श्रवण गर्ग
-श्रवण गर्ग
कर्नाटक फ़तह के बाद विंध्य पार करते ही कांग्रेस इस नतीजे पर पहुँच गई कि नफ़रत का कोई बाज़ार अब कहीं मौजूद नहीं है, मोहब्बत की दुकानें ही चारों तरफ़ खुली हुई हैं। साथ ही यह भी कि भाजपा से मुक़ाबले के लिए अब ज़रूरत सिर्फ़ हिंदुत्व के उससे भी बड़े शो रूम्स खोलने की है। कर्नाटक में राहुल गांधी ने ‘नफ़रत के बाज़ार’ में ‘मोहब्बत की दुकान’ खोली थी। नफ़रत के बाज़ार का प्रतीक वहाँ तब सत्तारूढ़ भाजपा सरकार को बताया गया था। राहुल की दुकान वहाँ चल भी निकली। कांग्रेस ने भारी बहुमत से ऐसी जीत हासिल की कि भाजपा ऊपर से नीचे तक हिल गई और ‘आजतक’ संभल नहीं पाई। हिमाचल और पंजाब में हुई पराजयों में भी भाजपा ने कर्नाटक जैसा धक्का नहीं महसूस किया होगा !
बारह जून को प्रियंका गांधी ने मध्य प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी जबलपुर में 101 ब्राह्मणों के साथ प्रदेश की जीवन रेखा माँ नर्मदा का पूजन कर कांग्रेस के चुनावी अभियान की शुरुआत की। जबलपुर शहर में बजरंगबली की तीस-तीस फीट की गदा भी प्रतीक स्वरूप लगाई गई । कर्नाटक में राहुल गांधी ने भाजपा के बजरंगबली के नारे को मोहब्बत की दुकान की धर्मनिरपेक्षता से चुनौती दी थी। जबलपुर में कांग्रेस भी बजरंगबली के चरणों में हाज़िर हो गई !
प्रियंका के साथ फोटो फ़्रेम में मुख्यमंत्री पद के एकमात्र दावेदार 77-वर्षीय कमलनाथ ही थे। कमलनाथ के हिंदुत्व प्रेम और उसके सार्वजनिक प्रदर्शन से प्रदेश की जनता भली-भाँति परिचित है। साल 2018 के विधानसभा चुनाव में जीत के बावजूद साल भर बाद ही हुए 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस सिर्फ़ एक स्थान को छोड़ बाक़ी सभी (28) पर हार गई थी। वह एक जगह कमलनाथ के चुनाव क्षेत्र छिन्दवाड़ा में उनके बेटे की जीत की थी। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ की कुल 65 लोकसभा सीटों में तब कांग्रेस को सिर्फ़ तीन प्राप्त हुईं थी जबकि तीनों ही राज्यों में हुकूमत कांग्रेस की थी।
जिस समय प्रियंका गांधी जबलपुर के गौरी घाट पर नर्मदा की पूजा-अर्चना कर कांग्रेस के चुनावी हिंदुत्व के शो रूमका फ़ीता काट रहीं थीं, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह वहाँ से सिर्फ़ सवा सौ किलोमीटर दूर स्थित विजयराघवगढ़ के समीप हिनौता की राजा राम पहाड़ी पर भजन गा रहे थे :’ जपो री मेरी माई ,राम भजन सुखदायी। ये जीवन दो दिन का !’ शिवराज जानते हैं कि जीवन चाहे दो दिन का हो, सत्ता पाँच साल तक खींची जा सकती है और इस चुनाव के बाद उन्हें पाँचवीं बार मुख्यमंत्री बन कर रिकॉर्ड क़ायम करना है।
साल के आख़िर में 230 सीटों वाली विधानसभा के लिए होने वाले चुनावों में प्रदेश की साढ़े आठ करोड़ जनता के लिए यही तय करना बचा है कि किस पार्टी का हिंदुत्व उसे ज़्यादा उजला दिखाई देता है ! कर्नाटक में तो देवेगौड़ा का जनता दल (एस) भी मैदान में था पर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में तो मुख्य मुक़ाबला सिर्फ़ दोनों दलों के हिंदुत्व के बीच ही होना है। छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस ने भाजपा की टक्कर में हिंदुत्व का बड़ा मॉल ही खोल दिया है। कांग्रेस मानकर ही चल रही है कि तीनों राज्यों के अल्पसंख्यक तो उसका ही साथ देने वाले हैं। उनके पास कोई तीसरा विकल्प ही नहीं है।
ऐतिहासिक ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और कर्नाटक चुनावों के बाद से जिस नई कांग्रेस के जन्म की प्रतीक्षा की जा रही थी वह लोकसभा चुनावों के बाद तक के लिए टल सकती है ! कांग्रेस ने इशारा कर दिया है कि कर्नाटक यात्रा का पहला पड़ाव था ,अंतिम नहीं । कांग्रेस प्रतिद्वंद्वी भाजपा के इस भरोसे को नहीं तोड़ना चाहती होगी कि चुनावों को जीतने के लिए देश की सबसे पुरानी पार्टी को अगर रणनीति के तौर पर कट्टर हिंदुत्व का सहारा भी लेना पड़े तो उसमें कुछ अनैतिक नहीं होगा।
जो प्रकट होता दिखाई देता है वह यह कि जिस बदली हुई कांग्रेस की बात राहुल गांधी लंदन, अमेरिका या वायनाड में करते हैं वह जबलपुर ,रायपुर और जयपुर में दिखने वाली कांग्रेस से मेल नहीं खाती ! भाजपा सब जगह एक जैसी दिखती है। भाजपा की चुनावी रणनीति और उसकी विचारधारा अलग-अलग नहीं नज़र आती।
आश्चर्यजनक लग सकता है कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस को न तो बजरंग दल में कोई खोट नज़र आती है और न ही ‘द केरला स्टोरी’ में ही कुछ भी आपत्तिजनक दिखाई पड़ता है। (छत्तीसगढ़ की एक महिला कांग्रेस विधायक ने हाल ही में एक धर्मसभा में हिंदू राष्ट्र की माँग करते हुए कहा कि जो जहां है , जिस गाँव में है वहीं से हिंदू राष्ट्र बनाने का संकल्प ले। हम हिंदू एक रहें तभी हिंदू राष्ट्र बन सकता है।)
भाजपा की ताक़त को लेकर कमलनाथ, भूपेश बघेल और अशोक गहलोत जनता के मुक़ाबले ज़्यादा डरे हुए हैं। राहुल गांधी स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के अपने भाषण में सत्ता के ‘फ़ोर्स’ और जनता के ‘पॉवर’ के बीच का फ़र्क़ तो समझाते हैं पर जबलपुर में कांग्रेस जनता के धर्मनिरपेक्ष पॉवर के बजाय भाजपा के हिंदुत्व के फ़ोर्स से ज़्यादा प्रभावित हो जाती है।
हिंदू-बहुल कर्नाटक के सफल प्रयोग ने न सिर्फ़ पीएम के कथित जादुई तिलिस्म को ख़ारिज करते हुए संघ-भाजपा के कट्टर हिंदुत्व को भी ध्वस्त कर दिया, राष्ट्रीय विकल्प के रूप में कांग्रेस की उपस्थिति के प्रति एक नये क़िस्म की उम्मीदें भी बँधाई। इन उम्मीदों की धर्मनिरपेक्ष बुनियादें सिर्फ़ इन कारणों से नहीं हिलने दी जानी चाहिए कि कमलनाथ, बघेल और गहलोत का उद्देश्य किसी भी तरह सिर्फ़ विधानसभा चुनावों को जीतना है।
चुनावों में चूँकि अभी समय है इस नतीजे पर पहुँचने में कोई जल्दबाज़ी नहीं करना चाहिए कि राहुल गांधी भी भाजपा के हिंदुत्व के कार्ड के ज़रिए ही नरेंद्र मोदी को सत्ता से अपदस्थ करना चाहते हैं। कांग्रेस अगर इस तरह के किसी शार्ट कट का इस्तेमाल करेगी तो सफल नहीं हो पाएगी। मोदी या भाजपा की काट हिन्दुत्व नहीं हो सकती। ऐसा होता तो कांग्रेस न तो हिंदू-बहुल हिमाचल में जीत पाती और न ही कर्नाटक में।
राहुल गांधी को लोकसभा जीतना है और मोदी का लक्ष्य भी वही है। राहुल गांधी याद कर सकते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनावों में पार्टी की पराजय के लिए किन नेताओं को किन कारणों से सार्वजनिक रूप से ज़िम्मेदार ठहराते हुए उन्होंने पार्टी के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया था। देश की ज़रूरत इस समय कर्नाटक वाली कांग्रेस है, दिल्ली वाली भाजपा नहीं। मतदाताओं को अगर असली हिंदुत्व और आरोपित हिंदुत्व के बीच ही चुनाव करने को कहा जाएगा तो फिर उन्हें भाजपा के साथ क्यों नहीं जाना चाहिए ?
-श्रवण गर्ग
अचंभे की बात यह नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 26 अप्रैल को नई दिल्ली में आयोजित हुए एक प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान के कार्यक्रम में किसी प्रोफेसर की बेटी द्वारा आत्महत्या किए जाने के संबंध में सुने गए चुटकुले को शेयर किया, प्रसंग का ज़्यादा तकलीफ़देह दृश्य यह था कि सभागृह में उपस्थित संभ्रांत श्रोताओं ने चुटकुले को अपने चेहरों पर खिलखिलाहट बिखेरते हुए तालियों की गूंज के साथ स्वीकार किया !
( प्रधानमंत्री द्वारा सुनाए गए चुटकुले का भाव कुछ यूँ था : ‘बचपन में हम एक चुटकुला सुनते थे। मैं आपको बताना चाहता हूँ ! एक प्रोफेसर थे। उनकी बेटी ने आत्महत्या कर ली । उसने एक चिट छोड़ी-:‘ मैं ज़िंदगी से थक चुकी हूँ और जीना नहीं चाहती इसलिए कांकरिया तालाब में कूदकर मर जाऊँगी।’ सुबह प्रोफेसर ने देखा कि उसकी बेटी नहीं है। बिस्तर पर उसे पत्र मिला। पिता बहुत ग़ुस्से में थे -:’मैं एक प्रोफेसर हूँ ,इतने सालों तक मैंने कड़ी मेहनत की है और अब भी उसने कांकरिया की स्पेलिंग ग़लत लिखी है।’ ”) कांकरिया गुजरात में अहमदाबाद स्थित एक सुरम्य तालाब है ।
प्रधानमंत्री द्वारा बचपन में सुने गए चुटकुले का उक्त समारोह में संदर्भ यही समझा जा सकता था कि जिस टीवी चैनल के प्रधानमंत्री मुख्य अतिथि थे उसके ग़ैर-हिन्दीभाषी प्रमुख ने अब ‘शानदार हिन्दी बोलना शुरू कर दिया है।’
पूछा जा सकता है कि कार्यक्रम में ऐसा हो जाना क्या सर्वथा असंभव था कि प्रधानमंत्री द्वारा सुनाए जा रहे चुटकुले की समाप्ति के साथ ही सभागृह में ,क्षण भरके लिए ही सही , थोड़ा-सा सन्नाटा, खामोशी या मौन छा जाता ? उपस्थित श्रोताओं ,विशेषकर ‘बेटियों’, की पीठ उनकी कुर्सियों से चिपक जाती ? अपने कहे पर प्राप्त तात्कालिक प्रतिक्रिया को तुरंत भाँप कर चुटकुले के पीछे छुपे किसी अज्ञात मर्म की व्याख्या प्रधानमंत्री को करना पड़ जाती ? ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। समारोह के बारे में एक वेबसाइट पर जारी हुई रिपोर्ट में कहा गया कि श्रोताओं की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच प्रधानमंत्री भी हंसते नज़र आ रहे थे।
प्रधानमंत्री ने चुटकुला चाहे किसी अलग संदर्भ में याद करते हुए समारोह में सुनाया हो, सवाल यह है कि क्या श्रोताओं-दर्शकों के तौर पर हम पूरी तरह से संवेदनशून्य होते जा रहे हैं ? किसी भी तरह की पीड़ा(जिसमें नागरिकों का कोरोना के वक्त सैंकड़ों मील भूखे-प्यासे पैदल चलना, रेल-सड़क दुर्घटनाओं में दम तोड़ना और दिन-दहाड़े हो जाने वाली मॉब-लिंचिंग भी शामिल की जा सकती है) से प्रभावित होना हमने बंद कर दिया है ? किसी बेटी द्वारा ज़िंदगी से थककर आत्महत्या करने जैसा अतिसंवेदनशील विषय भी क्या हमारे लिए खीसे निपोरने का सामान बनकर रह गया है ?
ऐसा क़तई नहीं समझा जाए कि दिल्ली और मुंबई में उपस्थित होने वाले समारोही भारतीयों और योरप के किसी ऐसे मुल्क में सालों से बसे एनआरआइ के बीच कोई बड़ा फ़र्क़ है जहां मानवीय अधिकारों और संवेदनाओं के प्रति सम्मान के मामलों में मनुष्यों और पशु-पक्षियों के बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता है। एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा :
प्रधानमंत्री पिछले साल लगभग इन्हीं दिनों (3 मई) बर्लिन की यात्रा पर थे। बर्लिन और उसके आसपास बसने वाले भारतीय समुदाय (इंडियन डायसपोरा) के कोई हज़ार-बारह सौ नागरिकों के एक कार्यक्रम में मोदी ने उनकी सरकार के नेतृत्व में हुए विकास-कार्यों और प्राप्त उपलब्धियों की उपस्थित श्रोताओं को जानकारी दी। प्रधानमंत्री ने अपने उद्बोधन में सरकार द्वारा भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ की गई कार्रवाई के ज़िक्र के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री स्व.राजीव गांधी का नाम लिए बग़ैर जो टिप्पणी की और उनके कहे पर श्रोताओं ने जिस प्रकार से तालियाँ बजाईं थी उसकी गूंज का मिलान शायद मीडिया संस्थान के कार्यक्रम से किया जा सकता है।
अकाल और भुखमरी के लिए तब बदनाम उड़ीसा के कालाहांडी ज़िले की यात्रा के बाद राजीव गांधी ने कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में पीड़ा ज़ाहिर की थी कि दिल्ली से भेजा जाने वाला एक रुपया बिचौलियों के भ्रष्टाचार के कारण ज़रूरतमंदों के हाथों नीचे पहुँचने तक सिर्फ़ पंद्रह पैसे रह जाता है। बर्लिन के कार्यक्रम में अपनी सरकार द्वारा गवर्नेंस में तकनीकी उपयोग के ज़रिए आर्थिक मदद लाभार्थियों के बैंक खातों में सीधे पहुँचाने का उल्लेख करते हुए मोदी ने व्यंग्य के साथ टिप्पणी की थी :’अब किसी प्रधानमंत्री को यह नहीं कहना पड़ेगा कि मैं दिल्ली से एक रुपया भेजता हूँ और नीचे पंद्रह पैसे ही पहुँचते हैं !’
प्रधानमंत्री वहीं नहीं रुके ! उन्होंने जब अपने दाएँ हाथ के पंजे को चौड़ा करके उसे बाएँ हाथ की अंगुलियों से कुछ क्षणों तक घिसते हुए पूछा :’ वह कौन सा पंजा था जो 85 पैसा घिस लेता था’, तो बर्लिन के उस भव्य सभागृह में उपस्थित भारतीयों ने अपनी मुखर खिलखिलाहट के साथ 26 अप्रैल जैसी ही गूंज उत्पन्न की थी।
कोरोना जैसी किसी राष्ट्रीय आपदा के समय देश का नायक अगर अपने नागरिकों से घरों के दरवाज़ों पर दीपक प्रज्ज्वलित करने या बालकनियों में खड़े होकर थालियाँ बजाने का आह्वान करता है या कभी कहता है कि :’ जब वे अपने भाई-बहनों की तरफ़ देखते हैं तो उन्हें महसूस होता है कि ये कैसा प्रधानमंत्री है जिसने इतनी कठिनाइयों में डाल दिया है’, तो जनता की तरफ़ से अत्यंत भावपूर्ण प्रतिक्रिया की अपेक्षा ही की जाती है।
सवाल यह है कि नागरिकों से ऐसे अवसरों पर संवेदनशून्य होकर तालियाँ बजाने वाली भीड़ बन जाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है जब उनका नायक जीवन से थककर आत्महत्या करने का निर्णय लेने वाली किसी प्रोफेसर की बेटी का चुटकुला सुना रहा हो या कि देश के राजनीतिक इतिहास के किसी दुर्भाग्यपूर्ण कालखंड में अकाल-पीड़ितों की मदद में हुए भ्रष्टाचार जैसी घटनाओं की समाप्ति को अपनी सरकार की उपलब्धियों में इस तरह से गिना रहा हो ?
एक विश्व नागरिक के तौर पर क्या हम एक बीमार समाज में परिवर्तित होते जा रहे हैं ? सर्वाधिक आबादी के मामले में अब दुनिया के पहले नंबर के देश के लोग धरती पर बसे बाक़ी 192 मुल्कों में सबसे आख़िरी नंबर के केवल कुछ हज़ार की जनसंख्या वाले राष्ट्रों के नागरिकों के लिए किस तरह के आदर्श स्थापित करना चाहते हैं ?
-श्रवण गर्ग
गुजरात और हिमाचल की विधानसभाओं ,दिल्ली म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन (एमसीडी) और मैनपुरी (यूपी) की लोक सभा सीट सहित कुछ राज्यों (राजस्थान, उड़ीसा, छत्तीसगढ़) के उप-चुनावों के नतीजों के बाद देश के मतदाताओं का भाजपा के नाम संदेश क्या समझा जा सकता है ? सच्चाई है कि प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत छवि ने गुजरात में चुनाव परिणामों के पिछले सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिये हैं पर इस सवाल का जवाब मिलना बाक़ी है कि क्या देश के दूसरे हिस्सों में नरेंद्र मोदी का प्रभाव और भाजपा की पकड़ कमजोर पड़ने लगी है ! क्या पार्टी स्वीकार करना चाहेगी कि गुजरात में हासिल हुई 156 सीटों की उपलब्धि को हिमाचल, दिल्ली और अन्य राज्यों के उप-चुनावों की हार ने फीका कर दिया है ?
सत्तारूढ़ दल गुजरात की जीत के जश्न में अपनी इस पीड़ा को ज़्यादा दिनों तक छुपा नहीं पाएगा कि प्रधानमंत्री के गृह-राज्य की उपलब्धि के मुक़ाबले राष्ट्रीय अध्यक्ष के गृह-प्रदेश हिमाचल में पिछले साल के उप-चुनावों की करारी हार के बाद हाल के चुनावों में भी पार्टी बुरी तरह से हार गई। पंजाब के बाद उसका पड़ोसी राज्य भी विपक्ष की झोली में चला गया।
मोदी 2014 में हिंदुत्व की लहर पर सवार होकर भारी संसदीय बहुमत के साथ देश पर राज करने के लिए गुजरात विधानसभा से दिल्ली में संसद भवन पहुँचे थे। उनके सशक्त नेतृत्व के बावजूद पार्टी दिल्ली की विधानसभा पर तो इतने सालों में क़ब्ज़ा कर ही नहीं पाई ,एमसीडी भी पंद्रह साल की हुकूमत के बाद हाथ से निकल गई। प्रधानमंत्री ने हिमाचल में अपनी पूरी ताक़त झोंक दी थी और इधर दिल्ली में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष, राजनाथ सिंह, अमित शाह जैसे दिग्गजों के साथ ही कई मुख्यमंत्रियों और सांसदों ने पूरी ताक़त लगा रखी थी। भाजपा दोनों ही जगहों पर हार गई।
भाजपा के लिए गुजरात की जीत तो चुनावों की घोषणा से पहले से ही तय थी, वहाँ चुनौती सिर्फ़ 1985 में कांग्रेस के मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी द्वारा क़ायम किए गए 149 सीटों के रिकॉर्ड को तोड़ने की बची थी। राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार के लिए वहाँ जाकर ठीक ही किया। जाते तो ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के प्रभाव की भद्द पिट जाती। गुजरात के मामले में मोदी को वहाँ की जनता की ओर से ‘इच्छा-सत्ता’ का वरदान प्राप्त है पर मोदी को गांधीनगर वापस नहीं लौटना है।
चुनाव के नतीजों ,विशेषकर हिमाचल जैसे लगभग 96 प्रतिशत हिंदू आबादी वाले छोटे से राज्य (74 लाख जनसंख्या) में कांग्रेस जैसी धर्मनिरपेक्ष पार्टी द्वारा भाजपा के हिंदुत्व के ज़बर्दस्त प्रचार को चुनौती देते हुए 68 में से 40 सीटें प्राप्त कर लेना भाजपा के 2024 के संसदीय संग्राम के लिए कठिन परीक्षा पैदा करने वाला है। हिमाचल में पार्टी की हार पर प्रधानमंत्री की संक्षिप्त प्रतिक्रिया में पीड़ा को पढ़ा जा सकता है कि भाजपा को वहाँ सिर्फ़ एक प्रतिशत मत ही कम मिले। दिल्ली में तो भाजपा के मतों में तीन फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हो गया (39.09 प्रतिशत) फिर भी आम आदमी पार्टी का वोट शेयर उससे ज़्यादा (42.05 प्रतिशत ) रहा।
सवाल यह है कि अगर भाजपा के ख़िलाफ़ एंटी-इंकम्बेंसी कॉमन मुद्दों को लेकर थी तो पार्टी सिर्फ़ गुजरात में ही उसका तोड़ क्यों निकाल पाई ? पार्टी दिल्ली, हिमाचल, मैनपुरी और बाक़ी जगहों पर क्यों फेल हो गई ? राजस्थान जहां कि गहलोत और पायलट के बीच सत्ता का संघर्ष चल रहा है, वहाँ के उप-चुनाव में भी कांग्रेस कैसे जीत गई ? दूसरे यह भी कि अगर गुजरात की जबर्दस्त सफलता के पीछे करण प्रभावी चुनावी प्रबंधन और टिकटों के बँटवारे में जातिगत समीकरणों का चतुर विभाजन था तो उसी रणनीति को अन्य स्थानों पर क्यों नहीं अपनाया गया ? कहा जा रहा है कि गुजरात की चुनावी रणनीति को अब आगे के सभी चुनावों में दोहराया जाएगा।
भाजपा के लिए चिंता का विषय हो सकता है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ की विधानसभाओं के लिए अगले साल होने वाले चुनावों को भी हाल के परिणाम प्रभावित कर सकते हैं। गौर किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री की लोकप्रियता को लेकर आयोजित/प्रायोजित होने वाले मीडिया सर्वेक्षणों ने अचानक से रहस्यमय चुप्पी साध ली है। पूछा जा सकता है कि अगर लोकसभा के लिए तत्काल चुनाव करवा लिए जाएँ तो नतीजे गुजरात की तर्ज़ पर प्राप्त होंगे या फिर दिल्ली, हिमाचल की तरह के आएंगे ?
एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि क्या केजरीवाल की राजनीतिक भूख दिल्ली की जीत और गुजरात की पाँच सीटों से ही शांत हो जाएगी या राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल जाने के बाद और तेज़ होने वाली है ? गुजरात में 33 सीटों पर केजरीवाल की पार्टी दूसरे नंबर पर रही है। कांग्रेस को राज्य के 33 ज़िलों में से 15 में सम्मान बचाने लायक़ वोट भी नहीं मिले हैं। आम आदमी पार्टी क्या लोक सभा चुनावों में दिल्ली की सातों सीट और गुजरात की सभी छब्बीस सीटों पर भाजपा को चुनौती नहीं देगी ?
दिल्ली में तो विधानसभा और एमसीडी दोनों पर ही अब केजरीवाल का क़ब्ज़ा है। भाजपा और ‘आप’ के बीच कथित साँठगाँठ की हक़ीक़त भी लोकसभा चुनावों तक सामने आ जाएगी ! हिमाचल विधानसभा चुनावों से ‘आप’ ने जिन भी कारणों से पलायन किया हो ,वह राज्य से लोकसभा की चारों सीटों के लिए पंजाब के साथ ही चुनाव लड़ने वाली है। परिस्थितियां ऐसी ही रहीं तो घाटा भाजपा को ही होगा।
हिमाचल में भाजपा की हार को इस नज़रिए से भी देखा जाना चाहिए कि कांग्रेस न सिर्फ़ समाप्त ही नहीं हुई है, उसने नई ऊर्जा के साथ सत्ता में वापसी भी करके दिखाई है। मोदी की छवि के सामने कांग्रेस की जीत का नेतृत्व प्रियंका गांधी ने किया है। दूसरी ओर, हिमाचल से दूरी बनाए रखते हुए राहुल गांधी ने अपनी ‘भारत जोड़ो यात्रा ‘ में उन्हीं राज्यों के मतदाताओं के साथ संवाद स्थापित किया है जो 2023 और 2024 के चुनावों के लिहाज़ से कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण हैं। कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ को मिलाकर लोकसभा की 141 सीटें 2024 में दांव पर होंगी।
हाल के चुनाव नतीजों ने जिस एक संशय को उजागर कर दिया है वह यह है कि भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर एंटी-इंकम्बेंसी का सामना करना पड़ रहा है।केजरीवाल ने प्रधानमंत्री का (चुनावी) घर देख लिया है और ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और हिमाचल ने कांग्रेस में नई जान भर दी है। मैनपुरी में समाजवादी पार्टी की जीत भी यूपी के लिये कम महत्वपूर्ण नहीं है। देश की राजनीति के लिए अगले बारह महीने काफ़ी एक्शन के होने वाले हैं।
उपसंहार: प्रधानमंत्री के करिश्माई व्यक्तित्व को अगर छोड़ दिया जाए तो भाजपा के पास चुनाव जिता सकने वाले नेताओं की काफ़ी कमी है। यह कमी आगे के चुनावों में और खुलकर सामने आ सकती है ! हिमाचल में भाजपा की हार पर राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की कार्यशैली के कटु आलोचक पार्टी के 88-वर्षीय संस्थापक- नेता शांताकुमार से मीडिया ने प्रतिक्रिया प्राप्त नहीं की !
-श्रवण गर्ग
आने वाले सालों में जब एक दिन प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व का तिलिस्म किसी कमजोर पड़ते तूफ़ान की तरह फ़ीका पड़ने लगेगा या भाजपा को सत्ता हाथों से फिसलती दिखाई देगी, क्या नरेंद्र मोदी या उनकी पार्टी का कोई दूसरा नेता राहुल गांधी की तरह भारत की सड़कों पर पैदल निकल कर जनता का सामना करने की हिम्मत जुटा पाएगा ? क्या उन्हें भी इसी तरह की भीड़ और आत्मीयता की उम्मीद करना चाहिए ? कंठ -कंठ तक कष्टों से भरे लोगों के पास तब तक अपने मन की बात कहने और उनसे पूछने के लिए काफ़ी सवाल जमा हो जाएँगे।
प्रधानमंत्री ने मई 2014 में अपनी संसदीय पारी देश को कांग्रेस से मुक्त करने के संकल्प के साथ प्रारंभ की थी। अपने साढ़े आठ साल के एकछत्र शासनकाल के दौरान वे तो विपक्ष-मुक्त भारत की स्थापना नहीं कर पाए पर राहुल गांधी से उम्मीद की जा सकती है कि युवा नेता अपनी पाँच महीनों की पैदल यात्रा से ही कांग्रेस और देश को भाजपा से भय-मुक्त कर देंगे। किसी समय जो डर कांग्रेस के चेहरे पर उसके अस्तित्व को लेकर पैदा कर दिया गया था वही इस समय उन भाजपा सरकारों की पेशानियों से टपकता नज़र आ रहा है जहां-जहां से राहुल की यात्रा गुज़र रही है। कोई आश्चर्य नहीं कि मुख्यमंत्रियों को राहुल के चेहरे में सद्दाम हुसैन नज़र आने लगे हैं। अभी तो काफ़ी यात्रा भी बची हुई है।
सचाई यह भी है कि राहुल गांधी की एक यात्रा भर से ही दिल्ली की सल्तनत कांग्रेस को हासिल नहीं होने वाली। मल्लिकार्जुन खड़गे ने चाहे घोषणा कर दी हो कि 2024 के लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे, दूर की कौड़ी है कि नए कांग्रेस अध्यक्ष की कामना आसानी से पूरी भी हो जाएगी। पाँच महीनों की एक पदयात्रा से इतने बड़े फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। अगर पदयात्राओं में ही स्वराज और सरकारें उगलने का सामर्थ्य उत्पन्न हो जाता तो महात्मा गांधी अंग्रेजों का बनाया नामक क़ानून तोड़ने के लिए साबरमती से डांडी तक 385 किलोमीटर ही चलने के बजाय कन्याकुमारी से लाहौर तक सात हज़ार किलो मीटर की पैदल यात्रा पर निकलते। ग्राम स्वराज आंदोलन के प्रणेता आचार्य विनोबा भावे की भूदान यात्रा भी व्यापक जन-समर्थन के बावजूद अपने उद्देश्यों में पूरी सफल नहीं हो पाई।
राहुल की यात्रा ने दो बड़े काम कांग्रेस के हित में और दो अन्य देश की जनता और संघ-भाजपा के लिए अवश्य कर दिखाए हैं। महाराष्ट्र प्रवास के दौरान सावरकर को लेकर की गई विवादास्पद टिप्पणी को अगर छोड़ दिया जाये तो राहुल ने अपनी अब तक की क़रीब बाईस सौ किलोमीटर की यात्रा में कोई ऐसी बड़ी रणनीतिक चूक नहीं की जिसे भाजपा का चतुर मीडिया सेल और क्रूर गोदी मीडिया के अराजक रिपोर्टर-एंकर ढूँढ़-ढूँढ़कर अपनी नक़ली खोजी पत्रकारिता की राई का पहाड़ खड़ा कर सकें।
राहुल की यात्रा ने कांग्रेस के लिए जो दो काम किए उनमें एक वही है जिसका कि ज़िक्र उन्होंने इंदौर की पत्रकार वार्ता में स्वयं कर दिया था। हज़ारों करोड़ खर्च करके जनता के बीच राहुल की छवि को भ्रष्ट करने की जितनी मेहनत सत्तारूढ़ दल के प्रचार तंत्र ने पिछले आठ वर्षों में की थी उस पर बिना कोड़ी खर्च के जनता द्वारा ही पानी फेर दिया गया। भाजपा द्वारा बड़े अरमानों से गढ़े गए ‘पप्पू’ को यात्रा ने एक बहादुर नायक में बदल दिया, सड़कों की राजनीति का चतुर खिलाड़ी बना दिया। कांग्रेस के अंदरूनी और विपक्ष के बाहरी विरोधियों का परेशान होना स्वाभाविक है।
कांग्रेस के लिए दूसरा काम यात्रा ने यह किया कि पार्टी कार्यकर्ताओं को भाजपा और सरकारी एजेंसियों के ख़ौफ़ के प्रति काफ़ी हद तक सहज कर दिया। भाजपाई मुख्यमंत्रियों की गोद में झूलने को बेताब रहने वाले पार्टी नेताओं के चाल-चलन पर भी शर्म की काफ़ी लगाम लग गई। समर्पित कार्यकर्ताओं के चेहरों पर मुस्कुराहटें फिर नज़र आने लगीं और पलायन भी थमने लगा। कांग्रेस से दल-बदल करवाने के लिए भाजपा को अब और ज़्यादा मेहनत करना पड़ेगी।
देश-हित में राहुल की यात्रा का योगदान यह माना जा सकता है कि नागरिक सत्तारूढ़ दल और उसके आनुषंगिक संगठनों के उग्रवादी कार्यकर्ताओं से कम डरने लगेंगे। गौर किया जा सकता है कि सांप्रदायिक विद्वेष की घटनाओं में कमी दिखाई देने लगी है। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे भाजपा शासित और सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील प्रदेशों में भी यात्रा का हज़ारों नागरिकों द्वारा पूरे रास्ते बिना किसी भय के स्वागत किया गया। दल बदल नहीं करवाया गया होता तो दोनों राज्यों में इस समय जनता द्वारा चुनी गईं ग़ैर-भाजपाई सरकारें ही सत्ता में होतीं। इसे यात्रा की उपलब्धि माना जा सकता है कि नागरिकों ने बिना डरे अपनी बात कहना और समर्थन व्यक्त करना प्रारंभ कर दिया है।
संघ और भाजपा के लिए रणनीतिक चिंता का विषय हो सकता है कि उसे 2024 की चुनावी लड़ाई सीधे जनता के साथ सड़कों पर लड़ना पड़ सकती है और मतदाताओं को मंत्रमुग्ध करने वाली प्रधानमंत्री की ओजस्वी वाणी ज़्यादा प्रभावी साबित नहीं हो पाए। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ से कांग्रेस को एक नया हथियार हासिल हो गया है। गुजरात और हिमाचल के चुनाव परिणामों के साथ आठ दिसंबर के बाद से चीजें ज़्यादा साफ़ होने लगेंगी और उसी दौरान राहुल की पदयात्रा भी जारी रहने वाली है। अनुमान यह भी लगाया जा सकता है कि राहुल की यात्रा की समाप्ति लोकसभा के निर्णायक चुनावों के बाद ही हो और वे तब तक राजनीति के और ज़्यादा चतुर खिलाड़ी बन जाएंगे।
ऊपर की बात को इस तरह समझा जा सकता है : राहुल गांधी बीच यात्रा से संजय राऊत को फ़ोन करके उनकी तबीयत का हाल पूछ लेते हैं और उसके बाद उनके द्वारा सावरकर पर की गई टिप्पणी के कारण उत्पन्न हुआ सहयोगी दल शिवसेना का ग़ुस्सा पूरा ठंडा पड़ जाता है। यात्रा के राजस्थान में प्रवेश के ठीक पहले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने पूर्व उप-मुख्यमंत्री सचिन पायलट को सार्वजनिक रूप से ग़द्दार घोषित कर देते हैं और राहुल गांधी इस पर पूछे गये एक सवाल का जवाब यह देते हैं कि कांग्रेस के लिए दोनों ही असेट हैं। इस तरह के राजनीतिक रूप से समझदार राहुल गांधी की देश द्वारा कल्पना क्या 7 सितंबर 2022 के पहले की जा सकती थी जब कांग्रेस नेता ने कन्याकुमारी से अपनी बहु-चर्चित भारत जोड़ो यात्रा प्रारंभ की थी ?
-श्रवण गर्ग
अमेरिका में ईस्ट कोस्ट पर वर्जीनिया के एक स्कूल के कोई सौ बच्चों ने आठ हज़ार मील दूर मानवाधिकारों की रक्षा की लड़ाई लड़ने के आरोप में चीनी सरकार द्वारा सख़्त पहरे के बीच हांगकांग की एक जेल में अगस्त 2020 से बंद एक अरबपति मीडिया मालिक को अपने आत्मीय समर्थन के पोस्टकार्ड लिखकर भेजे हैं। बच्चे मीडिया मालिक को नहीं जानते हैं। मीडिया मालिक धार्मिक वृत्ति के हैं और ईश्वर की उपस्थिति में गहरा यक़ीन रखते हैं।
मीडिया मालिक पर आरोप हैं कि उन्होंने हांगकांग में चल रहे चीन से आज़ादी के आंदोलन के दौरान बीजिंग के तियानमेन स्क्वायर पर साल 1989 में (15 अप्रैल से 4 जून तक) हुए विशाल छात्र-विद्रोह के शहीदों की स्मृति में मोमबत्ती जलाकर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की थी। मीडिया उद्योगपति हांगकांग की सर्वाधिक सुरक्षा वाली स्टेनली जेल की एक कोठरी के एकांतवास में बंद हैं। वे ख़ाली समय में रेखाचित्र बनाते रहते हैं। उनका बनाया ईसा मसीह का एक रेखाचित्र एक मानवाधिकार पत्रिका में प्रकाशित होने के बाद वर्जीनिया के स्कूल में पढ़ाई करने वाली एक छात्रा की माँ (एप्रिल पोन्नुरू )के ज़रिए बाक़ी बच्चों तक पहुँच गया। बच्चों ने फिर उसे पोस्टकार्डों पर प्रकाशित कर अपनी भावनाओं के साथ उन्हें हांगकांग की जेल के अधिकारियों के पास भिजवा दिया। दूसरे स्कूलों के बच्चे भी अब इस पोस्टकार्ड अभियान के साथ जुड़ रहे हैं।
बच्चों को हाल ही में जानकारी दी गई कि अमेरिकी डाक सेवा को सौंपे जाने के कोई तीन महीनों में उनके भेजे गए पोस्टकार्ड उस कारागृह तक पहुँच गए जहां वे मीडिया मालिक बंद हैं। जेल अधिकारियों द्वारा मीडिया मालिक को एक दिन में सिर्फ़ एक ही पोस्टकार्ड पढ़ने की अनुमति दी गई है जिससे कि उनका बाहर की दुनिया से सम्पर्क बना रहे।
उद्योगपति का नाम जिम्मी लाई है और उनकी उम्र पचहत्तर साल से अधिक की है। वे (अब) चीनी आधिपत्य वाले हांगकांग के एक बड़े मीडिया समूह के मालिक और मानवाधिकार आंदोलनों के समर्थक हैं। प्रसिद्ध दैनिक ‘एपल डेली’ के संस्थापक-प्रकाशक जिम्मी को अगस्त 2020 में गिरफ़्तार कर लिया गया था। उनके ख़िलाफ़ चीन द्वारा हांगकांग पर थोपे गए राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानूनों के तहत मुक़दमे चल रहे हैं। बीच में उन्हें ज़मानत मिली थी पर उनकी रिहाई के पहले ही उसे निरस्त कर दिया गया। उन्हें कोई न्यायिक सहायता प्राप्त नहीं है। जिम्मी पर दबाव डाला जा रहा है कि वे अपने ऊपर लगाए गए आरोपों को स्वीकार कर लें पर उन्होंने ऐसा करने से इंकार कर दिया। वे सजा भुगतने को तैयार हैं।
( तियानमेन स्क्वायर के ऐतिहासिक युवा विद्रोह (1989) के बाद से ही मन में इच्छा बनी हुई थी कि क्या जीवन में कभी एक बार भी उस स्थल को देखने का अवसर प्राप्त हो सकेगा ! छात्र-विद्रोह की घटना के कोई चौबीस साल बाद अवसर प्राप्त हो गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह के साथ अक्टूबर 2013 में उनके मीडिया दल के एक सदस्य के रूप में पहले मॉस्को और फिर बीजिंग की यात्रा करने का मौक़ा मिला तो सबसे पहला काम तियानमेन स्क्वायर को ठीक से देखने और उन क्षणों को जीने का प्रयास किया जब वहाँ सैंकड़ों छात्रों ने नागरिकों के समर्थन से एक क्रांति की शुरुआत की थी और अपना खून बहाया था। शी जिंगपिंग शायद उसी साल राष्ट्रपति बने थे। मास्को के भव्य क्रेमलिन में पुतिन को नज़दीक से देखने का अवसर प्राप्त हुआ था। दोनों ही नेता इस समय अपने मानवाधिकार दमनों के कारण दुनिया भर में चर्चा में हैं।)
ईश्वर के प्रति आस्था और उससे उत्पन्न होने वाले चमत्कार को लेकर मैंने एक आलेख चार साल पहले दीपावली के अवसर पर ही लिखा था। आलेख थाईलैंड के छोटे बच्चों की एक स्थानीय फुटबॉल टीम के सदस्यों की व्यथा और उनके अप्रतिम साहस पर केंद्रित था जो भारी बरसात से बचने के प्रयासों के चलते एक गहरी गुफा में क़ैद हो गए थे और केवल भगवान बुद्ध के प्रति अपने समर्पण और उनकी प्रार्थनाओं के बल पर ही मौत के साथ भी विनम्रतापूर्वक संघर्ष करते रहे और अंत में विजयी होकर बाहर आ गए।
जून 2018 में ग्यारह से सोलह साल की उम्र के बारह बच्चे और उनके एक पच्चीस-वर्षीय प्रशिक्षक उत्तरी थाईलैण्ड की थाम लुआंग गुफा में अठारह दिनों के लिए बंद हो गए थे। बाहरी दुनिया से उनका पूरा सम्पर्क टूट गया था। दो किलोमीटर लम्बी और आठ सौ मीटर से ज़्यादा गहरी गुफा के अंदर भी जगह-जगह पानी भरा हुआ था। गुफा में अंधेरे का ऐसा साम्राज्य था कि मज़बूत से मज़बूत व्यक्ति भी बग़ैर किसी ईश्वरीय चमत्कार के जीवित नहीं बच सकता था। पूरी दुनिया के विशेषज्ञ तीन दिनों तक बच्चों और उनके प्रशिक्षक की जानें बचाने में जुटे रहे और फिर एक-एक करके सभी को सुरक्षित बाहर निकल लिया गया।
वह कौन सी ताक़त रही होगी जो बच्चों को गुफा के अंधकार से जीवन की रोशनी में बाहर ले आई होगी ? फ़ुटबॉल टीम के ये नन्हें खिलाड़ी बिना किसी आहार और रोशनी के भी अपने बुद्ध की प्रार्थनाओं में लीन रहे और गुफा के बाहर पूरा थाईलैंड और दुनिया भर के करोड़ों लोग उनके जीवन के लिए प्रार्थनाएँ करते रहे। इनमें शायद वे लोग भी शामिल रहे होंगे जिनका ईश्वर और उसके अस्तित्व में यक़ीन नहीं था।
थाई बच्चों और उनके प्रशिक्षक ने स्वास्थ्य परीक्षण सम्बन्धी तमाम औपचारिकताओं को पूरा करने के बाद जो पहला काम किया वह बौद्ध मंदिर में जाकर अपनी प्रार्थनाओं से ईश्वर का धन्यवाद ज्ञापन करने का था।
हांगकांग की जेल में बंद जिम्मी को भी सारी शक्ति ईश्वर के प्रति उनकी असीम आस्था से ही प्राप्त हो रही है। उनके बनाए रेखाचित्र को ही पोस्टकार्ड पर प्रकाशित कर भेजने के पीछे बच्चों की इसी भावना का दर्शन होता है कि वे वर्जीनिया से आठ हज़ार मील की यात्रा कर उनके साहस का समर्थन करने भावनात्मक रूप से हांगकांग के कारावास तक पहुँचे हैं। एप्रिल पोन्नुरू का कहना है कि दया के इस अभियान में भागीदारी का अनुभव बच्चों के लिए भावुकता के क्षणों से भरा हुआ है। बच्चे अपने पोस्ट कार्ड के जवाब में जिम्मी के किसी नए रेखाचित्र की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
-श्रवण गर्ग
पचास साल से ज़्यादा का वक्त होने आया ! जिस एक व्यक्तित्व का चेहरा देश के इन कठिन दिनों में सबसे अधिक स्मरण हो रहा है, जिसकी छवि आँखों की पुतलियों में तैर रही हैं वह जयप्रकाश नारायण (जेपी ) का है। ऐसा होने के पीछे कुछ ईमानदार कारण भी हैं ! साल 1972 में जेपी के समक्ष हुए दस्युओं के ऐतिहासिक आत्मसमर्पण के पहले चम्बल घाटी में बिताया गया लगभग तीन महीने का समय और फिर 1974 में बिहार आंदोलन के दौरान जेपी के सान्निध्य में गुज़र एक लम्बा अरसा , उनके साथ विमान, ट्रेन और कार में कीं गईं यात्राएँ आज भी स्मृतियों में ज्यों की त्यों आज भी क़ायम हैं।
हाल ही की एक यूट्यूब चैनल की बहस में मैंने ज़िक्र किया था कि ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान मैसूर में भारी बारिश के बीच ज़रा भी विचलित हुए बिना भाषण करते बावन साल के राहुल गांधी का चित्र जब दुनिया ने देखा और वायरल हुए उस सभा के वीडियो में हज़ारों ग़ैर-हिंदी भाषी श्रोताओं की भीड़ को निहारा तो मुझे 1974 के इलाहाबाद की एक ऐतिहासिक जनसभा की याद हो आई।
जून 1974 में इलाहाबाद के टंडन पार्क में ‘सम्पूर्ण क्रांति’ आंदोलन के समर्थन में आयोजित हुई छात्रों की विशाल सभा में बहत्तर-वर्षीय जेपी ने मूसलाधार बरसात के बीच भी अपने उद्बोधन को जारी रखा था और श्रोता भी शांत भाव से लोकनायक के कहे एक-एक शब्द के साथ भीगते रहे थे। मेरा लिया जेपी का उस समय का चित्र आज की तरह तब वायरल नहीं हो पाया था। परिस्थितियाँ तब भिन्न थीं। उस समय न मोबाइल था, न टीवी चैनल्स थे और न ही सोशल मीडिया था। इस सबके बावजूद जेपी की ‘सम्पूर्ण क्रांति’ सफल हो गई।
स्मृतियों से बिंधा हुआ है कि 1974 में जेपी के साथ पटना से कलकत्ता के लिए ट्रेन में यात्रा के दौरान मैं देखता था कि रात के बारह-एक बजे भी किस तरह लोकनायक की एक झलक पाने के लिए स्टेशनों पर जगह-जगह लोगों की भीड़ उनके डिब्बे के बाहर जमा हो जाती थी । जेपी और प्रभावती जी के साथ जून 1972 में चूरू (राजस्थान) की यात्रा पर निकलते वक्त पुरानी दिल्ली के प्लेटफ़ार्म पर उपस्थित लोग अपने आप को आश्वस्त नहीं कर पा रहे थे कि ट्रेन की प्रतीक्षा में बिना किसी सुरक्षा और भीड़ के खड़े हुए शख़्स लोकनायक जयप्रकाश नारायण भी हो सकते हैं !
चूरू में उस शाम जेपी ने अचानक से पूछ लिया था : श्रवण कुमार टहलने के लिए चलते हो ? यह एक दुर्लभ क्षण था। मेरे मुँह से शब्द ही नहीं फूट पाए। शहर के बाहर शांत एकांत में जेपी और प्रभावती जी के साथ टहलते वक्त लोकनायक से पूछे गए कई सवालों में साहस करके किया गया एक यह भी था कि क्या इंदिरा गांधी की हुकूमत आपको स्वतंत्रता सेनानी नहीं मानती ? यह वह वक्त था जब दिल्ली में आज़ादी की ‘रजत जयंती’ मनाई जा रही थी और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को ताम्रपत्र दिए जा रहे थे, उनका सम्मान किया जा रहा था।
मेरे सवाल के उत्तर में जेपी कुछ क्षणों के लिए मौन हो गए थे जैसे शून्य में कुछ तलाश कर रहे हों। फिर अपनी चिर-परिचित विनम्रता के साथ बग़ैर मेरी ओर देखे जवाब दिया : ‘शायद ऐसा ही हो।’ जेपी ने दो शब्दों में बहुत बड़ा उत्तर दे दिया था । मैं आगे कुछ भी बोल नहीं पाया। प्रभावती जी जेपी के कहे हरेक शब्द को ध्यान से सुन रहीं थीं। डॉक्टर लोहिया के बारे में पूछे गए एक सवाल का जवाब अब पाँच दशकों के बाद तो ठीक से याद नहीं पर वह दिवंगत समाजवादी राजनेता के प्रति खूब आदर से भरा हुआ था। जेपी की चूरू में उपस्थिति से अणुव्रत आंदोलन के प्रणेता आचार्य तुलसी की पुस्तक ‘अग्नि परीक्षा’ को लेकर उत्पन्न हुआ साम्प्रदायिक तनाव समाप्त हो गया था। जेपी के आग्रह पर आचार्य तुलसी ने अपनी विवादास्पद पुस्तक वापस ले ली थी।
‘बिहार आंदोलन ‘ के दौरान पटना में रहते हुए मैं आंदोलन से सम्बंधित सामग्री के प्रकाशन आदि के कामों में जेपी की मदद कर रहा था। कदम कुआँ स्थित जेपी के निवास स्थान पर उनके दो अत्यंत विश्वस्त सहयोगी ( श्री अब्राहम और सच्चिदा बाबू ) काफ़ी पहले से कार्यरत थे।प्रभाष जोशी जी ने मुझे बिहार आंदोलन की रिपोर्टिंग के लिए दिल्ली से कुछ दिनों के लिए भेजा था पर जेपी ने अपने काम में सहयोग के लिए पटना में ही रोक लिया।
पटना में दोपहर बाद अथवा शाम का कोई वक्त रहा होगा। जेपी अपने निवास स्थान के निचले खंड (ग्राउंड फ़्लोर) पर स्थित बैठक से काम निपटा कर विश्राम के लिए ऊपरी तल पर पर बने शयन कक्ष के लिए सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे। पटना पहुँचे मुझे तब ज़्यादा समय नहीं हुआ था। 15 अप्रैल 1973 को प्रभावती जी के चले जाने के बाद से जेपी अकेले पड़ गए थे। सीढ़ियों के पास खड़ा हुआ मैं जेपी को धीरे-धीरे कदम उठाकर शयन कक्ष की ओर सीढ़ियाँ चढ़ते देख रहा था। मैंने तभी अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहा :’ बाबूजी मैं दिल्ली वापस लौटना चाहता हूँ।’ जेपी कुछ क्षणों के लिए रुक गए, जैसे कुछ समझने की कोशिश कर रहे हों। फिर धीमे से बोले :’ तुम जवान लोग ही अगर चले जाओगे तो फिर यह आंदोलन क्या हम बूढ़े चलाएँगे ?’ मैंने ज़ाहिर नहीं होने दिया कि उनके कहे के बाद मैं अंदर से कितना संताप कर रहा था।
जेपी ने बाद में बुलाकर दिल्ली वापस लौटने की मंशा का कारण पूछा । मैंने बताया कि सर्वोदय के कुछ स्थानीय पदाधिकारी काम में सहयोग नहीं कर रहे हैं इसलिए आंदोलन के प्रकाशनों का काम ठीक से नहीं हो पा रहा है। वे सब कुछ समझ गए। मुझे अपने साथ शयन कक्ष में रखी अपनी निजी अलमारी तक ले गए। फिर चाबी से अलमारी खोल उसमें से रुपयों की एक गड्डी निकाल मुझे सौंप दी और कहा : ‘ये ख़त्म हो जाएँ तो और माँग लेना।’ जेपी ने मेरे पैर बिहार की ज़मीन के साथ हमेशा के लिए बांध दिए थे।
कुछ महीनों के बाद जेपी ने मुझे कहा कि बिहार आंदोलन का एक विश्वसनीय इतिहास लिखा जाना चाहिए। बिहार छोड़ने से पहले मैंने ‘ बिहार आंदोलन एक सिंहावलोकन’ लिखकर पुस्तक की पांडुलिपि जेपी को सौंप दी। जेपी ने पूरी पांडुलिपि पढ़ी और उसे पुस्तक रूप में सर्व सेवा संघ से प्रकाशित करवा दिया। किताब के पहले पन्ने पर जो शब्द उन्होंने अपनी कलम से लिखे मैं जीवन की अंतिम साँस तक के लिए जेपी के स्नेह का ऋणी हो गया। जेपी ने लिखा :’ बड़े परिश्रम और सावधानी से यह पुस्तिका श्रवणकुमार ने लिखी है। बिहार आंदोलन का यह निष्पक्ष और सहानुभूतिपूर्ण सिंहावलोकन है।’
महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने गांधी जी के बारे में 1944 में कहा था :’आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था।’ जेपी एक ऊर्जा थे ,रोमांच थे, आत्मीयता से भरी हुई एक प्रतीक्षा थे।आज़ादी के इतिहास को नए सिरे से लिखने की क्रूरता जब किसी दिन थक कर पस्त हो जाएगी , आइंस्टीन जैसा ही कोई संवेदनशील वैज्ञानिक विनोबा और जेपी जैसे हाड़-मांस वाले व्यक्तियों की उपस्थिति के चमत्कार के बारे में भी लिखेगा। (चित्र जून 1974 में इलाहाबाद के पी डी टंडन पार्क में हुई जेपी की जनसभा का )
-श्रवण गर्ग
असली कांग्रेस किसे माना जाना चाहिए ? क्या उसे जो इस समय राहुल गांधी के नेतृत्व में मल्लिकार्जुन खड़गे के राज्य कर्नाटक में लाखों लोगों के स्वागत के बीच सड़कों से गुज़र रही है या फिर उसे जो नए अध्यक्ष का चुनाव होने के बाद नई दिल्ली में प्रकट होने वाली है ? या दोनों को ही ? कांग्रेस के असली चेहरे को लेकर देश की जनता को भ्रम में डाल दिया गया है। लोग इसी प्रतीक्षा में थे कि नई कांग्रेस का जन्म तो पाँच महीने की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के बाद जनता के बीच से होने वाला है।
वर्ष 1998 में सीताराम केसरी की जगह सोनिया गांधी को अध्यक्ष नियुक्त किया गया था ।तभी से यह पद बिना किसी चुनाव के सोनिया गांधी और राहुल गांधी के बीच बंटता रहा है। ख़ुशियाँ मनाई जा सकतीं हैं कि चौबीस सालों के बाद पहली बार कोई ग़ैर-गांधी अध्यक्ष चुनावों के ज़रिए पार्टी को प्राप्त होने जा रहा है।
गर्व के साथ प्रचार किया गया है कि ‘गांधी परिवार’ के किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप के बिना होने जा रहे चुनाव में खड़गे द्वारा नामांकन दाखिल करते समय पार्टी के सारे वरिष्ठ नेता उपस्थित थे। इनमें मनीष तिवारी, पृथ्वीराज चव्हाण, भूपेन्द्र सिंह हुड्डा और आनंद शर्मा सहित गांधी परिवार को चुनौती देने वाले जी-23 के विद्रोही नेता भी शामिल थे। दावा किया जा रहा है कि 19 अक्टूबर को दिल्ली में एक नई और प्रजातांत्रिक कांग्रेस का जन्म हो रहा है। पहले एक ही कांग्रेस थी । चुनावों के बाद दो हो जाएँगी। एक राहुल की और दूसरी खड़गे के नेतृत्व में ‘परिवार’ के नियंत्रण की। बताया जा रहा है कि आंदोलन चलाने का काम राहुल करेंगे और गांधी परिवार तथा कार्यकर्ताओं के बीच सेतु की भूमिका खड़गे निभाएँगे।
अध्यक्ष पद की उम्मीदवारी को लेकर मचे घमासान से बात साफ़ हो गई थी कि ‘परिवार’ पार्टी संगठन पर अपनी पकड़ को ढीली नहीं पड़ने देना चाहता है। अस्सी-वर्षीय मल्लिकार्जुन खड़गे की एंट्री के बाद चीजों को लेकर ज़्यादा स्पष्टता आ गई है कि 17 अक्टूबर को मुक़ाबला परिवार के प्रति ‘वफ़ादारी’ और विद्रोहियों द्वारा की जा रही पार्टी के ‘सामूहिक नेतृत्व’ की माँग के बीच होना है। सभी मानकर चल रहे हैं कि जीत अंत में ‘वफ़ादारों’ की ही होती है।
कांग्रेस के ताज़ा घटनाक्रम के बाद भाजपा भी राहत की साँस ले सकती है कि नए कांग्रेस अध्यक्ष को लेकर उसे ज़्यादा चिंता करने की ज़रूरत नहीं है। कांग्रेस में कुछ भी बदलने नहीं जा रहा है। चुनाव-प्रचार के लिए उसका यह आरोप भी क़ायम रह सकेगा कि ‘नए’ अध्यक्ष के बाद भी कांग्रेस पार्टी पर ‘पुराने’ परिवार का ही नियंत्रण क़ायम है।
दिग्विजय सिंह ने तैयार स्क्रिप्ट के मुताबिक़, नामांकन पत्र तो प्राप्त कर लिए थे पर अपने आप को पार्टी का अधिकृत उम्मीदवार नहीं घोषित किया। उन्हें जानकारी थी कि वे डमी कैंडिडेट हैं, ‘परिवार’ की अंतिम पसंद नहीं । गांधी परिवार द्वारा खड़गे को अधिकृत उम्मीदवार बनने के लिए तैयार किया जा रहा है। खड़गे के चुनावी मैदान में प्रवेश के साथ ही ज़ाहिर हो गया कि गहलोत के बाद ‘परिवार’ का सबसे ज़्यादा विश्वास किस उम्मीदवार को हासिल है।
दिग्विजय ही अगर अंतिम रूप से भी मैदान में बने रहते तो वे निश्चित ही डमी अध्यक्ष की तरह काम करने को तैयार नहीं होते। परिवार को इस बात का अंदेशा रहा होगा। इसलिए खड़गे को राज़ी किया जाना ज़रूरी था। एक मीडिया साक्षात्कार में दिग्विजय सिंह को कथित तौर पर यह कह कहते हुए उद्धृत किया गया था कि किसी भी नेता को तानाशाह नहीं बल्कि बराबरी वालों के बीच पहला होना चाहिए (the first among equals).
अध्यक्ष पद के चुनावों को लेकर निकले लम्बे चल-समारोह में गहलोत ही सबसे ज़्यादा समझदार साबित हुए। गहलोत ने दिल्ली पहुँचकर गुलाबी नगरी में हुए कठपुतलियों के प्रदर्शन के लिए सोनिया गांधी से माफ़ी भी माँग ली और सचिन के भविष्य को आलाकमान की झोली में डालकर शांत भाव से जयपुर वापस लौट गए। सोनिया गांधी से मुलाक़ात के बाद गहलोत ने इस बात का कोई खुलासा नहीं किया कि क्या उन्होंने सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने की सिफ़ारिश की है और वे अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं।( केरल के प्रसिद्ध अख़बार ‘मलयाला मनोरमा’ ने अपने कुशल फ़ोटोग्राफ़र द्वारा ली गई उस कथित नोट-शीट का चित्र उजागर किया है जिसे सोनिया गांधी से चर्चा के लिए गहलोत बिंदुवार तैयार करके दस जनपथ के अंदर ले गए थे। नोट शीट पर लिखे बिंदु गहलोत द्वारा सोनिया गांधी से हुई चर्चा के बाद पत्रकारों को दिए गए ब्यौरे से अलग कहानी कहते हैं।)
लोगों की रुचि अब इस बात को जानने में है कि क्या अध्यक्ष के चुनाव के बाद कांग्रेस में सब कुछ ठीक हो जाएगा या पार्टी के लिए अंदरूनी और बाहरी चुनौतियाँ बढ़ने वाली हैं ? क्या कांग्रेस एक सशक्त विपक्षी दल के तौर पर भाजपा का मुक़ाबला करने के लिए सक्षम हो सकेगी ? राहुल गांधी अगले महीने के अंत में इक्कीस दिनों के लिए राजस्थान में प्रवेश करने वाले हैं और इस दौरान उनका कोटा की सड़कों से गुजरना भी प्रस्तावित है जहां के एक विधायक गहलोत के कट्टर समर्थक और जयपुर एपिसोड के शिल्पकार शांतिलाल धारीवाल हैं।
खड़गे आलाकमान के पर्यवेक्षक के तौर पर अजय माकन के साथ जयपुर गए थे। उनकी उपस्थिति में ही विद्रोही विधायकों का सारा ड्रामा हुआ था। अब पार्टी के नए अध्यक्ष के रूप में खड़गे की आगामी भूमिका इस बात से तय होगी कि वे गहलोत के मुख्यमंत्री पद ,सचिन पायलट के भविष्य और विद्रोही विधायकों के बारे में क्या फ़ैसला लेते हैं। कहा यही गया था कि गहलोत को लेकर कोई निर्णय एक-दो दिन में हो जाएगा । राजस्थान में नेतृत्व को लेकर लिया जाने वाला कोई आक्रामक फ़ैसला ही अब तय करेगा कि कांग्रेस का संकट ख़त्म हो गया है या और बढ़ने वाला है। उम्मीद यही की जानी चाहिए कि नई दिल्ली में लिए जा रहे फ़ैसलों से राहुल गांधी पूरी तरह से अवगत और सहमत हैं और अपनी यात्रा की समाप्ति पर पाँच महीनों के बाद जब वे दिल्ली लौटेंगे कांग्रेस उन्हें पूरी तरह बदली हुई मिलेगी।
-श्रवण गर्ग
प्रधानमंत्री बारह जुलाई को पटना में थे। वे वहाँ बिहार विधान सभा के शताब्दी समारोह में भाग लेने के लिए पहुँचे थे। इस अवसर पर मोदी की मुलाक़ात तेजस्वी यादव से होनी ही थी। तेजस्वी के साथ बातचीत में प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय जनता दल नेता को सलाह दे डाली कि उन्हें अपना वज़न कुछ कम करना चाहिए। तेजस्वी ने मोदी के चैलेंज को मंज़ूर कर लिया। एक महीने से भी कम वक्त में उन्होंने न सिर्फ़ खुद का वज़न कम करके उसे नीतीश कुमार के साथ बाँट लिया, बिहार का राजनीतिक होमोग्लोबिन भी दुरुस्त कर दिया।
दो मत नहीं कि नीतीश ने तेजस्वी के साथ मिलकर मोदी की 2024 में वापसी के लिए बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। तेजस्वी के साथ मिलकर किए गए राजनीतिक विस्फोट के बाद जब पत्रकारों ने नीतीश से सवाल किया था कि क्या वे 2024 में पीएम पद के उम्मीदवार हैं ? उनके द्वारा एक-एक शब्द तौलकर दिया गया जवाब था :’ मैं किसी चीज़ की उम्मीदवारी की दावेदारी नहीं करता। केंद्र सरकार को 2024 के चुनाव में अपनी सम्भावना को लेकर चिंता करनी चाहिए।’’
लाल क़िले से अपने बहुचर्चित उद्बोधन के दो दिन बाद ही मोदी ने चिंता प्रकट करने की शुरुआत भी कर दी। नितिन गडकरी और शिवराज सिंह चौहान पार्टी की सर्वोच्च नीति-निर्धारक इकाई संसदीय बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति से बाहर कर दिए गए। इन दोनों ही नेताओं और कुछ अन्य मुख्यमंत्रियों -यथा हरियाणा और हिमाचल-के भविष्य को लेकर नई सूचनाएँ भी जल्द ही प्राप्त हो सकतीं हैं। पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधि के तौर पर जिन नए लोगों की संसदीय बोर्ड में भर्ती की गई है उससे पार्टी की ग़रीबी और बेचैनी दोनों ही उजागर होती है।
जिन राज्यों में अगले साल विधानसभा-चुनाव होने हैं वे मोदी की 2024 में वापसी के लिहाज़ से काफ़ी महत्वपूर्ण हैं। 2024 के लिहाज़ से उड़ीसा और आंध्र को फ़िलहाल छोड़ भी दें और वर्तमान में विपक्षी दलों की सरकारों वाले सिर्फ़ नौ राज्यों (बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, पंजाब, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड ) में लोकसभा की सीटों की ही गिनती लगा लें तो आँकड़ा 221 का होता है। उड़ीसा और आंध्र को भी जोड़ लें तो कुल सीटें 267 हो जातीं हैं।
उक्त राज्यों में केवल बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना में ही भाजपा मोदी के करिश्मे के दम पर विपक्ष को थोड़ी चुनौती दे सकती है, बाक़ी राज्यों में नहीं। अन्दाज़ लगाया जा सकता है कि सीटों की ऐसी स्थिति में भाजपा अपने 303 के आँकड़े को कैसे क़ायम रख पाएगी ? नीतीश कुमार ने 2024 को लेकर इतनी बड़ी टिप्पणी करने से पहले कुछ तो होमवर्क किया ही होगा।
जो लोग नीतीश कुमार की राजनीति को जानते हैं वे दावे से कह सकते हैं कि ‘सुशासन बाबू’ की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ नरेंद्र मोदी से भिन्न नहीं हैं।इसीलिए जब बिहार के पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील मोदी ने आरोप लगाया कि नीतीश उपराष्ट्रपति का पद चाहते थे और उनकी माँग भाजपा द्वारा मानी नहीं गई तो किसी ने भी उस पर यक़ीन नहीं किया। नीतीश कुमार द्वारा भाजपा से उपराष्ट्रपति पद की माँग करना ऐसा ही होता जैसे नरेंद्र मोदी 2024 में देश का राष्ट्रपति बनने की इच्छा व्यक्त करें।
दो मत नहीं कि भ्रष्टाचार के मामलों में ममता बनर्जी के करीबी सहयोगियों पर हुई केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई, गिरफ़्तारियों और राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति के चुनावों में तृणमूल कांग्रेस द्वारा निभाई गई संदेहास्पद भूमिका ने 2024 के चुनाव में मोदी के ख़िलाफ़ विपक्ष का नेतृत्व करने के सारे समीकरण बदल दिए हैं।ममता ने तात्कालिक रूप से ही सही अपने को विपक्षी एकता के परिदृश्य से भी बाहर कर लिया है। सोनिया, राहुल और प्रियंका ने सरकार के ख़िलाफ़ सड़क की लड़ाई को चाहे नहीं छोड़ा हो, गांधी परिवार के ख़िलाफ़ जाँच एजेंसियों का दबाव बराबर बना हुआ है। मोदी द्वारा लाल क़िले से घोषित की गई परिवारवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई के असली परिणाम सामने आना अभी शेष हैं। निशाने पर गांधी परिवार ही हुआ तो देश को कोई आश्चर्य नहीं होगा।
उपरोक्त परिस्थितियों में नीतीश अगर विपक्ष की अगुवाई के अवसर को चूक जाते और बिहार में भाजपा के साथ गठबंधन में ही बने रहते तो कहा नहीं जा सकता था कि 2024 के परिणामों के बाद उनका और जद(यू) का भविष्य क्या बचता ! नीतीश कुमार ने इतना तो सुनिश्चित कर ही दिया है कि वे चाहे विपक्ष की ओर से मोदी के ख़िलाफ़ सशक्त दावेदार नहीं बन सकें, जद(यू) और राजद सहित तमाम क्षेत्रीय दलों को भाजपा के बुलडोज़र के नीचे आने से उन्होंने बचा लिया है। इसी तरह, झारखंड की सोरेन सरकार भी आगे की किसी तारीख़ तक के लिए सुरक्षित हो गई है।
इसे महज़ संयोग नहीं माना जा सकता कि नीतीश के पटना में किए गए धमाके के दो दिन बाद ही एक मीडिया समूह द्वारा प्रधानमंत्री की लोकप्रियता को लेकर किया गया सर्वे नई दिल्ली में जारी हो गया। सर्वे में दावा किया गया है कि देश के 53 प्रतिशत लोग अभी भी मोदी को ही 2024 में प्रधानमंत्री के पद पर देखना चाहते हैं। सर्वे में लोकप्रियता के दूसरे क्रम पर राहुल (नौ प्रतिशत)और तीसरे पर केजरीवाल (सात प्रतिशत) को बताया गया है। मोदी को चुनौती देने वालों में भी ममता और राहुल के नामों का ही सर्वे में ज़िक्र है। उल्लेखनीय यह है कि नीतीश कुमार को कहीं पर भी दौड़ में नहीं बताया गया है।
विभिन्न समस्याओं को लेकर जनता में व्याप्त व्यापक असंतोष के बावजूद मोदी की लोकप्रियता की विश्वसनीयता के आँकड़ों पर चाहे जितना संदेह व्यक्त किया जाए, संघ और भाजपा द्वारा पिछले आठ सालों में विकसित किए गए तंत्र ने व्यवस्था के कोने-कोने पर क़ब्ज़ा कर लिया है। विपक्ष के पूरे ताने-बाने को तहस-नहस कर दिया गया है। कहा जाता है कि मोदी सरकार को बचाने और 2024 में उसकी वापसी के लिए देश और दुनिया की बड़ी-बड़ी ताक़तें अपना सब कुछ दांव पर लगा देंगी।
नीतीश राजनीति में इंदिरा गांधी के आपातकाल के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाले जेपी युग की उपज हैं। इस समय की परिस्थितियाँ आपातकाल से भिन्न हैं और कोई जेपी भी देश के पास नहीं है। हक़ीक़त यह है कि देश को इस समय तलाश प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के विकल्प से ज़्यादा किसी जेपी की है।नीतीश कुमार अगर साहस दिखाएं तो वे उस तलाश को पूरा कर सकते हैं। परिवर्तनों के लिए देशव्यापी संघर्ष की ज़मीन भी बिहार में ही उपलब्ध हो सकती है। लालू यादव ने तीस साल पहले आडवाणी के रथ को रोकने का साहस दिखाया था। नीतीश अगर संकल्प कर लें तो लालू के बेटे की मदद से मोदी के रथ को रोकने का साहस दिखा सकते हैं। नीतीश के पास अब खोने के लिए अपनी बची हुई आज़ादी के अलावा कुछ नहीं है। हो सकता है आज के आडवाणी भी उत्सुकता से नीतीश के तेजस्वी क्षण की प्रतीक्षा कर रहे हों।
इस बात को अवश्य संयोग माना जा सकता है कि मोदी की असीमित महत्वाकांक्षाओं के रथ को रोकने में नीतीश की मदद के लिए इंदिरा गांधी के आपातकाल के जमाने की तरह ही कोई विपक्ष भाजपा के भीतर भी करवटें ले रहा हो! यह साफ़ होना अभी बाक़ी है कि उस मदद का सामने से नेतृत्व कौन करेगा और पीठ पर किस ताक़त का हाथ होगा !
-श्रवण गर्ग
सत्ताएँ जब जनता को उसके सपनों की समृद्धि हासिल करवाने में नाकामयाब हो जाती हैं तो वे बजाय अपनी विफलताओं को विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर पश्चाताप करने के किसी वर्ग के विशेष ख़िलाफ़ शस्त्र उठाने का उद्घोष करने वाली धर्म संसदों की आढ़ में छुपने लगतीं हैं या फिर अपने नागरिकों के हाथों में झंडे थमा देती हैं। झंडा तब राष्ट्र के नागरिकों की अंतरात्मा और आकांक्षाओं के प्रतीक के स्थान पर व्यक्तिवादी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का हथियार नज़र आने लगता है।
तिरंगे को लेकर दिए गए बलिदानों की हज़ारों-लाखों भारतीय कहानियाँ खून और आंसुओं से लिखी हुईं और देश भर में बिखरी पड़ीं हैं। हो यह रहा है कि आज़ादी की लड़ाई के दौरान किए गए देशभक्ति के संघर्षों को इस समय राष्ट्रवाद के गोला-बारूद में ढाला जा रहा है। आज़ादी प्राप्ति के अमृतकाल को विभाजन की विभीषिका की पीड़ादायक स्मृतियों से रंगा जा रहा है।
देश के एक सौ चालीस करोड़ नागरिकों की कल्पना का तिरंगा तो पीएम द्वारा किए गए आह्वान के काफ़ी पहले से पटना में सचिवालय के बाहर महान मूर्तिकार देवी प्रसाद रॉय चौधुरी की अभिकल्पना का मूर्त रूप धारण किए सात युवा शहीदों की जीवनाकार कांस्य प्रतिमा में अंकित है। देशभक्ति के जज़्बे से रोमांचित कर देने वाली यह प्रतिमा उन सात युवा छात्रों के संकल्प का दर्शन कराती है जिन्हें ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान तिरंगा फहराने के प्रयास में 11 अगस्त 1942 को अंग्रेजों द्वारा निर्दयतापूर्वक गोलियों से भून दिया गया था। इन सात युवाओं में तीन, कक्षा नौ में पढ़ाई करते थे। पच्चीस अन्य युवा तब गंभीर रूप से घायल हो गए थे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज़ादी के अमृत महोत्सव के दौरान तेरह से पंद्रह अगस्त तक हर घर में तिरंगा फहराने का आह्वान नागरिकों से किया है। पीएम ने यह अपील भी की है कि सभी लोग अपने सोशल मीडिया अकाउंट में तिरंगे की डीपी (डिस्प्ले पिक्चर) लगाकर इस राष्ट्रीय अभियान को और सशक्त बनाएँ।सरकार तिरंगे के लिए कपड़ा खादी का ही होने की अनिवार्यता पहले ही समाप्त कर चुकी है।
प्रधानमंत्री को पूरा अधिकार है कि वे समय-समय पर देश के नागरिकों का आह्वान करते रहें। हमारे कई पूर्व प्रधानमंत्री भी अतीत में ऐसा करते रहे हैं, पर केवल राष्ट्रीय संकटों के दौरान अथवा किसी महत्वपूर्ण अवसर पर। अन्न-संकट के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के आह्वान पर पूरा देश सप्ताह में एक दिन उपवास रखता था (प्रधानमंत्री ने अपने पंद्रह अगस्त के लाल क़िले से उद्बोधन में शास्त्री जी के ‘जय जवान ,जय किसान’ नारे का उल्लेख भी किया )। चीनी आक्रमण के दौरान पंडित नेहरू के आह्वान पर देशवासियों द्वारा किए गए त्याग की अनेक कथाएँ हैं। नागरिक अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार रहते थे। उनका उत्साह स्व-स्फूर्त रहता था। तत्कालीन सत्ताओं ने न तो कभी नागरिकों के राष्ट्रप्रेम की परीक्षाएँ लीं, और न ही अपने आह्वानों को राष्ट्रीय उत्सवों में परिवर्तित किया।
याद यह भी किया जा सकता है कि आज़ादी के पचास साल पूरे होने पर ‘स्वर्ण जयंती’ वर्ष को तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किस तरह से मनाया था, देश को किस तरह की सौग़ातें उन्होंने दीं थीं ! या आज़ादी की साठवीं वर्षगाँठ या ‘हीरक जयंती’ के अवसर पर पंद्रह साल पहले देश में किसकी सरकार थी, और तब क्या हुआ था ? ‘
साल 2020 के पीड़ादायक कोरोना काल में जब देश भारी संकट से गुज़र रहा था, प्रधानमंत्री मोदी ने देशवासियों से आह्वान किया था कि वे 22 मार्च की शाम अपने घरों के दरवाज़ों, खिड़कियों के पास या बालकनियों में खड़े हो पाँच मिनिट तक ताली-थाली बजाकर अग्रिम पंक्ति के स्वास्थ्य कर्मियों की सेवाओं के प्रति धन्यवाद का ज्ञापन करें ।अपने तमाम अभावों और कष्टों को भूलकर नागरिकों ने प्राणप्रण से प्रधानमंत्री की भावनाओं का सम्मान किया। उसके बाद क्या हुआ ?
दवाओं, ऑक्सिजन की कमी और कोविड से निपटने की अपर्याप्त सरकारी कोशिशों की जानकारी और नागरिक मौतों के आँकड़े विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्टों में तलाश किए जा सकते हैं। कोविड के टीकों को लेकर देश द्वारा हासिल की गई उपलब्धि की चर्चा तो प्रधानमंत्री दुनिया भर में गर्व के साथ करते हैं, पर आज़ादी के अमृतकाल के ठीक पहले कोविड से हुई लाखों मौतों के सवाल पर वे विश्व स्वास्थ्य संगठन के दावों को कोई चुनौती नहीं देते। ग़लत-सही आरोप यह है कि प्रधानमंत्री अपने हरेक नागरिक आह्वान को अपनी लोकप्रियता और सरकार की उपलब्धि में तब्दील करके उसे दुनिया के सामने भारत की ताक़त के प्रदर्शन के रूप में पेश कर देते हैं।
पूछा जा सकता है कि देश के 140 करोड़ नागरिकों (जिनमें वे बाइस करोड़ मुस्लिम भी शामिल हैं, जिनकी भारतीयता और देशभक्ति को संघ और (जनसंघ) भाजपा द्वारा पिछले पचहत्तर सालों से शक की नज़रों से देखा जाता रहा है ) से उनकी राष्ट्रभक्ति का प्रमाणपत्र बार-बार क्यों माँगा जाना चाहिए ? बहुत सम्भव है कि प्रधानमंत्री के आह्वान के बाद मदरसों और मस्जिदों की छतों पर दूर से ही नज़र आ जाने वाले तिरंगे सरस्वती शिशु मंदिरों और हिंदू धार्मिक स्थलों से पहले ही लगा दिए गए हों।
एनडीए-शासित उत्तराखंड राज्य के भाजपा प्रमुख के हवाले से वायरल हुए वीडियो में अगर कोई सच्चाई है तो उनका कहना है कि : "भारत उन लोगों पर भरोसा नहीं कर सकता है, जो राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराते।जिसके घर में तिरंगा नहीं लगेगा, हम उसे विश्वास की नज़र से कभी देख नहीं पाएंगे। मुझे उस घर का फ़ोटो चाहिए जिस घर में तिरंगा न लगा हो। समाज देखना चाहता है उस घर को, उस परिवार को देखना चाहता है कि भारत को लेकर सम्मान का भाव किस-किस (परिवार) के अंदर नहीं है। घर में देश का झंडा लगाने से किसे दिक्कत हो सकती है? देश ऐसे लोगों पर भरोसा नहीं कर सकता जो तिरंगा नहीं फहराते हों।’’
नागरिक डरे हुए हैं। वे स्वीकार नहीं करना चाहते हैं कि तिरंगे को लेकर सरकार उन्हें डराने की कोई भावना रखती है। पर ऐसा हो रहा है। जो नज़र आ रहा वह यही है कि तिरंगे को राष्ट्र के प्रति प्रेम का प्रदर्शन करने से अधिक देश के प्रति वफ़ादारी साबित करने का अवसर बनाया जा रहा है।(‘हर घर तिरंगा’ अभियान में भाग लेने वाले नागरिक सरकार से एक ‘प्रशंसा प्रमाण पत्र’ (Certificate) भी प्राप्त कर सकेंगे।इसके लिए सरकार द्वारा एक वेबसाइट जारी की गई है जिस पर नागरिकों को तिरंगे के साथ अपनी सेल्फ़ी अपलोड करना होगा।)
प्रधानमंत्री के आह्वान की उपलब्धि इस बात को अवश्य माना जा सकता है कि तिरंगे को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ख़िलाफ़ आज़ादी के बाद से ही लगाए जा रहे रहे आरोप तात्कालिक रूप से ही सही, ख़ारिज करना पड़ रहे हैं। संघ ने तिरंगा भी फहरा लिया है, और अपनी डीपी भी बदल ली है। मानकर चला जा सकता है कि प्रधानमंत्री का कोई नया आह्वान संघ की विचारधारा को भी बदलकर उदार बना देगा। प्रधानमंत्री के उस आह्वान के दिन की प्रतीक्षा उत्सुकता से की जानी चाहिए !
-श्रवण गर्ग
आबादी के कोई सोलह प्रतिशत (या लगभग बाईस करोड़)मुसलमानों को इस सचाई का पता चलने में पचहत्तर साल लग गए कि भाजपा ही नहीं किसी भी प्रमुख राजनीतिक दल को अब राष्ट्रीय स्तर पर उनकी ज़रूरत नहीं बची है।मुसलमानों का यह भ्रम ध्वस्त कर दिया गया है कि कोई भी दल उनके वोटों के बिना सरकार नहीं बना सकता।सर्वोच्च संवैधानिक पदों-राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति- के लिए उम्मीदवारों की घोषणा होने तक मीडिया द्वारा प्रचार किया जा रहा था कि दो में से किसी एक पद के लिए भाजपा किसी मुसलिम नेता को एनडीए का उम्मीदवार बना सकती है।
द्रौपदी मुर्मू के नाम की घोषणा के बाद ऐसी अटकलें तेज़ हो गईं थीं कि केरल के राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद खान या पूर्व केंद्रीय मंत्री मुख़्तार अब्बास नक़वी को एनडीए की ओर से उपराष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाया जा सकता है।ऐसा करके भाजपा करोड़ों मुसलमानों को खुश करने का काम कर सकती है।ये अटकलें इस हक़ीक़त के बीच भी जारी रहीं कि भाजपा के पास संसद के दोनों सदनों में अब नाम के लिए भी कोई मुसलिम सांसद नहीं बचा है।यूपी सहित अन्य भाजपा-शासित राज्यों में भी मुसलिम विधायकों को लेकर ऐसी ही स्थिति है।भाजपा ने जगदीप धनखड़ के नाम की घोषणा करके मुसलिम ‘तुष्टिकरण’ की सम्भावनाओं पर अंतिम रूप से विराम लगा दिया।यानी न वोट चाहिए,न उम्मीदवारी चाहिए !
किसी ने सवाल नहीं उठाया कि भाजपा द्वारा किसी मुसलिम को उम्मीदवार नहीं बनाया जाना तो समझ में आता है पर कांग्रेस, तृणमूल और समाजवादी पार्टी सहित बाक़ी विपक्षी दलों ने भी ऐसा ही क्यों किया ? उन्होंने मार्गरेट अल्वा की जगह किसी मुसलिम उम्मीदवार की तलाश क्यों नहीं की ? क्या विपक्षी दलों को भी भाजपा की तरह मुसलमानों की ज़रूरत नहीं बची है ? उन्हें भी क्या सिर्फ़ हिंदू वोट चाहिए ? इन्हीं विपक्षी दलों ने अगस्त 2007 से 2017 तक दो कार्यकालों के लिए मोहम्मद हामिद अंसारी को उपराष्ट्रपति बनवाया था।उनके पहले 2002 से 2007 तक एपीजे अब्दुल कलाम राष्ट्रपति चुने गए थे।तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे।
पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों तक ममता को पश्चिम बंगाल के सत्ताईस प्रतिशत मुसलिमों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी।भाजपा ने ममता को हराने के लिए राज्य के मतदाताओं को सत्तर-सत्ताईस में विभाजित कर दिया था।मुसलिम मतदाताओं ने तब भाजपा को हराने के लिए कांग्रेस-माकपा -(मुसलिम संगठन)इंडियन सेकुलर फ़्रंट के गठबंधन को नकार ममता को बिना शर्त समर्थन दिया था।अब मुसलिम मतदाताओं की नाराज़गी की परवाह न करते हुए हुए ममता की पार्टी ने घोषणा कर दी है कि उसके सांसद और विधायक उपराष्ट्रपति चुनाव में मतदान से अनुपस्थित रहेंगे। यानी तृणमूल कांग्रेस विपक्ष के बजाय भाजपा के उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित करेगी (मार्गरेट अल्वा ने ममता के निर्णय की आलोचना करते हुए उनसे पुनर्विचार की अपील की है ।)
देश को जानकारी है कि प.बंगाल में राज्यपाल-पद पर कार्यकाल के दौरान धनखड़ और ममता के बीच सम्बंध कितने तनावपूर्ण हो गए थे।संवैधानिक अधिकारों को लेकर दोनों में तनाव इतना बढ़ गया था कि ममता ने राज्यपाल के स्थान पर स्वयं को समस्त विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति नियुक्त कर लिया था।आश्चर्यजनक रूप से पिछले दिनों दार्जिलिंग में धनखड़ और असम के भाजपा मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वास सरमा के साथ हुई बैठक के बाद ममता का एकाएक हृदय परिवर्तन हो गया और फिर पूरे विपक्ष को चौंकाते हुए उन्होंने उपराष्ट्रपति चुनाव में मतदान से अनुपस्थित रहने का फ़ैसला सुना दिया। दार्जीलिंग बैठक क्यों हुई और उसमें क्या हुआ उसके बारे में ममता ने देश को कोई जानकारी नहीं दी।
महाराष्ट्र में एकंनाथ शिंदे के विद्रोही गुट ने जब यह आरोप लगाया कि शिव सेना ने बाला साहब के हिंदुत्व को छोड़ दिया है तो असंतुष्टों को मनाने के लिए उद्धव ने यह तर्क नहीं दिया कि उनकी पार्टी अब धर्मनिरपेक्ष हो गई है। उद्धव ने बहुसंख्यकवाद का कार्ड ही खेला कि शिव सेना ने अपनी कट्टर हिंदुत्व की विचारधारा को न तो छोड़ा है और न छोड़ेगी। शिव सेना के विद्रोही सांसदों के दबाव में उद्धव विपक्षी दलों के संयुक्त उम्मीदवार यशवंत सिन्हा के ख़िलाफ़ भाजपा का साथ देने को भी तैयार हो गए।एमवीए गठबंधन में शामिल कांग्रेस और एनसीपी ने भी उद्धव के कदम का विरोध नहीं किया।
कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दल यही प्रचार करते रहे हैं कि अल्पसंख्यकों की विरोधी तो सिर्फ़ भाजपा है ,बाक़ी पार्टियाँ तो धर्मनिरपेक्षता में यक़ीन करतीं हैं। नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़ शाहीनबाग में चले लम्बे महिला आंदोलन तथा दिल्ली दंगों के दौरान कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की भूमिका में उनकी धर्मनिरपेक्षता की पोल भी खुल गई। सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर चुनावों को लेकर चला हाल का घटनाक्रम अगर कोई संकेत है तो अल्पसंख्यकों के लिए ज़्यादा बड़ा ख़तरा भाजपा की साम्प्रदायिकता के बजाय विपक्षी दलों की नक़ली धर्मनिरपेक्षता बन गई है। विपक्षी दल भी अपने अस्तित्व के लिए अब भाजपा की तरह ही बहुसंख्यकवाद की राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं।
सवाल यह है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में प.बंगाल के तीन-साढ़े तीन करोड़ मुसलमान भी अगर यह तय कर लेते हैं कि वे मतदान से अनुपस्थित रहेंगे तो फिर ममता और उनके उत्तराधिकारी भतीजे अभिषेक की राजनीति का क्या भविष्य क्या बनेगा ? सोचने के लिए सवाल यह भी है कि भाजपा अगर धनखड़ की जगह आरिफ़ मोहम्मद खान या नकवी को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना देती तो उस स्थिति में विपक्ष क्या करता ? दूसरी ओर, विपक्षी दल अगर अल्वा के स्थान पर किसी मुसलिम को खड़ा कर देते तब भी क्या ममता एनडीए की मदद के लिए मतदान से अनुपस्थित रहने का फ़ैसला करतीं ?
राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति पद के चुनावों ने मुसलिमों को लेकर भाजपा और विपक्ष दोनों की हक़ीक़त उजागर कर दी है।गेंद अब मुसलिमों के पाले में है।तय उन्हें करना है कि वे अब अपना संरक्षण किस दल में तलाश करेंगे।इस सवाल के जवाब में कि क्या भाजपा को अल्पसंख्यकों की ज़रूरत नहीं है, नीतीश सरकार में भाजपा के (देश भर में) इकलौते मुसलिम कैबिनेट मंत्री शाहनवाज़ हुसैन का एक अख़बार को कहना था कि :’’हम कभी धर्म-जमात नहीं देखते।हमारे नेता नरेंद्र मोदी की नज़र 130 करोड़ हिंदुस्तानी देखती है।एक मुल्क,एक नज़र।’’ क्या सारे मुसलमान ऐसा ही सोच रखते हैं ?
-श्रवण गर्ग
गांधी को अब उनके घर में घुसकर मारा जा रहा है।अभी तक कोशिशें बाहर से मारने की ही चल रहीं थीं पर वे शायद पूरी तरह सफल नहीं हो पाईं। जनता चुप है और बापू के अधिकांश अनुयायियों ने भी रहस्यमय मौन साध रखा है। ठीक वैसे ही जैसे भीड़ भरी सड़क पर किसी बेगुनाह की पिटाई या हत्या होते हुए अथवा किसी सम्भ्रांत परिवार की महिला को गुंडों द्वारा छेड़ता हुआ देख कुछ लोग वीडियो बनाने लगते हैं और बाक़ी आँखें चुराकर आगे बढ़ जाते हैं। बापू के साथ भी वैसा ही हो रहा है।
मोहनदास करमचंद गांधी को फिर से मारने का काम उनके स्थान पर विनायक दामोदर सावरकर की प्राण प्रतिष्ठा करने के लिए किया जा रहा है। सावरकर की स्थापना के लिए ‘गांधी स्मृति’ को ‘गांधी विस्मृति’ में तब्दील किया जाना ज़रूरी है। माना जा रहा है कि गांधी और सावरकर एक साथ नहीं रह सकते। धर्म की राजनीति में एक के लिए दूसरे को हटाना ज़रूरी है। यह काम सरकारों की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहमति और सक्रिय भागीदारी के बिना नहीं हो सकता। निश्चित ही ऐसी किसी सहमति या भागीदारी की 30 जनवरी 1948 और 26 मई 2014 की अवधि के बीच कल्पना नहीं की जा सकती थी। दोनों ही तारीख़ों का भारत की आत्मा के साथ गहरा संबंध स्थापित हो गया है।इतिहास के विद्यार्थी भारत के दूसरे विभाजन की तारीख़ आसानी से तलाश सकते हैं !
‘गांधी स्मृति’ नई दिल्ली के तीस जनवरी मार्ग पर स्थित वह स्थल है जो किसी समय ‘बिड़ला हाउस’ के नाम से जाना जाता था। गांधी जी की नाथूराम गोडसे द्वारा गोली मारकर की गई हत्या के बाद इस स्थान का अंतर्राष्ट्रीय पता बदल गया। गांधी जी ने सेवाग्राम(वर्धा) आश्रम से बाहर अपने जीवन के अंतिम 144 दिन इसी स्थान पर बिताए थे।’गांधी दर्शन’ बापू की हत्या के बाद की गई अंत्येष्टि के स्थल ‘राजघाट समाधि’ से लगा हुआ वह विशाल परिसर है जहां गांधी जी के जीवन से सम्बंधित चित्रों की प्रदर्शनी, डोम थिएटर और राष्ट्रीय स्वच्छता संग्रहालय है।
‘गांधी स्मृति’ और ‘गांधी दर्शन’ दोनों का ही कामकाज केंद्र सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अधीन एक समिति देखती है। प्रधानमंत्री इस समिति के अध्यक्ष होते हैं। बापू समाधि का कामकाज आवासन और शहरी कार्य मंत्रालय के अधीन राजघाट समाधि समिति देखती है। ’गांधी स्मृति और दर्शन समिति’ की ओर से ‘अंतिम जन’ नाम से एक पत्रिका प्रकाशित की जाती है। इसके संरक्षक पूर्व केंद्रीय खेल और युवा मंत्री और सांसद विजय गोयल हैं। प्रधानमंत्री द्वारा नामांकित गोयल ‘गांधी स्मृति’ और‘गांधी दर्शन’ समिति के उपाध्यक्ष हैं और दोनों स्थानों के दैनन्दिन का कामकाज देखते हैं।
‘अंतिम जन’ ने अपने जून 2022 के प्रकाशन को ‘वीर सावरकर अंक’ बनाते हुए स्वतंत्रता संग्राम में सावरकर के योगदान की चर्चा की है और उन्हें महान देशभक्त निरूपित किया है। विजय गोयल की ओर से अंक की प्रस्तावना में कहा गया है कि :’यह देखकर दुःख होता है कि जिन लोगों ने एक दिन जेल नहीं काटी, यातनाएँ नहीं सहीं, देश समाज के लिए कुछ कार्य नहीं किया वे सावरकर जैसे बलिदानी की आलोचना करते हैं जबकि सावरकर का इतिहास में स्थान व स्वतंत्रता आंदोलन में उनका सम्मान महात्मा गांधी से कम नहीं है।’
कोई भी सवाल नहीं करना चाहता कि गांधी के घर में ही बैठकर कुछ लोग इतनी हिम्मत के साथ उस व्यक्ति की प्राण-प्रतिष्ठा करने का साहस कैसे कर सकते हैं जिसे राष्ट्रपिता की हत्या के बाद एक अभियुक्त मानते हुए एक विशेष अदालत में मुक़दमा चलाया गया था।अदालत द्वारा सावरकर को निर्दोष साबित कर दिए जाने के बाद नवम्बर 1966 में गठित एक-सदस्यीय कपूर आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था :’ गांधी की हत्या का षड्यंत्र सावरकर और उनके अनुयायियों ने रचा था इसी निष्कर्ष पर आना पड़ता है।’ सावरकर का तब तक निधन हो चुका था।
दक्षिणपंथी बहुसंख्यकवाद को हथियारों से सज्जित करने की शर्त ही यही है कि अब गांधी द्वारा प्रतिपादित धार्मिक सहिष्णुता की भी हत्या करके उसे अल्पसंख्यक-विरोधी धार्मिक उन्माद में बदल दिया जाए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गांधी को वैचारिक रूप से ख़त्म किया जाना जरूरी है। हिंदुत्व के कट्टरपंथी समर्थकों के लिए वह एक दुर्भाग्यपूर्ण क्षण रहा होगा कि गांधी को उनके शरीर के साथ ही विचार रूप में भी राजघाट पर जलाया नहीं जा सका। सावरकर-गोडसे के भक्तों का मानना हो सकता है कि उस अधूरे काम को पूरा करने के लिए वर्तमान से ज़्यादा उपयुक्त समय आगे नहीं आ सकेगा।
‘अंतिम जन’ शब्द का सम्बंध गांधी के सपनों के ‘अंत्योदय’ से रहा है। बापू की समाधि पर उनका कहा प्रसिद्ध वाक्य एक शिलापट्ट पर अंकित है। उस वाक्य में गांधी ने कहा है :’ मैं तुम्हें ताबीज़ देता हूँ। जब भी दुविधा में हो या जब अपना स्वार्थ तुम पर हावी हो जाए इसका प्रयोग करो।उस सबसे दुर्बल व्यक्ति का चेहरा याद करो जिसे तुमने कभी देखा हो और अपने आप से पूछो -जो कदम मैं उठाने जा रहा हूँ वह क्या उस गरीब के कोई काम आएगा ? क्या उसे इस कदम से कोई लाभ होगा ? क्या इससे उसे अपने जीवन और अपनी नियति पर कोई क़ाबू फिर मिलेगा ? दूसरे शब्दों में ,क्या यह कदम लाखों भूखों और आध्यात्मिक दरिद्रों को स्वराज देगा ?तुम पाओगे कि तुम्हारी सारी शंकाएँ और स्वार्थ पिघलकर ख़त्म हो गए हैं ।’’
राजनीति के सांप्रदायीकरण ने गांधी के अंतिम जन की पहचान उसकी दुर्बलता के स्थान पर उसके धर्म को बना दिया है। अल्पसंख्यक-विरोधी साम्प्रदायिक विभाजन आज विकास का मंत्र बन गया है। इसे कोई बौद्धिक संयोग नहीं माना जा सकता कि गांधी के दर्शन और विचारों के प्रसार के लिए बनी समिति द्वारा राष्ट्रपिता के बजाय सावरकर पर विशेष सामग्री प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया। आरोप अगर सही हैं तो ‘गांधी दर्शन’ परिसर में संघ से जुड़े पदाधिकारियों की बैठकें भी हो चुकीं हैं।
‘अंतिम जन’ के सावरकर विशेषांक को गांधी द्वारा स्थापित आश्रमों (साबरमती और सेवाग्राम) के आधुनिकीकरण के साथ भी जोड़कर देखा जा सकता है।देशव्यापी विरोधों के बावजूद, गांधीजी द्वारा 1917 में स्थापित साबरमती आश्रम को केंद्र और गुजरात सरकारों द्वारा बारह सौ करोड़ रुपए की लागत से एक अत्याधुनिक ‘गांधी थीम पार्क’ में बदलने पर काम चल रहा है। आश्रम के रहवासियों ने भी मोटी धनराशि स्वीकार कर साबरमती परिसर को ख़ाली कर दिया है।इसी प्रकार, गांधी जी द्वारा 1936 में स्थापित सेवाग्राम आश्रम के लिए भी ढाई सौ करोड़ की योजना पर काम चल रहा है। बापू के वंशजों के विरोध के वावजूद, वर्धा से सेवाग्राम जाने वाली सड़क के दोनों ओर लगे कई पेड़ों को गिरा दिया गया।
संघ के मुख्यालय वाले शहर नागपुर से सेवाग्राम की दूरी (63 किलो मीटर) सिर्फ़ घंटे भर की और साबरमती आश्रम से गुजरात सरकार की सीट गांधीनगर के बीच दूरी मात्र आधे घंटे की है। आने वाले दिनों में यह दूरी भी मिट जाएगी। सवाल अब गांधी की मूर्तियों और आश्रमों को बचाने भर का नहीं बचा है, राष्ट्रपिता को तो देश की जड़ों और संस्कारों से ही समाप्त किया जा रहा है। ‘अंतिम जन’ का सावरकर विशेषांक गांधी की लगातार की जा रही हत्या के उपक्रमों में ही एक और प्रयास माना जा सकता है। हम प्रतीक्षा कर सकते हैं कि आने वाले समय में ‘अंतिम जन’ का कोई अंक नाथूराम गोडसे को समर्पित भी हो सकता है !
-श्रवण गर्ग
जनता द्वारा बर्खास्त कर दिए जाने के बाद श्रीलंका से भागकर मालदीव के रास्ते सिंगापुर पहुँचने वाले 73-वर्षीय पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे का कोलम्बो में समुद्र किनारे बना विशाल शासकीय निवास इन दिनों उनके देशवासियों की अतृप्त आकांक्षाओं का पर्यटन स्थल बना हुआ है। औपनिवेशिक काल के दो सौ साल पुराने इस राष्ट्रपति भवन को देखने पचास किलोमीटर यात्रा करके पहुँचे बौद्ध भिक्षु सुमेधा की पहली प्रतिक्रिया यह थी कि ‘इस तरह के सुविधा-सम्पन्न आलीशान भवनों में निवास करने वाले नायकों को जानकारी नहीं होती कि आम आदमी अपनी जि़ंदगी किस तरह बसर करता है !’
गोटाबाया के भव्य भवन को देखने लोग दूर-दूर से पहुँच रहे हैं। इनमें एक बड़ी संख्या में वे बौद्ध भिक्षु भी हैं जिनका राजपक्षे सरकार को समर्थन प्राप्त था। लोग क़तारें बनाकर राष्ट्रपति भवन में प्रवेश कर रहे हैं। वहाँ निर्मित विशाल तरण पुष्कर (स्वीमिंग पूल) में स्नान कर रहे हैं, आरामदेह पलंगों पर विश्राम कर रहे हैं, राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठ पाने का स्वप्न पूरा कर रहे हैं, उनके रसोई घर में भोजन पका रहे हैं और उनका पियानो बजा रहे हैं। लोग देखकर दंग हैं कि श्रीलंका की जनता जिस समय खाने-पीने की सामग्री, दवाओं, ईंधन जैसी दैनन्दिन की ज़रूरतों को लेकर सडक़ों पर संघर्ष कर रही है, उनके नेता किस तरह की अय्याशी का जीवन जी रहे हैं।
दुनिया भर में शासकों को सत्ता के छिन जाने के क्षण तक यही भ्रम बना रहता है कि जनता उन्हें किसी भी अन्य नेता की तुलना में सबसे ज़्यादा मोहब्बत करती है। तानाशाहों में इस तरह की खुशफहमी ज्यादा रहती है। महेंद्र राजपक्षे के शासनकाल के दौरान 2009 में गोटाबाया के नेतृत्व में जब श्रीलंका की सेनाओं ने तमिल पृथकतावादियों का नृशंसतापूर्वक ख़ात्मा कर दिया तो राजपक्षे परिवार की तानाशाही और बढ़ गई। समूचे तंत्र पर राजपक्षे परिवार का कब्जा हो गया। (गोटाबाया राजपक्षे राष्ट्रपति, भाई महिंद्रा राजपक्षे प्रधानमंत्री, भाई बासिल राजपक्षे वित्त मंत्री, चामल राजपक्षे कृषि मंत्री और नामल राजपक्षे खेल और युवा मामलों का मंत्री )
राजपक्षे परिवार ने तमिल उग्रवादियों और अन्य राजनीतिक विरोधियों को समाप्त कर दिया, देश में अभिव्यक्ति की आजादी पर भी प्रतिबंध लगा दिए पर सरकार की जन-विरोधी नीतियों के खिलाफ अपनी ही समर्थक बहुसंख्यक सिंहली जनता के भीतर पनप रहे आक्रोश को वह नहीं समझ नहीं पाया। नागरिक अब राष्ट्रपति भवन के कोने-कोने को खंगाल कर उन तमाम वस्तुओं को देख आश्चर्य से भर रहे हैं जिनकी वे जीवन में कल्पना भी नहीं कर सकते थे।
जनता जब नायकों को नेतृत्व करने का अधिकार सौंपती है तो उनकी छवि में अपने चेहरे और अपने अभावों की तलाश भी करती है। जब वह छवि जब खंडित होने लगती है तो जनता उन्हीं शासकों की विरोधी बन जाती है जिनमें वह सबसे ज़्यादा चाहने का भ्रम पैदा करती है। शासक तब अपने ही नागरिकों द्वारा की जाने वाली उपेक्षा को बर्दाश्त नहीं कर पाते। राजपक्षे परिवार ने जनता के अभावों के खिलाफ बहुसंख्यक बौद्ध-सिंहली राष्ट्रवाद को हथियार बनाकर देश में अधिनायकवाद कायम करने की कोशिश की तो सडक़ों पर जन-विद्रोह उमड़ पड़ा और उसमें समाज के सभी तबकों के लोग शामिल हो गए।
हमारे यहां कुछ लोगों द्वारा नागरिकों को डराया जा रहा है कि अगर स्थितियां वर्तमान जैसी ही बनीं रहीं तो आगे चलकर हालात श्रीलंका की तरह के बन सकते हैं। देश की आर्थिक स्थिति को लेकर सत्तारूढ़ दल के ही एक वरिष्ठ नेता डॉ.सुब्रमण्यम स्वामी जिस तरह के आँकड़े पेश कर रहे हैं वे सरकार द्वारा किए जाने वाले दावों से मेल नहीं खाते। डॉ.स्वामी के आरोपों का आधिकारिक तौर पर खंडन भी नहीं किया गया है। डॉ.स्वामी ने हाल में ट्वीट किया था कि यूपीए सरकार के दौरान साल 2011 में भारत दुनिया के 193 देशों के बीच तीसरे नम्बर की आर्थिक शक्ति था पर इस समय देश 164वें क्रम की आर्थिक ताकत बनकर रह गया है।
इसी प्रकार, पूर्व वरिष्ठ नौकरशाह और वर्तमान में तृणमूल सांसद जवाहर सरकार ने आगाह किया है कि इस समय भारत पर 621 अरब डॉलर का विदेशी कज़ऱ् है और इसमें से 267 अरब डॉलर अगले नौ माह में कर्ज के पुनर्भुगतान के रूप में खर्च हो जाएँगे जो कि देश के कुल मुद्रा भंडार का 44 प्रतिशत होगा। श्रीलंका की वर्तमान स्थिति का एक बड़ा कारण उसके द्वारा विदेशी कर्जों का समय पर भुगतान नहीं कर पाना था।
कहा जा सकता है कि पड़ोसी देशों में पाकिस्तान के बाद श्रीलंका में हुई उथल-पुथल में जनता की भूमिका को लेकर सत्तारूढ़ दल के लिए चिंतित होने के पर्याप्त कारण हैं। यह बात अलग है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा देश के भीतर और विदेश यात्राओं के दौरान व्यक्त किए जाने वाले आत्म-विश्वास और उनकी भाव-भंगिमा से क़तई आभास नहीं मिलता कि भारत कभी श्रीलंका जैसे देशों की क़तार में शामिल हो सकता है।
मोदी के दिल्ली की सत्ता में क़ाबिज़ होने के कारणों में यह बात उतनी महत्वपूर्ण नहीं थी कि उन्होंने गुजरात को विकास के रोल मॉडल के रूप में राष्ट्रीय क्षितिज पर पेश करने में सफलता पाई जितनी यह कि रेल्वे स्टेशन पर चाय बेचने वाले के बेटे के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करके वे देश के अत्यंत अभावग्रस्त मतदाता की सबसे कमजोर नब्ज पर हाथ रखने में कामयाब हो गए।
इस तरह के आरोपों के बीच भी कि उनके राज में सिफऱ् दो औद्योगिक घरानों की ही सम्पन्नता बढ़ी है या प्रधानमंत्री महँगे सूट, घड़ी, चश्मे पहनते हैं और क़ीमती पेन का इस्तेमाल करते हैं, मोदी ने चाय बेचने वाले के बेटे की अपनी छवि को जनता के बीच बराबर क़ायम रखा है। प्रधानमंत्री आज भी अपने ब्लॉग में उल्लेख करना नहीं भूलते हैं कि पिता के डेढ़ कमरे के खपरैल वाले मकान में भाई-बहनों के साथ उनका बचपन किन कठिनाइयों में बीता है।
मोदी ने देश की अभावग्रस्त जनता के बीच अपने तिलिस्म को सफलतापूर्वक बनाए रखा रखा है पर कहना मुश्किल है कि अगर स्थितियाँ नहीं बदलीं तो आम आदमी की बढ़ती तकलीफ़ों के बीच वह तिलिस्म अनंतकाल तक कायम रह पाएगा। केवल साल 2015 से 2019 तक की अवधि छोड़ दें तो राजपक्षे परिवार 2005 से श्रीलंका की सत्ता पर मज़बूती के साथ क़ाबिज़ था पर जनता का धैर्य अंतत: टूट गया और उसने स्थायी राष्ट्रवाद और अभावों के बजाय अस्थायी अराजकता के साथ अपने भविष्य को नत्थी कर दिया।
श्रीलंका की समस्या का जल्दी समाधान नहीं हो पाएगा।देश छोटा है पर उसका संकट काफी बड़ा है।अभी सिर्फ एक ही राजपक्षे भाई (गोटाबाया) देश छोडक़र भागा है, बाक़ी सभी श्रीलंका में ही मौजूद हैं।वे आगे कुछ भी कर सकते हैं। हिंद महासागर क्षेत्र में श्रीलंका की भौगोलिक स्थिति के सामरिक महत्व के चलते उसके राजनीतिक भविष्य में भारत और चीन सहित कई देशों की रुचि हो सकती है। श्रीलंका के भविष्य को लेकर फि़लहाल इस उम्मीद से ही संतोष कर लेना चाहिए कि वहां की सत्ता में आने वाले नए शासक अब राष्ट्रवाद और धर्म को नागरिकों के असंतोष को शांत करने के ईंधन का विकल्प नहीं बना सकेंगे।
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-श्रवण गर्ग
तीन साल पहले (2019)लगभग इन्हीं दिनों ,मीडिया के कुछ क्षेत्रों में सावधानीपूर्वक तैयार की गई एक महत्वपूर्ण खबर जारी हुई थी जिसके तथ्यों के बारे में बाद में ज़्यादा पता नहीं चला। खबर यह थी कि आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) द्वारा अगले साल (2020) से एक आर्मी स्कूल प्रारम्भ किया जा रहा है जिसमें बच्चों को सशस्त्र सेनाओं में भर्ती के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा। खबर में यह भी बताया गया था कि संघ की शिक्षण शाखा ‘विद्या भारती’ द्वारा संचालित यह “रज्जू भैया सैनिक विद्या मंदिर’ उत्तर प्रदेश में बुलन्दशहर ज़िले के शिकारपुर में स्थापित होगा जहां पूर्व सरसंघचालक राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) का जन्म हुआ था।
जानकारी दी गई थी कि शिकारपुर के इस प्रथम प्रयोग के बाद उसे देश के अन्य स्थानों पर दोहराया जाएगा।’विद्या भारती’ द्वारा संचालित स्कूलों की संख्या तब बीस हज़ार बताई गई थी। देश में कई स्थानों पर सरकारी सैनिक स्कूलों के होते हुए अलग से आर्मी स्कूल प्रारम्भ करने के पीछे क्या संघ का मंतव्य क्या हो सकता था स्पष्ट नहीं हो पाया। चूँकि मामला उत्तर प्रदेश से जुड़ा था, समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने आरोप लगाया था कि आर्मी स्कूल खोलने के पीछे संघ की राजनीतिक आकांक्षाएँ हो सकती हैं।अखिलेश ने इस विषय पर तब और भी काफ़ी कुछ कहा था।
पिछले तीन सालों के दौरान देश में घटनाक्रम इतनी तेज़ी से बदला है कि न तो मीडिया ने संघ के शिकारपुर आर्मी स्कूल की कोई सुध ली और न ही अखिलेश ने ही बाद में कुछ भी कहना उचित समझा। अब ‘अग्निपथ’ के अंतर्गत साढ़े सत्रह से इक्कीस (बढ़ाकर तेईस) साल के बीच की उम्र के बेरोज़गार युवाओं को ‘अग्निवीरों’ के रूप में सशस्त्र सेनाओं के द्वारा प्रशिक्षित करने की योजना ने संघ के आर्मी स्कूल प्रारम्भ किए जाने के विचार को बहस के लिए पुनर्जीवित कर दिया है।
आम नागरिक कारण जानना चाहता है कि एक तरफ़ तो सरकार अरबों-खरबों के अत्याधुनिक लड़ाकू विमान और अस्त्र-शस्त्र आयात कर सशस्त्र सेनाओं को सीमा पर उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करना चाहती है और दूसरी ओर आने वाले सालों में सेना की आधी संख्या अल्प-प्रशिक्षित ‘अग्निवीरों’ से भरना चाहती है। इसके पीछे उसका इरादा क्या केवल सेना में बढ़ते हुए पेंशन के आर्थिक बोझ को कम करने का है या कोई और वजह है ? धर्म के आधार पर समाज को विभाजित करने के दुर्भाग्यपूर्ण दौर में योजना का उद्देश्य क्या नागरिक समाज का सैन्यकरण (या सेना का नागरिकीकरण) भी हो सकता है ?
नागरिक समाज के सैन्यीकरण का संदेह मूल योजना के इस प्रावधान से उपजता है कि साल-दर-साल भर्ती किए जाने वाले लगभग पचास हज़ार से एक लाख अग्निवीरों में से पचहत्तर प्रतिशत की चार साल की सैन्य-सेवा के बाद अन्य क्षेत्रों में नौकरी तलाश करने के लिए छुट्टी कर दी जाएगी। पच्चीस प्रतिशत अति योग्य ‘अग्निवीरों’ को ही सेना की सेवा में आगे जारी रखा जाएगा। चार साल सेना में बिताने वाले इन ‘अग्निवीरों’ को ही अगर बाद में निजी क्षेत्र और राज्य के पुलिस बलों में प्राथमिकता मिलने वाली है तो उन लाखों बेरोज़गार युवकों का क्या होगा जो वर्षों से सामान्य तरीक़ों से नौकरियां खुलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं ? सवाल यह भी है कि वे पचहत्तर प्रतिशत जो हर पाँचवे साल सेना की सेवा से मुक्त होते रहेंगे वे अपनी उपस्थिति से देश के नागरिक और राजनीतिक वातावरण को किस तरह प्रभावित करने वाले हैं ! यह चिंता अपनी जगह क़ायम है कि सालों की तैयारी और कड़ी स्पर्धाओं के ज़रिए सामान्य तरीक़ों से लम्बी अवधि के लिए सेना में प्रवेश करने वाले सैनिक इन ‘अग्निवीरों’ की उपस्थिति को अपने बीच किस रूप में स्वीकार करेंगे!
भाजपा के वरिष्ठ सांसद और (योजना के विरोध में झुलस रहे) बिहार के पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने गर्व के साथ ट्वीट किया है कि :’ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने अपने पहले सात साल में 6.98 लाख लोगों को सरकारी सेवा में बहाल किया है और अगले 18 माह में दस लाख को नियुक्त किया जाएगा।’ जिस देश में बेरोज़गारी पैंतालीस वर्षों के चरम पर हो वहाँ यह दावा किया जा रहा है कि हर साल एक लाख को नौकरी दी गई ! मोदी सरकार ने वादा तो यह किया था कि हर साल दो करोड़ लोगों को रोज़गार दिया जाएगा। देश में बेरोज़गारों की संख्या अगर दस करोड़ भी मान ली जाए तो आने वाले अठारह महीनों में प्रत्येक सौ में सिर्फ़ एक व्यक्ति को नौकरी प्राप्त होगी। इस बीच नए बेरोज़गारों की तादाद कितनी हो जाएगी कहा नहीं जा सकता।
‘अग्निपथ’ योजना राष्ट्र को समर्पित करते हुए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने दावा किया था कि प्रत्येक बच्चा अपने जीवन काल में कम से कम एक बार तो सेना की वर्दी अवश्य धारण करने की आकांक्षा रखता है। बच्चा जब से होश सम्भालता है उसके मन में यही भावना रहती है कि वह देश के काम आए। योजना को लेकर राजनाथ सिंह का दावा अगर सही है तो उन तमाम राज्यों में जहां भाजपा की ही सरकारें हैं वहीं इस महत्वाकांक्षी योजना का इतना हिंसक विरोध क्यों हो रहा है ? दुनिया के तीस देशों में अगर इस तरह की योजना से युवाओं को रोज़गार मिल रहा है तो यह काम सरकार को 2014 में ही प्रारम्भ कर देना था। डेढ़ साल बाद होने वाले लोकसभा चुनावों के पहले बेरोज़गारी पर इस तरह से चिंता क्यों ज़ाहिर की जा रही है ?
समझना मुश्किल है कि एक ऐसे समय जब सरकार हज़ारों समस्याओं से घिरी हुई है, राष्ट्रपति पद के चुनाव सिर पर हैं, नूपुर शर्मा द्वारा की गई विवादास्पद टिप्पणी के बाद से अल्पसंख्यक समुदाय में नाराज़गी और भय का माहौल है, सरकारी दावों के विपरीत देश की आर्थिक स्थिति ख़राब हालत में है, नोटबंदी और कृषि क़ानूनों जैसा ही एक और विवादास्पद निर्णय लेने की उसे ज़रूरत क्यों पड़ गई होगी ! क्या कोई ऐसे कारण भी हो सकते हैं जिनका राष्ट्रीय हितों के मद्देनज़र खुलासा नहीं किया जा सकता ? योजना के पक्ष में जिन मुल्कों के उदाहरण दिए जा रहे हैं वहाँ न तो हमारे यहाँ जैसी राजनीति और धार्मिक विभाजन है और न ही इतनी बेरोज़गारी और नागरिक असंतोष।
देश में जब धार्मिक हिंसा का माहौल निर्मित हो रहा हो, धर्माध्यक्षों द्वारा एक समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ शस्त्र धारण करने के आह्वान किए जा रहे हों, ऐसा वक्त बेरोज़गार युवाओं को सैन्य प्रशिक्षण प्रदान करने का क़तई नहीं हो सकता। नोटबंदी तो वापस नहीं ली जा सकती थी, विवादास्पद कृषि क़ानून ज़रूर सरकार को वापस लेने पड़े थे पर उसके लिए देश को लम्बे समय तक बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी थी। सरकार को चाहिए कि बजाय योजना में लगातार संशोधनों की घोषणा करने के, बिना प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाए तत्काल प्रभाव से उसे वापस ले ले, हालाँकि उसने ऐसा करने से साफ़ इनकार कर दिया है। योजना के पीछे मंशा अगर दूसरे मुल्कों की तरह प्रत्येक युवा नागरिक के लिए सैन्य प्रशिक्षण अनिवार्य करने की है तो फिर देश को स्पष्ट बता दिया जाना चाहिए।
धर्म की रक्षा के नाम पर हिंसक भीड़ों के जो समूह सड़कों पर लगातार बढ़ते जा रहे हैं उन पर नियंत्रण क़ायम करने का क्षण आ पहुँचा है। इस काम में जितना ज़्यादा विलम्ब होगा स्थिति उतनी ही विस्फोटक होती जाएगी। जो चल रहा है उसे देखते हुए आगे आने वाले समय(मान लीजिए पंद्रह साल) के किसी ऐसे परिदृश्य की कल्पना प्रारम्भ कर देना चाहिए जिसमें किसी विचारधारा या धर्म विशेष की अगुआई करने वाले अराजक तत्वों की संगठित ताक़त संवैधानिक संस्थानों की सीढ़ियों पर जमा होकर उन पर अपना नियंत्रण क़ायम कर लेंगी !
मतलब यह कि जिन नागरिकों का वर्तमान में चयन विधर्मियों के आराधना स्थलों पर अतिक्रमण कर अपनी धर्म ध्वजाएँ फहराकर धार्मिक आतंक क़ायम करने के लिए किया जा रहा है वे ही किसी आने वाले समय में अनियंत्रित होकर संसद भवनों, विधान सभाओं और न्यायपालिका, आदि के परिसरों में भी अनाधिकृत प्रवेश कर अराजकता मचा सकते हैं ! उस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में इन अनियंत्रित समूहों को वे सत्ताएँ भी क़ाबू में नहीं कर पाएँगी जो तात्कालिक राजनीतिक अथवा धार्मिक हितों के लिए उनका अभी अस्थायी अनुयायियों के तौर पर उपयोग कर रहीं हैं।
जिस परिदृश्य की यहाँ बात की जा रही है वह चौंकाने वाला ज़रूर नज़र आ सकता है पर उसके घट जाने को इसलिए असम्भव नहीं समझा जाना चाहिए कि दुनिया के देखते ही देखते सिर्फ़ सवा साल पहले अमेरिका जैसी पुख़्ता प्रजातांत्रिक व्यवस्था भी उसका निशाना बन चुकी है। अमेरिका के तैंतीस करोड़ नागरिक पंद्रह महीनों के बाद भी उस त्रासदी के आतंक से अपने को मुक्त नहीं कर पाए हैं जो पिछले साल छह जनवरी को राजधानी वाशिंगटन में घटित हुई थी।
राष्ट्रपति पद के चुनावों में हार से बौखलाए डॉनल्ड ट्रम्प के कोई ढाई हज़ार समर्थकों की हिंसक भीड़ ने संसद भवन (कैपिटल हिल) पर उस समय क़ब्ज़ा कर लिया था जब उपराष्ट्रपति माइक पेंस की उपस्थिति में कांग्रेस के संयुक्त अधिवेशन में चुनाव परिणामों की पुष्टि के लिए मतों की गिनती का काम चल रहा था। व्हाइट हाउस में परिवार सहित बैठे ट्रम्प घटना के टेलिविज़न प्रसारणों के ज़रिए अपने हिंसक समर्थकों के सामर्थ्य पर गर्व कर रहे थे। ये समर्थक चुनाव परिणामों को हिंसा के बल पर ट्रम्प के पक्ष में उलटवाना चाहते थे। ट्रम्प आज तक स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि चुनावों में उनकी पराजय हुई है। ट्रम्प का आरोप है कि बाइडन ने उनकी जीत पर डाका डाला है।
जॉर्ज वाशिंगटन द्वारा 30 अप्रैल 1789 को पहले राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेने के बाद हुई अमेरिका के संसदीय इतिहास की इस पहली बड़ी शर्मनाक घटना ने समूचे विश्व को हिलाकर रख दिया था। ग्यारह सितम्बर 2001 को जो हुआ वह अगर अमेरिका पर बाहरी आतंकी हमला था तो यह अंदर से हुआ आक्रमण था।छह जनवरी 2021 की घटना और उसमें ट्रम्प की भूमिका की चाहे जैसी भी जाँच वर्तमान में चल रही हो, हक़ीक़त यह है कि पूरे अमेरिका में ट्रम्प के समर्थकों की संख्या इस बीच कई गुना बढ़ गई है। हो सकता है ट्रम्प एक बार फिर राष्ट्रपति बन जाएँ। 2024 में वहाँ भी चुनाव है और हमारे यहाँ भी हैं।
ट्रम्प समर्थक कौन हैं ? ये वे गोरे सवर्ण हैं जो अपने ही देश में रहने वाले अश्वेत अफ़्रीकियों, एशियाइयों, मुसलिमों और अपने से अलग चमड़ी के रंग वाले लोगों से नफ़रत करते हैं, अपनी समृद्धि में इन वर्गों की भागीदारी का विरोध करते हैं और अमेरिका की सड़कों पर आए दिन नस्ली हमले करते हैं। ट्रम्प के नेतृत्व में ही इन्हीं अराजकतावादियों ने कोविड के ख़िलाफ़ लड़ाई में मास्क पहनने सहित समस्त प्रतिबंधों का विरोध किया था और टीके लगवाने से इनकार कर दिया था। सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुए लोग जब प्रजातांत्रिक तरीक़ों से अपने आप को बचाए रखने में नाकामयाब होने लगते हैं तो फिर अपने हिंसक धार्मिक समर्थकों को सड़कों की लड़ाई में झोंक देते हैं।
सत्ता और संगठनों के मौन समर्थन और धार्मिक नेताओं की मदद से भीड़ की जिस राजनीति को संरक्षण प्राप्त हो रहा है वह न सिर्फ़ लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक है एक ऐसी स्थिति की ओर देश को धकेलने का संकेत भी है जिसमें सड़कों की अराजकता सभी प्रकार के संवैधानिक बंधनों से बाहर हो जाएगी। ख़तरा यह भी है कि जो सत्ताएँ आज जिस भीड़ को संरक्षण दे रहीं हैं वे ही आगे चलकर उसके द्वारा बंधक बना ली जाएँगी।
हम इस सच्चाई से जान-बूझकर मुँह मोड़ रहे हैं कि पिछले कुछ महीनों या सालों के दौरान हमारे आसपास बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठान, कारख़ाने अथवा रोज़गार उपलब्ध करवाने वाले संसाधन निर्मित होने के बजाय बड़े-बड़े धार्मिक स्थलों, ऊँची-ऊँची मूर्तियों और आराधना स्थलों का निर्माण ही ज़ोर-शोर से चल रहा है। धार्मिक समागमों और धर्म संसदों की बाढ़ आ गई है। संवैधानिक संस्थानों के समानांतर धर्मगुरुओं की सत्ताएँ स्थापित हो रही हैं।
नागरिकों को इस फ़र्क़ के भीतर झांकने नहीं दिया जा रहा है कि जो सच्चा आध्यात्मिक भक्त अपनी भूख-प्यास की चिंता किए बग़ैर सैंकड़ों कोस पैदल चलकर ईश्वर के दर्शन के लिए दुर्गम स्थलों पर पहुँचता है या किसी मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरजाघर के कोने में चुपचाप बैठा हुआ ध्यान और तपस्या में लीन रहता है. वह सड़क की भीड़ में शामिल उस ‘भक्त’ से भिन्न है जिसके पास अपना कोई चेहरा या पता नहीं है; जो हमेशा ‘अज्ञात’ बना रहता है। इस अज्ञात नागरिक के पास सुनने के लिए कान नहीं होते, सिर्फ़ दो आँखें होतीं हैं जो किसी ईश्वर को नहीं बल्कि अपने धार्मिक शिकार को ही तलाशती रहती हैं। इस भीड़ के नायक भी अंत तक अज्ञात बने रहते हैं। वे अपने अनुयायियों का चयन उनकी आध्यात्मिक चेतना के बजाय उनके शारीरिक सामर्थ्य के आधार पर करते हैं।
हमें भयभीत होना चाहिए कि अराजक भीड़ों के समूह अगर इसी तरह सड़कों पर प्रकट होकर आतंक मचाते रहे तो न सिर्फ़ क़ानून-व्यवस्था के लिए राष्ट्र्व्यापी संकट उत्पन्न हो जाएगा, उसमें शामिल होने वाले लोग धर्म और राष्ट्रवाद को ही अपनी जीविका का साधन बनाकर नागरिक समाज में हिंसा का साम्राज्य स्थापित कर देंगे। ये ही लोग फिर सत्ता में भागीदारी की माँग भी करने लगेंगे। जो भीड़ अभी नागरिकों के लिए पहनने और खाने के क़ानून बना रही है वही फिर देश को चलाने के दिशा-निर्देश भी जारी करने लगेगी! संसद और विधान सभाओं में आपराधिक रिकार्ड वाले सदस्यों की वर्तमान संख्या को अभी शायद पर्याप्त नहीं माना जा रहा है !
धर्म की रक्षा और राष्ट्रवाद के नाम पर जिस तरह की हिंसा का प्रदर्शन हो रहा है उसे लेकर प्रधानमंत्री की खामोशी पर भी अब सवाल उठने लगे हैं। आरोप लगाए जा रहे हैं कि जो कुछ चल रहा है उसके पीछे मंशा या तो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को और मज़बूत करने की है या फिर महंगाई और बेरोज़गारी सहित अन्य बड़ी समस्याओं से जनता का ध्यान हटाने के लिए विघटनकारी उपक्रमों को प्रोत्साहित किया जाना है। इस काम में मुख्य धारा का मीडिया भी सत्ता प्रतिष्ठानों की मदद कर रहा है। सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री अपनी खामोशी तोड़कर कोई जवाब देंगे ? उनका जवाब सुनने के लिए पूरा देश प्रतीक्षा करता हुआ क़तार में है।
-श्रवण गर्ग
बेंगलुरु से मैसूर पहुँचने वाले राजमार्ग पर कर्नाटक की राजधानी से सिर्फ सौ कि मी दूर स्थित मांड्या शहर के एक कॉलेज में बी कॉम के दूसरे साल में पढ़ने वाली मुसलिम छात्रा मुस्कान में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता मलाला ने दूर इंग्लैंड में बैठे-बैठे ऐसा क्या देख लिया होगा कि वह उसके साथ खड़ी हो गई और भारत का यह छोटा-सा शहर दुनिया के नक़्शे पर आ गया? मुस्कान ने आठ फ़रवरी को जो इतिहास बनाया उसे भारत को एक हिंदू राष्ट्र घोषित करने की आहटों के बीच अत्यंत पिछड़े समझे जाने वाले पच्चीस करोड़ की आबादी वाले मुसलिम समाज द्वारा ली जा रही करवटों से जोड़कर देखा जा सकता है। इन्हीं करवटों से पैदा होने वाला कम्पन इस समय उत्तर प्रदेश के चुनावों में नज़र आ रहा है जिससे लखनऊ और दिल्ली की सत्ताएँ डरी हुई हैं।
मांड्या से सरकार को चुनौती इस बात की दी जा रही है कि वह तीन तलाक़ आदि को कुप्रथा बताकर मुसलिम महिलाओं को आज़ादी दिलाने की बात तो करती है पर हिजाब को हथियार बनाकर बच्चियों को लिखने-पढ़ने से रोकना चाहती है। सरकार डरती है कि ये बच्चियाँ भी अगर पढ़-लिखकर नौकरियों में अपना हिस्सा और नागरिक अधिकारों की माँग करने लगेंगीं तो उसके उस बहुसंख्यक वोट बैंक में सेंध लग जाएगी जिसके तुष्टिकरण के ज़रिए वह सत्ता की राजनीति करना चाहती है।(‘इंडियन एक्सप्रेस’ की एक खबर के मुताबिक़, मुसलिम बालिकाओं द्वारा स्कूल-कॉलेजों में प्रवेश लेने की संख्या ज़बरदस्त तरीक़े से बढ़ रही है। वर्ष 2007-2008 में देश की कुल मुसलिम महिलाओं का केवल 6.7 प्रतिशत ही उच्च शिक्षा प्राप्त करता था पर 2017-18 में वह बढ़कर 13.5 प्रतिशत हो गया।)
अपने गलों में भगवा शालें लपेटकर जयश्री राम के नारे लगाते हुए छात्रों की भीड़ ने जब आठ फरवरी को मांड्या के कॉलेज में मुस्कान को घेर लिया तो उन्हें दूर-दूर तक अनुमान नहीं रहा होगा कि निरीह-सी नज़र आने वाली लड़की आगे कुछ ऐसा भी कर सकती है जिससे उनके पैरों तले की ज़मीन खिसक जाएगी ! कोलकाता से प्रकाशित होने वाले अंग्रेज़ी अख़बार ‘द टेलिग्राफ’ ने घटना का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है :
‘उस नितांत अकेली छात्रा ने अपना दो-पहिया वाहन पार्क किया और क्लास की तरफ़ बढ़ने लगी तभी उसकी नज़र अपनी बाईं ओर गई। उसने गौर किया कि भगवा दुपट्टाधारी युवाओं का एक समूह उसकी तरफ़ देखते हुए ‘जयश्री राम' के नारे लगा रहा है। मुस्कान ने भी पलटकर जवाब दे दिया :’अल्लाहु अकबर’ (अल्लाह महान है ), ‘हिजाब मेरा अधिकार है’ और वह क्लास की ओर बढ़ती गई। युवाओं का झुंड भी चिल्लाता हुआ उसका पीछा करता रहा। तभी पीछा कर रहे भगवा दुपट्टाधारी युवाओं से मुस्कान ने पीछे पलटकर सवाल किया कि उन लोगों को समस्या क्या है? वे लोग कौन होते हैं यह बताने वाले कि उसे अपना बुर्का उतार देना चाहिए ! बाद में मुस्कान को कॉलेज के दो कर्मचारी अपने संरक्षण में इमारत में ले गए।’
सवाल अब बुर्के या हिजाब के पहनने या नहीं पहनने का ही नहीं बल्कि यह भी बन गया है कि क्या एक विचारधारा विशेष के प्रति प्रतिबद्ध उत्तेजक भीड़ ही यह तय करने वाली है कि किसे क्या पहनना या खाना होगा? उस स्थिति में देश के स्थापित संवैधानिक संस्थानों और अदालतों की भूमिका क्या रहने वाली है? मांड्या की घटना का दूसरा पहलू यह है कि ‘जयश्री राम’ का उद्घोष करते युवाओं के उत्तेजक समूह से घिरी छात्रा ‘अल्लाहु अकबर’ के स्थान पर अगर ‘हिंदुस्तान ज़िंदाबाद’ या ‘भारत माता की जय’ का नारा लगा देती तो फिर क्या होता? वे हिंदुत्ववादी तत्व, जो बुर्क़े को लेकर मुस्कान के पीछे पड़े थे, शायद बौखला जाते उन्हें सूझ ही नहीं पड़ती कि अब आगे क्या करना चाहिए ! उत्तर प्रदेश के संदर्भ में कहा जाए तो हिंदूवादी ताक़तों द्वारा गोदी मीडिया की मदद से घटना को जिस तरह साम्प्रदायिक रंग में रंगा जा रहा है वह प्रयोग असफल हो जाता।
दूसरी ओर, वे तमाम कट्टरपंथी मुसलिम महिला-पुरुष, जो मुस्कान को अपनी आगे की लड़ाई का प्रतीक बनाकर शाहबानो के फ़ैसले के समय के विरोध प्रदर्शनों को जगह-जगह पुनर्जीवित कर रहे हैं, उनके पैर भी अपने घरों में ही ठिठक जाते। पर वैसा कुछ भी नहीं हुआ।अपनी पीठ पीछे जय श्रीराम के नारों के साथ चीखते समूह से ख़ौफ़ खाई हुई बालिका ने सुरक्षा कवच के रूप में उसका स्मरण कर लिया जिसे वह अपना ईश्वर मानती है और दोनों ही तरफ़ की साम्प्रदायिक ताक़तों को उनके मनमाफिक हथियार मिल गए।
केंद्र सरकार में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख़्तार अब्बास नकवी को भी ट्वीट करने का मौका मिल गया कि :’ मुस्कान को हिज़ाबी हुड़दंग का चेहरा बनाने वाले, हिंदुस्तानी मुस्कानों के (को !) तालीम, तरक़्क़ी की तालिबानी तबाही का मोहरा बनाते जा रहे हैं, ख़ुदा ख़ैर करे।’ नकवी से पूछा जा सकता है कि उन युवाओं को किस ‘तालिबानी’ तबाही का मोहरा बनाया जा रहा है जो हिंदुस्तानी मुस्कानों का भगवा शाल-दुपट्टों और जयश्री राम के नारों के साथ पीछा करते हैं और राष्ट्रीय तिरंगे को नीचे उतारकर भगवा झंडा आकाश में लहराने का दुस्साहस दिखाते हैं? (कर्नाटक के एक मंत्री ने पिछले दिनों कहा था कि भविष्य में किसी दिन भगवा राष्ट्रीय ध्वज बन सकता है और तब उसे लाल क़िले से भी फहराया जा सकेगा )
असली मुद्दा हिजाब, बुर्का या पर्दा नहीं बल्कि इन पहरावों को हथियार बनाकर देश में धार्मिक-साम्प्रदायिक ध्रूवीकरण और तनाव उत्पन्न करना है।जो मुसलिम छात्राएँ हिजाब या बुर्का नहीं पहनतीं उनकी तरक़्क़ी के लिए नकवी साहब के विभाग के पास कोई अलग से बजट नहीं होगा। यही स्थिति दलित और अन्य पिछड़े वर्गों के बच्चों और महिलाओं की पढ़ाई को लेकर भी है।सरकारों से उनके कामों को लेकर सवाल करने से रोकने का अधिनायकवादी तरीका यही है कि शोषित समाजों के बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के उनके अधिकारों से वंचित कर दिया जाए।शिक्षण संस्थाओं में सभी बच्चों को एक जैसी पोशाकों में सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने के पीछे एक इरादा यह दिखाना भी हो सकता है कि सभी की पारिवारिक सम्पन्नता एक जैसी है और सभी के पेट समान रूप से भरे हुए हैं।
अदालती फ़ैसला अगर इसी बात पर होना है कि शिक्षण संस्थाओं में छात्र-छात्राओं को ऐसे परिधानों में प्रवेश की अनुमति दी जाए या नहीं जिनसे उनकी धार्मिक पहचान उजागर होती है तो फिर उस फ़ैसले में संविधान की शपथ लेकर उच्च पदों पर आसीन होने वाले व्यक्तियों के पहरावों और उनके सार्वजनिक आचरण को भी शामिल किया जाना चाहिए ! मुसलिम छात्राओं के माँ-बाप भी पूछ रहे हैं कि जब हिंदू छात्राएँ सिंदूर लगाती हैं, ईसाई छात्राएं क्रास पहनतीं हैं तो हमारी बच्चियों के हिजाब में क्या ग़लत है? इसका कौन जवाब देगा? मुख़्तार अब्बास नकवी या अदालतें?
कोई पच्चीस करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में चुनावों को लेकर मचे घमासान के बीच सिर्फ़ चार करोड़ की जनसंख्या के सुदूर दक्षिणी राज्य केरल की चर्चा करना थोड़ा अप्रासंगिक लग सकता है फिर भी ऐसा करना ज़रूरी है। कहा जा सकता है कि केरल भी अब उत्तर प्रदेश में तब्दील हो रहा है। धर्म, बलात्कार और ‘अन्याय’ के बीच चलने वाला अश्लील गठबंधन अपना चोला उतारकर वहाँ भी वस्त्रहीन हो रहा है यानी केरल में भी उन्नाव और हाथरस हो रहा है।
उनतालीस नहीं मुकरने वाले गवाहों के बयान, दो हज़ार पृष्ठों के आरोप-पत्र और निर्दोष एस आई टी जाँच को ख़ारिज करते हुए कोट्टायम (केरल) की एक अदालत ने एक नन के साथ तीन सालों (2014 से 2016) में तेरह बार दुष्कर्म करने के आरोपी 57-वर्षीय कैथोलिक बिशप फ़्रेंको मुलक्कल को संक्रांति (14 जनवरी) के दिन अपने एक पंक्ति के फ़ैसले में सभी आरोपों से बरी कर दिया। फैसला सुनाए जाने के समय पीड़िता नन की ओर से लड़ाई लड़ने वाली साथी ननें भी अदालत में उपस्थित थीं। कहने की ज़रूरत नहीं कि घटनाक्रम के सदमे से अवाक अदालत में उस समय मौजूद सभी एक-दूसरे से पूछ रहे थे कि जो फ़ैसला सुनाया गया क्या वह वाक़ई एक सचाई है?
उक्त प्रकरण के सिलसिले में कोट्टायम के ही एक कैथोलिक कान्वेंट की तब एक उन्नीस-वर्षीय नन अभया की तीस वर्ष पूर्व नृशंस तरीक़े से की गई हत्या का भी स्मरण कराया गया है। अभया का दोष सिर्फ़ इतना था कि उसने 27 मार्च 1992 अल सुबह दो पादरियों और एक ‘सिस्टर’ को कान्वेंट के रसोईघर में आपत्तिजनक स्थिति में देख लिया था। इसके बाद दुष्कर्म में लिप्त तीनों आरोपियों ने अभया की कुल्हाड़ी से हत्या करके उसकी लाश को कान्वेंट के परिसर स्थित कुएँ में डाल दिया था। हत्या में संलिप्तता के आरोप में तीनों आरोपियों को वर्ष 2008 में गिरफ़्तार कर लिया गया था पर सभी दो महीने के बाद ही ज़मानत पर रिहा हो गए थे। घटना के अट्ठाईस साल नौ महीने बाद (2020 में) एक पादरी और ‘सिस्टर’ को तिरुवनंतपुरम की सी बी आई अदालत ने उम्र क़ैद की सजा सुनाई थी। आगे क्या कुछ हो सकता है कहा नहीं जा सकता।
ताज़ा प्रकरण में बिशप फ़्रेंको को बलात्कार के आरोपों से बरी करते हुए कोट्टायम के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने अपने 289 पृष्ठों के फैसले में लिखा कि ननों के बीच आपसी लड़ाई और प्रतिष्ठान में सत्ता हथियाने के संघर्ष के स्पष्ट प्रमाण हैं। प्रकरण में अनाज और भूसे के बीच इस तरह का मिश्रण हो गया है कि दोनों को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट द्वारा किसी और मामले में पूर्व में दिए गए निर्णय का हवाला देते हुए जज ने अपने फैसले ऑर्डर में कहा कि जब सच को झूठ से अलग करना सम्भव न हो, जब अनाज और भूसा पूरी तरह आपस में मिल गए हों ; विकल्प यही बचता है कि सभी साक्ष्यों को ख़ारिज कर दिया जाए।
अदालत में जिन 39 गवाहों के बयान दर्ज हुए थे उनमें एक मुख्य धर्माध्यक्ष (आर्चबिशप )और एक धर्म प्रमुख (कार्डिनल) के अलावा तीन धर्माध्यक्ष (बिशप), ग्यारह पादरी (प्रीस्ट) और 25 ननें शामिल थीं। केरल और अन्य स्थानों पर चर्च में धर्म माफिया किस तरह से हावी हो रहा है इसका संकेत इस बात से मिलता है कि बिशप फ़्रेंको के ख़िलाफ़ बोलने वाले एक प्रमुख गवाह फादर कुरियाकोस कट्टथारा संदिग्ध परिस्थितियों में मृत पाए गए थे।
कोट्टायम अदालत द्वारा फ़ैसला देने के तुरंत बाद बिशप फ़्रेंको ने विभिन्न गिरिजाघरों की यात्रा करने के साथ-साथ पूर्व निर्दलीय विधायक पी सी जॉर्ज से भी मुलाक़ात की। बिशप के ख़िलाफ़ प्रकरण चलने के दौरान ही जॉर्ज ने फ़्रेंको का बचाव करते हुए कहा था कि उनके पास घटना के एक दिन बाद के पीड़िता नन के मलक्कल के साथ फ़ोटोग्राफ़ और वीडियो हैं जिनमें वह खुश नज़र आ रही है।’’ विधायक ने नन को ‘प्रोस्टीट्यूट’ भी करार दिया था।
एक अनुमान के मुताबिक़ देश भर में लगभग डेढ़ करोड़ की जनसंख्या वाले कैथोलिक ईसाइयों में पादरियों और ननों की संख्या डेढ़ लाख से अधिक है। पादरी कोई पचास हज़ार हैं बाक़ी नन हैं। ऊपरी तौर पर साफ़-सुथरे और महान दिखाई देने वाले चर्च के साम्राज्य में कई स्थानों पर ननों के साथ बंधुआ मज़दूरों या ग़ुलामों की तरह व्यवहार किए जाने के आरोप लगते रहते हैं। चर्च से जुड़े प्रतिष्ठानों में बच्चों व अन्य लोगों के साथ यौन शोषण के आरोप अब अमेरिका सहित दुनिया भर के देशों में एक बड़ी संख्या में उजागर हो रहे हैं। ईश्वरीय आस्था के नाम पर होने वाले अन्य भ्रष्टाचार अलग हैं। दुखद स्थिति यह है कि चर्च से जुड़ी हुई अधिकांश नन् या सिस्टर्स समस्त अन्याय शांत भाव से स्वीकार करती रहतीं हैं। कोई अगर विरोध की आवाज़ उठाता भी है तो अधिकांश मामलों में उसे अपनी लड़ाई अकेले ही लड़ना पड़ती है।
केरल में पिलाई के एक कैथोलिक पादरी जोसेफ कलरंगाट द्वारा कुछ माह पूर्व एक धार्मिक सभा में दिए गए इस बयान से राज्य के राजनीतिक क्षेत्रों में तहलका मच गया था कि देश में दो तरह के जिहाद चल रहे हैं : लव जिहाद और नारकोटिक जिहाद। पहले में मुस्लिम युवक ईसाई और हिंदू लड़कियों से जबरन विवाह कर उन्हें आतंक के रास्ते पर धकेलते हैं । दूसरे जिहाद में आईसक्रीम पार्लर, होटल और जूस कॉर्नर चलाने वाले धर्म विशेष के लोग दूसरे धर्मों के लोगों को ड्रग्स का आदी बनाते हैं। सत्तारूढ़ वाम मोर्चे और कांग्रेस ने बयान को समाज को बाँटने वाला बताया था जबकि भाजपा और संघ से जुड़े नेताओं ने उसके प्रति समर्थन व्यक्त करते हुए केंद्र से उसका संज्ञान लेने की माँग की थी।
बिशप फ़्रेंको के ख़िलाफ़ आरोपों की जाँच करने वाली स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम (एस आई टी) के प्रमुख ने अदालत के फ़ैसले को अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण और हैरान करने वाला बताया है। बिशप के ख़िलाफ़ लड़ाई का नेतृत्व करने वाली सिस्टर अनुपमा ने घोषणा की है कि संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक कि उनकी पीड़िता साथी को न्याय नहीं मिल जाता, वे इस काम के लिए जान भी देना पड़े तो तैयार हैं।
सवाल सिर्फ़ दो हैं : चर्चों और उनसे जुड़े लोगों के ख़िलाफ़ धर्म परिवर्तन कराने के आरोपों के नाम पर हमले करने वाले कट्टर हिंदुत्व के समर्थक राजनीतिक दल और धार्मिक संगठन पादरियों के यौनाचार प्रकरणों पर मौन क्यों साधे रहते है? क्या इसका कारण पोप से प्रेम या गोवा और मणिपुर उत्तर-पूर्व के विधानसभा चुनावों में ईसाई मत प्राप्त करना है ? दूसरे यह कि हाथरस,उन्नाव आदि में होने वाले बलात्कार के प्रकरणों में अगुवाई करने वाला मुख्यधारा का मीडिया केरल की इन बड़ी घटनाओं पर चुप क्यों बैठ जाता है? सवाल तो केरल से लोक सभा में प्रतिनिधित्व करने वाले और उन्नाव से बलात्कार की पीड़िता की माँ को कांग्रेस की ओर से विधानसभा का टिकट देने वाले राहुल गांधी से भी पूछा जा सकता है कि उन्नाव और कोट्टायम के बीच क्या दूरी इतनी ज़्यादा है?
एक ऐसे समय जब कांग्रेस अत्यंत कठिन राजनीतिक चुनौतियों के दौर से गुज़र रही है, लोग जानना चाह रहे हैं कि कई अपेक्षित-अनपेक्षित तूफ़ानों को मुस्कुराते हुए निपटा देने वाली इंदिरा गांधी अगर आज जीवित होतीं तो पार्टी के मौजूदा बदहाल हालात में ऐसा क्या करतीं जो उनकी बहू सोनिया गांधी नहीं कर पा रहीं हैं ? ताज़ा संकट पंजाब में प्रकट हुआ है।प्रदेश कांग्रेस के प्रमुख और मुख्यमंत्री पद के पुराने दावेदार नवजोत सिंह सिद्धू ने अब पार्टी प्रमुख सोनिया गांधी की हैसियत को चुनौती दे दी है।पंजाब में अभी चुनाव हुए नहीं हैं, मतदान होना बाक़ी है और महत्वाकांक्षी सिद्धू ने ताली ठोककर एलान कर दिया है कि मुख्यमंत्री पद का फ़ैसला पार्टी का आलाकमान नहीं बल्कि राज्य की जनता करेगी।यानी अगर राज्य में कांग्रेस को बहुमत मिल जाता है तो वे और उनके समर्थक ही सब कुछ तय करने वाले हैं।
इंदिरा गांधी के जमाने में उनके नेतृत्व को पार्टी के ही कई बड़े दिग्गजों द्वारा चुनौतियाँ दीं गईं, नई-नई पार्टियाँ बनाई गईं, कांग्रेस को विभाजित करने की कोशिशें कीं गईं पर वे अविचलित रहीं। एक बड़ा फ़र्क़ अब के मुक़ाबले तब में यह ज़रूर था कि कांग्रेस की अंदरूनी तोड़फोड़ में कोई बाहरी हाथ नहीं हुआ करता था। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी,आदि जैसे सौम्य नेता विपक्ष में हुआ करते थे।चंद्रशेखर, मोहन धारिया, कृष्णकांत, लक्ष्मी कांतम्मा जैसे ‘विद्रोही’ कांग्रेस में बने रहकर ही आंतरिक प्रजातंत्र की लड़ाई लड़ते रहते थे, कभी अलग पार्टी नहीं बनाई।
लगातार निरंकुश होते जा रहे सत्ता प्रतिष्ठान के ख़िलाफ़ लड़ाई के लिए जिस समय देश में एक राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस की सबसे ज़्यादा ज़रूरत महसूस की जा रही है ,हाल ही में अपनी 137वीं वर्षगाँठ मनाने वाली उसी कांग्रेस के ‘पारिवारिक’ किरायेदार/कर्णधार उतनी ही ताक़त से जनता को निराश कर रहे हैं। स्वतंत्रता संग्राम के समय के इस अग्रणी दल में नेतृत्व के ख़िलाफ़ जितने विद्रोह पिछले साढ़े छह दशकों में नहीं हुए होंगे, हाल के सवा दो दशकों में हो गए। एक के बाद एक राज्य और एक के बाद एक नेता और कार्यकर्ता पार्टी नेतृत्व के ख़िलाफ़ खुले आम बग़ावत कर रहा है।
मुझे साल 1974 की एक घटना का स्मरण है। तब मैं पटना में रहते हुए जे पी के काम में सहयोग कर रहा था। एक दिन चंद्रशेखर जे पी से मिलने उनके कदम कुआँ स्थित निवास पर आए। उनकी बातचीत के बीच मैं भी (केवल बातचीत सुनने वाले की तरह से ) दूर बैठा उपस्थित था। तमाम इतर बातों के बीच चंद्रशेखर ने जे पी से कहा कि इंदिरा जी के कारण पार्टी में उनके जैसे लोगों का काम करना मुश्किल हो रहा है। उनका आशय जे पी से कांग्रेस पार्टी छोड़ने की अनुमति प्राप्त करने से था। सार में यह कि जेपी ने सलाह दी कि वे पार्टी में रहते हुए ही आंतरिक लोकतंत्र के लिए अपनी लड़ाई जारी रखें और चंद्रशेखर लोकनायक का कहा मान भी गए।आज न तो इंदिरा गांधी हैं और न ही जयप्रकाश नारायण !
ग़ुलाम नबी आज़ाद ने पिछले दिनों जम्मू में अपने तूफ़ानी दौरे के समय इस सम्भावना से इनकार नहीं किया कि वे एक नई पार्टी (कांग्रेस ?) बना सकते हैं। ग़ुलाम नबी की पार्टी फिर जम्मू-कश्मीर में भाजपा के साथ सीटों का समझौता कर लेगी। अमरिंदर सिंह अपनी नई पार्टी बना ही चुके हैं और भाजपा के साथ सीटों का बँटवारा करके चुनाव भी लड़ने जा रहे हैं। कांग्रेस पार्टी में हाल के दिनों की विद्रोह की घटना उत्तराखंड में हरीश रावत जैसे विश्वसनीय नेता की थी जिसे समझा-बुझाकर बग़ैर ज़्यादा नुक़सान झेले हाल-फ़िलहाल के लिए शांत कर दिया गया।ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद की उमर वाले भाजपा (और तृणमूल भी) में भर्ती हो रहे हैं ; और बूढ़े महत्वाकांक्षी अपनी नई पार्टियाँ (कांग्रेस) बना रहे हैं।भाजपा और तृण मूल दोनों ने ही अपने दरवाज़े गिरिजाघरों की तरह ‘जो चाहे सो आए' की तर्ज़ पर सबके लिए खोल रखे हैं।
कुछ ऐसा चमत्कार रहा कि कांग्रेस के सामने अपनी स्थापना के बाद से विभाजित हो जाने, टूटकर बिखर जाने या ‘आत्महत्या’ कर लेने के कई अवसर आए (या उसने स्वयं पैदा कर लिए) पर पार्टी बनी रही।अपनी तमाम पुरानी चीज़ों के साथ उनके जर्जर हो जाने तक चिपके रहने वाले भारतीयों ने हर बार इस पार्टी को इतिहास के कबाड़ख़ाने में डालने से इनकार कर दिया।
गोडसे द्वारा धोखे से मार दिए जाने से ठीक एक दिन पहले राष्ट्र पिता महात्मा गांधी ने एक ड्राफ़्ट तैयार करके कांग्रेस को लोक सेवक संघ में परिवर्तित कर देश के लाखों गांवों की आर्थिक-सामाजिक आज़ादी के काम में जुटने की सलाह दी थी। गांधीजी का मानना था कि देश को अंग्रेजों से स्वतंत्रता प्राप्त कराने के साथ ही कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य पूरा हो गया है।एक राजनीतिक दल के रूप में उसकी ज़रूरत समाप्त हो गई है।गांधी की हत्या हो जाने के कारण कांग्रेस को लेकर उनकी आख़िरी मंशा तत्काल सार्वजनिक नहीं हो सकी थी।अगर हो जाती तो मुमकिन है गोडसे का इरादा बदल जाता। बाद में नेहरू ने भी गांधीजी की मंशा को पूरी करने में कोई रुचि नहीं दिखाई।
महात्मा गांधी की इच्छा के विपरीत कांग्रेस पार्टी मनी प्लांट की शाखाओं की तरह अपने मूल से टूट-टूटकर अलग-अलग नामों से फैलती रही पर नष्ट नहीं हो पाई। शायद ठीक ही हुआ होगा ! गांधी जी ने जब ड्राफ़्ट तैयार किया होगा वे कल्पना नहीं कर सकते थे कि 2014 के साल में उनके गुजरात से ही एक ऐसा शासक दिल्ली की सत्ता में आएगा जो किसी एक राजनीतिक दल से भारत को मुक्त करने के नाम पर उसी कांग्रेस का चयन करेगा जिसे वे स्वयं समाप्त करने की मंशा रखते थे। कह तो यह भी सकते हैं कि गोडसे और सावरकर को पूजने वाली भाजपा इस समय गांधी के सपने को ही पूरा करने में लगी है।
कांग्रेस को समाप्त होने से बचाए रखना ज़रूरी है। एक बिजूके की शक्ल में ही सही। इसलिए नहीं कि ऐसा करना गांधी-नेहरू परिवार को देश की उसकी सेवाओं के बदले भुगतान के लिए ज़रूरी है बल्कि इसलिए कि केसरिया परिधानों के बीच खादी के कुछ सफ़ेद कुर्ते-पायजामे भी नज़र आते रहेंगे तो दुनिया को दिखाने के लिए रहेगा कि खादी भंडारों के अलावा भी गांधी के जमाने का कुछ भारत में अभी बचा हुआ है और टूटी-फूटी हालत में लोकतंत्र भी जीवित है। यह एक विचित्र स्थिति है कि सर्वथा अलग-अलग कारणों से कांग्रेस की ज़रूरत चाहे देश के 106 करोड़ हिंदुओं में कम बची हो और इक्कीस करोड़ मुसलमानों का भी उस पर से यक़ीन फिर गया हो फिर भी उसे समाप्त करने के षड्यंत्रों के ख़िलाफ़ दोनों ही समुदायों का एक बड़ा वर्ग चिंतित है। कांग्रेस संगठन पर अपने एकाधिकार को बनाए रखने के गांधी-नेहरू परिवार के अहंकार के पीछे नागरिकों की इस कमजोरी को भी एक बड़े कारण के तौर पर गिनाया जा सकता है।
सोनिया गांधी और उनके परिवार ने हाड़-मांस के उन पुतलों के लिए संकट उत्पन्न कर दिया है जो न अंध भक्त हिंदू हैं , न कट्टर मुसलिम, सिख या ईसाई।वे केवल नागरिक हैं और बिना किसी क़बीलाई पहचानों के नागरिक ही बने रहना चाहते हैं।इन नागरिकों को यह जानकारी नहीं है कि कांग्रेस अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए इस समय क्या कर रही है ! नागरिकों की चिंता ‘परिवार’ नहीं भारत है।भारत को बनाए रखने के सम्बंध में कांग्रेस पार्टी की ज़रूरत के प्रति ये नागरिक अपने दादा-दादियों के द्वारा आज़माई जा चुकी किसी घूटी के नुस्ख़े की तरह आश्वस्त हैं।नागरिकों के सामने संकट यह है कि अधिनायकवादी ताक़तों से निपटने के लिए उनके पास समय कम है और ऐसे में उन्हें यह भी तय करना है कि वे पहले किसे बचाने की कोशिश करें : अपने आपको कि कांग्रेस को ?
देश के आम नागरिकों को कुछ भी सूझ नहीं पड़ रही है कि कोरोना की नई लहर में अपनी स्वयं की रक्षा की कोशिशों के बीच वे प्रधानमंत्री के पंजाब दौरे के दौरान उनके सुरक्षा इंतज़ामों में हुई चूक को लेकर किस तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त करें ! घटना निश्चित ही काफ़ी गम्भीर रही होगी क्योंकि प्रधानमंत्री का पंजाब के अफ़सरों को कथित तौर पर यह कहना कि :’अपने सी एम को थैंक्स कहना कि मैं बठिंडा एयरपोर्ट तक ज़िंदा लौट पाया ‘’, काफ़ी मायने रखता है। नरेंद्र मोदी को उनके गुजरात और दिल्ली के बीस साल के शासनकाल के दौरान इस तरह से ‘ऑन-द-स्पॉट’ नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए पहले कभी देखा या सुना नहीं गया। यह भी तय है कि इस तरह की किसी चूक की कल्पना भाजपा के शासन वाले राज्य में क़तई नहीं की जा सकती।
प्रधानमंत्री की सलामती के लिए महामृत्युंजय मंत्र के जाप और पूजा पाठ में जुटे मुख्यमंत्री और अन्य नेता इस बात से शायद परेशान होंगे कि पंजाब की घटना को लेकर लोग सामूहिक रूप से विलाप क्यों नहीं कर रहे हैं ! बठिंडा एयरपोर्ट की घटना के ब्यौरे जब विस्तार से जारी हुए ( या करवाए गए )तब चुनावी तैयारियों में जुटे सत्तारूढ़ दल के नेताओं को उसके सहानुभूति की लहर में तब्दील हो जाने की उम्मीदें रहीं होंगी पर वैसा नहीं हुआ।
इसमें दो मत नहीं कि प्रधानमंत्री के क़द के व्यक्ति की सुरक्षा व्यवस्था में जो चूक हुई है वह चिंताजनक है। इस तरह की चूकों का असली ख़ामियाज़ा भी अफ़सरों को ही भुगतना पड़ता है। ममता बनर्जी और चरणजीत सिंह चन्नी में जितना फ़र्क़ है उतना तो ये अफ़सर भुगतने भी वाले हैं। यह कहना कठिन है कि बठिंडा की घटना का राजनीतिक असर पंजाब विधानसभा के चुनाव परिणामों पर या भाजपा और कैप्टन अमरिंदर सिंह के पक्ष में कितना पड़ेगा। भाजपा को फ़ायदे के बजाय नुक़सान भी हो सकता है। प्रधानमंत्री के फ़िरोज़पुर के हुसैनीवाला से बग़ैर रैली किए दिल्ली वापस लौट आने का परिणाम यह भी हो सकता है कि नवजोत सिंह सिद्धू की मंशा के विपरीत चन्नी और ज़्यादा मज़बूती के साथ चंडीगढ़ स्थित विधानसभा में लौट आएँ।
चुनाव परिणामों की बात को फ़िलहाल छोड़ दें तो बठिंडा एयरपोर्ट पर जो भी हुआ उससे कुछ दूसरे सवाल भी उपजते हैं ! पहला यह कि किसी भी जीते-जागते लोकतंत्र में उस देश के मतदाताओं/नागरिकों द्वारा अपनी माँगों को लेकर किए जाने वाले शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शनों को देश के अतिमहत्वपूर्ण व्यक्तियों की जान पर ख़तरे की आशंका से जोड़कर देखना अथवा प्रचारित करना प्रजातांत्रिक मूल्यों और व्यवस्थाओं में किस सीमा तक उचित समझा जाना चाहिए ! क्या दुनिया की अन्य लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में भी हमारी तरह का ही सोच क़ायम है ?
दूसरा यह कि सुरक्षा व्यवस्था में चूक इस के अनुभव के बाद क्या प्रधानमंत्री पंजाब की किसी अन्य चुनावी सभा या कार्यक्रम में सड़क मार्ग से भाग लेना बंद कर देंगे ? अगर अपनी माँगों को लेकर किसान असंतुष्ट हैं तो संभव है कि बठिंडा के फ्लाईओवर जैसे प्रदर्शनों का सिलसिला कभी बंद ही न हो। नाराज़ तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट-मुसलिम किसान भी हैं। तो क्या प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और अन्य बड़े नेता इस क्षेत्र का चुनावी दौरा नहीं करेंगे ? पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूर्वांचल भी किसानों की नाराज़गी के दौर से गुज़र रहा है जबकि वहाँ इस तरह का कोई आंदोलन ही नहीं है।
सवाल यह भी बनता है कि किसी भी विशिष्ट अथवा अतिविशिष्ट व्यक्ति की सुरक्षा-व्यवस्था को भेद पाने की एक ऐसे संवेदनशील सीमवर्ती क्षेत्र में कोई कैसे हिम्मत कर सकता है जो हमारे जाँबाज़ सैनिकों की नज़रों में चौबीसों घंटे क़ैद रहता है ? घटनास्थल पाक सीमा से सिर्फ़ तेईस किलोमीटर दूर बताया गया है। जिस फ्लाईओवर का ज़िक्र घटना के संदर्भ में किया जा रहा है वहाँ प्रधानमंत्री को पंद्रह से बीस मिनट रुकना पड़ा था। भारतीय वायु सेना के बहादुर जवान तो पाँच मिनिट से कम समय में अपना रक्षा कवच वहाँ खड़ा कर सकते हैं। प्रदर्शनकारी तो क्या कोई परिंदा भी प्रधानमंत्री के क़ाफ़िले तक पहुँचने की हिम्मत नहीं कर सकता था ।
इतना ही नहीं ! एस पी जी (स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप) के विशेष तौर पर प्रशिक्षित कोई तीन हज़ार जवानों के ज़िम्मे केवल एक ही काम है ! वह यह कि केवल एक व्यक्ति यानी प्रधानमंत्री को सुरक्षा प्रदान करना। एस पी जी का सालाना बजट छह सौ करोड़ से अधिक का बताया जाता है।जाँच का असली विषय तो यह होना चाहिए कि सोशल मीडिया पर प्रसारित हो रहे तमाम वीडियो में भाजपा के जिन कार्यकर्ताओं को प्रधानमंत्री के क़ाफ़िले के नज़दीक उनकी जय-जयकार करते हुए दिखाया जा रहा है वे वहाँ तक कैसे पहुँच पाए !
पंजाब के अफ़सरों को प्रधानमंत्री ने जो भी कहा होगा उसकी आधिकारिक पुष्टि होना अभी बाक़ी है। हो सकता है कि इस संबंध में प्रधानमंत्री के कुछ बोलने तक वह पुष्टि न भी हो।अभी तो एक संवाद एजेंसी द्वारा जारी खबर पर ही सारा बवाल मचा हुआ है।मोदी की दिल्ली वापसी के बाद का घटनाक्रम भी यहीं तक सीमित है कि उन्होंने राष्ट्रपति से मुलाक़ात की। घटना की जाँच के बिंदुओं में भी सुरक्षा व्यवस्था में चूक ही शामिल है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बठिंडा के पुलिस प्रमुख व पाँच अन्य वरिष्ठ अधिकारियों से इसी बाबत जवाब-तलब किया है।
संवाद एजेंसी के समाचार को अगर (खंडन जारी होने तक ) सही मान लिया जाए तब भी प्रधानमंत्री की ‘त्वरित टिप्पणी’ को एक ‘ओवर-रिएक्शन’ मानते हुए नागरिकों द्वारा घटना पर ज़्यादा चिंता प्रकट नहीं करने को उचित ठहराया जा सकता है। चुनावों के ऐन पहले इस तरह की ‘ऑन-द-स्पॉट’ टिप्पणियों को परिणामों को लेकर सत्तारूढ़ दल की उहापोह के साथ जोड़कर भी देखा जा सकता है। इन उहापोह में यह आशंका भी शामिल की जा सकती है कि घटना का कोई चुनावी लाभ तो प्राप्त नहीं हो उलटे एक और अल्पसंख्यक समुदाय सत्तारूढ़ दल से अब पूरी तरह ही दूर छिटक जाए।आंदोलनकारियों के संगठन ‘संयुक्त किसान मोर्चा’ ने प्रधानमंत्री की जान को ख़तरे सम्बन्धी लगाए गए आरोपों को पंजाब की जनता और आंदोलन का अपमान बताते हुए कहा है कि असली ख़तरा तो उनकी (किसानों की) जानों को अजय मिश्रा टेनी जैसे ‘अपराधियों’ से है जो केंद्र में मंत्री भी बने हुए हैं और खुले आम घूम भी रहे हैं।
सुरक्षा इंतज़ामों को लेकर प्रधानमंत्री के कथित तौर पर ‘आपा खो देने’ को यही मानते हुए स्वीकार कर लिया जाना चाहिए कि मोदी इस समय दोहरे दबाव में हैं : एक तरफ उन्हें उत्तर प्रदेश और तीन अन्य राज्यों (उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर) में अपनी पार्टी की सरकारें बचानी है और पंजाब को कांग्रेस से मुक्त कराना है ।दूसरी तरफ उन्हें कोरोना के ताज़ा प्रकोप से नागरिकों की जानें सुरक्षित करना है।उनकी बाक़ी समस्याएँ अपनी जगह पूर्ववत क़ायम हैं ही।चुनाव की तारीख़ों का ऐलान हो चुका है ।अतः बठिंडा एपिसोड को मतदान संपन्न हो जाने तक भुला दिया जाना चाहिए ।
हरिद्वार (उत्तराखंड) में पिछले दिनों संपन्न विवादास्पद ‘धर्म संसद’ में भाग लेने वाले सैकड़ो महामंडलेश्वरों, संतों, हज़ारों श्रोताओं और आयोजन को संरक्षण देने वाली राजनीतिक सत्ताओं के लिए हालिया समय थोड़ी निराशा का हो तो आश्चर्य की बात नहीं। किसी को उम्मीद नहीं रही होगी कि एक समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष प्रारम्भ कर हिंदू राष्ट्र क़ायम करने की मंशा से जिस तरह के उत्तेजनापूर्ण भाषण धर्म संसद में दिए गए उनका न तो देश के एक सौ आठ करोड़ हिंदू उत्साह के साथ स्वागत करेंगे और न ही इक्कीस करोड़ मुसलमान अचानक से डरने लगेंगे।
धर्म संसद में कही गई बातों को यहाँ दोहराने की ज़रूरत इसलिए नहीं कि धार्मिक उत्तेजना फैलाने के आरोप में वक्ताओं के विरुद्ध किसी भी कार्रवाई का होना अभी बाक़ी है। संदेह है कि न्यायपालिका भी इस बाबत कोई संज्ञान लेना चाहेगी। इस तरह की कोई धर्म संसद अगर किसी अल्पसंख्यक समुदाय ने आयोजित की होती तो उसके आयोजकों और वक्ताओं के ख़िलाफ़ देशद्रोह के हज़ारों मुक़दमे क़ायम हो जाते।(तबलीगी जमात को लेकर मीडिया की मदद से जिस तरह का विषाक्त माहौल कोरोना की दूसरी लहर के दौरान देश भर में बनाया गया था उसका स्मरण किया जा सकता है।)हरिद्वार-आयोजन को लेकर भाजपा के एक राष्ट्रीय प्रवक्ता की एक अंग्रेज़ी समाचार पत्र को दी गई प्रतिक्रिया यही थी कि :’ धर्म संसद के विषय में आप धर्म संसद वालों से ही पूछिए।’
धर्म संसदों के आयोजकों और उनके राजनीतिक संरक्षकों को इस बात पर विचार प्रारम्भ कर देना चाहिए कि उनकी मंशा के मुताबिक़ परिणाम नहीं निकले तो आगे क्या करेंगे ? एक मुक़ाम पर पहुँचने के बाद सारे कट्टरपंथी धार्मिक संगठन थक जाएँगे। अल्पसंख्यकों को लेकर हिंदुओं में असुरक्षा का भय पैदा करके सत्ता में बने रहने के प्रयोग सफल नहीं हो पाएँगे।अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ उन्हें किसी नई रणनीति पर ही काम करना पड़ेगा जिसमें यह भी शामिल करना होगा कि सांप्रदायिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किसी भी तरह के शस्त्र प्रशिक्षण अथवा परीक्षण में आम हिंदुओं की कभी कोई रुचि नहीं रही है।
इस बात में भी शक है कि बाबरी ढाँचे के हिंसक तरीक़े से हुए विध्वंस या गोधरा कांड के बाद हुए दंगों के कोई सीक़्वल ही बनाए जा सकें। इस दिशा में कोशिश हुई तो उनकी लागत बहुत ज़्यादा आएगी।राजनीतिक दलों के बीच चलने वाले सत्ता प्राप्ति के षड्यंत्रों ने हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों को ही काफ़ी समझदार बना दिया है। इस समझदारी में हिंदुओं को हुए इस ज्ञान की प्राप्ति भी शामिल है कि इक्कीस करोड़ मुसलमानों को न तो अरब सागर या बंगाल की खाड़ी में धकेला जा सकता है, न उन्हें देश निकाला दिया जा सकता है और न ही बताए जा रहे हिंसक उपायों के ज़रिए ख़त्म किया जा सकता है। धार्मिक कट्टरपंथियों के लिए चिंता का विषय यह होना चाहिए कि अल्पसंख्यक समुदाय अपनी मौजूदा ख़राब आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों को लेकर समाज के दूसरे वर्गों की तरह सरकारों से कोई शिकायतें क्यों नहीं करता और क्यों सत्ता और संसाधनों में अपनी आबादी के मान से भागीदारी की माँग नहीं करता है ! अल्पसंख्यकों ने हरेक परिस्थिति में इस तरह जीना सीख लिया है कि उनके पास खोने के लिए अब कुछ खास बचा ही नहीं है।
कांग्रेस के प्रति मुसलमानों के मोहभंग का एक बड़ा कारण डॉ. मनमोहन सिंह के इस कथन का झूठा साबित होना भी रहा कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार अल्पसंख्यकों का है।(हरिद्वार की धर्म संसद के एक भाषण में मनमोहन सिंह पर गोली चलाने का कथित मंतव्य पूर्व प्रधानमंत्री के इसी कथन के परिप्रेक्ष्य में व्यक्त किया गया था।) कांग्रेस अपने ऊपर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के आरोप भी झेलती रही और उसने इस समुदाय की बेहतरी के लिए कभी कुछ किया भी नहीं। अल्पसंख्यकों की जैसी सामाजिक-आर्थिक स्थिति आज है वैसी ही कांग्रेस की हुकूमतों के दौरान भी रही। कांग्रेस के शासनकालों की तुलना में अल्पसंख्यक सम्भवतः अटल जी के नेतृत्व वाली एन डी ए की सरकार में अपने को ज़्यादा सम्पन्न और सम्मानित महसूस करते थे।
कहा तो यह भी जाता है कि अटलजी की शानदार छवि और काम के बावजूद 2004 के लोक सभा चुनावों में कांग्रेस के पक्ष में सत्ता परिवर्तन का कारण एन डी ए के शासनकाल के प्रति मुसलमानों की नाराज़गी नहीं बल्कि भाजपा और संघ के अंदरूनी क्षेत्रों में अटलजी के कथित अल्पसंख्यक उदारवाद के ख़िलाफ़ विद्रोह था। पश्चिम बंगाल विधानसभा के चुनाव नतीजे उदाहरण हैं कि वहाँ के मुसलमानों ने कांग्रेस की नक़ली धर्मनिरपेक्षता का साथ देने के बजाय खुले आम चण्डीपाठ करने वाली ममता की पार्टी के लिए वोट करना अपने लिए ज़्यादा हितकर समझा।पश्चिम बंगाल के सभी हिंदू भी भाजपा के पक्ष में नहीं खड़े हुए। कोलकाता और चंडीगढ़ में हाल में हुए स्थानीय निकायों के चुनावों में भी ममता और केजरीवाल के नरम हिंदूवाद ने भाजपा के कट्टर हिंदुत्व को पीछे धकेल दिया।
धर्म संसद जैसे आयोजनों से उठने वाली आवाज़ें मोदी के नेतृत्व वाले भारत की छवि को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तो क्षति पहुँचा ही रही है, देश के भीतर भी भाजपा की ताक़त को कमजोर कर रही है। योगी के कट्टर हिंदुत्व वाले उत्तर प्रदेश में भाजपा की संघर्षपूर्ण स्थिति इसका उदाहरण है।’हिंदुत्व’ की हिंसा के ज़रिए अल्पसंख्यकों पर विजय पाने या उन्हें समाप्त कर देने की कोई भी रणनीति इसलिए सफल नहीं हो सकती कि अब तो कांग्रेस समेत सारी ही पार्टियाँ हिंदुत्व की शरण में पहुँच गईं हैं।
भाजपा अगर धर्म संसद जैसे अतिवादी आयोजनों पर अंकुश नहीं लगाएगी तो उससे मुसलमानों का तो कम नुक़सान होगा, उसके अपने प्रतिबद्ध हिंदू वोट बैंक में ममता, उद्धव, अखिलेश, केजरीवाल आदि के साथ-साथ अब प्रियंका और राहुल भी बड़ी सेंध लगा देंगे।कहना कठिन है कि सत्ता के इस पड़ाव पर पहुँचकर मोदी अपनी स्थापित छवि में कोई उदारवादी संशोधन/परिवर्तन करना चाहेंगे और यह भी कि क्या संघ का एजेंडा उन्हें ऐसे किसी नए अवतार में प्रकट होने की छूट देगा? हरिद्वार की धर्म संसद के आयोजकों को अगर अपने परिश्रम के ‘अपेक्षित’ परिणाम प्राप्त नहीं होते हैं तो क्या नागरिकों को आने वाले दिनों में कुछ नए प्रयोगों की भी डरते-डरते प्रतीक्षा करना चाहिए? प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह के एक साक्षात्कार में इस कथन पर चिंता के साथ गौर किया जा सकता है कि :'ये लोग (धर्म संसद के वक्ता) नहीं जानते कि वे क्या कह और कर रहे हैं ! ये लोग देश में खुले तौर पर गृह युद्ध को आमंत्रित कर रहे हैं !’
ममता बनर्जी की ताजा राजनीतिक गतिविधियों और अन्य दलों में तोडफ़ोड़ ने अचानक से देश भर में उत्सुकता पैदा कर दी है। ऊपरी तौर पर तो ममता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लड़ती हुई नजऱ आ रहीं हैं पर असल में वे विध्वंस कांग्रेस का कर रही हैं। कांग्रेस से नाराज होकर ही उन्होंने जनवरी 1998 में अपनी नई पार्टी (तृणमूल कांग्रेस) के जरिए पश्चिम बंगाल में माक्र्सवादियों से लड़ाई शुरू की थी। हाल तक कांग्रेस सिर्फ भाजपा से ही डरी-सहमी रहती थी पर अब ममता भी उसके लिए खौफ का नया कारण बन रही हैं। उत्तर भारत के लोग नंदीग्राम के बाद ममता का कांग्रेस के खिलाफ चण्डी पाठ प्रारंभ करने का सही कारण तलाशना चाह रहे हैं।
क्या ममता बनर्जी में स्वयं को प्रधानमंत्री के पद पर विराजित देखने की आकांक्षाएं उत्पन्न हो गईं हैं ? फिलहाल इस विषय पर बहस टाली जा सकती है कि पश्चिम बंगाल के बाहर शेष देश में प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी उम्मीदवारी उस तरह स्वीकार्य हो सकेगी या नहीं जैसी कि मोदी की हो गई थी। साथ ही यह भी कि क्या देश किसी ऐसे अहिंदी-भाषी प्रधानमंत्री को स्वीकार कर पाएगा जिसकी लोकतांत्रिक मूल्यों, अभिव्यक्ति की आजादी और विपक्ष के अस्तित्व को लेकर छवि मोदी से ज्यादा भिन्न नहीं है।
जहां तक किसी बांग्ला भाषी के प्रधानमंत्री के पद पर काबिज हो पाने की भावनाओं का संबंध है, अपने समय के लोकप्रिय मुख्यमंत्री ज्योति बसु की महत्वाकांक्षाओं को लेकर भी ऐसी ही चर्चाएँ अतीत में चल चुकीं हैं। देश जानता है कि तब उनकी ही पार्टी के ताकतवर नेताओं ने उनके इरादों में सेंध लगा दी थी। 1984 में इंदिरा गांधी के निधन के तत्काल बाद इस उच्च पद के लिए प्रणब मुखर्जी की दावेदारी मज़बूत मानी जा रही थी पर बाद में जो कुछ हुआ वह इतिहास और मुखर्जी की किताब में दर्ज है। उसके बाद से प्रणव मुखर्जी और गांधी परिवार के बीच संबंध कभी सामान्य नहीं हो पाए। अत: अनुमान ही लगाया जा सकता है कि भविष्य में कभी ममता की ऐसी किसी दावेदारी पर ‘गांधी परिवार’ का रुख क्या होगा! ऐसा इसलिए कि गांधी परिवार में ही इस पद को लेकर अब दो सशक्त दावेदारों के चेहरे प्रकाश में हैं।
हाल ही में चार-दिनी यात्रा पर दिल्ली पहुँची ममता के कार्यक्रम में कीर्ति आजाद को कांग्रेस से तोडक़र तृणमूल में शामिल करने के अलावा सोनिया गांधी से मुलाकात करना भी कथित तौर पर शामिल था पर यह बहु-अपेक्षित भेंट अंतत: नहीं हो पाई। सोनिया गांधी अपनी व्यस्त दिनचर्या में ममता के लिए कोई खाली समय नहीं निकाल पाई होंगी। बाद में ममता ने यही सफाई दी कि उन्होंने श्रीमती गाँधी से भेंट के लिए समय माँगा ही नहीं था।
लगता है कि भाजपा के साथ राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष में उतरने से पहले ममता के लिए यह जरूरी हो गया है कि विपक्ष के नेतृत्व के दावेदारों की सूची से राहुल, प्रियंका, केजरीवाल आदि के नामों पर ताले पड़वाए जाएँ। बिहार के ‘सुशासन बाबू’ नीतीश कुमार किसी समय विपक्ष के नेता के तौर पर प्रकट हुए थे पर भाजपा के साथ एकाकार करके उन्होंने अपने को दिल्ली से दूर कर लिया है। पवन वर्मा की तृणमूल में भर्ती के बाद तो ममता के साथ उनका कोई सार्थक संवाद संभव भी नहीं।
यह मानने के पर्याप्त कारण गिनाए जा सकते हैं कि भले ही इस समय कांग्रेस का परिवारवाद प्रधानमंत्री के निशाने पर है, लेकिन, आगे चलकर उनके हमले तृणमूल कांग्रेस पर ही बढऩे वाले हैं। पश्चिम बंगाल की भाजपा और वहाँ के राज्यपाल के लिए थोड़े आश्चर्य की खबर रही होगी कि ममता से मुलाकात के दौरान मोदी ने अगले साल अप्रैल में कोलकाता में होने वाली ‘बिस्व बांग्ला ग्लोबल बिजऩेस समिट’ का उद्घाटन करने का आमंत्रण स्वीकार कर लिया। उल्लेखनीय यह है कि इस समिट के होने तक उत्तर प्रदेश सहित पाँचों राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के नतीजे आ चुके होंगे। प्रधानमंत्री अगर उत्तर प्रदेश के पचहत्तर जिलों में पचास रैलियाँ करने वाले हैं तो इस बात के महत्व को समझा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों और फिर वहाँ के उप-चुनावों में भी करारी हार के बाद पहली बार कोलकाता की यात्रा पर जाने वाले मोदी ने ममता के आमंत्रण को क्या कुछ सोचकर स्वीकार किया होगा!
पहले स्वयं अपनी ओर से, फिर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के जरिए गांधी परिवार के साथ बातचीत के बाद ममता शायद इस निष्कर्ष पर पहुँच चुकी हैं कि साल 2024 में सत्ता प्राप्ति के लिए कांग्रेस विपक्षी एकता की धुरी नहीं बन सकती। दूसरे यह कि हिंदी-भाषी क्षेत्रों में तृणमूल की ज़मीन तैयार करने के लिए दूसरे दलों की ज़मीन पर ही दल-बदल का हल जोतना पड़ेगा। इस सिलसिले में ममता को ज़्यादा संभावनाएं कांग्रेस के असंतुष्टों में ही नजऱ आती हैं। भाजपा द्वारा सफलतापूर्वक सेंध लगा लिए जाने के बाद अब ममता को भी लगता है कि तृणमूल के लिए भी नई भर्ती कांग्रेस से ही की जा सकती है। ममता यह सावधानी अवश्य बरत रही हैं कि जिन राज्यों में कांग्रेस सत्ता में है या उसके सत्ता में आने की प्रबल संभावनाएं हैं वहाँ वे फिलहाल तोडफ़ोड़ नहीं कर रही हैं। ममता बहुत ही नियोजित तरीके से उत्तर-पूर्व के राज्यों में भाजपा (और कांग्रेस को भी) चुनौती दे रही हैं। त्रिपुरा के बाद मेघालय का राजनीति घटनाक्रम इसका उदाहरण है।
ममता शायद अंतिम रूप से मान चुकी हैं कि गांधी परिवार भाजपा से सीधी टक्कर लेने का दम-खम नहीं रखता है। तृणमूल ने संसद में कांग्रेस के साथ किसी भी तरह का समन्वय करने से भी इंकार कर दिया है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि जब ममता के ही रणनीतिकार प्रशांत किशोर का मानना है कि देश भर में दो सौ से ज़्यादा लोकसभा सीटें कांग्रेस के प्रभाव क्षेत्र की हैं तो वे एक बड़े राष्ट्रीय दल को अलग रखकर फिलहाल पश्चिम बंगाल तक ही सीमित क्षेत्रीय दल तृणमूल को विपक्षी एकता की धुरी कैसे बना पाएँगी? साथ ही यह भी कि ममता के क्रिया-कलापों से अगर गांधी परिवार नाराज होता है और परिणामस्वरूप कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के बीच एकता में दरार पड़ती है तो भाजपा के लिए खुश होने के पर्याप्त कारण बनते हैं। विपक्षी दलों के सामने निश्चित ही संकट उत्पन्न हो जाएगा कि वे कांग्रेस के एकता प्रयासों के साथ जाएँ कि ममता के! तो क्या ममता कांग्रेस को तोडऩे में मोदी की मदद कर रहीं हैं? जिस कांग्रेस पार्टी को 136 वर्षों से अखिल भारतीयता और राष्ट्रीय सहमति प्राप्त है उसे कमजोर करके कुछ ही सालों में तृणमूल को राष्ट्रीय स्वीकृति बनाने की कोशिशों में ममता शायद मोदी को ही और मजबूत करने का जुआ खेल रहीं हैं।
किसी भी दल या धर्म विशेष के प्रति प्रतिबद्ध किंतु परम्परागत रूप से सहिष्णु नागरिकों को अगर सुनियोजित तरीके से समझा दिया जाए कि राष्ट्र की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए धार्मिक ‘असहिष्णुता’ का ‘औचित्यपूर्ण’ इस्तेमाल आवश्यक है तो बिना किसी सैन्य हस्तक्षेप अथवा हिंसा की जरूरत के नितांत अहिंसक जरिए से ही एक जागृत प्रजातंत्र को संवेदनशून्य अधिनायकवादी व्यवस्था में बदला जा सकता है।
अन्याय कारणों से लगातार विवादों/सुर्खियों में बनी रहने वाली सिने तारिका कंगना रनौत जब बिना किसी तर्क के यह कहती हैं कि देश को असली आजादी 1947 में (गांधी के नेतृत्व में) नहीं बल्कि 2014 में (नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में) मिली है और जब जाने-माने विधिवेत्ता और वरिष्ठ कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद तार्किक आधार पर चिंता जताते हैं कि ‘राजनीतिक’ हिंदुत्व हमारे संतों और ऋषि-मुनियों द्वारा प्रतिपादित हिंदुत्व से भिन्न है तो हम वर्तमान में अपने आसपास घट रहे घटनाक्रम को आसानी से समझ सकते हैं।
हमें कंगना के कहे के पीछे छिपे मजबूत राजनीतिक-धार्मिक समर्थन को इस तरीके से समझना चाहिए कि एक सफल सिने तारिका के तौर पर वे केवल एक लिखी और समझाई गई स्क्रिप्ट को ही व्यावसायिक अथवा क्रूर तरीके से पेश कर सकतीं हैं। आजादी की लड़ाई को लेकर कंगना जो कुछ भी कह रहीं हैं उसमें और संघ तथा भाजपा के अनुभवी वक्ता अपनी सधी हुई जुबान और विनम्र अंदाज में जो व्यक्त करते हैं उसमें ज़्यादा फर्क नहीं है। कंगना को अपने मन की बात कहने का हुनर जब पूरी तरह से हासिल हो जाएगा तब उनके किसी भी कहे पर उतनी उग्र प्रतिक्रिया नहीं होगी जैसी कि अभी हो रही है।
राजनीति में फर्क इस बात से भी पड़ता है कि कौन सी बात कौन कह रहा है! मसलन हिंदुत्व को लेकर सलमान खुर्शीद द्वारा अपनी नई किताब ‘सनराइज ओवर अयोध्या’ में लिखी बात अगर शंकराचार्यों की श्रेणी का कोई प्रतिष्ठित हिंदू विद्वान कह देता तो इतना बवाल नहीं मचता। सलमान के लिखे के प्रति हो रहे विरोध में यह समाहित है कि एक मुस्लिम को हिंदुत्व की व्याख्या करने का अधिकार किसने दे दिया? यही कारण है कि जब राहुल गांधी ‘हिंदुत्व’ और ‘हिन्दुवाद’ के बीच का फर्क समझाते हैं तो कोई हल्ला नहीं मचता। ऐसा इसलिए कि कांग्रेस के नायक ने खुद को बतौर एक जनेऊधारी हिंदू के भी सार्वजनिक जीवन में स्थापित करवा लिया है। कोई मुस्लिम तो कंगना की जुबान में यकीनन कह ही नहीं सकता कि देश को आजादी 1947 में नहीं बल्कि 2014 में प्राप्त हुई है। वह हकीकत में क्या कहना चाहेगा उसका भी केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है।
कंगना ने जो कुछ भी कहा उसके प्रति शोक व्यक्त करने के बजाय ज्यादा खौफ इस बात का होना चाहिए कि सम्भ्रांत नागरिकों की जो जमात ‘टाईम्स नाउ’ के शिखर सम्मेलन के दौरान एंकर के साथ उनकी बातचीत को सुनने के लिए हॉल में उपस्थित थी वह क्या प्रतिक्रिया व्यक्त कर रही थी! यह जानना इसलिए जरूरी है कि ‘अकेली’ कंगना नहीं हैं बल्कि ‘अकेले’ वे तमाम लोग हैं जो इस समय सोशल मीडिया पर सिने तारिका का विरोध करने में जुटे हुए हैं।
चैनल की एंकर नाविका कुमार ने जब सावरकर को लेकर सवाल किया तो कंगना ने उलट कर पूछ लिया : सेक्युलर क्या होता है? सेक्युलर का मतलब यही होता है कि यह जमीन (देश) किसी की नहीं है। न आपकी, न मेरी, हरेक आदमी की! यह जमीन किसी की भी नहीं है। ठीक? कांग्रेस के नाम पर अंग्रेज जो छोड़ गए हैं, ये वह है। ये (कांग्रेस) अंग्रेजों के ही पुछल्ले (एक्सटेंशन) हैं।’ कंगना ने जैसे ही यह कहा हॉल में पीछे की तरफ बैठा नागरिक समाज तालियाँ बजाने लगा। अंग्रेजी अख़बार ‘द टेलिग्राफ’ के मुताबिक, कंगना ने आगे जब यह कहा कि 1947 में जो मिला वो आजादी नहीं थी भीख थी और जो आजादी प्राप्त हुई है वह 2014 में मिली है तो हॉल में तालियाँ और भी जोरों से गूंज उठीं। अग्रिम पंक्तियों में बैठे लोग भी तालियाँ बजाने वालों में शामिल हो गए। पूरे हॉल में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जो खड़ा होकर विरोध करने की हिम्मत दिखा सके।
कंगना के कहे को ‘राजनीतिक’ हिंदुत्व के इस आशय की तरह स्वीकार किया जा सकता है कि जो ‘आजादी’ 2014 में प्राप्त हुई है उसकी हिफाजत उस तरह से नहीं की जा सकती जिस तरह से 1947 में आजादी (‘भीख’ में) प्राप्त हुई थी। कंगना वही कह रही हैं जो कि कट्टर राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के समर्थक गांधी की अहिंसा के औचित्य को खारिज करते हुए सावरकर के अनन्य भक्त गोडसे के कृत्य का विरोध नहीं करते। सवाल यह है कि ‘हिंदुत्व’ के इस नए ‘राजनीतिक’ अवतार के बारे में क्या कभी संघ या भाजपा का कोई नेता सलमान ख़ुर्शीद की तरह से किताब लिखना चाहेगा? शायद नहीं। ऐसा इसलिए कि सलमान ख़ुर्शीद ने स्वयं के इस्लाम धर्म के संदर्भ में आयसिस और बोको हरम के इस्लाम को जिहादी इस्लाम बताने का साहस दिखाया है। सलमान उसी ओर इशारा कर रहे हैं जिस ओर कंगना संघ और भाजपा के हिंदुत्व के नेतृत्व में देश को 2014 में मिली आजादी की ओर इशारा कर रही हैं।
भारतीय राजनीति में यह एक सर्वथा अभिनव प्रयोग है कि आजादी प्राप्ति की नई अवधारणा की स्थापना में किसी परिपक्व महिला नेत्री अथवा साधु-साध्वियों के स्थान पर एक फैशनेबल सिने तारिका कहीं ज़्यादा प्रभावशाली साबित होती दिख रही है। कंगना ने अपने बड़बोलेपन से न सिर्फ अपनी ही उस आजादी का अपमान किया है जिसका कि अमृत महोत्सव उनके ही नायक नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में मनाया जा रहा है बल्कि दक्षिण अफ्रीका सहित दुनिया के उन तमाम राष्ट्रों का भी अपमान किया है जिन्होंने गांधी की बताई अहिंसा के जरिए अपने नागरिकों के लिए स्वतंत्रता प्राप्त की है। जनता की नजरों में कंगना से बड़े ‘अपराधी’ तो वे हैं जो पीछे बैठकर तालियाँ बजा रहे थे। कंगना अब एक व्यक्ति से ऊपर उठाकर एक ‘प्रयोग’ बन गईं हैं। वे चाहें तो ‘मेरे असत्य के प्रयोग’ शीर्षक से अपनी आत्मकथा भी लिख सकतीं हैं। कोई शक नहीं कि ऐसे प्रयोगों में महारत हासिल कर चुका संघ परिवार कंगना की आत्मकथा का बेसब्री से इंतजार करेगा और भरपूर स्वागत भी।
-श्रवण गर्ग
क्या हमें कुछ भी स्मरण है कि पिछले साल लॉक डाउन के 233वें दिन कैलेंडर में कौन सी तारीख़ थी ? देश में उस दिन क्या चल रहा था ? हम क्या कर रहे थे ? क्या वह दिन 14 नवम्बर का तो नहीं था-पंडित जवाहर लाल नेहरू का जन्मदिन। और सबसे बड़ी बात यह कि क्या इस दिन दीपावली तो नहीं थी ? ज़रूर थी। घरों में दीये भी जल रहे थे पर लोगों के दिल बुझे हुए और उदास थे। कोरोना के मरीज़ों का आँकड़ा इस दिन का 87.73 लाख था और दुनिया को (इस दिन तक) देश में मरने वालों की संख्या 1,29,188(सरकारी तौर पर) बताई गई थी।अस्पताल मरीज़ों से भरे हुए थे। तमाम फ़्रंट लाइन स्वास्थ्यकर्मी पूरी तरह से थक चुके थे, फिर भी काम में लगे हुए थे।
हम एक बार फिर दीपावली से रूबरू हैं। हमारे भीतर का लॉक डाउन अभी भी जारी है।’न्यूयॉर्क टाइम्स’ की एक रिपोर्ट पर यक़ीन करना हो तो भारत में (सरकारी दावे 4.58 लाख के मुक़ाबले ) कोरोना के मृतकों की कुल संख्या तीस लाख से ज़्यादा होनी चाहिए। कोरोना ने जिन लाखों परिवारों के किसी न किसी सदस्य को अपना ग्रास बनाया है उनमें से ज्यादातर की यह पहली दीपावली है। क्या हमें सब कुछ याद है या भूल गए ? और यह भी कि क्या देश में कोरोना पर पूर्ण नियंत्रण पा लिया गया है ? अगर सौ करोड़ से ज़्यादा लोगों को टीके लग चुके हैं तो ऐसा निश्चित ही मान लिया जाना चाहिए। ऐसा सरकारी तौर पर मान लिया गया हो उसमें शक है। कोरोना के साथ हमने जिस तरह की किफ़ायत भरी ज़िंदगी शुरू की थी उसका अंत कब होगा, हमें कोई अंदाज़ा नहीं है।
कोरोना के असर को लेकर दुनिया भर में अलग-अलग सर्वेक्षण चल रहे हैं। सबके निष्कर्ष लगभग एक जैसे ही हैं। वे यह कि महामारी ने नागरिकों को हर तरह की बचत करने की आदत डाल दी है और इसमें उन्हें अपनी साँसों और आज़ादी का इस्तेमाल करने की इजाज़त भी शामिल है। हमारे राजनीतिक अधिष्ठाताओं ने किसी समय दिलासा दिलाया था कि यह युद्ध लम्बा नहीं चलेगा और सब कुछ जल्दी ही पहले जैसा हो जाएगा। बहुसंख्य आबादी को टीके लग जाते ही हमें अपने अतीत की ओर ज़्यादा उत्साह से लौटने के मौके नसीब हो जाएंगे। नागरिक भूल गए कि राजनीति में पहले जैसा कुछ भी नहीं होता। जो छूट गया है वह वापस नहीं आता। लोग भी अब जानना नहीं चाहते हैं कि उन्होंने कहीं बाहर जाना और घर वापस आना क्यों बंद कर दिया है !
एक अंग्रेज़ी अख़बार में प्रकाशित सर्वेक्षण में बताया गया हैं कि पहले लॉक डाउन के बाद केवल एक घोषणा के ज़रिए वे जो लाखों-करोड़ों प्रवासी मज़दूर और अन्य नौकरीपेशा अपने गाँव-क़स्बों की ओर पैदल और भूखे-प्यासे दौड़ा दिए गए थे उनमें से कोई दस प्रतिशत वापस महानगरों में नहीं लौटे हैं। इस बीच तीन फसलें ले लीं गईं हैं और कई त्योहार भी बीत गए हैं।यह सवाल अलग है कि कामों पर नहीं लौटने वाले इस वक्त कैसे जी रहे होंगे ,उनकी दीपावली कैसी मन रही होगी और उनके रहने की जगहों पर मूलभूत सुविधाओं का पहले से ही कमजोर ढाँचा अब और कितना चरमरा गया होगा !
महामारी के कारण नागरिक सिर्फ़ अपने ख़र्चों में ही कटौती नहीं कर रहे हैं, वे किसी पूर्णकालिक रोज़गार या सरकार की मदद के बिना भी जीने की आदत डाल रहे हैं। कोरोना के दौरान भुगती गईं चिकित्सा सम्बन्धी यातनाओं के अनुभव के बाद उन्होंने बीमार पड़ना भी कम कर दिया है। वे बिना डॉक्टरों और उनकी महँगी दवाओं के जीने के नए-नए तरीक़े आज़मा रहे हैं। अनुभव है कि 1975 के आपातकाल में रिश्वत का रेट बढ़ गया था। कोरोना काल में डॉक्टरों, अस्पतालों, दवाओं से लगाकर अंत्येष्टि तक के रेट बढ़ गए। लोगों को जानकारी मिलना बाक़ी है कि रेमडेसिविर इंजेक्शन में मिलावट और ऑक्सिजन सिलेंडर की कालाबाज़ारी में पकड़े गए लोगों का अंततः क्या हुआ?
दुनिया भर में चल रहे सर्वेक्षण बताते हैं कि नागरिक किस कदर थक गए हैं और अपने आपको कितना अकेला महसूस करने लगे हैं! न्यूयॉर्क टाइम्स की ही एक रिपोर्ट के मुताबिक़, हताशा में डूबे कई अमेरिकी न सिर्फ़ नौकरियाँ ही छोड़ रहे हैं, वहाँ तलाक़ का प्रतिशत भी बढ़ गया है। मनोचिकित्सकों के पास पहुँचकर सांत्वना जुटाने या जीने के लिए साहस तलाश करने वालों की संख्या बढ़ गई है।पहले लोग एक-दूसरे से दूर होते हुए भी नज़दीक थे पर अब एक ही छत के नीचे रहते हुए भी दूर हो रहे हैं।
किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में इस हक़ीक़त को ख़ौफ़ की तरह देखा जा सकता है कि नागरिकों ने एक विचारवान समूह या भीड़ की शक्ल में एकत्र होना या अपने को व्यक्त करना बंद-सा कर दिया है। मज़दूर हों या सामान्य नागरिक, माई-बाप सरकार से अब कोई नई माँग नहीं कर रहे हैं। प्लेटफ़ार्म टिकट तो महँगे कर ही दिए गए हैं, पर (धार्मिक अवसरों या त्योहारों को छोड़ दें तो) बस अड्डों पर भी पहली जैसी हंसती-खेलती भीड़ नज़र नहीं आती। तुर्रा यह कि अपने नागरिकों के न बोलने, कोई माँग नहीं करने,अपने संविधान-प्रदत्त मौलिक अधिकारों को लेकर कोई शिकायत नहीं करने की उदारता ने सरकारों को और ज़्यादा निश्चिंत कर दिया है।निरंकुश व्यवस्थाओं का जन्म इसी तरह की ज़मीन में होता है।
एक ऐसी परिस्थिति की कल्पना की जा सकती है कि अगर नागरिकों को कृत्रिम या वास्तविक महामारियों की लहरों की तरफ़ षड्यंत्रपूर्वक धकेला जाता रहे और उन्हें उससे बाहर निकालने के प्रयास कोरोना की तरह ही आधे-अधूरे और भ्रष्ट हों तो जिस किफ़ायत की ज़िंदगी की बात हम वर्तमान के संदर्भों में कर रहे हैं वह शासकों के हित में एक स्थायी सुनामी में भी बदली जा सकती है। जिस किफ़ायत को नागरिक अपने जीवन का एक बड़ा गुणात्मक परिवर्तन मानकर गर्व कर रहे हैं, सरकारें चाहे तो उसका इस्तेमाल प्रजातंत्र को कमजोर कर व्यवस्था पर अपनी पकड़ मज़बूत करने में भी कर सकतीं हैं। किसी भी समझदार और प्रजातंत्र-विरोधी हुकूमत की इस बात में रुचि हो सकती है कि नागरिक किसी न किसी परेशानी की लहर पर स्थायी रूप से सवारी करते रहें। वह सवारी कोरोना की भी हो सकती है और धर्म की भी ! ऐसी परिस्थिति में अगर व्यवस्था के प्रत्येक कदम पर नज़र रखकर उसके आगे के इरादों को जानने की जरूरत बढ़ गई जान पड़ती हो तो नागरिकों को कम से कम इस एक काम में तो कोई किफ़ायत नहीं बरतनी चाहिए। दीपावली की शुभकामनाएँ !
एस एन सुब्बाराव का बानवे वर्ष की आयु में 27 अक्टूबर बुधवार को जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में निधन हो गया। सुब्बाराव जी की लंबी जीवन-यात्रा के बारे में उनके सहयोगियों और प्रशंसकों को तो पर्याप्त (या आधी-अधूरी) जानकारी है पर आम नागरिकों को ज़्यादा पता नहीं है। नागरिकों को कई बार व्यक्तियों के चले जाने के बाद ही पूरी जानकारी मिलती है। सुब्बाराव जी के संदर्भ में भी यही हो रहा है। देश में उनके प्रशंसकों का एक बड़ा समूह है पर उसमें अधिकांश की उम्र अब साठ को पार कर गई होगी। उनके साथ मेरा परिचय कोई साढ़े पाँच दशकों तक फैला रहा पर ज्ञात-अज्ञात कारणों से उनका निकटस्थ होने का सौभाग्य नहीं मिल पाया।
मूलत: कन्नड़ भाषी पर अनेक देसी-विदेशी भाषाओं के जानकार सुब्बाराव जी की विशेषता यही थी कि वे लगातार चलते रहते थे। किसी एक स्थान पर कम और सभी स्थानों पर सदैव उपलब्ध रहते थे। मध्यप्रदेश में मुरेना जि़ले के जौरा में स्थापित अपने महात्मा गांधी सेवा आश्रम के अलावा दिल्ली में दीनदयाल उपाध्याय मार्ग स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान के होस्टल में भी उनके लिए एक कमरा हमेशा सुरक्षित रहता था। वे नई दिल्ली भी प्रवास पर ही आया करते थे।
सुब्बारावजी के साथ मेरे लंबे परिचय का मुख्य भाग वर्ष 1966-67 से 1981 के बीच के उस महत्वपूर्ण डेढ़ दशक का है जब सर्वोदय आंदोलन के प्रणेता आचार्य विनोबा भावे, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, आचार्य कृपलानी, खान अब्दुल गफ़्फ़़ार खान, गांधीजी के सचिव रहे प्यारेलालजी, आचार्य दादा धर्माधिकारी, काका कालेलकर, धीरेंद्र मजूमदार, आचार्य राममूर्ति नारायण भाई देसाई, भवानी प्रसाद मिश्र समेत गांधी और सर्वोदय समाज की तमाम महान विभूतियाँ हमारे बीच न सिर्फ सशरीर उपस्थित थीं, सत्ता और समाज-परिवर्तन के क्षेत्र में जबर्दस्त तरीके से अपने प्राण भी झोंक रहीं थीं (कुछ बड़े नाम शायद छूट गए हों तो क्षमा)। यह एक बड़ा ही क्रांतिकारी समय था और उसका साक्षी बनना और इन सब विभूतियों से मिल पाना सबसे बड़ा सौभाग्य। उस सबकी चर्चा फिर किसी वक्त। इस समय केवल सुब्बाराव जी के लिए ही दो शब्द-
वर्ष 1966-67 तक मैं एक सक्रिय पूर्णकालिक गांधीवादी पत्रकार के तौर पर इंदौर में श्री महेंद्रकुमार के सानिध्य में गांधी शांति प्रतिष्ठान और सर्वोदय प्रेस सर्विस के साथ जुड़ चुका था। इस कारण सुब्बाराव जी से मिलने के अवसर प्राप्त होते ही रहते थे। उनसे मुलाकात का सिलसिला तब और बढ़ गया जब वर्ष 1971 में नई दिल्ली में गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुडक़र श्री प्रभाष जोशी और अनुपम (मिश्र) के साथ काम करने का अवसर मिला। सम्मेलनों और बैठकों में भाग लेने की गति भी बढ़ गई और सुब्बाराव जी को नज़दीक से देख और समझ पाने की भी।
सुब्बाराव जी का मूल संस्कार भक्ति और प्रशिक्षण का था जो उनमें शायद कांग्रेस सेवा दल के नायक के रूप में काम करते हुए विकसित हुआ होगा।इसीलिए सर्वोदय और गांधी के सक्रिय आंदोलनकारी सेवकों के बीच उनकी उपस्थिति (जैसा मैंने महसूस किया) एक अलग प्रकार की ही रहती थी। कार्यक्रमों की शुरुआत उनके ओजस्वी गीतों-हम होंगे कामयाब, एक दिन (2द्ग ह्यद्धड्डद्यद्य श1द्गह्म्ष्शद्वद्ग ,शठ्ठद्ग स्रड्ड4) और युवाओं में उत्साह भरने वाले उद्बोधनों से होती थी। सुब्बाराव जी ने अपनी भूमिका और भागीदारी को हमेशा सीमित और नाप-तौलकर कर रखा। अपनी उपस्थिति को किसी भी व्यवस्था-विरोधी आंदोलन की अंतरंग बैठक का हिस्सा बनाने में कभी रुचि नहीं दिखाई। इसीलिए उनके प्रशंसकों में गांधी, विनोबा और जयप्रकाश-तीनों ही विभूतियों के अनुयायिओं का शुमार रहा।
वर्ष 1972 के अप्रैल में चम्बल घाटी के कोई साढ़े पाँच सौ दस्युओं का आत्म-समर्पण मुरेना और उसके बाद मई में बुंदेलखंड के दस्युओं का छतरपुर के मौली डाक बंगले पर हुआ था। दोनों ही अवसरों पर मैं उपस्थित था। छतरपुर के लिए तो जेपी को लेने मैं ही मध्यप्रदेश प्रदेश सरकार के छोटे विमान से दिल्ली से पटना गया था। चम्बल के आत्म-समर्पण के पहले मुझे कोई तीन महीने ग्वालियर को मुख्यालय बनाकर चम्बल के बीहड़ों में घूमने और दस्युओं से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ था। दस्युओं से हुई ये मुलाक़ातें ही बाद में उनके-समर्पण को लेकर श्री प्रभाष जोशी और अनुपम के साथ मिलकर लिखी गई बहुचर्चित पुस्तक (‘चम्बल की बंदूकें गांधी के चरणों में’) में काम आईं।
इसे संयोग कहा जा सकता है कि दस्युओं के समर्पण में मुख्य भूमिका निभाने वाले सर्वोदय सेवकों स्व. हेमदेव शर्मा और स्व.महावीर भाई के साथ ग्वालियर में काम करते हुए अथवा भिंड-मुरेना के बीहड़ों में किसी मध्यस्थ (शायद चरणसिंह) के साथ भटकने के दौरान सुब्बाराव जी से हुई किसी भी मुलाक़ात का मुझे स्मरण नहीं है। उनसे मुलाक़ात शायद 12 अप्रैल 1972 को जौरा में गांधी आश्रम के समीप हुए आत्म-समर्पण के अवसर पर ही हुई होगी। वह एक ऐतिहासिक क्षण था जिसके प्रमुख किरदारों में हेमदेव जी और महावीर भाई के अलावा दस्यु मानसिंह के पुत्र तहसीलदार सिंह और पंडित लोकमन (लुक्का)शामिल थे। मानसिंह गिरोह के इन दोनों प्रमुख दस्युओं ने 1960 में विनोबा जी के समक्ष समर्पण कर दिया था। दोनों ही अद्भुत व्यक्तित्व के धनी थे।
इंदिरा गांधी की तानाशाह हुकूमत के खिलाफ वर्ष 1974 में चले बिहार आंदोलन के दौरान विनोबाजी और जयप्रकाश जी के कई युवा वैचारिक सहयोगी आपस में बंट गए पर सुब्बाराव जी ने सभी के साथ अपने सम्बन्धों को पूर्ववत बनाए रखा। सुब्बाराव जी तटस्थ रहे। उन्होंने आंदोलन के पक्ष या विरोध में कभी कोई मंतव्य नहीं जाहिर किया। मैं बिहार आंदोलन के दौरान लगभग वर्ष भर पटना में जयप्रकाश जी के साथ जुड़ा रहा, उनके साथ अलग-अलग स्थानों की यात्राएँ कीं, कई सभाओं और रैलियों में भाग लिया पर स्मरण नहीं पड़ता कि सुब्बारावजी से इस दौरान कोई भेंट हुई होगी।
इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल समाप्त कर चुनावों की घोषणा करने के बाद जब एक-एक करके सारे नेता जेलों से रिहा किए गए तो दिल्ली स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान जेपी के नेतृत्व में विपक्ष की तमाम राजनीतिक गतिविधियों का मुख्य केंद्र बन गया ।हम लोगों (प्रभाषजी, अनुपम आदि) की पत्रकारिता का केंद्र इंडियन एक्सप्रेस का दफ्तर भी वहाँ से नज़दीक ही था। तब कोशिश पूरे समय प्रतिष्ठान में ही बने रहने की रहती थी। प्रतिष्ठान के ऊपर होस्टल में ही सुब्बारावजी का कमरा भी था।सभी लोगों का नाश्ता-भोजन भी कॉमन डाइनिंग हॉल में ही होता था। सुब्बारावजी से इस दौरान भेंट अवश्य हुई होगी पर याद नहीं पड़ता कि उन्होंने अपनी इस विशेषता को कभी छोड़ा हो कि किसी भी तरह की दलगत राजनीति में नहीं पडऩा है।
बहुत कम उम्र में (शायद तेरह वर्ष) आजादी के आंदोलन में उनके भाग लेने की बात अगर छोड़ दें तो बाद के वर्षों में सुब्बाराव जी आंदोलनों के कभी मित्र नहीं रहे। न ही उन्होंने कभी संस्थाओं के अंदरूनी विवादों में किसी तरह के हस्तक्षेप में रुचि दिखाई। किसी समय गांधी शांति प्रतिष्ठान भी कई तरह के विवादों को लेकर चर्चाओं में रहा पर सुब्बारावजी ने अपने आपको इन सबसे अलग रखा। भोपाल स्थित गांधी भवन के विवाद में भी उन्होंने चुप रहना ही उचित समझा, हालाँकि उन पर आरोप भी लगाए गए कि वे अपने नजदीकी लोगों को संरक्षण प्रदान कर रहे हैं, सत्य का साथ नहीं दे रहे हैं। अपनी इन्हीं विशेषताओं के चलते सुब्बाराव जी को सभी तरह की स्वयंसेवक जमात के लोगों और गांधीवादियों का जीवन भर सम्मान प्राप्त होता रहा और वे अंत तक सभी के प्रिय ‘भाईजी’ बने रहे। विनम्र श्रद्धांजलि ।
देश के विकास पर नजर रखने वालों के लिए इस जरूरी जानकारी का उजागर होना निराशाजनक है कि वैश्विक भुखमरी सूचकांक (global hunger index) में दुनिया के 116 मुल्कों के बीच भारत 2020 में अपने 94वें स्थान से नीचे खिसककर 101वें पर पहुँच गया है। हमारे पड़ोसी देशों में नेपाल 76वें, म्यांमार 71वें और दुश्मन पाकिस्तान 92वें स्थान पर हैं। खबरों के मुताबिक, सहायता कार्यों से जुड़ी आयरलैंड की एजेंसी कन्सर्न वर्ल्डवाइड और जर्मनी के संगठन वेल्ट हंगर हिल्फे की संयुक्त रिपोर्ट में भारत में भूख के स्तर को चिंताजनक बताया गया है।
इसके पहले की एक अन्य महत्वपूर्ण जानकारी यह है कि कोरोना महामारी के दौरान एक साल में देश में 10000000000 रुपए (एक हजार करोड़) से अधिक की संपत्ति वाले उद्योगपतियों की संख्या बढक़र 1007 हो गई। यानी महामारी के दौरान 179 नए लोग इस सूची में जुड़ गए। इसी अवधि में गौतम अडाणी ने प्रतिदिन 1002 करोड़ रुपए कमाए। आँकड़े इस बात के भी उपलब्ध हैं कि कोरोना काल में कितने करोड़ लोग मध्यम वर्ग से खिसक कर गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों में शामिल हो गए।
दोहराने का अर्थ नहीं है कि अगर ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की स्थिति में हाल में देखे गए आंशिक सुधार को छोड़ दें तो इस समय देश में बेरोजगारी पिछले पैंतालीस सालों में सबसे अधिक है। कोरोना से हुई मौतों की तरह ही इस सबके सही आँकड़े भी कभी प्राप्त नहीं बताए जाएँगे कि देश में गरीबी और बेरोजगारी की वास्तविक स्थिति क्या है?कोरोना काल में कितने लोग और गरीब हो गए; कितनों ने कर्जों के चलते आत्महत्याएँ कर लीं, और कि आने वाले सालों में हालात कितने बेहतर या बदतर होने वाले हैं !
शोध का विषय हो सकता है कि जब पूरे देश में लॉकडाउन चल रहा हो, उद्योग-धंधे ठप पड़े हों, करोड़ों मज़दूर घरों में बेकार बैठे हों, करोड़ों नए नाम बेरोजग़ारों की सूची में जुड़ गए हों, शॉपिंग मॉल्स और बाज़ार सूने पड़े हों, जनता की क्रय-शक्ति को लकवा मार गया हो, महामारी के इलाज ने परिवार के परिवार आर्थिक रूप से तबाह कर दिए हों ,हज़ार करोड़ से ज़्यादा की हैसियत वालों की संख्या फिर भी कैसे बढ़ गई होगी! ये लोग क्या किसी ऐसे व्यवसाय में लगे हैं जिसका आम आदमी की जिंदगी से कोई सरोकार नहीं है ? चारों तरफ जब अकाल पड़ा हो तब लहलहाती हुई फसलें लेने का चमत्कार कैसे सम्भव है ? कोई तो कारण अवश्य रहा होगा!
गांधी जी ने एक ताबीज ईजाद किया था। उसका फार्मूला दिल्ली में राजघाट स्थित उनकी समाधि पर एक शिला पर अंकित है। उसमें कहा गया है-’ मैं तुम्हें एक ताबीज देता हूँ। जब भी दुविधा में हो या जब अपना स्वार्थ तुम पर हावी हो जाए तो इसका प्रयोग करो। उस सबसे गरीब और दुर्बल व्यक्ति का चेहरा याद करो जिसे तुमने कभी देखा हो, और अपने आपसे पूछो—जो कदम मैं उठाने जा रहा हूँ वह क्या उस गरीब के कोई काम आएगा? क्या उसे इस कदम से कोई लाभ होगा? क्या इससे उसे अपने जीवन और अपनी नियति पर कोई काबू फिर मिलेगा? दूसरे शब्दों में ,क्या यह कदम लाखों भूखों और आध्यात्मिक दरिद्रों को स्वराज देगा? तुम पाओगे कि तुम्हारी सारी शंकाएं और स्वार्थ पिघलकर ख़त्म हो गए हैं।’’
विश्व बैंक के आँकड़ों की मदद से पिऊ रिसर्च सेंटर (Pew Research Centre) ने बताया है कि कोरोना काल के दौरान देश में दो डॉलर (लगभग डेढ़ सौ रुपए) प्रतिदिन से कम की क्रय क्षमता वाले नागरिकों की संख्या छह करोड़ से बढक़र लगभग चौदह करोड़ (आबादी का दस प्रतिशत) हो गई है।भारत ने वर्ष 2011 के बाद से अपने गरीबों की गणना नहीं की है पर संयुक्त राष्ट्र के 2019 के आँकड़ों के मुताबिक, यह संख्या लगभग सैंतीस करोड़ या कुल आबादी का लगभग सत्ताईस प्रतिशत थी। कोराना काल के आँकड़े भी इसमें शामिल कर लिए जाएँ तो संख्या और बढ़ जाएगी।
सवाल यह है कि जो संस्थाएँ यह गिनती कर सकतीं हैं कि हज़ार करोड़ की हैसियत वाले सुपर रिच क्लब में कितने और रईस बढ़ गए हैं या कि देश के सबसे धनाढ्य व्यक्ति मुकेश अम्बानी की सम्पदा बढक़र 7.18 लाख करोड़ रुपए हो गई है, क्या कभी सबसे गरीब व्यक्तियों की भी गणना करके देश को बताएँगीं ? या इन गऱीबों में भी सबसे गरीब का चेहरा उन मीडिया संस्थानों के लिए जारी करेंगी जो नागरिकों को सरकार की तरह ही अमीरी के नक़ली सपने बेच-बेचकर बीमार कर रहे हैं? यही कारण है कि जब डॉनल्ड ट्रम्प अहमदाबाद के मोटेरा स्टेडियम में ‘नमस्ते ट्रम्प’ के लिए कार से रवाना होते हैं तो रास्ते में पडऩे वाली गरीबों की झुग्गियों को छुपाने के लिए रातों-रात नकली दीवारें खड़ी कर दी जाती हैं। हमें लोगों को गरीब रखने में शर्म नहीं आती, हमारी गरीबी के दिख जाने में शर्म आती है।
अमेरिका की बात छोड़ दें (भारत की तरह वहाँ भी ट्रम्प के कोरोना काल में एक सौ तीस नए उद्योगपति अरबपतियों के क्लब में शामिल हो गए) तब भी यह जानना जरूरी है कि हमारे पड़ोस में चीनी राष्ट्रपति ने अपने यहाँ उन बड़े-बड़े अरबपतियों की गर्दनें नापना शुरू कर दिया है जो वित्तीय संस्थानों से लिए गए कज़ऱ्े नहीं लौटा रहे हैं। उन पर बड़े-बड़े जुर्माने ठोके जा रहे हैं। उद्देश्य असमानता को पाटना और सम्पन्नता को सभी नागरिकों में बाँटना है। चीन में शिखर पर बैठे एक प्रतिशत लोग देश की इकतीस प्रतिशत सम्पदा के मालिक हैं। क्या भारत में भी कभी कोई ऐसा दिन देखने को मिलेगा जब जिन अस्सी करोड़ लोगों को गर्व के साथ अभी मुफ्त का अनाज बाँटा जा रहा है उन्हें आत्मनिर्भर (भारत) कर दिया जाएगा? अमीर इसी तरह अरबपति होते रहे और गरीब और ज्यादा गरीब तो किसी दिन वैज्ञानिकों को ऐसा टीका भी ईजाद करना पड़ सकता है जो सौ करोड़ नागरिकों को भूख के खिलाफ भी इम्यूनिटी प्रदान कर सके।
सुप्रीम कोर्ट ने लखीमपुर मामले में आठ अक्टूबर को सुनवाई के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पेश हुए वकील हरीश साल्वे से सवाल किया था कि किसानों की हत्या के आरोप में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा को तुरंत गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? साल्वे ने जवाब दिया था कि गोली चलने का आरोप है मगर सबूत नहीं है। अगर सबूत साफ हों तो हत्या का मामला बनेगा। पोस्ट मोर्टम रिपोर्ट में गोली चलने से मौत की पुष्टि नहीं हुई है। यही कारण है कि आरोपी को पूछताछ के लिए बुलाया गया है। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने तो केस की सुनवाई बीस अक्टूबर तक के किए स्थगित कर दी पर उसके पहले ही लखनऊ में आशीष से सिर्फ बारह घंटों की पूछताछ के दौरान ही पुलिस को सारे सबूत भी मिल गए और मंत्री-पुत्र को गिरफ्तार कर लिया गया। अब पूछा जा रहा है कि इतने के बाद भी केंद्रीय गृह राज्यमंत्री का इस्तीफा होगा या नहीं ? पूरे घटनाक्रम से प्रधानमंत्री की छवि को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कितनी क्षति पहुँची है और उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों पर क्या असर पड़ेगा उसका आकलन होना अभी बाक़ी है।
गोरखपुर में एक टी वी चैनल के साथ मुलाकात में मुख्यमंत्री योगी ने जब यह कहा कि बिना सबूत के कोई गिरफ्तारी नहीं होगी तो जनता सवाल करने लगी थी कि अदालत को सबूत जुटाकर देने का काम किसका है और आरोपियों को कौन और क्यों बचा रहा है? क्या दोनों ही काम कोई एक ही एजेंसी तो साथ-साथ नहीं कर रही है ?
लखीमपुर कांड की निष्पक्ष जाँच और आरोपियों को उचित सजा न्यायपालिका की ताक़त और लोकतंत्र के भविष्य को तय करने वाली है। उसके बाद इस चिंता भी पर गौर किया जाना चाहिए कि सरकारें अगर अदालतों के निर्देशों को न मानने या टालने का फैसला कर लें तो उस स्थिति में जजों को क्या करना चाहिए! किसी भी विधिवेत्ता ने इस आशंका पर अभी अपना मत प्रकट नहीं किया है कि अगर कोई निरंकुश शासन न्यायपालिका के निर्देश/आदेश का सम्मान करने से इंकार कर दे, आपराधिक न्याय के लिए दो तरह की व्यवस्थाएँ कायम कर दे—एक सामान्य व्यक्तियों के लिए और दूसरी विशिष्टजनों के लिए—तो ऐसी स्थिति से निपटने के लिए संविधान में क्या प्रावधान हैं और उनका पालन करवाने की जिम्मेदारी किसकी रहेगी? सुप्रीम कोर्ट ने हरीश साल्वे से भी यही सवाल किया था कि- ’अगर आरोपी कोई आम आदमी होता तब भी क्या पुलिस का रवैया यही होता ?’
बहस का विषय केवल यहीं तक सीमित नहीं है कि केंद्र में एक जिम्मेदार विभाग का कामकाज सम्भाल रहा व्यक्ति ही गंभीर आरोपों के घेरे में है और प्रधानमंत्री ‘अज्ञात’ कारणों से उसे हटा नहीं पा रहे हैं और कि मुख्यमंत्री प्रतिष्ठापूर्ण विधानसभा चुनावों के ठीक पहले एक अतिमहत्वपूर्ण व्यक्ति के खिलाफ करवाई कर पहले से नाराज बैठे एक वर्ग विशेष के परशुराम क्रोध का ख़तरा मोल नहीं लेना चाह रहे थे पर सुप्रीम कोर्ट के दबाव में उन्हें अंतत: लेना ही पड़ा। बहस का विषय यह भी है कि वर्तमान लोकसभा में आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे सांसदों की संख्या 233 पर पहुँच गई है जो पिछली लोकसभा में 187, उसके पहले (2009 में) 162 और वर्ष 2004 में 128 थी। अत: कल्पना की जा सकती है कि संसदीय लोकतंत्र किस दिशा में जा रहा है।पूछा जा सकता है कि अजय मिश्रा की मंत्रिमंडल में इतने महत्वपूर्ण विभाग में नियुक्ति से पहले क्या उनकी और उनके निकटस्थ जनों की पारिवारिक और आपराधिक पृष्ठभूमि की जाँच नहीं करवाई गई थी ?
न्यायमूर्ति एन वी रमना ने इसी जून में ‘क़ानून का राज’ विषय पर दिए गए व्याख्यान में और बातों के अलावा तीन मुद्दे प्रमुख रूप से उठाए थे : न्यायपालिका को पूरी आज़ादी की ज़रूरत है जिससे कि वह सरकार की शक्तियों और कारवाई पर नियंत्रण रख सके। न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका द्वारा प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष तरीक़े से नियंत्रित नहीं किया जा सकता वरना कानून का राज मायावी हो जाएगा। तीसरा यह कि शासक को कुछेक साल में बदलते रहने का अधिकार मात्र ही निरंकुशता के विरुद्ध गारंटी नहीं हो सकता।
न्यायपालिका के आदेशों/निर्देशों की अवहेलना, उपेक्षा अथवा उनके प्रति असम्मान के भाव को इस तरह भी लिया जा सकता है कि अगर किसी शासक को निरंकुश बहुमत प्राप्त हो जाए तो फिर सरकार ही न्यायपालिका का काम भी करने लगती है। उस स्थिति में व्यवस्था जिसे अपराधी करार देगी उसे न्याय के लिए न्यायपालिका को सौंपने के बजाय फर्जी अथवा गैर-फर्जी मुठभेड़ों के जरिए सडक़ों पर ही सजा देने की गलियाँ तलाश लेगी और जिन्हें अपराधी होते हुए भी दोषी नहीं मानेगी उनके खिलाफ सबूत जुटाने का काम न्यायालयीन मंशाओं के अनुरूप सम्पन्न नहीं होने देगी। ऐसे में न्यायपालिका की उपयोगिता के प्रति जनता में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। उस स्थिति में जजों को क्या करना चाहिए जब उन्हें लगने लगे कि देश तानाशाही की तरफ जा रहा है और न्यायपालिका की अवमानना की जा रही है?
इंग्लैंड के प्रसिद्ध मीडिया उपक्रम ‘द गार्डियन’ ने पिछले महीने जारी अपनी एक रिपोर्ट में पूर्वी योरप के देश पोलैंड के जजों द्वारा टी-शर्ट और जींस पहनकर शहर-शहर घूमते हुए देश के संविधान की प्रतियाँ जनता के बीच बाँटने के प्रयोग का जिक्र किया है। पोलैंड में सत्तारूढ़ दल इस समय अदालतों में ‘सुधार’ का काम कर रहा है। इसके अंतर्गत सरकार ने न सिर्फ अपने समर्थकों को संवैधानिक अदालतों में नियुक्त कर दिया है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट ‘अनुशासनात्मक चेंबर ’ भी गठित कर दिया है जो जजों के अपने प्रति मुकदमों से प्रतिरक्षा के अधिकार को छीन रहा है।
अपने देश को अधिनायकवाद की तरफ जाते देख वहाँ के जजों ने सत्ता के समक्ष समर्पण करने के बजाय संविधान को लोगों तक ले जाने का तय किया। इस काम के लिए उन्होंने एक सर्वसुविधायुक्त मिनी बस का इंतजाम किया और जनता को यह समझाने निकल पड़े कि उसे कानून के राज (न्यायमूर्ति रमना के व्याख्यान का विषय) की चिंता क्यों करना चाहिए। कहा जा रहा है कि कानून के राज के लिहाज से पोलैंड इस वक्त अपने सर्वाधिक काले दौर से गुजर रहा है। बीस सितम्बर तक ये जज कोई अस्सी शहरों का दौरा पूरा कर चुके थे। पोलैंड की कहानी काफी लंबी है पर यह कहानी कभी भारत के जजों को भी ऐसी ही परीक्षा में डाल सकती है। अधिनायकवाद बिना दस्तक दिए ही दाखिल होता है।