सरगुजा

देसी मछलियों की प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा बगैर लागत की आय का जरिया है देसी मछली
24-Jan-2021 5:17 PM
देसी मछलियों की प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा बगैर लागत की आय का जरिया है देसी मछली

राज शार्दुल

बिश्रामपुरी, 24 जनवरी। सूख रही नदी नालों एवं पोखरों से ग्रामीण देसी किस्म की मछलियों का शिकार करते हैं। इन मछलियों की मार्केट में अच्छी खासी डिमांड होती है। मार्केट में मिलने वाली बड़ी मछलियों की अपेक्षा इनका दाम दो से तीन गुना अधिक होता है। कंेवट जाति के लोग ज्यादातर इन मछलियों का शिकार करके अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं वही आदिवासी भी इस कार्य में निपुण होते है किंतु अब देसी मछलियां विलुप्त होने के कगार पर है। 

तालाबों में बड़ी मछलियों को पालने से ये देसी मछलियों को अपना ग्रास बना लेती हैं। धीरे-धीरे ऐसी स्थिति आती है कि तालाब में बड़ी मछलियां चुन-चुनकर देसी मछलियों को खत्म कर देती है। जहां बारिश में धान के खेतों एवं नदी नालों के किनारे देसी मछलियां पाई जाती हैं वहीं बारिश खत्म होने पर जब छोटे छोटे नालों में पानी का स्तर कम हो जाता है तथा तालाब एवं पोखर सूखने लगते हैं तब दलदल में भी देसी मछलियों का शिकार होता है। 

देसी मछलियों को तलबिया, टेंगना, खोकसी, कोतरी, सिंघी, बांबी आदि के नाम से जाना जाता है सामान्य मछली जहां बाजार में 100 रुपये से 150 रुपये प्रति किलो की दर से बिकती है तो इन देसी मछलियों का रेट 400 से 500 रुपये तक होता है। ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्र के बाजारों में इन्हें कुढ़ी में बेचा जाता है। प्रति कुढ़ी 50 रुपये से लेकर 100 रूपये तक होता है। इन मछलियों का स्वाद इतना लजीज है कि लोग रेट की परवाह नहीं करते तथा ऊंचे दाम पर भी खरीद लेते हैं।

देसी मांगुर की होती है सबसे ज्यादा डिमांड
देसी मांगुर मछली के सबसे ज्यादा डिमांड रहती है इस मछली का दाम 600 से लेकर 800 रुपये तक प्रतिकिलो होता है। यह मछली जिंदा ही बेची जाती है। इस मछली की खासियत यह है कि इसे जिंदा ही बेचा जाता है। बाल्टी या डेचकी में पानी भरकर उसी में मछली डालकर लोग इसे बाजारों में लाते हैं। धीरे-धीरे यह अब बाजारों में कम दिख रही है।

आसान नहीं है देशी मछली का शिकार
इन्हें पकडऩे के लिए जाल बिछाया जाता है किंतु दलदली जगह पर जाल से मछली पकड़ में नहीं आता जिसके चलते मछलियों को एक-एक करके पकडऩा पड़ता है। दलदल में फंसी इन मछलियों को पकडऩा आसान काम नहीं है। कुछ ही लोगों के पास इन्हें पकडऩे का हुनर होता है। दलदल में घुसकर इन्हें कीचड़ के साथ पकड़ते हैं तथा इन्हें साफ पानी से धोया जाता है।

बगैर लागत की आय का जरिया है देसी मछली
देसी मछलियां बगैर लागत के ग्रामीणों के आय का अच्छा स्रोत है। इनके लजीज स्वाद के चलते बाजार में देखते ही  लोग लपकते हैं। लोगों का कहना है कि बड़े वैरायटी की मछली ग्लास कब सिल्वर का रोहू कतला जैसे बड़े विराटी की मछलियों से छोटी मछलियों की प्रजाति को के विलुप्त होने का खतरा है क्योंकि यह बड़ी मछलियां देसी मछलियों को अपना शिकार बनाती हैं।
बुजुर्गों की माने तो कुछ साल पहले तक तालाबों पोखरा एवं नदी नालों से बड़ी मात्रा में देसी मछलियां पकड़ कर लोग स्वाद से इनकी सब्जी खाते थे किंतु अब ग्रामीणों को मार्केट में बाहर से आने वाली मछलियों को खरीदना पड़ता है अपेक्षाकृत इन मछलियों का स्वाद देसी मछली हो जैसा नहीं होता धीरज धीरे-धीरे देसी मछलियां विलुप्त हो रही हैं इनकी तादाद कम होती जा रही है मछलियों का हमेशा शिकार करते अपनी रोजी-रोटी चलाने वाले ग्रामीण शंकर लाल, श्याम लाल, देवचंद ने बताया कि अब पहले की तरह जाल में मछलियां आती ही नहीं है क्योंकि नदी नालों एवं पोखरों में देसी मछलियों की तादाद कम होती जा रही है।
 

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