धमतरी
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
धमतरी, 3 अक्टूबर। जंगलों के बीच धरती से निकली मां विंध्यवासिनी देवी की ख्याति बिलाई माता के रूप में है। शहर के अंतिम छोर पर दक्षिण दिशा में स्थित मंदिर में चैत्र और क्वांर नवरात्र में देश-विदेश में रहने वाले देवी भक्त जोत प्रज्वलित कराते हैं। इस स्वयंभू माता की ख्याति शहर, जिला ही नहीं, देशभर में फैली है। चैत्र व क्वांर नवरात्रि में यहां सैकड़ों की संख्या में मनोकामना ज्योत प्रज्ज्वलित होते हैं। विदेशी भी मनोकामना के लिए इस मंदिर में ज्योत जलवाते हैं।
मंदिर की विशेषता
मां विंध्यवासिनी देवी की मूर्ति काली है। उन्हें विंध्यवासिनी देवी और छत्तीसगढ़ी में बिलाई माता कहा जाने लगा। इस मंदिर को प्रदेश की 5 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। इसकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई है। मां विंध्यवासिनी की महिमा अपरंपार है। सच्चे मन से की गई पूजा यहां व्यर्थ नहीं जाती। माता के मंदिर में आने से लोगों के दुख दूर हो जाते हैं। हर साल मां की महिमा बढ़ती ही जा रही है।
मंदिर का इतिहास
धार्मिक इतिहास के अनुसार विंध्यवासिनी मंदिर क्षेत्र पूर्व में जंगल था। एक समय राजा नरहर देव अपनी राजधानी कांकेर से सैनिकों के साथ इस स्थान पर शिकार के लिए पहुंचे थे। अचानक राजा का घोड़ा, हाथी विंध्यवासिनी मंदिर क्षेत्र के पास रूक गया। काफी प्रयास के बाद भी वह आगे नहीं बढ़ पाया और राजा सैनिकों के साथ वापस लौट गए। दूसरे दिन भी यही घटना हुई, तो राजा ने इसकी खोजबीन करने के लिए कहा, तभी एक असाधारण पत्थर यहां स्थित था। इस पत्थर के आसपास बिल्लियां बैठी थीं। राजा को सूचना मिली, तब वे इस पत्थर को देखकर मंत्रमुग्ध हो गए और उन्होंने इसे हटाकर राजधानी में स्थापित करने कहा। आदेश पर सैनिकों ने खुदाई शुरू की, तभी जमीन से जल की अविरल धारा निकलने लगी, तब खुदाई रोक दी गई। इसी दिन रात में राजा नरहर देव को देवी मां का स्वप्न आया कि उसे यहां से न ले जाएं और तुम्हारे सारे प्रयास भी विफल हो जाएंगे। पहले निर्मित द्वार से सीधे देवी के दर्शन होते थे। उस समय मूर्ति पूर्ण रूप से बाहर नहीं आई थी, किंतु जब पूर्ण रूप से मूर्ति बाहर आई तो चेहरा द्वार के बिल्कुल सामने नहीं आ पाया, थोड़ा तिरछा रह गया।