गरियाबंद
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
राजिम, 10 मार्च। दृढ़ संकल्प और कुछ करने की इच्छा शक्ति अगर आपके पास है हर असंभव काम आसानी से कर सकते हैं, जरूरत होती है खुद को पहचानने की। सबसे पहले स्वयं का मूल्यांकन करें। असफलता के अभाव में तपकर ही कुंदन सी निखरती हैं कला। यह किसी जाति धर्म-मजहब में बंधकर नहीं रहती। रूढि़वादी सोच से परे रहे हर चुनौती का सामना करने के लिये जिंदगी के यज्ञकुंड में पवित्र कर्म की आहूति दीजिए। दूषित भाव स्वमेव दूर हो जायेंगे।
उक्त बातें माघी पुन्नी मेला के दसवें दिन अपने सुंदर अंदाज में देवार संस्कृति को उकेरने वाली छत्तीसगढ़ की लोकप्रिय प्रसिद्ध लोकगाथा गायिका रेखा देवार ने कही। चर्चा के दौरान अपनी लोकगाथा के सफर को साझा करते हुये बताया कि राजिम में पूरे दस साल बाद पुन: आने से मन रोमांचित हो गया। पहले भी कई बार आई हूं, काफी अंतराल के बाद आने से सबसे बहुत प्यार मिला। इस बार राज्य शासन के द्वारा कलाकारों को सम्मान देने का अंदाज बहुत अच्छा लगा। अपनी कला की शुरुआती दौर के बारे में बताया कि बचपनमें दादा-दादी के साथ नाचा पार्टी में जाती थी। आठ साल की उम्र में गायिकी शुरू किया। फिर आगे चलकर दो साल अकेले अपने दम पर पार्टी चलाई, जिसमे पंद्रह कलाकार शामिल थे।
चर्चा के दौरान बताया कि इस क्षेत्र में आगे बढऩे की प्रेरणा एक मुसलमान फैमिली से मिली। उनके मार्गदर्शन में ही कार्य किया। पहला कार्यक्रम सरगांव के आसपास हुआ, जहाँ से आत्मविश्वास बढ़ा और आगे बढ़ती ही गई, कभी हार नही मानी। बताया कि गुरू के बिना कोई ज्ञान नही मिलता, मेरे गुरु विजय सिंह थे, जिनका सानिध्य और आशीर्वाद हमेशा प्राप्त हुआ। आकाशवाणी में जाने का बहुत शौक था। 1988 में खुमान साव के गीत - आ जाबे... आ जाबे अमरईया के तीर.... का स्वर परीक्षण के लिए गई थी, पर प्रस्तुति 1996 में दी हूं। अपनी शिक्षा के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि स्कूल बिल्कुल भी नही गई। एक क्लास भी नही पढ़ी पर हस्ताक्षर कर लेती हूं। चंदैनी के बारे में पूछने पर कहा कि यह एक प्रेम कहानी हैं जिसमे छ.ग. की उड़रिया अर्थात प्रेम विवाह का वर्णन किया गया है। ‘‘भरथरी’’ एक ऐसा गायन है जिसमे भीख मांगने की प्रथा को गायन के माध्यम से बताया गया है। जोगी सरकार के समय में बावा और हिजड़े लोगों के साथ भरथरी गायन का मौका मिला। जिसे हमने तबले पेटी और तंबूरा के साथ गाया बजाया। छ.ग में इसका मंचन बहुत कम होता हैं। अब तक कुल पैतीस लोकगाथा हमने तैयार किया है।
पढ़ाई नही किये फिर कैसे कर लेते हैं? ये प्रश्न तो सबके जेहन में होता हैं हम दिल्ली गये थे। वहाँ तीजन बाई, रितु वर्मा के लेख को इलाहाबाद केंद्र में देखे, उसे टेप किये छत्तीसगढ़ी में अनुवाद कर सुनकर तैयारी करने में मदद मिली। कोरोना संक्रमण के दौरान कोई बदलाव नही हुआ। हम घर पर अभ्यास करते थे। इससे अपनी कला और संस्कृति को समझने का हमें अवसर मिला।
उन्होंने बताया कि छ.ग. के अलावा भारत के लगभग सभी राज्यो में अपनी प्रस्तुति दे चुके हैं। दो बार इंदिरा विश्व विद्यालय में कार्यक्रम दिए हैं। अब तक लगभग पांच हजार फिल्म में काम कर चुके है। एक लाल कमीज के में मनटोरा का गाँव की भूमिका में रही। जिसमे भरथरी गायन भी किया है। नये कलाकरों के लिए कहा कि लोक संस्कृति हमारी धरोहर है। उसे सहेज कर रखे। ओरीजनल गीत ही प्रस्तुत करे।
उसमे मिलावट न करें। सुवा, कर्मा को जाने समझे। राउत नाचा, बांसगीत, मंदरिया जो लुप्त होने के कगार में है उन्हें पुन: जीवित करें। महिलाओ के लिए यही कहूंगी आज हर गाँव में महिला स्वसहायता समूह बनाकर आत्म निर्भर हो रही हैं। हेलीकाप्टर चलाकर अपने सपनो में नई उड़ान भर रही हैं उनका हमेशा सम्मान करें। शासन से अपेक्षा कि है कि देवार की सांस्कृतिक कला को पहचान देने के लिए हर जगह एक भवन दें उन्हें आर्थिक सहयोग करें, जिससे उन्हें भी समाज की मुख्यधारा में जुडऩे का मौका मिल सकें। चर्चा के बाद मीडिया सेंटर द्वारा उनका गुलदस्ता और फोटो फ्रेम भेंट कर सम्मान किया गया।‘