सुनील कुमार

यादों का झरोखा-10 : हर बड़ी ताकत की आंखों की किरकिरी बन गया था नियोगी...
08-Aug-2020 3:22 PM
यादों का झरोखा-10 : हर बड़ी ताकत की आंखों की किरकिरी बन गया था नियोगी...

छत्तीसगढ़ की राजनीति और यहां के नेताओं के बीच शंकर गुहा नियोगी के बारे में कुछ लिखना कुछ अटपटा लग सकता है, लेकिन इन यादों का महज राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है, और शंकर गुहा नियोगी का राजनीति से लेना-देना था। इस मजदूर नेता पर बड़ी-बड़ी फिल्में बन सकती हैं, बड़ी-बड़ी किताबें हो सकता है कि लिखी गई हों, लेकिन मैं महज अपनी यादों तक सीमित रहूंगा। 

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हिन्दुस्तान में ऐसे कम ही मौके रहते हैं जब मजदूरों का इतना बड़ा नेता उद्योगपतियों द्वारा कत्ल करवा दिया जाए, उद्योगपतियों के भाड़े के हत्यारे गिरफ्तार हो जाएं, लेकिन मजदूर लाख से अधिक होने पर भी एक पत्थर भी न चलाएं। शंकर गुहा नियोगी का मजदूर संगठन, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा, कुछ इसी किस्म का था। नियोगी की हत्या के बाद भी मजदूर संगठन बना हुआ है, और नियोगी के कुनबे के बिना चल रहा है। दल्लीराजहरा की खदानों से भिलाई इस्पात संयंत्र के लिए आयरन ओर जाता है, और इसी इलाके में खदान मजदूरों के भले के लिए उन्हें संगठित करके इस प्रदेश के इतिहास का सबसे संगठित, सबसे मजबूत, और सबसे बड़ा मजदूर संगठन शंकर गुहा नियोगी ने बनाया था जो कि खुद बाहर से यहां आए थे। 

वह वक्त बड़ा दिलचस्प था। इमरजेंसी की वजह से कांग्रेस और सीपीआई के लोगों ने भारत में राजनीतिक अस्थिरता और अराजकता की साजिशों का एक हौव्वा खड़ा किया था, और उसके पीछे विदेशी हाथ बताया जाता था। जबकि हिन्दुस्तान में उस वक्त तो विदेशी छोड़ देशी हाथ भी नहीं था, और वह बाद में कांग्रेस के चुनावचिन्ह की शक्ल में आया। लेकिन उस वक्त भी कांग्रेस और सीपीआई के लोग अपनी अलग-अलग वजहों से शंकर गुहा नियोगी को नक्सली भी कहते थे, और अमरीकी एजेंट भी कहते थे। यह कुछ ऐसे थर्मस फ्लास्क की तरह का मामला था जो एक फ्लास्क में ठंडा रखता है, और दूसरे में गर्म। कोई नक्सली भी हो, और वह अमरीकी एजेंट भी हो, ऐसा इमरजेंसी के उस दौर में कांग्रेस और सीपीआई की तोहमतों में ही मुमकिन था। 

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लेकिन शंकर गुहा नियोगी के ऊपर ऐसी अलग-अलग कई किस्म की तोहमतें लगाने के पीछे कई किस्म की वजहें थीं। सीपीआई ने चूंकि कांग्रेस का साथ दिया था इसलिए उसे इमरजेंसी के पक्ष में तर्क देने थे, और ऐसा करते हुए वह अपने पसंदीदा दुश्मन अमरीका पर भारत में अस्थिरता पैदा करने का आरोप भी लगा रही थी। दूसरी तरफ कांग्रेस के सामने एक दिक्कत यह थी कि नियोगी की जमीन बन जाने के वक्त अविभाजित मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी, और उद्योगपति उसके साथ थे, जिनको नियोगी से डर लग रहा था। फिर इन दोनों ही पार्टियों के साथ नियोगी को लेकर एक दिक्कत यह थी कि छत्तीसगढ़ के तमाम दूसरे मजदूर संगठन तकरीबन इन्हीं दोनों पार्टियों के थे। और नियोगी के जो तेवर थे उनके चलते इन सबकी दुकानें ठप्प पडऩे का एक खतरा खड़ा हो गया था। इसलिए कांग्रेसी और कम्युनिस्ट दोनों ही नियोगी से नफरत करते थे, क्योंकि वह भाजपा का विरोधी रहने वाला ऐसा मजदूर नेता था जो इन दोनों पार्टियों के परंपरागत मजदूरों के बीच घुसपैठ की ताकत रखता था, घुसपैठ कर चुका था। 

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लेकिन शंकर गुहा नियोगी का व्यक्तित्व एक अभूतपूर्व और असंभव किस्म के मजदूर नेता का था। वह इस कदर फक्कड़ था कि उसकी पत्नी खदान में मजदूरी करती थी। वह खुद मजदूर की जिंदगी जीता था। उसने तमाम वामपंथ, और तमाम मजदूर आंदोलनों को पढ़ा हुआ था, उसका  बौद्धिक स्तर छत्तीसगढ़ के तमाम अखबारनवीसों के बौद्धिक स्तर से अधिक ऊंचा था, उससे राजनीति और मजदूर आंदोलन, मजदूर अधिकार को लेकर बहस करने की समझ बहुत कम लोगों में थी। वह सिर्फ जिंदाबाद-मुर्दाबाद वाला मजदूर नेता नहीं था, वह भारी पढऩे और सोचने-विचारने वाला नेता भी था। 

नियोगी से मेरी मुलाकात उनके मजदूर आंदोलनों की मांगों को लेकर होने वाली गरीब सी प्रेस कांफ्रेंस में होती थी। लेकिन उसका व्यक्तित्व बांध लेने वाला था। लापरवाह हुलिया, लगातार सिगरेट, लगातार तर्कसंगत बातें जिनके पीछे बहुत गहरी समझ भी हो, और सरकार-उद्योगपतियों से लडऩे का अंतहीन हौसला। बहुत सी बातों ने मिलकर एक नियोगी को बनाया था जिससे छत्तीसगढ़ के बड़े उद्योगपति दहशत खाते थे। यही वजह रही कि उद्योगपतियों ने अपने बीच के, अपने परिवार के एक आदमी को लगाकर, बाहर से भाड़े का हत्यारा बुलाकर सोए हुए नियोगी की हत्या करवा दी, और सजा पाने वालों में सबसे बड़े उद्योग के परिवार का एक व्यक्ति भी रहा। 

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राजनीति से नियोगी का थोड़ा सा लेना-देना रहा जब उन्हें लगा कि विधानसभा में अगर उनका कोई विधायक नहीं होगा तो मजदूरों की बात वहां नहीं उठ पाएगी। उस वक्त नियोगी ने अपने एक मजदूर साथी जनकलाल ठाकुर को विधानसभा का चुनाव लड़वाया, और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के घोषित उम्मीदवार के रूप में वे एक बार विधायक रहे। इस एक-दो विधानसभा चुनाव से परे छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा की चुनावी राजनीति में कोई हिस्सेदारी नहीं रही। लेकिन वह कुछ ऐसे दूसरे संगठनों के साथ जरूर जुड़ा रहा जिन्हें हिन्दुस्तान में शक की नजरों से देखा जाता था, और यह माना जाता था कि वे इस देश में अस्थिरता पैदा करने के लिए ही काम कर रहे हैं।

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पीयूसीएल नाम का मानवाधिकार संगठन छत्तीसगढ़ में नियोगी के संगठन छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के साथ कदम मिलाकर चलने वाला था, दोनों संगठन अलग थे, लेकिन मजदूरों के शोषण, और मानवाधिकार जैसे कुछ मुद्दों पर ये साथ भी रहते थे। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा की तरह ही पीयूसीएल भी सरकार की आंखों की किरकिरी था क्योंकि वह बंधुआ मजदूरों के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट तक से केस जीतकर यहां हजारों बंधुआ मजदूरों को मुक्त करवा रहा था जो कि कांग्रेस और भाजपा के बहुत से नेताओं के बंधुआ मजदूर थे। कुल मिलाकर सत्तारूढ़ रहते हुए कांग्रेस, या सत्ता में एक बार आई हुई भाजपा, इन दोनों को छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा और पीयूसीएल एक से नापसंद थे, और इनके साथ-साथ सीपीआई को भी इन दोनों से बहुत ही परहेज था, इन्हें सीआईए का एजेंट कहने में एक पल की देर नहीं की जाती थी। 

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अब नियोगी के कत्ल को भी कई दशक हो गए हैं, और इस दौरान दिल्ली से लेकर भोपाल तक की सरकारें, कांग्रेस और भाजपा दोनों ही चला चुकी हैं, लेकिन इन दोनों संगठनों के खिलाफ किसी के पास कुछ नहीं है, जिसका मतलब है कि इन पर नक्सल-समर्थक होने, या सीआईए का एजेंट होने की तोहमतें फर्जी थीं। झगड़ा अस्तित्व का था, वर्गहित का था। वर्गहित ऐसे कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही उद्योगपतियों के साथ थीं, और सीपीआई का वर्गहित टकराव ऐसे हो रहा था कि उसका मजदूर संगठन नियोगी के मुकाबले हाशिए पर जा रहा था, जा चुका था। 

ऐसे नियोगी को कई बार कई आंदोलनों के सिलसिले में जेल में भी रखा गया। ऐसे ही कुछ मौकों पर मुझे जेल जाकर सुपरिटेंडेंट के कमरे में नियोगी से लंबी वैचारिक बातचीत करने का भी मौका मिला। उनके मुकाबले मैंने मानो कुछ भी नहीं पढ़ा हुआ था, और हर मुलाकात मेरी जानकारी, और मेरी समझ को बढ़ाते जाती थी। 

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लेकिन नियोगी से एक आखिरी मुलाकात न हो पाने का मुझे लंबा मलाल रहा, आज भी है, और जब-जब नियोगी को याद करना होगा, यह मलाल सिर पर चढ़े रहेगा। 

भोपाल से एक अखबारनवीस दोस्त एन.के. सिंह रायपुर आए हुए थे। वे उस समय इंडिया टुडे के लिए भोपाल से पूरा अविभाजित मध्यप्रदेश कवर करते थे। उनके साथ इसी पत्रिका के फोटोग्राफर, अगर नाम मुझे ठीक से याद है तो, प्रशांत पंजियार भी थे। वे पिकैडली होटल में ठहरे थे जहां शाम को खाने के लिए पीयूसीएल के राजेन्द्र सायल, और भिलाई से शंकर गुहा नियोगी भी पहुंचे हुए थे। एन.के. सिंह ने मुझे भी न्यौता दिया था, लेकिन उन दिनों अखबार का रात का काम खत्म ही नहीं हो रहा था, दूसरी तरफ मेरा गला इतना खराब था कि मुझसे बात करते भी बन नहीं रहा था। ऐसे में लंबी बातचीत और बहस की किसी शाम में गले के और अधिक चौपट हो जाने का खतरा था। मुझे शाम से रात तक कुछ बार एन.के.सिंह का फोन आया, और मेरा जाना हो ही नहीं पाया। अगली सुबह शायद 5-6 बजे की बात होगी एन.के. सिंह का फोन आया, और उन्होंने बताया कि नियोगी का कत्ल कर दिया गया है। भिलाई में उनके घर पर किसी ने गोली मार दी है, और वे तुरंत वहां रवाना हो रहे हैं। 

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यह खबर सुनते ही हाथ-पैर ठंडे पड़ गए कि बीती शाम ही जिसके साथ लंबी बातचीत होनी थी, जिसमें छत्तीसगढ़ के मजदूरों को अपना एक मसीहा दिखता था, एक ऐसा मजदूर नेता जिसने छत्तीसगढ़ में यह साबित किया था कि कारखानेदारों का दलाल हुए बिना भी मजदूर आंदोलन चलाया जा सकता है, उनसे किसने इस तरह मार दिया। तब तक यह अहसास नहीं था कि कारखानेदार ऐसा कत्ल करवा सकते हैं। लेकिन कुछ देर में यह बात याद आने लगी कि नियोगी कई बार कहा करता था कि उसका कत्ल करवाया जा सकता है। मुझे हर बार यही लगता था कि लाख मजदूरों के इस नेता को छूने का हौसला भला किसका हो सकता है? लेकिन आखिर में हुआ वही, लाख मजदूरों का साथ धरे रह गया, और भाड़े के एक हत्यारे को लेकर उद्योगपतियों ने देश के इस एक सबसे चर्चित मजदूर नेता को मरवा डाला। बंगाल से आकर छत्तीसगढ़ में मजदूरों को एक करने, उनके हक की लड़ाई लडऩे, उनके इलाज के लिए अभूतपूर्व अस्पताल खोलने और इतिहास का एक सबसे मजबूत मजदूर संगठन खड़ा करने वाले इस नौजवान नेता को मरवाकर भी कारखानेदार उसका मजदूर संगठन खत्म नहीं करवा पाए जो कि आज भी चल रहा है। नियोगी के बारे में कुछ और यादें, कई और बातें अगली किस्त में। 

-सुनील कुमार

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