सुनील कुमार

यादों का झरोखा-2 : एक सांसारिक सन्यासी पवन दीवान
31-Jul-2020 11:01 PM
यादों का झरोखा-2 : एक सांसारिक सन्यासी पवन दीवान

पवन दीवान की जिंदगी छत्तीसगढ़ के राजिम से जुड़ी रही। वे वहीं पास एक गांव, किरवई, में पैदा हुए, जहां उनके एक कच्चे मकान में उनके साथ खाने का मौका मुझे मिला था। उसके अलावा भी आपातकाल के तुरंत बाद के जनता पार्टी राज के वक्त से उनसे जो परिचय शुरू हुआ, तो वह कभी कमजोर नहीं पड़ा। उनके बारे में लिखते हुए मैं कई बार बहुत बेरहम हुआ, लेकिन उनके दिल का रहम डिगा नहीं। मुझसे वे हमेशा प्रेम का बर्ताव करते रहे, जो कि सांसारिक जीवन से ऊपर उठ जाने का एक सुबूत सा था, लेकिन सुबूत था नहीं।
 
अपनी निजी जिंदगी में पारिवारिक स्थिति की वजह से पवन दीवान सन्यासी बने रहे, वे सन्यासी की पोशाक में भी जिए, लेकिन उनका मन सन्यास से अछूता रहा। वे राजनीति से कभी सन्यास नहीं ले पाए, और उनका मोह भी खत्म नहीं हुआ। इस तरह वे एक सन्यासी की देह में एक असन्यासी आत्मा के साथ जीते रहे, लड़ते रहे, पाते रहे, खोते रहे, और फिर पाने की चाहत में पार्टियां बदलते रहे। 

अब वे नहीं रह गए हैं, लेकिन यह लिखने में मुझे कोई हिचक इसलिए नहीं है कि उनके रहते-रहते भी मैं काफी कुछ कड़वा लिखते रहता था, और वे उसे बर्दाश्त करते हुए मुझसे प्रेमसंबंध बनाए रखते थे। 

पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के लिए आंदोलन करने वाले पुराने लोगों में से पवन दीवान भी एक थे। इस आंदोलन से उनके पहले भी लोग जुड़े, और उनके बाद भी, लेकिन पवन दीवान के नाम का जिक्र पृथक छत्तीसगढ़ से हमेशा ही बने रहा। इमरजेंसी के तुरंत बाद जब चुनाव हुए, तो जनसंघ और समाजवादियों ने मिलकर जनता पार्टी बनाई थी, और पवन दीवान राजिम विधानसभा सीट से उसके उम्मीदवार थे। यह सीट श्यामाचरण शुक्ल की घरेलू सीट मानी जाती थी, लेकिन आपातकालीन ज्यादतियां इतनी अधिक हुई थीं कि संजय गांधी के चरणों पर अपनी-अपनी रीढ़ की हड्डियां चढ़ाकर मुख्यमंत्री बने रहने वाले लोगों में से श्यामाचरण भी थे। वे जनता पार्टी की लहर में, और जबरिया-नसबंदी जैसे कुकर्म के तुरंत बाद पवन दीवान से चुनाव हार बैठे। अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे रविशंकर शुक्ल के मुख्यमंत्री रहे बेटे को हराने वाले पवन दीवान को मध्यप्रदेश में मंत्री बनने का मौका मिला। शायद यही चुनाव था जब छत्तीसगढ़ में एक नया नारा इस्तेमाल हुआ था- पवन नहीं यह आंधी है, छत्तीसगढ़ का गांधी है। 

पवन दीवान राजनीति में आने के पहले से छत्तीसगढ़ के एक सबसे लोकप्रिय कवि थे, और सन्यासी होने के बावजूद उनकी एक बड़ी रोमांटिक कविता, एक थी लडक़ी मेरे गांव की, चंदा जिसका नाम था..., की खूब डिमांड रहती थी, और वे मंच से कविता पढऩे वाले सबसे लोकप्रिय कवियों में से एक थे। इस कविता की मांग बराबर रहती थी, और वे इसे आखिरी तक बचाकर भी रखते थे, क्योंकि पहले रसमलाई परोस दी, तो बाद में बालूशाही किसे सुहाएगी। पवन दीवान जितने लोकप्रिय कवि थे उतने ही लोकप्रिय भागवत-प्रवचनकर्ता भी थे। उनकी भागवत सुनने के लिए भी लोग जुटते थे, और ये तमाम चीजें उनके चुनाव जीतने में काम आईं। 

जनता पार्टी सरकार में जेल मंत्री रहते हुए पवन दीवान ने मुझ पर एक व्यक्तिगत उपकार भी किया था। रायपुर की सेंट्रल जेल में एक कैदी को फांसी की सजा होनी थी। यह 1978 की बात थी, और मुझे अखबार में नौकरी शुरू किए दो ही बरस हुए थे। उम्र 20 बरस थी, लेकिन अखबारनवीसी का जोश बहुत था। जेल सुप्रीटेंडेंट जी.के. अग्रवाल से मेरे दोस्ताना ताल्लुकात थे, हालांकि वे उम्र में मुझसे दोगुने से भी बड़े थे। उनकी मेहरबानी से मैं जेल के इस कैदी, बैजू, से कई दिनों तक रोज उसकी कोठरी में जाकर मिलकर, लंबी बातचीत करके आता था। यह पूरा सिलसिला जेल के नियमों के खिलाफ था, लेकिन यह चला। आखिर में जब उसकी फांसी का दिन आ गया, तो मैंने अग्रवाल साहब से कहा कि कोई ऐसा जरिया हो सकता है कि मैं यह फांसी देख सकूं? उन्होंने कहा कि उनके अधिकार में तो ऐसा नहीं है, लेकिन अगर जेलमंत्री चाहें तो ऐसी इजाजत दे सकते हैं, और उस इजाजत की अधिक छानबीन किए बिना वे अपने स्तर पर मुझे यह छूट दे देंगे। 

पवन दीवान से मेरे उस वक्त के एक वरिष्ठ सहकर्मी राजनारायण मिश्र के संबंध अधिक घरोबे के थे, और उनके साथ जाकर मैंने ऐसी चि_ी पवन दीवान को सर्किट हाऊस में दी। अग्रवाल साहब भी मंत्री के रायपुर में होने की वजह से सर्किट हाऊस में ही थे। चि_ी में मैंने फांसी की सजा के बेरहम होने, और उसके खिलाफ एक जनमत तैयार करने के लिए ऐसी रिपोर्टिंग की जरूरत बखान की थी, जो कि पूरी तरह बोगस तर्क था। लेकिन उनको छूने वाली बात इसके बाद थी कि कवि हृदय जेलमंत्री के रहते हुए ऐसी अनुमति की उम्मीद है। इस पर पवन दीवान ने अग्रवाल साहब से पूछा, और उनका सोचा हुआ जवाब था- सर, जेल मैन्युअल इस बारे में मौन है। लेकिन आप तो मंत्री हैं, आप चाहें तो इजाजत दे सकते हैं। 

पवन दीवान का लंबा प्रशासनिक इतिहास तो था नहीं, फांसी की सजा को अमानवीय, उसके खिलाफ जागरूकता की जरूरत, और मंत्री को कवि हृदय लिखना काम आया, और उन्होंने उसी आवेदन पर अनुमति लिख दी। नतीजा यह हुआ कि अपने एक और वरिष्ठ सहकर्मी गिरिजाशंकर के साथ मैंने वह फांसी देखी, और उसकी रिपोर्ट लिखी, जो कि हिन्दुस्तान में अपने किस्म की पहली रिपोर्ट थी। बीस बरस की उम्र में, वैसी शोहरत दिलाने वाली रिपोर्ट के मौके के लिए मैं हमेशा ही पवन दीवान का अहसान मानते रहा, और जब कभी उनके दल-बदल पर मुझे खिल्ली उड़ानी पड़ी, मन के भीतर अच्छा नहीं लगा। इसके बावजूद पेशे का ईमान वैसी कड़वी बातें लिखवाते रहा। पवन दीवान जब कई बार कई पार्टियां बदल चुके थे, तब शायद उनके आखिरी दल-बदल के वक्त मैंने इस अखबार के पहले पन्ने पर उनकी ठहाके लगाती हुई तस्वीर के साथ लिखा था- यह आदमी हर कुछ बरस में पार्टी बदल देता है, उसके बाद छूटी हुई पिछली पार्टी किसी वक्त उसे लेने के फैसले पर रोती है, और यह आदमी इसी तरह ठहाके लगाकर हॅंसता है। 

ऐसा लिखने के बाद भी पवन दीवान ने कभी बोलचाल बंद नहीं की। कभी इंटरव्यू देना उनके लिए राजनीतिक असुविधा का रहता था, तो भी वे अनचाहे भी मुझसे तो बात कर ही लेते थे। उनके देह पर कपड़ा आधी धोती जितना छोटा रहता था, लेकिन उनका दिल बड़ा था। दिल इस मायने में भी बड़ा था कि उसमें हसरतें हमेशा बड़ी रहीं। उनसे लालबत्ती और ओहदे का मोह नहीं छूटा। परिवार का सांसारिक मोह तो उन्होंने छोड़ दिया था, लेकिन राजनीतिक जीवन का मोह उनके मन में हमेशा ही उछालें मारते रहता था। 

जब जनता पार्टी सरकार गई और मध्यप्रदेश में अर्जुन सिंह की सरकार आईं, उस वक्त अर्जुन सिंह कांग्रेस पार्टी के भीतर छत्तीसगढ़ के शुक्ल बंधुओं के मुकाबले छोटे नेता थे। वे सार्वजनिक बातचीत में भी उन्हें श्यामा भैया, विद्या भैया कहकर बुलाते थे, और एक बहुत ही शातिर राजनेता की तरह उनकी जड़ें भी काटते थे। वही वक्त था जब वे 1980 में मुख्यमंत्री बने थे, और शुक्ल बंधुओं, और उनके गुजरे हुए पिता रविशंकर शुक्ल के व्यक्तित्व के समानांतर उन्होंने कुछ विकल्प खड़े करने की कोशिश की, और कामयाब हुए। उसी में उन्होंने शहीद वीरनारायण सिंह को स्थापित किया, पवन दीवान को कांग्रेस में लेकर आए। इस राजनीतिक फैसले में जेल सुप्रिटेंडेंट अग्रवाल साहब अर्जुन सिंह के काम आए। वे पवन दीवान के जेलमंत्री रहते उनके रायपुर से गुजरते हुए जेल में कैदियों के लिए उनका भागवत प्रवचन करवाते थे, और उनके करीब थे। उनके मार्फत पवन दीवान से कई दौर की बात चली, और शायद उसी वक्त अजीत जोगी भी रायपुर के कलेक्टर बनकर आए थे। कुल मिलाकर अफसरों की घेराबंदी के साथ पवन दीवान का कांग्रेस प्रवेश हुआ, और शुक्ल बंधुओं को एक कड़वा घूंट पीकर रह जाना पड़ा। पवन दीवान को अर्जुन सिंह ने मंत्री स्तर का दर्जा देकर किसी निगम का अध्यक्ष बनाया था, और अपने सहयोगियों से कहा भी था कि उनका ख्याल रखें। 

पवन दीवान का ऐसा विविधता से भरा हुआ राजनीतिक जीवन रहा, सामाजिक, धार्मिक, और आध्यात्मिक जीवन रहा, सन्यासी और सांसारिक का मिलाजुला जीवन रहा, रोमांटिक कविता से भीगा हुआ साधु जीवन रहा। वे एक अच्छे इंसान रहे, और राजनीति में जितनी मौकापरस्ती और जितना दलबदल मान्य है, वे उस सीमा के भीतर उसका पूरा इस्तेमाल करते हुए गुजरे। उनके बारे में यादें बहुत हैं, बाकी फिर कभी किसी अगली किस्त में। 
-सुनील कुमार

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