्रेस को 1 करोड़ 56 लाख। दोनों के बीच वोटों का अंतर 9 लाख के आसपास है। मगर यहां भाजपा को 115 सीटें मिलीं जबकि कांग्रेस 69 सीटों पर रुक गई। मध्यप्रदेश में भाजपा को करीब 2 करोड़ 11 लाख मिले वहां कांग्रेस को 1 करोड़ 75 लाख। पर सीटों का अंतर बहुत अधिक आ गया। कांग्रेस 66 सीटों पर सिमट गई और भाजपा ने 163 सीटों पर जीत हासिल की। भाजपा ने कांग्रेस के दोगुने से भी अधिक सीटें हासिल कर ली। छत्तीसगढ़ में भाजपा को लगभग 72 लाख वोट मिले, कांग्रेस को 66 लाख। दोनों के बीच वोटों का अंतर करीब 6 लाख का ही है। पर भाजपा ने अब तक की सबसे बड़ी जीत हासिल करते हुए यहां 54 सीटों पर काबिज हुई और कांग्रेस 35 पर रह गई। राज्य बनने के बाद से लगातार सत्ता में रही भारत राष्ट्र पार्टी का भी तेलंगाना में यही हाल रहा। उसे करीब 87 लाख वोट मिले, पर कांग्रेस ने 5 लाख अधिक 92 लाख वोट लेकर उसे सत्ता से बेदखल कर दिया। बीआरएस ने 2018 के मुकाबले में 49 सीटें गंवा दी। यहां भाजपा ने भी 32 लाख वोट हासिल किए हैं। पर उसे सिर्फ 8 सीटें मिली। लोकसभा चुनावों में भी ऐसा ही होता है। भाजपा ने सन् 2019 में 37.36 प्रतिशत वोट हासिल किए लेकिन उसे 303 सीटें मिलीं। सन् 2014 के चुनाव में तो 31 प्रतिशत वोट ही मिले थे।
परिणाम के पहले का माहौल..
छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस के नेता ही नहीं, कार्यकर्ता भी ओवरकांफिडेंट थे। जैसे छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल, राजस्थान में अशोक गहलोत का दोबारा मुख्यमंत्री बनना तय माना जा रहा था वैसे ही मध्यप्रदेश में कमलनाथ को सीएम मान लिया था। मध्यप्रदेश में ऐसे ही एक अति उत्साही कार्यकर्ता ने नतीजा आने से पहले ही सडक़ पर स्वागत द्वार लगा रखा था। ([email protected])
जैसे-जैसे एंटिबायोटिक दवाओं का असर कम हो रहा है, वैज्ञानिकों की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं. अब नई एंटिबायोटिक दवाएं बनाने की कोशिश हो रही है.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
सुपरबग यानी एंटीबायोटिक दवाओं का इंसानी शरीर पर खत्म हो जाना वैश्विक स्तर पर सेहत के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक माना जाता है. एक अनुमान के मुताबिक 2019 में इस वजह से 12.7 लाख लोगों की जान गई थी. संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि 2050 तक यह खतरा इतना बड़ा हो जाएगा हर साल लगभग एक करोड़ लोगों की जानें सिर्फ इसलिए जा रही होंगी क्योंकि उन पर एंटीबायोटिक दवाएं असर नहींकर रही होंगी.
यह खतरा इतना बड़ा है इसलिए वैज्ञानिक इससे निपटने के लिए कई तरह की कोशिशें कर रहे हैं. इनमें नई तरह की एंटिबायोटिक दवाओं के विकास से लेकर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद लेने तक तमाम प्रयास शामिल हैं.
काम करना बंद कर रही हैं दवाएं
उत्तरी नाईजीरिया में काम कर रहीं डॉ. नुबवा मेदुगू कहती हैं कि जब उन्होंने 2008 में कानो शहर में अपने मेडिकल करियर की शुरुआत की थी तो टाइफॉयड से ग्रस्त बहुत से बच्चे अस्पताल में इसलिए आते थे क्योंकि दवाएं उन पर काम नहीं कर रही थीं. द कन्वर्सेशन मैग्जीन में एक पॉडकास्ट में डॉ. मेदुगू ने कहा, "मुझे तब पता नहीं था कि बहुत से मरीजों के संक्रमणों का ठीक ना होना एक बहुत बड़ी समस्या की झलक भर था.”
अब नाईजीरिया की राजधानी अबुजा के राष्ट्रीय अस्पताल में क्लिनिकल माइक्रोबायोलॉजिस्ट के रूप में शोध कर रहीं मेदुगू कहती हैं, "अब ऐसे इंफेक्शन खोजना लगभग असंभव हो गया है जिनमें कम से कम एक एंटिबायोटिक के लिए प्रतिरोधक क्षमता खत्म हो गई है.”
हाल ही में इस विषय पर एक शोध पत्र में उन्होंने बताया है कि कौन-कौन सी एंटिबायाटिक दवाओं का असर लगातार कम होता जा रहा है. वह कहती हैं कि सबसे ज्यादा चिंता की बात ये है कि जो दवाएं कभी आखरी इलाज हुआ करती थीं, उनका असर भी अब खत्म हो रहा है.
नई एंटीबायोटिक दवाओं की तलाश
दुनिया में कई वैज्ञानिक अब ऐसी नई एंटिबायोटिक दवाएं विकसित करने में लगे हैं जो पुरानी दवाओं से पार पा चुके संक्रमणों पर प्रभावी साबित हो सकें. न्यूयॉर्क के रोचेस्टर इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में बायोकेमिस्ट्री के प्रोफेसर आंद्रे हड्सन उन्हीं में से एक हैं. वह पारंपरिक बायोप्रोस्पेक्टिंग तकनीक का इस्तेमाल करते हैं, जिसमें मिट्टी जैसे कुदरती तत्वों से संभावित एंटिबायोटिक्स निकालने की कोशिश की जाती है.
एक इंटरव्यू में हडसन बताते हैं कि पारंपरिक रूप से किसी एक बैक्टीरिया को निकालकर उसका डीएनए पर शोध किया जाता है और उससे उस बैक्टीरिया के पूरे समुदाय पर असर डालने वाली दवा बनाई जाती है. लेकिन अब कुछ वैज्ञानिक मेटाजेनोमिक्स नामक तकनीक का भी इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसमें किसी कुदरती तत्व जैसे कि मिट्टी में मौजूद बैक्टीरिया के पूरे समुदाय की सीक्वेंसिंग की जाती है.
साथ ही बहुत से वैज्ञानिक खोज की गति बढ़ाने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का भी इस्तेमाल कर रहे हैं क्योंकि यह तकनीक उस सीमा तक सोच सकती है, जहां तक वैज्ञानिक भी नहीं सोच रहा हे हैं. हालांकि यह अभी सिर्फ सिद्धांत के स्तर पर ही है. (dw.com)