राजपथ - जनपथ
मुफ्त बूस्टर की देर से मिली रियायत
कोविड-19 वैक्सीनेशन का बूस्टर डोज आज से मुफ्त लगना शुरू हो गया है। मार्च महीने से केंद्र सरकार की कोशिश थी कि निजी अस्पतालों में लोग कुछ पौने चार सौ रुपये खर्च कर अपनी हिफाजत का खुद इंतजाम कर लें। पर, इधर कोरोना दुबारा सिर उठाने लगा और लोगों ने बूस्टर डोज के लिए कोई दिलचस्पी ही नहीं दिखाई। बीते सप्ताह छत्तीसगढ़ का ही आंकड़ा सामने आया था कि 0.1 प्रतिशत लोगों ने ही बूस्टर डोज लिए। जिन निजी अस्पतालों पर यह जिम्मेदारी डाल दी गई थी, उन्होंने भी हाथ खींच रखा था। दरअसल, एक डोज के पीछे उन्हें सिर्फ 150 रुपये मिलने थे, पर इसी में से वैक्सीन के रख-रखाव और स्टाफ का खर्च भी उनको निकालना था।
जब लोग रसोई गैस, ग्रॉसरी और पेट्रोल की महंगाई से हलकान हों, तब बूस्टर डोज का मुफ्त मिल जाना भी एक बड़ी राहत है। अंतत: यह डोज कोरोना, ओमिक्रॉन के फैलने से रोकने में मददगार होगा, जिसका खर्च मरीज के सरकारी अस्पताल में भर्ती होने पर सरकार को वहन करना होता है।
छत्तीसगढ़ दुबारा झांकने आएंगे?
छत्तीसगढ़ से राज्यसभा के लिए चुने गए कांग्रेस सांसदों से यदि कोई उनसे उम्मीद करता हो कि प्रदेश में खाद की भयंकर किल्लत, बाढ़ से खड़ी हुई दिक्कत, वन अधिकार कानून में संशोधन से होने वाले बुरे असर और हसदेव को बचाने के लिए चल रहे आदिवासियों के आंदोलन जैसे मुद्दों पर दिल्ली में कुछ करने के लिए चुने गए हैं, तो जरा रुकिए। हमारे राज्य से चुने गए राजीव शुक्ला के कुछ पोस्ट ट्विटर खोलकर पढ़ लें। इन दिनों विदेश के टूर पर हैं, क्रिकेट टीम के साथ। रोज दनादन ट्वीट कर क्रिकेट की ही बात कर रहे हैं, सिलेब्रिटीज़ के साथ फोटो खींचकर अपलोड कर रहे हैं।
पटरियां तो माल ढोने के लिए बिछी थी, फिर...
दिल्ली के लिए अंबिकापुर से सुपरफास्ट ट्रेन रवाना हुई तो सरगुजा के उन स्टेशनों पर भी मोदी का जयकारा लगा रहे लोग ढोल धमाके लेकर मौजूद थे, जहां पर इसका स्टापेज नहीं दिया गया है। पर एक दूसरा पहलू है जिसके बारे में मंत्री, सांसद किसी ने बात नहीं की। वह यह कि कोविड काल के पहले तक यहां से पांच पैसेंजर ट्रेनें चलती थीं जो कटनी मुख्य मार्ग से सीधे जुड़ जाती थीं। पर अब तक इनमें से कोई ट्रेन चालू नहीं हुई है। कोविड जैसे ही खत्म हुआ कोयले का संकट बताकर पैसेंजर ट्रेनों को रद्द कर किया गया, अब तक रद्द हैं। छोटे स्टेशनों से मजदूर, कर्मचारी, कम लागत में काम धंधा करने वाले लोग चढ़ते-उतरते थे। रेल से सस्ती यात्रा के अच्छे दिनों को वे लगभग भूलने लगे हैं। बसों, ऑटो रिक्शा और टैक्सी में कई गुना अधिक हो रहा खर्च मैनेज करना सीख रहे हैं। इन स्टेशनों के खोमचे वाले,चाय-पान ठेले वाले, रिक्शा चलाने वाले नया काम ढूंढ रहे हैं। यह दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे के तकरीबन सभी दिशाओं के छोटे स्टेशनों की स्थिति है। सांसदों, विधायकों, मुख्यमंत्री सबने आवाज उठा ली। रेलवे बोर्ड के चेयरमैन आए, उन्होंने कुछ आश्वासन नहीं दिया, रेल मंत्री ने कल वर्चुअल अंबिकापुर-दिल्ली ट्रेन को झंडी दिखाई-उन्होंने भी लाखों लोगों के जीवन से जुड़ी इस समस्या पर कोई बात नहीं की। यह सोचकर ठंडी सांस ली जा सकती है कि वैसे भी अंग्रेजों ने माल ढुलाई के लिए ही तो पटरियां बिछाई थीं। अब रेलवे फिर से यही कर रहा है तो इसमें गलत क्या है?