राजपथ - जनपथ
ऐसा धोती-कुर्ता यहां चलेगा?
थाईलैंड के बैंकाक से एक नये फैशन की तस्वीरें सामने आई हैं। फेसबुक पर कौशल किशोर ने वहां की ऐसी तस्वीरें पोस्ट की हैं जिनमें आदमी आधी लंबाई की धोती के ऊपर कम लंबाई का कुर्ता पहने और कमरबंद बांधे दिख रहा है। दिखने में यह फैशन हिन्दुस्तानी कपड़ों सरीखा दिख रहा है। लेकिन खुद हिन्दुस्तान में यहां के परंपरागत कपड़ों का हाल यह है कि अभी उत्तर भारत में किसी जगह हिन्दुस्तानी कुर्ता पहने हुए एक स्कूली शिक्षक की वहां के कलेक्टर ने फटकार-फटकार कर मानो खाल ही खींच ली थी। परंपरागत भारतीय पोशाक पहनने पर अगर किसी शिक्षक को उसके ही बच्चों के सामने स्कूल में ऐसी गालियां सुननी पड़ सकती हैं, तो इस देश में भारतीय पोशाक के लिए सम्मान किसी दूसरे देश से घूमकर ही आ सकता है।
अब जरूरत आत्मानंद यूनिवर्सिटी की...
नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क के नतीजे आ गए हैं। इनमें अपेक्षाकृत पीछे समझे जाने वाले पड़ोसी झारखंड, बिहार, ओडिशा आदि सभी राज्यों के किसी न किसी विश्वविद्यालय को टॉप 100 में स्थान मिला है, मगर छत्तीसगढ़ से किसी को नहीं। छत्तीसगढ़ के अलावा कुछ पूर्वोत्तर राज्य जैसे त्रिपुरा, नागालैंड, मिजोरम, मणिपुर, गोवा, अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्य हैं, जिन्हें भी इस सूची में जगह नहीं मिली, मगर बाकी राज्यों का कोई न कोई विश्वविद्यालय ऐसा तो है जो प्रथम 100 में जगह बना सका है। यह सूची छोटी नहीं कही जा सकती। अपने प्रदेश में यूनिवर्सिटी की संख्या भी कम नहीं है। एक केंद्रीय विश्वविद्यालय, 13 राज्य विश्वविद्यालय और 11 प्राइवेट यूनिवर्सिटी। इनमें सभी तरह की स्पेशलाइजेशन वाले विश्वविद्यालय हैं- टेक्नॉलॉजी, कानून, आईटी, हेल्थ, जर्नलिज्म, एग्रिकल्चर। और तो और संगीत का भी अनूठा विश्वविद्यालय स्थापित है जो शायद देश में इकलौता है। पर इन सभी में शिक्षा का स्तर कैसा है, इसका अंदाजा सूची बता रही है। कुछ एक निजी विश्वविद्यालयों की चर्चा तो सिर्फ डिग्रियां बांटने के नाम पर ही होती हैं। सरकार की फंडिंग वाले विश्वविद्यालयों में कुलपति अपने इलाके के लोगों की, या फिर अयोग्य लोगों की भर्ती का रिकॉर्ड रखते हैं। कुलपतियों की नियुक्ति में ही भारी राजनीति हो जाती है। हाल में हुए कुलाधिपति और सरकार के बीच का टकराव लोगों को याद ही है। यूनिवर्सिटी के इंफ्रास्ट्रक्चर और वेतन पर भारी खर्च होता है। इसके बावजूद कई संकाय वर्षों से तदर्थ नियुक्त प्राध्यापकों के भरोसे है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से भी भारी मदद मिलती है, फिर भी ऐसी हालत। मालूम नहीं उच्च शिक्षा विभाग और राज्य सरकार इस सूची से छत्तीसगढ़ का नाम गायब देखकर चिंतित है नहीं, पर शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े लोगों में निराशा है। एक सुझाव तो यह भी आ रहा है कि जिस तरह आत्मानंद स्कूल खोले जा रहे हैं, उसी तरह कुछ कॉलेज और विश्वविद्यालय खोलकर देखा जाए, शायद कुछ अच्छा हो जाए।
इतने नामी लोगों ने लगाई बेंच...
बड़ी सौगात...। मोहल्ले के लोगों को एक सार्वजनिक स्थल पर एक बेंच की सुविधा दी गई। इसमें महापौर, विधायक और पार्षद सबका योगदान रहा। लोग पूछ रहे हैं कि बाकी नेताओं, मंत्रियों का नाम भी क्यों नहीं लिखा गया। चेयर की पट्टी में जगह तो अभी भी बची है।
विष्णु भोग की जीआई टैगिंग
यह तो साफ हो चुका है कि छत्तीसगढ़ के किसानों को धान उगाने में महारत हासिल है। धान की जगह दूसरी फसल लेने के लिए उन्हें तैयार करना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में चावल पर ही नये प्रयोग कर बिना किसी सरकारी बोनस के कैसे फायदा लिया सकता है, इसका उदाहरण देखने को मिला है। मस्तूरी के कुछ किसानों ने विष्णु भोग चावल उगाया। देशभर में इस चावल की दुबराज और जवाफूल की तरह मांग है। दूसरे राज्यों के व्यापारियों को उन्होंने बेचा तो उन्हें कीमत 70 से 80 रुपये मिली। फिर किसी ने रास्ता बताया इसकी सप्लाई वे खाड़ी देशों में करने लगे। इससे उन्हें 100 से 120 रुपये किलो का भाव मिलने लगा। पर तीन माह में ही आपत्ति आ गई। गुणवत्ता को लेकर नहीं, गुणवत्ता को प्रमाणित करने वाली जीआई टैगिंग को लेकर। जीआई टैगिंग केन्द्र सरकार की संस्था देती है। अभी छत्तीसगढ़ के दुबराज और जवाफूल की ही टैगिंग हो पाई है। ये सभी चावल मुलायम और सुगंधित होते हैं। जीआई टैगिंग के लिए विष्णु भोग उगाने वाले मस्तूरी के किसानों ने भी अब आवेदन कर दिया है, पर इसमें एक साल लग जाएंगे। शायद ऐसे उत्साही किसानों को सरकार प्रोत्साहित करे तो छत्तीसगढ़ की तस्वीर बदल सकती है और उन्हें बोनस आदि देने की जरूरत भी न पड़े।
लंबी हड़ताल के बाद अब क्या?
बीते सोमवार से सरकारी अधिकारी कर्मचारियों का फेडरेशन कलम बंद हड़ताल पर है। शिक्षक भी स्कूल नहीं जा रहे, बच्चों का मध्यान्ह भोजन भी बंद है, दफ्तरों में ताला लगा है। गुरुवार हरेली की छुट्टी है। अब शुक्रवार को इस आंदोलन का आखिरी दिन होगा। सरकारी कामकाज पर बुरा असर जरूर पड़ा पर सरकार पर कोई असर पड़ा हो यह दिखाई नहीं दे रहा। यहां तक कि बातचीत के लिए किसी प्रतिनिधिमंडल को बुलाने की जरूरत भी मंत्रालय ने नहीं समझी। सोमवार से जब वे ड्यूटी पर आएंगे तो रुके काम निपटने लगेंगे। फिर क्या होगा? चक्का जाम, पुतला फूंकने, उग्र प्रदर्शन के रास्ते पर चलना तो मुश्किल है। नौकरी पक्की है, आंगनबाड़ी, रोजगार सहायकों, स्कूलों के सफाई कर्मियों की तरह मामूली और असुरक्षित नहीं। फिर क्या रास्ता बच जाता है? कुछ कर्मचारी यह सोचने लगे हैं कि यह कलम बंद हड़ताल को ही आगे बढ़ा दी जाए। लंबे समय तक दफ्तर बंद रहेंगे तो शायद सरकार पर दबाव बने और उन्हें बातचीत के लिए बुलाया जाए।