महासमुन्द
बंसोड़ जनजाति पुश्तैनी कारोबार के बजाए रोजी मजदूरी करने विवश
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
महासमुंद, 29 जुलाई। महासमुंद ब्लॉक में बांस कलाकारी के भरोसे जी रहे 1500 सौ परिवारों के सामने अब रोजी रोटी की समस्या उत्पन्न हो गई है। चूंकि जिले में बांस के जंगल कम है और जो बांस मिलता है, वह उनके लिए उपयोगी नहीं है। ऐसे में उनके सामने रोजमर्रा के चीजों की कमी हो रही है।
हालांकि जिला प्रशासन से ऐसे एक परिवार को 1500 बांस सालाना देने का प्रावधान है, लेकिन बांस की कमी के चलते उन्हें मात्र 2 या तीन सौ नग बांस ही विभाग से मिल पाता है। ऐसे में बंसोड़ परिवार को व्यापारियों से 200 रुपए प्रति नग के हिसाब से बांस खरीदने की मजबूरी है। आसपास के जंगलों से उन्हें पर्याप्त बांस नहीं मिल रहा है और जगदलपुर तथा कांकेर के जंगलों से भी अब बांस महासमुंद शहर तक पहुंचना बंद है। लिहाजा बंसोड़ जाति के लोग अपने पुश्तैनी कारोबार के बजाए रोजी मजदूरी करने विवश हैं।
बांस से बनने वाली सूपा, पेटी, टोपी, चटाई, गिलास, थाली पर बांस की बेहतरीन कलाकारी देखी जा सकती है। बांस की कलाकारी इस जनजाति का पारम्परिक व्यवसाय है। बांस की अनोखी कलाकारी जनजाति के लोगों को विरासत में मिली है। लेकिन प्लास्टिक समान के बढ़ते प्रचलन ने बंसोड़ जनजाति के सामने रोजी-रोटी की समस्या उत्पन्न कर दी है। राजीव गांधी बांस मिशन भी जिले में सफल नहीं हो सकी है। जिससे बंसोड़ जाति को सस्ते दर में बांस उपलब्ध कराने की सरकारी योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा है। आरंग, राजिम, पारागांव, समोदा से बंसोड़ बांस लाकर अपनी रोजी रोटी चला रहे हैं। ये बांस ज्यादा कीमती होने के साथ ही सामान बनाने लायक निकल जाए, इसकी गारंटी नहीं रहती है।
देखने में आ रहा है कि अब बांस के कलाकार केवल परंपरा का निर्वहन ही कर रहे हैं। ग्राम खैरा निवासी त्रिवेणी बाई कंडरा ने बताया कि पेटी, थाली, गिलास जैसी वस्तुओं की मांग पूरी तरह से खत्म हो चुकी है। ले.देकर सूपा, दौली जैसे कुछ एक वस्तुओं को साप्ताहिक बाजार के साथ आसपास के गांवों में बेचकर किसी तरह परिवार का पेट पाल रहे हैं। आर्थिक बदहाली की मार झेल रहे बंसोड़ परिवार पूरी तरह सरकारी योजना के तहत मिलने वाली सहायता पर आश्रित हो चुके हैं।
जानकारी अनुसार वन विभाग की ओर से लायसेंसी बंसोड़ों को उत्पाद निर्माण के लिए 1500 नग बांस सस्ते दरों पर उपलब्ध कराने का प्रावधान है। लेकिन इन्हें वर्ष भर में केवल 200 से 300 बांस ही मिल रहता है और इतने कम बांस में उन्हें अपनी रोजी-रोटी निकालने में परेशानी हो रही है। स्थिति यह है कि जो बांस विभाग की ओर से 30 से 35 रुपए में मिलता है,वही बांस उन्हें व्यापारियों के पास से 200 से 300 रुपए में खरीदना पड़ रहा है। अब 6.50, 5. 50, 7. 30 बांस आने ही बंद हो गए हैं। फलस्वरूप विवाह, मृत्यु संस्कार सहित अन्य को कार्यों के लिए बनाए जाने वाले उत्पाद भी महंगे हो रहे हैं।
जानकारी के अनुसार क्षेत्र के बांसों के कोपलों की जिस तरीके से कटाई हो रही है, उससे भविष्य में बांस का उत्पादन ही खत्म होने की आशंका है। जानकार बताते हैं कि विभागीय स्तर पर बांस की कटाई 4 साल में होती है जिसके बाद नए बांस का रोपण शुरू होता है। लेकिन एक-दो साल में ही बांस की अंधाधुंध कटाई हो जाती है।
बंसोड़ बताते हैं कि महासमुंद में पहले 30-40 रुपए में एक नग बांस मिल जाया करता था। वहीं राजीव गांधी बांस मिशन के तहत प्रत्येक परिवार को 1500 नग सालाना बांस उपलब्ध कराया जाता था। लेकिन अब जिले में बांस का मिलना लगभग बंद हो गया है। ठेकेदारी के तहत मिलने वाले बांस की कीमत 200 से 300 रुपए प्रति नग पड़ रहा है। इस तरह ठेकेदारी वाली कीमत ने इनकी रोजी रोटी पर पानी फेरा है।
महासमुंद के वनमंडलाधिकारी पंकज राजपूत का कहना है कि हमारे जिले में बांस के जंगल कम हैं, साथ ही उत्पादन भी कम है। जो बांस उत्पादन होते हैं, उसे बंसोड पसंद नहीं करते या उनकी कलाकृतियों के लिये वह बांस उपयोगी नहीं है। बांस कलाकार चाहते हैं कि उन्हें भानूप्रतापपुर का बांस दिया जाये। लेकिन शासकीय स्तर पर यह प्रावधान ही नहीं है। हमारे यहां केवल बागबाहरा व सरायपाली में ही बांस के जंगल हैं।
प्लास्टिक वस्तुओं के चलन से बंसोड़ों के सामने रोजगार की समस्या
तेजी से बढ़ते प्लास्टिक वस्तुओं के प्रचलन ने जिले में बंसोड़ जनजाति बांस के सामने रोजगार की समस्या कर रखी है। वहीं जिले में बांस की कमी इस जनजाति के लिए दोहरा मुसीबत साबित हो रही है। बांस के इन कलाकारों को पड़ोसी जिलों पर आश्रित रहना पड़ रहा है। अपने पारंपरिक पेशे को बचाए रखने के लिए इस जनजाति के लोग बांस प्राप्त करने के लिए कई किलोमीटर पदयात्रा कर रहे हैं। वह बांस भी काम के लायक रहे, इसकी भी गारंटी नहीं है। जबकि बांस हस्तशिल्प के लिए बंसोड़ जनजाति की विशेष पहचान है।