सुनील कुमार

यादों का झरोखा-12 : सादगी और सहजता से भरा हुआ, गांधीवादी सायकलसवार सांसद
10-Aug-2020 5:32 PM
यादों का झरोखा-12 : सादगी और सहजता से भरा हुआ, गांधीवादी सायकलसवार सांसद

राजनीति में ईमानदारी कैसे निभ सकती है, इसे देखना हो तो केयूरभूषण की जिंदगी देखना ठीक होगा। गांधीवादी, सर्वोदयी, हरिजनों की सेवा करने वाले, खादी पहनने वाले, और आखिर तक साइकिल पर चलने वाले। केयूरभूषण जाति से छत्तीसगढ़ी ब्राम्हण थे, लेकिन उन्होंने अपना जाति नाम नहीं लिखा। दूसरी तरफ वे हरिजन उद्धार जैसे गांधीवादी आंदोलनों से जुड़े रहे, एक ऐसा शब्द जिससे हरिजन कहे जाने वाले तबकों में आने वाली जातियों को ही घनघोर एतराज रहा, यह एक अलग बात है कि यह शब्द केयूरभूषण का न तो शुरू किया हुआ था, और न ही इनके साथ खत्म हुआ। इसे शुरू करने की सारी तोहमत गांधी के मत्थे आती है, जिन्होंने अपने वक्त में अपनी सोच के मुताबिक हरिजनों को ईश्वर की दुकान में दाखिला दिलाने के लिए ऐसा एक शब्द गढ़ा था, लेकिन आज तक इस तबके का हाल यह है कि हिन्दुस्तान में हर दिन कहीं न कहीं सवर्ण हिंसा का शिकार हो रहा है। 

खैर, केयूरभूषण गांधी से सवाल करने वाले लोगों में से नहीं थे, वे गांधी को मानने वाले लोगों में से थे, और गांधी के ही अंदाज में वे हरिजन बस्तियों में साफ-सफाई से लेकर वहां आने-जाने तक, वहां खाने तक, सभी ऐसे काम करते थे जिससे गांधीवादी सोच छुआछूत के खात्मे की उम्मीद करती है। यह उम्मीद बेबुनियाद साबित हुई, लेकिन ऐसा करते हुए केयूरभूषण दूर तक गए। 

केयूरभूषण 1980 में रायपुर लोकसभा सीट से कांग्रेस के सांसद बने। इसके बाद जल्द ही दिल्ली मेें उनसे मेरी मुलाकात हुई जहां मैं अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह की रिपोर्टिंग के लिए गया हुआ था। दिल्ली का एक किस्म से पहला ही ऐसा दौरा था जिसमें न वहां रहने का कोई इंतजाम था, और न ही घूमने-फिरने का। केयूरभूषण से बात करके उनके घर पर रहने का इंतजाम हो गया था जो कि उस वक्त के पैमाने के एक बड़ी बात थी। मुझे 20-22 दिन लगातार रहना था, और सुबह जल्दी रवाना होकर रात आधी रात के काफी बाद लौटना था। उनकी जगह मैं होता, तो ऐसे किसी मेहमान को जगह देने से मना कर देता। लेकिन पहली बार के सांसद का घर जितना बड़ा था, उससे बड़ा उनका दिल था। एक छोटे कमरे में मेरा डेरा बन गया था, और उनके यहां काफी छत्तीसगढ़ी लोग आते-जाते थे, लेकिन वह कमरा सिर्फ मेरे रहने के लिए बने रहा। रात मैं डेढ़-दो बजे लौटता था, और उन्होंने अपने एक घरेलू सहायक को निर्देश दे रखा था कि मैं जब भी आऊं, मेरे लिए गर्म पराठे बनाकर मुझे खाना खिलाए। दिल्ली की शून्य डिग्री के आसपास की ठंड में मुझे प्रेम नाम के इस पहाड़ी नौजवान को उठाना ठीक नहीं लगता था, लेकिन फिर भी हर दिन, या हर रात कहना बेहतर होगा, वह मुझे खाना खिलाते रहा। 

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उस वक्त निर्मला देशपांडे भी वहीं रहती थीं। वे स्थाई रूप से केयूरभूषण के साथ ही रहती थीं, और वे इंदिरा गांधी की निजी सहेली मानी जाती थीं। वे ही इंदिरा गांधी तक केयूरभूषण की सीधी पहुंच थीं, और दोनों सर्वोदयी-गांधीवादी थे इसलिए दोनों की अच्छी निभ जाती थी। मुझे निर्मला देशपांडे से बातचीत की कम ही याद है क्योंकि मैं सुबह जल्दी निकल जाता था जिस हड़बड़ी में किसी बात की गुंजाइश नहीं थी, और रात मेरे लौटने तक सब सो चुके होते थे। केयूरभूषण ने रायपुर का सांसद रहते हुए अनगिनत छत्तीसगढ़ी लोगों की मेजबानी की, उनके साधन बहुत सीमित थे, कोई ऊपरी कमाई नहीं थी, बेटा प्रभात दिल्ली में संघर्ष करते रहता था लेकिन उसका भी कोई काम जम नहीं पाया था, लेकिन केयूरभूषण ने किसी को वहां ठहरने के लिए मना किया हो ऐसा सुनाई नहीं पड़ा। 

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उनके सांसद रहते हुए बिलासपुर जिले के पांडातराई नाम के कस्बे में हरिजनों को मंदिर में प्रवेश नहीं दिया जाता था। वैचारिक आधार पर यह केयूरभूषण के लिए एक चुनौती थी। वे वहां गए और हरिजनों को लेकर मंदिर प्रवेश की कोशिश की। तनातनी इतनी बढ़ी कि पुलिस गोली चली, और कुछ लोग जख्मी भी हुए। जब केयूरभूषण हरिजनों के साथ मंदिर प्रवेश के लिए जा रहे थे तब हरिजन-विरोधी मंदिरवालों की भीड़ ने हमला कर दिया। केयूरभूषण के सिर पर किसी धारदार हथियार से, शायद फरसे से भारी चोट भी आई, और  वहां मौजूद पुलिस उन्हें बचाकर पास के रेस्ट हाऊस ले गई। लेकिन हरिजन-विरोधी लोग रेस्ट हाऊस भी पहुंच गए, और केयूरभूषण तक पहुंचने की कोशिश करने लगे। भीड़ को रोकने के लिए वहां मौजूद एक इंस्पेक्टर ने गोली चलाई जिससे कुछ लोग घायल हुए, या एक की मौत भी हुई।

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मुझे इस घटना के बारे में अधिक याद नहीं है, सिवाय इसके कि पता लगते ही मैं मोटरसाइकिल से कैमरे का बैग लिए पांडातराई के लिए रवाना हो गया था, रास्ते में मोटरसाइकिल पंक्चर होने से कई घंटे खराब हुए, पांडातराई पहुंचने तक रात हो गई थी, और उसके बाद की अधिक याद अभी नहीं है। 

केयूरभूषण ने छत्तीसगढ़ के इस मंदिर में हरिजन प्रवेश के अलावा राजस्थान के श्रीनाथद्वारा के वैष्णव समाज के मंदिर में भी हरिजन प्रवेश की घोषणा की थी, और उसका भी देश भर के वैष्णव समाज से बड़ा विरोध हुआ था। वे श्रीनाथद्वारा गए, और वहां हरिजनों को लेकर मंदिर जाने वाले थे कि उन्हें घेर लिया गया, खासा तनाव हुआ, उन्हें बचाकर एक घर में ले जाया गया, और बाद में पुलिस ने उन्हें मौके से हटाया। ऐसी तमाम घटनाओं में वे अपनी जिंदगी की परवाह किए बिना सिद्धांतों की लड़ाई में जुट जाते थे। 

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इस हमले के बाद मीरा कुमार ने केयूरभूषण को एक चि_ी भेजकर हमदर्दी जाहिर की थी, और लिखा था- आपके साथ जो घटना हुई, और आप पर जिस तरह हमला हुआ वह सब जानकर बहुत पीड़ा पहुंची है। क्या जाति-पांति की नींव पर घृणा की दीवारें इसी मजबूती से खड़ी रहेंगी?

उन्होंने आगे लिखा था- कभी लगता है कालचक्र आगे बढऩे के बजाय पीछे की ओर घूम रहा है, और सर्वनाश के कगार पर उसे न पहुंचने देने के लिए आप जिस शक्ति और साहस से तत्पर हैं, उसमें मेरा हर क्षण संपूर्ण समर्थन स्वीकार करें। ईश्वर से आपके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना के साथ- मीरा कुमार। (मीरा कुमार बाद में लोकसभा अध्यक्ष भी बनीं, और देश के एक सबसे प्रमुख दलित नेता रहे जगजीवन राम की वे बेटी थीं।) 

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केयूरभूषण सांसद के रूप में भी बिना कमाई-धमाई जीते रहे, लोगों के काम आते रहे, दौरे के लिए सांसद को एक सरकारी जीप मिलती थी, वे बिना किसी निजी गाड़ी के इसी तरह दौरा करते रहे। वे लगातार गांधीवादी विचारधारा के लेख लिखते थे, खुद लेकर जाकर अखबारों में बैठकर संपादकों को उसका महत्व बताते थे। 

वे पृथक छत्तीसगढ़ राज्य की बात करते थे, लेकिन पार्टी के लिए असुविधा खड़ी करने जैसी कोई आक्रामकता उनकी बात में नहीं रहती थी। केयूरभूषण छत्तीसगढ़ी ब्राम्हण थे, लेकिन उनके चुनाव में ब्राम्हण वोटों का उन्हें कोई फायदा नहीं होता था, ब्राम्हण उन्हें ब्राम्हणविरोधी मानते थे, और हरिजन भी उन्हें ब्राम्हण मान लेते थे। अपनी जाति के प्रचलित चरित्र के खिलाफ जाने वाले लोग जिस तरह बहाव के खिलाफ तैरने के लिए मजबूर हो जाते हैं, केयूरभूषण कुछ उसी किस्म के रहे। 

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जिस दौर में केयूरभूषण छत्तीसगढ़ में राजनीति करते थे, उस वक्त लोगों के लिए शुक्ल बंधुओं के साथ रहना, या फिर उनके खिलाफ मान लिया जाना ही दो विकल्प थे। लेकिन केयूरभूषण कांग्रेस के भीतर की बहुत हिंसक गुटबाजी में भागीदार बने बिना पार्टी के लिए काम करते रहे। लेकिन कांग्रेस से परे भी उनका एक व्यापक संसार था। वे छत्तीसगढ़ी भाषा के लिए, और छत्तीसगढ़ी साहित्य के लिए लगातार लगे रहते थे। वे कहानी और उपन्यास भी लिखते थे, और सार्वजनिक मुद्दों पर दूसरी छोटी पुस्तकें भी। लेकिन सांसद की अपनी पेंशन से पैसे निकालकर वे छपवाते थे, इन किताबों को बिकना तो था नहीं, वे अपनी ही सीमित कमाई इसमें डालते थे। उनकी लिखी दो-तीन किताबें उनके गुजरने तक छपी नहीं थीं, और उनके बेटे प्रभात अभी उन्हें छपवा रहे हैं। 

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केयूरभूषण मोटेतौर पर रायपुर शहर, लेकिन मौका और जरूरत होने पर दूर-दूर तक गांधी के लिए, खादी के लिए, छत्तीसगढ़ी भाषा-साहित्य के लिए, हरिजनों से जुड़े कार्यक्रमों के लिए जाते ही रहते थे। दो बार का सांसद अपनी जिंदगी बिना किसी निजी गाड़ी के गुजार गया, और छोडक़र भी नहीं गया, ऐसी मिसाल छत्तीसगढ़ में शायद ही कोई दूसरी होगी। 

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केयूरभूषण सार्वजनिक जीवन में लगातार सक्रिय रहते हुए निजी और सार्वजनिक कार्यक्रमों में सबसे सहज और सबसे सुलभ चेहरा बने रहे। उन्होंने कभी लोगों के नाजायज सरकारी काम करवाने में कोई दिलचस्पी नहीं ली, इसलिए उनकी कांग्रेस पार्टी के अधिक लोगों की उनमें कोई दिलचस्पी नहीं रही। पार्टी लोकसभा चुनाव का टिकट दे देती थी, तो पार्टी के लोग काम करने लगते थे। 

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दो बार सांसद रहने के बाद एक बार वे चुनाव हारे, और फिर अगले एक संसदीय चुनाव में वे कांग्रेस पार्टी छोडक़र निर्दलीय लड़े, और जैसी कि उनको छोडक़र बाकी हर किसी को उम्मीद थी, उनकी जमानत जब्त हो गई। छत्तीसगढ़ में किसी की भी इतनी ताकत नहीं है कि निर्दलीय लोकसभा चुनाव जीत सके। केयूरभूषण को कुल 606 वोट मिले थे, जितने वोट पाकर कोई वार्ड का चुनाव भी न जीत सके। लेकिन उनका कहना था कि वे सिद्धांत की लड़ाई लड़ रहे थे। 

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छत्तीसगढ़ में किसी निर्दलीय के लोकसभा चुनाव जीतने का केवल एक मौका ऐसा था जब बस्तर में महेन्द्र कर्मा कांग्रेस छोडक़र, दिल्ली में कांग्रेस छोडक़र एक नई पार्टी बनाने वाले माधवराव सिंधिया के साथ गए थे, और बिना किसी पार्टी निशान के वे आदिवासियों से जुड़े कुछ मुद्दों पर एक आक्रामक अभियान चलाकर सांसद बने थे। लेकिन न तो रायपुर संसदीय सीट ऐसी थी कि यहां ऐसा कोई आक्रामक मुद्दा रहे, और न ही केयूरभूषण वैसे आक्रामक उम्मीदवार थे। उनके बारे में लिखा हुआ पढऩे में लोगों को अधिक स्वाद नहीं आएगा, क्योंकि उनकी जिंदगी में न तो रंगीनियां थीं, न ही कोई बड़े विवाद थे, लेकिन सच तो यह है कि छत्तीसगढ़ के लोगों के मन में केयूरभूषण आखिरी तक सम्मान के हकदार बने रहे, जो कि कम ही लोगों के साथ होता है।

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मेरा उनसे हमेशा सम्मान का अनौपचारिक रिश्ता बने रहा। पिछले अखबार में काम करते हुए जब वहां एक नया अखबार शुरू किया, तो मैंने केयूरभूषण को वहां सिटी रिपोर्टर नियुक्त किया। बुढ़ापे में, शायद 60 बरस से अधिक की उम्र में एक भूतपूर्व सांसद नियमित रूप से कुछ समय तक सिटी रिपोर्टिंग करते रहे। मैं उन्हें मुद्दे बता देता था, और वे गंभीरता से उस पर रिपोर्ट बनाकर लाते थे। अखबार में काम करने वाले बाकी दर्जनों लोगों में से कोई भी ऐसे नहीं थे जो कि साइकिल पर चलते हैं, लेकिन धोती और कमीज में साइकिल पर चलते हुए वे मेहनत से रिपोर्ट बनाते थे। लोग अखबार में समाचारों के साथ सिटी रिपोर्टर-केयूरभूषण पढक़र हैरान भी होते थे, लेकिन उन्हें मेहनत करने में कोई हिचक नहीं थी। उनके साथ मेरी यादें बहुत सी हैं, लेकिन आज वक्त इतना ही है। 
-सुनील कुमार

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