सुनील कुमार

यादों का झरोखा-6 : जिन्हें श्यामला हिल्स से बुलावे की आवाज आना कभी बंद नहीं हुआ...
04-Aug-2020 9:24 PM
यादों का झरोखा-6 : जिन्हें श्यामला हिल्स से बुलावे की आवाज आना कभी बंद नहीं हुआ...

अविभाजित मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ से बनने वाले पहले मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल को छत्तीसगढ़ में लोग सम्मान और मोहब्बत से श्याम भैया या श्यामा भैया भी कहते थे। उनके एक-दो पुराने पारिवारिक मित्रों के अलावा उनके हमउम्र नेता-दोस्त नहीं के बराबर थे, और अपनी पीढ़ी के वे सबसे बुजुर्ग और सबसे बड़े नेता भी रह गए थे। उनसे जरा छोटे छोटे भाई विद्याचरण शुक्ल, लंबे समय तक तो दोनों एक ही पार्टी में थे, लेकिन फिर श्यामाचरण ने इंदिरा का साथ छोडऩे के एवज में 12 बरस कांग्रेस से वनवास झेला था, और वह उनकी जिंदगी के सबसे बुरे संघर्ष और सबसे लंबे इंतजार का दौर भी था। 

श्यामाचरण के बारे में इस दौर में कांग्रेस प्रवेश की अफवाहें इतनी बार उड़ती थीं कि धीरे-धीरे लोगों ने उसे सुनना भी बंद कर दिया था। अपनी हत्या के ठीक पहले जब इंदिरा गांधी रायपुर आई थीं, उस वक्त मैं अखबार में काम करता था, लिखता भी था, और फोटोग्राफी भी करता था। गांधी चौक पर इंदिराजी की सभा हुई थी, और मैंने मंच के एकदम करीब से उनकी सैकड़ों तस्वीरें खींची थीं। इसके अलावा एयरपोर्ट पर उनके आते या जाते, या शायद दोनों ही वक्त मैंने बहुत ही करीब से बहुत सी तस्वीरें खींची थीं, और उनकी खुली जीप के साथ दौड़ते हुए तस्वीरें खींचते हुए मेरे शर्ट की तमाम प्रेस-बटनें खुल गई थीं, और रात के दूरदर्शन के समाचार बुलेटिन में बहुत से लोगों ने मुझे खुले सीने दौड़ते हुए, फोटो लेते हुए पहचाना भी था। 

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उन तस्वीरों में मुझे एक तस्वीर खासकर याद है जिसमें इंदिराजी का विमान रवाना होते हुए रनवे पर दौड़ रहा था, बाकी तमाम नेता इधर-उधर चलने-फिरने लगे थे, लेकिन श्यामाचरण उसी जगह खड़े हुए विमान की तरफ हाथ हिला रहे थे, मानो कि खिडक़ी से इंदिराजी उन्हें देख रही होंगी। उन्हें भी पता नहीं होगा कि यह इंदिराजी की जिंदगी का आखिरी रायपुर दौरा होगा, और उनकी जिंदगी का आखिरी हफ्ता भी। वे रायपुर से ओडिशा गई थी, और फिर दिल्ली लौटीं जहां पर अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी थी। 

श्यामाचरण शुक्ल ने कांग्रेस के विभाजन के समय इंदिरा गांधी का साथ छोडऩे की जो गलती की थी, उसने उनकी सारी राजनीतिक जिंदगी बदलकर रख दी थी। फिर भी उनकी कांग्रेस में वापिसी हुई, और वे एक बार फिर मुख्यमंत्री भी बनाए गए। वे कुल मिलाकर तीन बार अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, लेकिन उनकी पहचान छत्तीसगढ़ ही रही, उनका दिल यहीं बसे रहा। 

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विद्याचरण शुक्ल की राजनीति कांग्रेस के भीतर की गुटबाजी और जोड़तोड़ पर केन्द्रित रहती थी, लेकिन श्यामाचरण शुक्ल लगातार विकास के बारे में सोचते थे, और सिंचाई उनका पसंदीदा मामला था। वे मुख्यमंत्री न रहते हुए भी अपने आपको सिर्फ मुख्यमंत्री के ओहदे से जोडक़र देखते थे, और किसी विपक्षी के मुख्यमंत्री रहने पर उनका हमला सिर्फ मुख्यमंत्री पर होता था। 

उनके बाद एक वक्त मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे सुंदरलाल पटवा एक बार रायपुर आए, और उनकी प्रेस कांफ्रेंस हुई। लोगों ने उनसे श्यामाचरण शुक्ल के लगाए हुए आरोपों के बारे में पूछा तो उनका कहना था- श्याम भैया के दिमाग में पूरे ही वक्त मुख्यमंत्री बनना सवार रहता है। और इसमें उनकी गलती नहीं है, गलती भोपाल में मुख्यमंत्री निवास के नाम की है। श्यामला हिल्स नाम होने की वजह से श्याम भैया को पूरे वक्त आवाज आती रहती है कि श्याम ला, श्याम ला। और वे उसी बंगले में रहना चाहते थे। 

पटवाजी बोलने में बड़ी चटपटी जुबान का इस्तेमाल भी करते थे, और उन्होंने आगे कहा- श्याम भैया सीएम बनने के लिए इतने बेचैन हैं, इतने बेचैन हैं, कि रात भर करवटें बदलते रहते हैं, हमारी पद्मिनी भाभी ठीक से सो भी नहीं पाती हैं। 

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पटवाजी ने यह बात कही तो मजाक के रूप में थी, लेकिन श्यामाचरण शुक्ल ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के पद से कम या अधिक, किसी चीज पर नजर नहीं रखी थी। वे कम या अधिक वक्त के लिए तीन बार मुख्यमंत्री बने।

श्यामाचरण शुक्ल उन लोगों में से थे जिन्हें बोलने पर कम काबू रहता था। कई बार उनके दिए हुए बयान ही उनके कांग्रेस प्रवेश की राह में रोड़ा बन गए थे। अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए थे, और श्यामाचरण कांग्रेस के बाहर थे। राजनीति का तकाजा यही था कि अर्जुन सिंह यह प्रवेश न होने दें, और इसके लिए उन्होंने तमाम किस्म की चतुराई का इस्तेमाल किया था। श्यामाचरण का एक ऐसा इंटरव्यू सामने आया था जिसमें उन्होंने आपातकाल के इंदिरा और संजय के बारे में कुछ अवांछित बातें कही थीं। यह एक अलग बात है कि उनका खुद का यह कहना था कि ये बातें उनकी कही हुई नहीं थीं, और अर्जुन सिंह की एक साजिश के तहत कुछ वरिष्ठ पत्रकारों ने उनसे लिए इंटरव्यू में कई बातें अपने मन से जोड़ी थीं, और उनके कांग्रेस प्रवेश के आखिरी वक्त पर इसे कुछ अखबारों में छपवाकर इंदिराजी के सामने पेश किया गया था। अब इस विवाद से जुड़े हुए सारे के सारे लोग धरती से जा चुके हैं, इसलिए मैं वही बातें लिख पा रहा हूं, जो कि श्यामाचरणजी ने रूबरू मुझसे कही थीं। 

श्यामाचरण शुक्ल को जाने अपने किन करीबी लोगों से यह खबर की गई थी कि मैं उन दिनों जिस अखबार में काम करता था, वहां मैं ही अकेला उनका आलोचक था, उनके खिलाफ था। यह बात अखबार के भीतर तो मेरा नुकसान नहीं कर पाई क्योंकि उसे निकालने वाले लोगों का दिल बड़ा था, और वे मेरे खिलाफ और भी ऐसी शिकायतें सुनते आए थे। लेकिन आखिर में मुझे यह भी पता लगा कि उन्हें मेरे खिलाफ भडक़ाया किसने था, लेकिन जो लोग सार्वजनिक जीवन में नहीं रहे, और अब धरती पर भी नहीं रहे, उनके बारे में कुछ कहना जायज नहीं होगा, जरूरत ही नहीं है। 

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लेकिन घूम-फिरकर किसी तरह श्यामाचरण शुक्ल मुझसे बात करने को राजी हुए, और अपने छोटे भाई की तरह उनका भी लगातार यह शक मुझ पर बना हुआ था कि मैं कहीं बातचीत रिकॉर्ड तो नहीं कर रहा हूं। उन्हें एक बार फिर मुझे यह भरोसा दिलाना पड़ा कि मैं औपचारिक इंटरव्यू के लिए रिकॉर्डर सामने रखकर ही रिकॉर्ड करता हूं, और रिकॉर्डिंग की इजाजत वाली बातचीत भी मैं रिकॉर्डिंग में सबसे पहले दर्ज कर लेता हूं ताकि किसी विवाद के वक्त सुबूत रहे। लेकिन विद्याचरण के बाद श्यामाचरण, इन दोनों के मन में एक जैसा शक, बिना किसी के बिठाए हुए तो बैठ नहीं सकता था। दोनों भाईयों के मिजाज में बहुत सी बातें बिल्कुल अलग, और कुछ बातें एक-दूसरे से विपरीत भी थीं। लेकिन उनकी कई बातें एक सरीखी भी थीं, जिनमें से एक यह भी था कि वे मीडिया के अधिकतर लोगों के मुंह से भैया सुनने के आदी थे, बहुत से लोग उनके पांव छूते थे, और वे बहुत तीखे सवालों के आदी भी नहीं थे। 

श्यामाचरण शुक्ल की एक बड़ी कमजोरी भी थी कि वे अपनी पीढ़ी के लोगों के परिवारों के लोगों को उनके बाप-दादा के नाम से ही याद रख पाते थे, मानो बात की पीढिय़ां अपने आपमें कोई अस्तित्व नहीं थीं। इस मामले में विद्याचरण शुक्ल एकदम अलग थे जो कि जवानों के साथ रहते थे, और वे ही लोग उनके सहयोगी थे। 

श्यामाचरण शुक्ल लंबी बातचीत के शौकीन थे, अपनी यादों को बांटने के भी शौकीन थे, और वे लगातार चाय पिलाने, और घर पर तलकर बनाए गए पकौड़े वगैरह खिलाने के भी शौकीन थे। मेरी कमसमझ से उनकी एक बात मुझे गलत तरीके से खटक गई थी, जो कि बाद में साफ हुई। वे आए हुए लोगों के लिए भी अपने हाथ से ही चाय बनाते थे, और पहले अपने कप में केतली से चाय निकालते थे, फिर सामने वाले के कप में। मुझे यह बात अटपटी लगती थी, लेकिन फिर बाद में यह बात समझ आई कि चाय निकालने की यही सही संस्कृति रहती है कि पहले अपने कप में निकाली जाए, और फिर बाद में जब मेहमान के लिए निकाली जाए, तो तब तक वह चाय केतली की चायपत्ती से कुछ और कडक़ हो चुकी रहे। श्यामाचरण शुक्ल सुबह से रात तक सारा वक्त चाय पीते, पकौड़े खाते-खिलाते, और बातें करते गुजार सकते थे। 

लेकिन इन दोनों भाईयों ने अलग-अलग वक्त पर, अलग-अलग मुझसे बातचीत में अर्जुन सिंह की सेहत को लेकर कहा था कि हार्ट के बाइपास ऑपरेशन के बाद वे बिस्तर से शायद ही उठ सकें। लेकिन इस ऑपरेशन के बाद अर्जुन सिंह तो महत्वपूर्ण बने रहे, श्यामाचरण शुक्ल किनारे रहे, और अर्जुन सिंह के काफी पहले गुजर गए। विद्याचरण शुक्ल जरूर अर्जुन सिंह के बाद तक रहे, लेकिन अर्जुन सिंह गुजरने के दो बरस पहले तक महत्वपूर्ण केन्द्रीय मंत्री रहे, विद्याचरण शुक्ल तकरीबन महत्वहीन हो गए थे। इस तजुर्बे से मुझे उस वक्त तो लिखने को तो कुछ नहीं मिला, क्योंकि ये बातें अनौपचारिक चर्चा का हिस्सा थीं, लेकिन यह नसीहत जरूर मिली कि दुश्मनी भी हो, तो भी किसी की मौत की कामना नहीं करनी चाहिए। 

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छत्तीसगढ़ की राजनीति में ऐसे बहुत से लोग रहे जो कि अजीत जोगी के सताए हुए रहे, और अजीत जोगी के सडक़ हादसे में अपाहिज होने के बाद कई बार यह सोच जाहिर करते थे कि अगले चुनाव तक तो वे शायद ही रहें, और उन्हें गलत साबित करते हुए अजीत जोगी ने पहियों की कुर्सी पर कई चुनाव निपटाए थे। शुक्ल बंधुओं और अर्जुन सिंह के अपने तजुर्बे के आधार पर तमाम जोगी विरोधियों को मेरी यही नसीहत रहती थी कि किसी के बुरे का सोचो, तो उसका भला ही होता है। मैं शुक्ल बंधुओं की यह बात बताता भी था, और जोगी का हौसला देखकर हैरान भी होते चलता था। 

लेकिन अजीत जोगी के बारे में लिखने का मौका फिर आएगा, आज तो श्यामाचरण शुक्ल के बारे में भी लिखने को बहुत है। श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री न रहते हुए भी लगातार शहरी विकास के लिए भी फिक्रमंद रहते थे, और उन्हें शहर में सिर उठाती इमारतें पसंद नहीं आती थीं। लेकिन उनकी पसंद और नापसंद बहुत हद तक निजी रहती थीं, और कई बार वे एक व्यापक सार्वजनिक हित से परे देखते थे। अजीत जोगी जब मुख्यमंत्री थे, तो रायपुर शहर में एक कांग्रेस नेता की इमारत तोडऩे म्युनिसिपल पहुंचा था, और बाद में अदालती दखल से वह मामला थमा था। जब मैंने जोगी से इस बारे में बात की, तो उनका कहना था कि श्यामाचरणजी एयरपोर्ट से घर पहुंचने के बीच जब दो इमारतों के बगल से गुजरते थे, तो उन्हें फोन करते थे, और तोडऩे के लिए कहते थे। एक तो कांग्रेस नेता की थी, और दूसरी भाजपा के नेताओं की थी जिसमें ऊंचाई का कुल दो-तीन फीट का गलत निर्माण था, लेकिन उसे तुड़वाने के लिए श्यामाचरण शुक्ल अड़े रहते थे। ये दोनों उन्हें निजी नापसंद मामले थे, जबकि शहर में सैकड़ों ऐसे दूसरे निर्माण उनके मुख्यमंत्री रहते हुए भी थे जिनके बारे में उनका कुछ सोचना-कहना नहीं था। आज काम के बीच इस कॉलम को लिखते हुए इससे अधिक वक्त मुमकिन नहीं हो पा रहा है, इसलिए बाकी कुछ बातें आगे फिर। फिलहाल यह साफ कर देना जरूरी है कि यहां कुछ कतरा-कतरा यादें ही लिखी जा रही हैं, यह कॉलम किसी भी व्यक्ति का समग्र मूल्यांकन नहीं है। 
-सुनील कुमार

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