सुनील कुमार

यादों का झरोखा-5 : विद्याचरण की कभी न लिखी गई जीवनी पर उनसे चर्चाओं का दौर
03-Aug-2020 4:49 PM
यादों का झरोखा-5 : विद्याचरण की कभी न लिखी गई जीवनी पर उनसे चर्चाओं का दौर

विद्याचरण शुक्ल के बारे में कल लिखना मधुमक्खी के छत्ते को छेडऩे जैसा हो गया। कल उनका जन्मदिन भी मनाया जा रहा था, और उस दिन उन्हें इमरजेंसी का खलनायक लिखना कुछ लोगों को खल गया जो उन्हें नायक मानते थे, और हैं। सच तो यह है कि कल सुबह जब यह लिखा गया, उस वक्त यह याद भी नहीं था कि विद्याचरण शुक्ल ने अपना जन्मदिन एक अगस्त से खिसकाकर दो अगस्त कर लिया था, क्योंकि उस दिन उनके दिवंगत पिता पंडित रविशंकर शुक्ल का भी जन्मदिन पड़ता था, और समारोह कुछ अधिक हो सकते थे। चूंकि इस अखबार का मिजाज नेताओं की जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर लिखने का नहीं है, इसलिए यह दिन याद भी नहीं था। लेकिन जैसा कि हम बार-बार लिखते हैं सार्वजनिक जीवन में जीने वाले लोग शीशे के मछलीघर में रहने वाली मछली की तरह की ही निजता के दावेदार हो सकते हैं। 

आज किसी और नेता के बारे में लिखने के पहले विद्याचरण शुक्ल के बारे में कुछ बातें और लिखी जा सकती हैं, और उनके साथ मेरा वास्ता खासा लंबा पड़ा है, उन्हें कई दशक तक छत्तीसगढ़ में करीब से देखा है, इसलिए उनके बारे में लिखना कुछ अधिक दिलचस्प भी है, और आज राखी के दिन की निजी हड़बड़ी के बीच उन पर अधिक रफ्तार से लिखना अधिक आसान भी है। 

विद्याचरण शुक्ल को उनकी रंगीनमिजाजी के लिए भी जाना जाता था, हालांकि हिन्दुस्तान में नेताओं की जिंदगी के इस पहलू के बारे में ज्यादा लिखा नहीं जाता, और जनता भी जिंदगी के ऐसे किस्सों को सुनकर भी अनसुना कर देती है, और वोटों पर इसका फर्क नहीं पड़ता। 

इंदिरा गांधी के एक जूनियर मंत्री रहते हुए उस वक्त विद्याचरण शुक्ल को अमरीका की किसी एक संस्था से न्यौता मिला था, जिसे लेकर बाद में सरकार के भीतर उन्हें झिडक़ी भी पड़ी थी कि यह संस्था अमरीकी खुफिया एजेंसी सीआईए से रिश्तों के लिए जानी जाती है, और उन्हें इसके न्यौते पर नहीं जाना था। खैर, वे गए थे, और वह वक्त होली के तुरंत बाद का था। यह बात बहुत पुरानी है, मेरी देखी हुई नहीं लेकिन सुनी हुई है। जब वे वहां पहुंचे तो उनके बालों पर से होली का रंग गया नहीं था। जिस किसी अमरीकी पत्रकार ने उन्हें देखकर वहां कोई खबर बनाई, या किसी गॉसिप कॉलम में लिखा, उसने लिखा कि इंदिरा गांधी का एक ऐसा मंत्री आया है जो अपने बालों को बैंगनी रंगता है। 

आपातकाल के बहुत बाद विद्याचरण शुक्ल कांग्रेस छोडक़र, एनसीपी में जाकर, वहां से निकलकर भाजपा के उम्मीदवार बनकर लोकसभा चुनाव लडक़र हार चुके थे। लेकिन भाजपा के भीतर अभी दो बरस पहले कर्नाटक की एक सांसद शोभा करंदलाजे ने पार्टी का यह पोस्टर पोस्ट किया था और लिखा था कि वीसी शुक्ला को पत्रकारों के खिलाफ बदनीयत से सत्ता के बेजा इस्तेमाल का दोषी पाया गया था, लेकिन इसका ईनाम उन्हें राजीव सरकार ने मंत्री बनाकर दिया गया था, बाद में नरसिंह राव सरकार में भी। अब भाजपा के 2018 के इस पोस्टर का खलनायक, 2004 में छत्तीसगढ़ की महासमुंद संसदीय सीट के चुनाव में भाजपा का नायक था! उस वक्त भी इमरजेंसी का इतिहास वीसी शुक्ला के साथ था ही। 

 

जब उन्हें विदेश मंत्री बनाया गया, तो भी लोगों ने मजाक बनाया कि उन्हें एक्सटर्नल अफेयर्स दिया गया है। लेकिन असल जिंदगी में उन्होंने अपने आसपास अपने से कम से कम एक पीढ़ी से अधिक फासले वाले लोगों को ही रखा, जिनसे उनका बातचीत का लिहाज बना रहता था। उनकी राजनीति ऐसी थी कि वे अपनी बराबरी के किसी और को साथ नहीं रखते थे, और शायद ऐसी ही राजनीति उनके बड़े भाई श्यामाचरण शुक्ल की भी थी, और इसीलिए ये दोनों भी एक साथ राजनीति नहीं करते थे, एक प्रदेश में रहता था, तो दूसरा राष्ट्रीय राजनीति में। दोनों ही भाईयों के सबसे करीब सहयोगी हमेशा ही उनके पांव छूने वाले रहते थे, और राजनीति में यह बात बड़ी सहूलियत की रहती है कि जो लोग बिना बात पांव पकड़ते रहते हैं, वे किसी बात के होने पर भी हाथ नहीं पकड़ सकते। इन दोनों के आसपास इनका नाम लेकर, नाम के साथ जी लगाकर बोलने वाले लोग अपवाद के रूप में ही रहे होंगे, बाकी तमाम साथी-समर्थक बड़ी कमउम्र के रहते थे। और तो और अखबारनवीसों में भी इन दोनों को वैसे ही लोग अधिक सुहाते थे जो कि उन्हें भैया बोलते हों। 

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मैंने अपनी अखबारनवीसी में निजी और पारिवारिक रिश्तों के बिना किसी नेता को कभी भैया नहीं कहा। नतीजा यह था कि विद्याचरण शुक्ल लंबे अरसे तक मेरे साथ सहज नहीं रह पाते थे। उन्हें भैया न कहने वाला अखबारनवीस बागी तेवरों वाला लगता था, और मुझे 30 बरस तक देखने के बाद भी उनके मन से यह शक कभी नहीं गया कि मैं कहीं उनकी बात रिकॉर्ड तो नहीं कर रहा हूं। मैंने उन्हें बार-बार अपने तरीके साफ किए कि मैं किसी भी रिकॉर्डिंग के पहले बताकर, पूछकर, और रिकॉर्डर सामने रखकर बात रिकॉर्ड करता हूं, लेकिन उनकी नजरें मेरी जेब पर, या शायद आखिरी के कुछ बरसों में मेरे मोबाइल पर लगी ही रहती थीं। यह तो गनीमत कि उनकी जिंदगी रहने तक मेरे कान पर ब्लूटूथ टंगना शुरू नहीं हुआ था, वरना उन्हें पक्का भरोसा रहता कि यह उनकी बातचीत रिकॉर्ड करने के लिए ही है। 

आखिरी के कुछ बरस उनका शक कुछ घटा था, उनके खिलाफ मेरे कोई बागी तेवर हैं इसकी गलतफहमी कम हुई थी, और उन्हें यह गलतफहमी हो गई थी कि मैं एक समझदार और बात करने लायक पत्रकार हूं। नतीजा यह हुआ कि वे अपनी जिस जीवनी को लिखना चाहते थे, और जिसके लिए उन्होंने एक अघोषित सलाहकार मंडल बनाया था, उस जीवनी के बारे में वे मुझसे भी चर्चा करने लगे। उनके व्यक्तित्व का यह पहलू मेरा देखा हुआ नहीं था, और मेरे लिए यह बात थोड़ी सी अटपटी भी थी कि वे मुझसे रायमशविरा करने लगे थे। मैंने एक शर्त रखी थी जिसे न चाहते हुए भी उन्होंने मान लिया था कि वे जब मुझसे बात करेंगे, तो कोई तीसरे व्यक्ति वहां नहीं रहेंगे। 

वे आमतौर पर अपने मुसाहिबों से घिरे रहते थे। कोई भी बड़ा नेता वैसे ही दायरे के भीतर महफूज महसूस करता है, विद्याचरण भी उनमें से ही एक थे। उनके आसपास उनके तकरीबन हर वाक्य पर जी भैया कहने वाले लोग अगर न रहें, तो उनका बातचीत का सिलसिला ठीक नहीं चलता था। जिस तरह शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम में अगर सम पर सिर हिलाने वाले कुछ समझदार श्रोता सामने न रहें, तो गायक का मूड उखड़ जाता है, किसी पेशेवर कव्वाल के साथ उसके शेर दुहराने वाले लोग न रहें, तालियों से संगत देने वाले लोग न रहें, तो कव्वाली आधी भी अच्छी नहीं हो पाती, और तो और छत्तीसगढ़ में किसी भागवत-प्रवचन में भी सामने बैठे कुछ लोग प्रवचनकर्ता की हर बात पर हहो-हहो कहने वाले न रहें, तो प्रवचनकर्ता पटरी से उतर जाते हैं, कुछ ऐसा ही विद्याचरण शुक्ल के साथ भी होता था। अकेले में बात करना, किसी गैरभक्त से बात करना उनके लिए कुछ अटपटा सा था, लेकिन फिर भी वे मुझसे बात करने के लिए यह बर्दाश्त कर लेते थे। 

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आखिरी के इन बरसों में आमतौर पर दोपहर के खाने की मेज पर घंटों लंबी ऐसी अकेले बातचीत के आखिर में उनका शक मुझ पर से कुछ घटा रहता था, और मैं उनके तजुर्बे का कायल होकर वहां से निकलता था। हिन्दुस्तान के राजनीतिक इतिहास के इतने लंबे दौर के वे एक प्रमुख खिलाड़ी रहे, तमाम चीजों के गवाह रहे, उनसे बातें करने के बाद मैं बहुत सी नई जानकारियां पाकर निकलता था, और मुझे हैरानी भी होती थी कि इतने ऊपर तक पहुंचा हुआ यह नेता किस तरह स्थानीय राजनीति और छोटे, ओछे मुद्दों पर अपना वक्त जाया करता था। इस पर भी हैरानी होती थी कि उनके आसपास अधिकतर समय रहने वाले अधिकतर लोग ऐसे नहीं थे, जो कि उनसे कोई बौद्धिक बहस कर सकते हों। कुल मिलाकर जिस वक्त आप अपने समविचारकों और अपने प्रशंसकों से घिर जाते हैं, आपका आगे बढऩा रूक जाता है, विद्याचरण शुक्ल के साथ मेरा मानना है कि ऐसा ही कुछ हुआ था। इसलिए जब आखिर में उनका नमक खाते हुए भी उनसे असहमति और बहस के साथ मैं उनकी जीवनी पर चर्चा करता था, तो वे मुझे बर्दाश्त करते हुए सुनने लगे थे। 

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मैं उन्हें बार-बार याद दिलाता था कि चिट्ठियां, दस्तावेज, और जानकारियों को इकट्ठा  करना, लोगों से उस पर विचार-विमर्श करना काफी नहीं है, और उन्हें असल लिखना शुरू कर देना चाहिए। उन्हें यह बात कुछ बुरी लगती थी कि मानो मैं उनकी बढ़ती हुई उम्र और बाकी कम बचे हुए वक्त के बारे में इशारा कर रहा हूं। मेरी ऐसी कोई नीयत नहीं थी, लेकिन मेरा यह तो पक्का भरोसा है कि इंसान को अपनी खुद की जिंदगी की नियति का पहले से कुछ पता नहीं होता, और इसीलिए काल करे सो आज कर, आज करे सो अब, जैसी अच्छी नसीहत किसी ने लिखी थी। विद्याचरण शुक्ल नक्सलियों की गोली से मारे जाएंगे यह तो मैंने अपने सबसे बुरे सपने में भी नहीं देखा होता, लेकिन लिखना शुरू करना विचार-विमर्श के मुकाबले खासा मुश्किल और मेहनतकश काम होता है, इसलिए लोग आमतौर पर बातें करते रह जाते हैं। इसलिए मैं आखिरी की ऐसी कई मुलाकातों में उन्हें लिखना शुरू करने के लिए कोंचने लगा था। मेरा ख्याल है कि वे अपनी जीवनी लिखने को लेकर जितने गंभीर थे, उससे खासे अधिक गंभीर वे उसके बारे में चर्चा भर करने को लेकर थे। यह एक अलग बात थी कि देश के एक नामी-गिरामी इतिहासकार, रामचन्द्र गुहा से भी वे अपनी जीवनी को लेकर विचार-विमर्श करते थे। इसका मुझे पक्का भरोसा है कि ताजा भारतीय इतिहास पर अच्छा लिखने वाले रामचन्द्र गुहा को भी विद्याचरण शुक्ल से खासी जानकारी मिली होगी।

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मैं उनकी राजनीति की जीत-हार के मौजूद आंकड़ों पर यहां जगह बर्बाद नहीं कर रहा हूं, बल्कि कुछ ऐसी बातों को लिख रहा हूं जो कि लोगों की कम सुनी हुई होंगी। इन बातों में अनुपात से बहुत अधिक मौजूदगी मेरी अपनी भी है, लेकिन मैं अपने देखे-सुने को ही इस कॉलम में अधिक लिखना चाहता हूं। विद्याचरण शुक्ल की जिंदगी किस्म-किस्म के मलाल से भरी हुई थी, उन्हें आपातकाल की सारी तोहमतें अपने सिर पर लेने की बेबसी का मलाल भी था, और वे यह भी कहते थे कि उनके पास इंदिरा गांधी और संजय गांधी का नाम लेने का मौका था, लेकिन उन्होंने सारी जिम्मेदारी खुद लेना खुद ही तय किया था। उन्हें वीपी सिंह को लेकर यह मलाल था कि कांग्रेस ने उन्हें पार्टी से निकाला, लेकिन वीपी सिंह की सरकार में उन्हें वह महत्व नहीं मिला जिसके कि वे हकदार थे। उन्हें नरसिंहराव सरकार के दौरान संसदीय कार्यमंत्री रहते हुए सोनिया गांधी के लिए असुविधा खड़ी करने वाले बोफोर्स विवाद को बढ़ावा देने का मलाल नहीं था, लेकिन बाद में जब सोनिया गांधी ने उन्हें छत्तीसगढ़ का पहला मुख्यमंत्री नहीं बनाया, तो उन्हें उसका बड़ा मलाल था। वे महत्वाकांक्षी थे, कुछ मायनों में अतिमहत्वाकांक्षी भी थे, थोड़ी सी हद तक वे महत्वोन्मादी भी थे, लेकिन इन सबसे ऊपर वे जमीनी-चुनावी राजनीति करने में जितने लड़ाकू थे, उतने लड़ाकू लोग छत्तीसगढ़ की राजनीति में कम ही होंगे। विद्याचरण शुक्ल पर बात अभी बाकी है मेरे दोस्त, एक ब्रेक के बाद।
-सुनील कुमार

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