राजपथ - जनपथ

छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : रमन सिंह तो रमन सिंह हैं...
24-May-2022 7:33 PM
छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : रमन सिंह तो रमन सिंह हैं...

रमन सिंह तो रमन सिंह हैं...

भाजपा में रमन सिंह के विरोधी नेता लामबंद हो रहे हैं। चर्चा है कि राजनांदगांव के दो सीनियर नेता पिछले दिनों पड़ोसी राज्य के राज्यपाल से मिलने पहुंचे। उन्हें प्रदेश भाजपा संगठन के क्रियाकलापों की जानकारी देकर रमन सिंह की शिकायत भी की।

राज्यपाल ने उन्हें आश्वस्त किया, और कहा बताते हैं कि जल्द ही प्रदेश भाजपा में बदलाव होगा। रमन सिंह को कुछ और जिम्मेदारी दी जाएगी। यानी वो प्रदेश की राजनीति से दूर रहेंगे। यह सुनकर रमन विरोधियों में खुश होना स्वाभाविक था। मगर उनकी खुशी ज्यादा दिन नहीं रह पाई।

कुछ दिन बाद रमन विरोधी नेताओं को पता चला कि राजस्थान में पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं की बैठक में सिर्फ रमन सिंह ही आमंत्रित थे। वैसे प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदेव साय और पवन साय भी थे, लेकिन पूछपरख सिर्फ रमन सिंह की ही हो रही थी। ऐसे में अब तो उन्हें राज्यपाल की बातों पर ही संदेह होने लगा है।

एक जिले के इतने रिकॉर्ड!

छत्तीसगढ़ का एक जिला कोरबा देश में सबसे अधिक कोयला उगलने वाला जिला है। देश का 16 फीसदी कोयला इस एक जिले से निकलता है, और यह अकेला जिला पूरे झारखंड से अधिक कोयला देने वाला है। जाहिर है कि यहां पर सरकार से लेकर कारोबार, और पुलिस-प्रशासन से लेकर माफिया तक का ओवरलोड है। इस एक जिले में एक नंबर, दो नंबर से लेकर दस नंबर तक के कारोबार चलते हैं, और इन पर एकाधिकार के लिए ताकतवर तबकों में लगातार रस्साकशी चलती ही रहती है। जब एकाधिकार नहीं हो पाता है तो धंधे में बड़ा या छोटा हिस्सा पाने का गलाकाट मुकाबला भी चलता है। यहां तैनाती पाने वाले अफसरों को ताकतवर हलकों के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए तनी हुई रस्सी पर चलना सीखना पड़ता है।

हाल के हफ्तों में कोरबा ने अभूतपूर्व और अप्रत्याशित खींचतान देखी है। कोई मौजूदा अफसर अपने पिछले अफसर की कब्र खोदने में ओवरटाइम करते दिख रहे हैं, तो कोई पिछले अफसर आज के अफसर की कुर्सी के पाये को आरी से काटने में लगे हैं। फिर मौजूदा अफसरों के बीच तलवारें खिंची हुई हैं, और कोरबा की तासीर यह भी है कि वहां स्थानीय ताकतवर मंत्री जयसिंह अग्रवाल राजनीति और सरकार की बिसात पर घोड़े की तरह ढाई घर चलते हैं। नतीजा यह है कि पिछले तीन में से दो कलेक्टरों के खिलाफ वे मंत्री रहते हुए सार्वजनिक मोर्चा खोल चुके हैं। उनके अलावा वहां रह चुके अफसर, वहां जाना चाह रहे अफसर, वहां से बाहर बैठे बड़े अफसर, सभी शतरंज की तरह प्यादों को सामने रखकर शह और मात देने के खेल में लग गए हैं। सरकारी आंकड़े तो महज कोयला उत्पादन में कोरबा को देश का अव्वल जिला बताते हैं, लेकिन जानकार यह मानते हैं कि यह माफिया अंदाज के जुर्म में भी देश में नहीं तो कम से कम प्रदेश में तो अव्वल है ही। कोरबा का आज का प्रशासन यह भी बताता है कि किसी शरीफ और सीधे अफसर के कॅरियर को खत्म करने के लिए उसे कोरबा भेजा जाना काफी होगा।

अब यह भी सुनाई पड़ रहा है कि प्रदेश से बिदा हो चुके कुछ चर्चित अफसरों की दिलचस्पी भी कोरबा के इस गैंगवॉर में इसलिए हो गई है कि उसमें कुछ केन्द्रीय जांच एजेंसियों के दखल की गुंजाइश निकाली जा सकती है। यह जिला आज जितने किस्म के खून-खराबे देख रहा है, वह आमतौर पर गंदी मानी जाने वाली राजनीति को भी तुलना में बड़ी साफ-सुथरी साबित कर रहा है।

कब तक चलेगी यह हड़ताल?

बीते 14 मई को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत काम करने वाले रोजगार सहायकों का वेतन मुख्यमंत्री ने कलेक्टर दर पर देने की घोषणा की। इसके बाद उनका मानदेय 5000 रुपए से बढक़र 9540 रुपए हो गया है। सेवा शर्तों में बदलाव के लिए एक राज्य स्तरीय समिति भी बनाने की घोषणा की भी गई। सरकार को उम्मीद थी इसके बाद रोजगार सहायक अपना आंदोलन स्थगित कर देंगे, मगर ऐसा हुआ नहीं। प्रदेश के तकरीबन 15 हजार रोजगार सहायक बीते 4 अप्रैल से हड़ताल पर हैं। उनकी मांग चुनाव में की गई घोषणा को लागू करने की है। उन्हें नियमित शासकीय सेवक का दर्जा चाहिए।

अपनी मांग की तरफ ध्यान खींचने के लिए मनरेगा कर्मचारी मुंडन भी करा चुके हैं और एक लंबी पैदल तिरंगा यात्रा, दांडी यात्रा भी उन्होंने निकाली है। अब इस हड़ताल को लगभग 50 दिन हो चुके हैं। हड़ताल की वजह से गांवों में मनरेगा के काम ठप हैं। न केवल पंचायतों के जरिए बल्कि वन विभाग, उद्यानिकी, कृषि, पशुपालन विभाग आदि पर भी मनरेगा के मद से काम कराये जाते हैं। प्रदेश में पिछले साल जब हड़ताल नहीं थी तब अप्रैल और मई के दो महीनों में करीब चार करोड़ 81 लाख 58097 मजदूरी दिवस का काम हुआ था। सरकार ने अपनी पीठ थपथपाई थी कि कोरोना संक्रमण के दौरान मजदूरों को यूपीए सरकार के समय से लागू की गई मनरेगा योजना से सर्वाधिक काम गांवों में मिले। अब इस साल का आंकड़ा देखें तो इन्हीं 2 महीनों में जब हड़ताल चल रही है केवल 2 लाख 95 हजार 560 दिन का काम मिला। यह पिछले साल के मुकाबले करीब 5 या 6 प्रतिशत ही है। रोजगार सहायकों की जगह दूसरे विभागों से कर्मचारी लगाने की कोशिश विफल हो गई। कुछ दिनों बाद मानसून आ जाएगा। मनरेगा से मिले पैसे बचाकर मजदूर किसान खेती में भी लगाते थे। बारिश में मनरेगा का काम बंद भी हो जाता है।

रोजगार सहायक अभी सरकार की ओर से दी गई दुगने वेतन की राहत को मंजूर कर बचे हुए दिनों में मनरेगा के काम को रफ्तार दे सकते हैं, पर शायद उनसे समझौता करने के लिए सरकार की तरफ से भी कोई पहल नहीं हो रही है।

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