बलौदा बाजार

राजस्थान से आए दो बहरूपियों ने किया दर्द बयां
11-Oct-2024 4:00 PM
राजस्थान से आए दो बहरूपियों ने किया दर्द बयां

कहा- पहले लोग पैसा और सम्मान देते थे, अब नजरअंदाज करते हैं 

‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
बलौदाबाजार, 11 अक्टूबर।
बहरूपिए जो भारतीय लोक संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा हुआ करते थे, आज धीरे-धीरे विलुप्ति की ओर बढ़ रहे हैं। पहले यह खूब दिखते थे, खासकर दिवाली के पहले शहर के गली-मोहल्ले में अलग-अलग रूप धारण कर मनोरंजन भाव भंगिमा के साथ घूमते दिखाई देते थे, लेकिन अब इसके कलाकार अपनी पहचान और आजीविका के लिए जूझ रहे हैं। 

पहले बहरूपियों का गांव में प्रवेश होते ही बच्चे का झुंड उनके पीछे दौड़ता था, उनके विभिन्न रूपों और परिधानों से प्रभावित होकर लोग उन्हें सम्मान और भेंट देते थे। गांव के लोग उन्हें श्रद्धा भाव से देखते थे और उनकी कला की सराहना करते थे, आज उनके लिए परिवार तक चलाना मुश्किल हो गया है।

रावण का भेष धारण कर अपनी कला का प्रदर्शन करने उदयपुर राजस्थान से आए बहरूपिया श्रवण कुमार का कहना है कि अब मन से इस काम को करने की उत्साह नहीं रहा। आधुनिक मनोरंजन के साधनों जैसे टेलीविजन इंटरनेट और सिनेमा ने लोगों का ध्यान खींच लिया है। आज बहरूपियों को कोई नहीं देखना चाहता।

उदयपुर से आए बहरूपिए गौरव सिंह का कहना है कि पहले जैसा सम्मान और आदर नहीं मिलता। पहले जहां लोग उन्हें भोजन और पैसे भेंट करते थे। 
अब उन्हें नजरअंदाज करते हैं। अब तो ऐसा है कि हम मजदूरी करें तो शायद इससे ज्यादा पैसे मिलेंगे। हमें तो अब पहचान बताने तक में दिक्कत होती है। पैसे खर्च कर हम दूर से आते हैं। हमें पुलिस नहीं ही नहीं लोग भी संदेह की नजरों से देखते हैं। 

पहले चार बार आते थे अब एक बार ही मुश्किल
श्रवण कुमार ने बताया कि वह पहले साल भर में कम से कम चार बार विभिन्न स्थानों में भ्रमण करते थे। श्रावण मास में शिव जी बनकर आते तो श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर राधे कृष्णा बन जाया करते थे। दिवाली के समय फिर राम रावण आदि बनकर आते थे। फिर महाशिवरात्रि के समय फिर शिवजी बनकर आते थे, इसके अलावा भी साल भर किसी न किसी प्रसिद्ध चरित्र का रूप धरकर लोगों का मनोरंजन करने के साथ ही शिक्षाप्रद संदेश भी देते थे। अब तो साल में एक बार भी निकलना मुश्किल हो गया है। 

31 साल से बन रहे बहरूपिया, अब बच्चे करने लगे मजदूरी 
गौरव सिंह ने बताया कि वे 31 साल से परंपरागत पेशे में हैं। अब उनके बच्चों को इसमें रुचि नहीं है। वे इसे पसंद नहीं करते, इसके बारे में कुछ सुनना ही नहीं चाहते। वे रोजी मजदूरी करने लगे हैं। 

यह लोक संस्कृति के लिए भी है खतरा- रामलाल
शहर के बुजुर्ग राम लाल यादव का कहना है कि यह स्थिति न केवल बहरूपियों के लिए चिंताजनक है बल्कि हमारी समृद्ध लोग संस्कृति के लिए भी एक खतरा है। यदि समाज में बहरूपियों और अन्य लोक कलाकारों की स्थिति को सुधारने के प्रयास नहीं किए गए तो यह अनमोल कला और सांस्कृतिक धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी। 

मां मावली मंदिर समिति के अध्यक्ष देवेंद्र वैष्णव का कहना है कि समय के साथ तकनीकी प्रगति टेलीविजन मोबाइल फोन और सोशल मीडिया के आगमन ने बहरुतियों के पारंपरिक पैसे को बुरी तरह प्रभावित किया है। आज के युग आधुनिक तकनीकी और अंतरराष्ट्रीय संस्कृति प्रभावों के बीच जी रहे हैं, जिससे पारंपरिक लोक कलाओं की ओर उनका ध्यान कम होता जा रहा है।

मनोरंजन के साथ सामाजिक धार्मिक संदेश भी देते थे 
वरिष्ठ नागरिक व दशहरा उत्सव समिति अध्यक्ष रमेश सोनी का कहना है कि बहरूपियों का काम केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं था, बल्कि वे सामाजिक और धार्मिक संदेश भी प्रसारित करते थे। रामकृष्ण, शिव, महात्मा गांधी, वीर योद्धा जैसे ऐतिहासिक और धार्मिक पत्रों का रूप धारण करके वे लोगों को सीख देते थे। समाज मंे व्याप्त कुरूतियां और अज्ञानताओं को दूर करने का प्रयास करते थे। 

खासकर ग्रामीण इलाकों में यह लोगों की जानकारी सीमित होती थी। बहरूपियों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती थी। वे ऐतिहासिक धार्मिक घटनाओं कथाओं मुद्दों से अपनी कला से लोगों को रूबरू करवाते थे। 


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