सुनील कुमार

यादों का झरोखा-4 : छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा नेता, सबसे बड़ा मीडिया-खलनायक
02-Aug-2020 4:26 PM
यादों का झरोखा-4 : छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा नेता, सबसे बड़ा मीडिया-खलनायक

बेतरतीब लिखने की अराजक आजादी की एक सहूलियत यह भी होती है कि एक बार में एक से ज्यादा लोगों के बारे में भी लिखा जा सकता है, और एक व्यक्ति के बारे में एक से ज्यादा किस्तों में भी। कुछ व्यक्ति छत्तीसगढ़ की राजनीति में सचमुच ऐसे रहे जिनके बारे में कई-कई किस्तों में ही थोड़ी सी बात हो पाएगी, इसलिए ऐसे लोगों के बारे में एक किस्त तो शुरू में हो जानी चाहिए। 

विद्याचरण शुक्ल छत्तीसगढ़ की राजनीति में सबसे अधिक चर्चित, सबसे अधिक विवादास्पद, और जिंदगी के आखिर में बहुत ही अप्रत्याशित शहादत पाने वाले नेता रहे। किसने यह सोचा था कि शानदार व्यक्तित्व और आलीशान शौक रखने वाला यह नेता इस तरह नक्सल गोलियों का शिकार होकर अस्पताल में दम तोड़ेगा। विद्याचरण शुक्ल तो न कभी राज्य की सरकार में रहे, न ही केन्द्र सरकार में उनका कोई काम नक्सल-विरोधी अभियान वाला रहा, और वे नक्सल-हमले में इस तरह फंस गए। 

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विद्याचरण शुक्ल ने राजनीति में अहमियत विरासत में पाई थी। वे अविभाजित मध्यप्रदेश के अपने वक्त के सबसे बड़े नेता पंडित रविशंकर शुक्ल के बेटे थे, और उम्र के लिहाज से वे श्यामाचरण शुक्ल के छोटे भाई थे। यह एक अलग बात थी कि दोनों भाईयों की राजनीति नदी के दो पाटों की तरह अलग-अलग फासले पर चलती थी, और दोनों कभी एक साथ राज्य में, या एक साथ केन्द्र में सक्रिय नहीं रहे। बहुत सा दौर तो ऐसा रहा कि इन दोनों में से कोई एक कांग्रेस के बाहर भी रहा। इन दोनों की तुलना करने का वक्त अगली किसी किस्त में आएगा, लेकिन एक लाईन इन दोनों के बारे में किसी बुजुर्ग अखबारनवीस की कही हुई यह लिखना जरूरी है जो उन्होंने किसी पत्रकार के सवाल के जवाब में कही थी। छत्तीसगढ़ के सबसे महत्वपूर्ण पत्रकार रहे मायाराम सुरजन ने बाहर से आए किसी पत्रकार के एक सवाल के जवाब में कहा था- विद्याचरण शुक्ल अधिक तेज नेता हैं, लेकिन श्यामाचरण शुक्ल एक बेहतर इंसान हैं। 

यह बात दोनों की तारीफ करने वाली थी, लेकिन फिर भी विद्याचरण शुक्ल को यह बात खटक सकती थी कि उन्हें श्यामाचरण जितना अच्छा इंसान नहीं माना गया। खैर, सार्वजनिक जीवन में लोगों को अपनी अहमियत के अनुपात में ही मूल्यांकन बर्दाश्त करना होता है, और विद्याचरण शुक्ल से अधिक मूल्यांकन तो छत्तीसगढ़ में न किसी नेता का हुआ होगा, और न ही शायद आगे भी हो। 

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छत्तीसगढ़ से बाहर विद्याचरण शुक्ल की दोनों-तीनों शिनाख्त अप्रिय कही जा सकती हैं। आपातकाल के दौरान वे सेंसर-मंत्री थे, जब वीपी सिंह ने कांग्रेस छोड़ी, और जनमोर्चा बनाया, तो विद्याचरण शुक्ल कांग्रेस से निकाले गए थे, और वे जनमोर्चा के एक बड़े नेता बने, और तीसरा मौका आया जब छत्तीसगढ़ राज्य के मुख्यमंत्री न बनाए जाने पर उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ी, और शरद पवार की एनसीपी का राज्य संगठन बनाया, तीन साल बाद विधानसभा चुनाव में जोगी पार्टी-सरकार को शिकस्त दी। ये तीनों ही बातें जो उन्हें बाहर खबरों में लाती थीं, वे तीनों ही कांग्रेस पार्टी के लिए अप्रिय अध्याय रहीं। विद्याचरण शुक्ल छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री न बन पाने से इतने आहत रहे कि वे पहले एनसीपी के प्रदेश के मुखिया बने, और फिर कांग्रेस के खिलाफ लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए भाजपा चले गए, और शायद उनकी जिंदगी का वही सबसे बुरा फैसला रहा जब कांग्रेस के परंपरागत वोटरों ने उन्हें खारिज कर दिया, और भाजपा के परंपरागत वोटरों ने उन्हें अछूत का अछूत माना। यह उनका चुनावी अंत था, यह अलग बात थी कि पार्टी में बाद में उनका दाखिला हो गया, और जब बस्तर में पार्टी के एक काफिले में वे चल रहे थे, तो नक्सल-हमले में घायल होने के बाद जब वे गुजरे, तो अपने पर वे पार्टी के झंडे के भी हकदार हो गए थे। 

विद्याचरण शुक्ल अपने राजनीतिक जीवन को लेकर एक मोटी किताब के हकदार हैं, इस छोटे से कॉलम का न तो इतना दुस्साहस है कि उन्हें दो-चार किस्तों में समेटने की कोशिश करे, और न ही वह मुमकिन ही होगा। इसलिए यह साफ कर देना जरूरी है कि यह कुछ-कुछ बातों को लेकर लिखा जा रहा है, और जितना लिखा जा रहा है, उससे कई गुना अधिक छूटा भी जा रहा है। 

विद्याचरण शुक्ल अपनी उम्र के खिलाफ हमेशा लड़ते रहे। उन्हें बहुत बन-ठनकर, सजकर, शान से जीना पसंद था। वे बहुत नफीस कपड़ों के आदी थे, और खादी के परंपरागत कपड़ों से परे वे तरह-तरह के पतलून और टी-शर्ट भी पहनते थे। उनके शौकीनमिजाज होने के बारे में बहुत सी और कहानियां भी प्रचलित रहीं, लेकिन उनमें से किसी की वजह से भी छत्तीसगढ़ के लोगों के मन में उनके लिए सम्मान में कमी नहीं रही, कभी कोई अपमान नहीं रहा। छत्तीसगढ़ से बाहर देश के अंग्रेजी मीडिया में, अपनी आदतन बेरहमी के मुताबिक विद्याचरण शुक्ल को लेकर कई तरह की विवादास्पद बातें गॉसिप कॉलमों में लिखी जाती थीं, और उनमें से ही एक बात को लेकर छत्तीसगढ़ के उस वक्त के एक सबसे प्रमुख अखबार को शुक्ल-समर्थकों की ओर से मुकदमेबाजी भी झेलनी पड़ी थी, और उसकी वजह के पीछे मैं व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार भी था। दिल्ली के एक अखबारनवीस की लिखी गई वैसी ही एक मजाकिया बात वहां तो खप गई थी, लेकिन छत्तीसगढ़ में यहां के एक हिन्दी अखबार में उसके छपने से बरसों तक विद्याचरण शुक्ल से अखबार की बातचीत भी बंद रही, और मेरी भी। बाद में दोनों ही पक्षों के शुभचिंतक और दोस्त सुभाष धुप्पड़ ने किसी तरह बातचीत का सिलसिला शुरू करवाया था। 

दरअसल विद्याचरण शुक्ल छत्तीसगढ़ के मीडिया से एक खास किस्म के बर्ताव के आदी थे। आपातकाल के पहले से इस शहर के बड़े-बड़े पत्रकार उन्हें भैया कहकर ही बात करते थे, और कुछ बड़े सीनियर पत्रकार भी भरी प्रेस कांफ्रेंस में उनके पैर छूते थे। ऐसे बर्ताव के बाद आपातकाल में तो और भी बहुत से पत्रकार उनका एक अतिरिक्त सम्मान करने लगे थे, क्योंकि छत्तीसगढ़ की खबरें उनकी खुर्दबीनी निगाह में रहती थीं, और राज्य का छोटा सा मीडिया पूरे देश के सेंसर-मंत्री (जिसके ओहदे का नाम सूचना एवं प्रसारण मंत्री था) को सीधे बर्दाश्त करने की हालत में नहीं था। 

आपातकाल के बाद शाह आयोग और दूसरी कई किस्म की जांच का सामना करते हुए विद्याचरण शुक्ल वहां तो कमजोर होते रहे, लेकिन वे छत्तीसगढ़ में फिर भी बड़े नेता बने रहे। हमने ऊपर दोनों भाईयों की राजनीति के अलग-अलग चलने का जिक्र भी किया है। लेकिन एक दौर ऐसा था जब ये दोनों के दोनों अलग-अलग किरदारों में एक सा काम कर रहे थे, और वह दौर इमरजेंसी का था। इमरजेंसी में विद्याचरण शुक्ल दिल्ली में संजय गांधी की चौकड़ी में रहे, और देश भर के मीडिया पर तरह-तरह का जुल्म किया। इधर छत्तीसगढ़ में श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री रहे, और पूरे प्रदेश में हजारों बेगुनाह मीसा में बंद कर दिए गए, संजय गांधी को युवा हृदय सम्राट स्थापित करने के लिए बस्तर में आमसभा करवाई गई, और पूरे प्रदेश से सरकारी बसों को उसमें लगाया गया, जिसके भुगतान से बाद में कांग्रेस पार्टी ने मना कर दिया कि उसका लिखित आदेश दिखाया जाए। वह दौर ऐसा था कि हिन्दुस्तान की सरहद में किसी के पास इतना हौसला नहीं था कि संजय गांधी की हसरतों से कोई सवाल करे, और कुछ राज्यों में तो मुख्यमंत्री संजय गांधी की चप्पलें लेकर पैदल चल रहे थे, अपने अंगवस्त्र से मंच पर संजय गांधी की कुर्सी साफ कर रहे थे। बाद में शुक्ल बंधु अपनी सफाई में चाहे जो कहते रहे हों, इतिहास की हकीकत यही है कि इन्हें अपनी कुर्सियों से इतना मोह था कि अपनी तनी हुई देह से रीढ़ की हड्डी भी इन्होंने अलग करके इमरजेंसी के दौरान ताले में धर दी थी। दोनों भाई राजनीति अलग-अलग करते थे, लेकिन मध्यप्रदेश में इमरजेंसी की ज्यादतियों में दोनों पार्टी के एक पुराने निशान, बैल-जोड़ी की तरह एक ही मकसद में लगे हुए थे। 

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पूरे देश के लिए विद्याचरण शुक्ल आपातकाल के बाद से एक खलनायक की तरह रहे, और मीडिया के लोग उनकी सेंसरशिप को कभी माफ नहीं कर पाए। उन्हीं का तजुर्बा है कि हिन्दुस्तान में बाद की किसी सरकार ने सेंसरशिप को घोषित रूप से लागू करने के बारे में नहीं सोचा, यह एक अलग बात है कि रीढ़ की हड्डियों का संग्रहालय बनाने में बहुत से बड़े नेताओं को आज भी मजा आता है। 

मीडिया के लोगों को इमरजेंसी के वीसी शुक्ला से कितनी नफरत थी उसका एक तजुर्बा मुझे तब हुआ जब देश के सबसे विख्यात कॉर्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण का छत्तीसगढ़ आना हुआ। वह शायद अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री रहने का दौर था, और उन्होंने लक्ष्मण को राज्य पर एक स्कैचबुक बनाने का न्यौता दिया था। उसी सिलसिले में लक्ष्मण पूरे प्रदेश का दौरा कर रहे थे, और छत्तीसगढ़ आने पर वे रायपुर में सर्किट हाऊस में अपनी पत्नी के साथ ठहरे हुए थे। वे मीडिया के लोगों से बात नहीं करते थे, उनके इंटरव्यू भी शायद ही कहीं छपते थे। लेकिन मैंने लक्ष्मण के बेटे के एक दोस्त का जिक्र किया जो कि मेरे साथ युद्ध-संवाददाता प्रशिक्षण में महीनों तक रहा था। सर्किट हाऊस जाकर जब इस पहचान के हवाले से मैंने उनसे बात करनी चाही, तो वे अपनी आदत के खिलाफ तुरंत ही मिलने आ गए, और फिर अपनी पत्नी को भी बुलवा लिया कि बेटे के दोस्त का दोस्त आया है। मैं उन दिनों फोटोग्राफी भी करता था, और लक्ष्मण के इंटरव्यू के साथ-साथ मैंने सर्किट हाऊस के बाहर लॉन पर उन्हें ले जाकर उनकी ढेर सारी तस्वीरें खींची थीं। बाद में डार्करूम में खुद ही तुरंत उनके प्रिंट तैयार करके लौटकर उनसे हर प्रिंट पर ऑटोग्राफ भी करवाया था। उस इंटरव्यू के दौरान और बाकी बातचीत में लक्ष्मण ने विद्याचरण शुक्ल की इमरजेंसी और सेंसर के खिलाफ इतनी गालियां दी थीं, इतनी गालियां दी थीं, कि उनका यहां पर जिक्र असंसदीय हो जाएगा। अब न लक्ष्मण रहे, न ही वीसी शुक्ला, इसलिए वे गालियां अब कागजों पर दर्ज करना भी ठीक नहीं है। 

विद्याचरण शुक्ल तीन बेटियों के पिता रहे, जिनमें से किसी ने भी राजनीति में उनके जीवनकाल में कोई दिलचस्पी नहीं ली। उनकी बड़ी बेटी उनके गुजरने के बाद उनकी राजनीतिक विरासत सम्हालने की हसरत जरूर रखती थी, लेकिन तब तक छत्तीसगढ़ की राजनीति इतनी तेज रफ्तार और नेताओं के लिए ओवरटाईम का सामान बन चुकी थी कि दिल्ली में बसी हुई प्रतिभा पांडेय के लिए छत्तीसगढ़ में कोई भी जगह बची नहीं थी।
 
विद्याचरण शुक्ल पर अगली कई-कई किस्तों में लिखना हो सकता है, ये सिर्फ उनसे जुड़ी हुई कुछ बातें हैं, बाकी बातें अगली किसी किस्त में। 

-सुनील कुमार 

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