राजपथ - जनपथ
डोंट अंडरस्टैंड छत्तीसगढ़ी...
हिंदी की सेवा छत्तीसगढ़ के लोग बहुत अच्छी तरह कर रहे हैं। ऐसा उन राज्यों के लोग भी कर रहे हैं जहां हिंदी का विकास हुआ- जैसे बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि। यहां दो लोग आपस में अपनी स्थानीय बोली या लोक भाषा को जानते हुए हिंदी में बात करते हैं। बोली को बचाये रखने की जिम्मेदारी उठाने वाली पीढ़ी या तो प्रौढ़ हो रही है या फिर गुजरने वाली है। साधारण आमदनी वालों के लिए भी पब्लिक स्कूल मोहल्ले-मोहल्ले में खुले हैं। बच्चों को ऐसे अभिभावक अंग्रेजी सीखने की उम्मीद में दाखिला दिलाते हैं। अंग्रेजी तो सीख नहीं पाते, छत्तीसगढ़ी छूट जाती है, हिंदी पकडक़र तसल्ली कर लेते हैं। बाजार और व्यवहार में उल्टा भी हो रहा है। अब जड़ से जुड़ चुके व्यवसायी जो कभी दूसरे राज्यों से आए थे, वे घर और अपने व्यापारिक सहयोगियों से तो अभी भी अपने देस की बोली में बात करते हैं, पर छत्तीसगढ़ के स्थानीय मजदूरों, कर्मचारियों से बात करने के लिए छत्तीसगढ़ी सीख चुके हैं। रोड, बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन चल रहा हो वहां श्रमिक और ठेकेदारों के बीच की बातचीत कभी सुनकर देखिये।
हिंदी दिवस पर छत्तीसगढ़ी की चर्चा रायगढ़ जिले के एक वाकये के कारण हो रही है। यहां मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भेंट-मुलाकात कार्यक्रम में आत्मानंद स्कूल की छात्रा वंशिका पॉल के सवाल का जवाब छत्तीसगढ़ी में देना शुरू किया तो उसने सीएम से कहा- आई डोंट अंडरस्टैंड छ्त्तीसगढ़ी सर। फिर सीएम ने हिंदी में बात शुरू की और कहा कि नई पीढ़ी को छत्तीसगढ़ी जानना चाहिए। इसीलिए हमने शाला में सप्ताह में एक दिन छत्तीसगढ़ी में पढ़ाने और बात करने का निर्देश दिया है। अपनी बोली को सहेजकर रखना जरूरी है। इससे विरासत, परिवेश और संस्कृति जुड़ी है। प्रत्येक स्थानीय भाषा की तरह छत्तीसगढ़ी में भी पीढिय़ों का ज्ञान समाया हुआ है, उसे जानें। इसकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।
रेलवे किसे दुखी नहीं कर रहा?
रायगढ़ से नागपुर के बीच सफर करने वाले यात्री ट्रेनों की लेट-लतीफी से भारी त्रस्त हैं। पर, रेलवे में काम करने वाले टीटीई, पायलट, गार्ड भी बहुत दुखी चल रहे हैं। उन्हें भी घंटों ग्रीन सिग्नल नहीं मिलने से ऊब आती है। उनको भी घर जाना होता है। बीच के दर्जन भर छोटे स्थानों पर वैध-अवैध वेंडर चाय, बिस्किट, चना, समोसा लेकर ट्रेनों में घूमते हैं, उनके रोजगार पर असर पड़ रहा है। स्टेशन के बाहर सवारियों के इंतजार में खड़े ऑटो रिक्शा चलाने वाले मासूस हैं।
राजधानी पहुंचने वाले यात्री प्रदेश स्तर के दफ्तरों में काम के लिए पहुंचें, एम्स या किसी बड़े अस्पताल में डॉक्टरों से मिली मुश्किल अप्वाइंटमेंट लेकर चलें या फ्लाइट पकडऩे आएं, उन्हें रेलवे भरोसेमंद सेवा नहीं दे पा रहा है। कोयले के नाम पर ट्रेनों को देर करने को लेकर लगातार आलोचना होने के बाद से अब रेलवे सुधार कार्य, विद्युतीकरण जैसे कामों को वजह बताने लगी है। पर लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि आखिर महीनों से रोजाना इतना काम होने के बाद भी ट्रेनों की स्पीड क्यों नहीं बढ़ रही, कितना काम बाकी रह गया।
कांग्रेस सांसदों को छोडिय़े, भाजपा की बात भी रेलवे नहीं सुन रहा। मजबूरी में हमारे जन-प्रतिनिधि उसी के सुर में दोहराने लगे हैं कि कोयला संकट के चलते ऐसा करना पड़ रहा है। जोनल और मंडल स्तर पर उपभोक्ता सलाहकार समितियां बनी हैं। उनकी नाम पट्टिका स्टेशनों पर लगाई गई है, पर साल छह महीने में एक बार की बैठक के अलावा उनका कोई हस्तक्षेप नहीं रहता। हाल में कई मौके आए जब लोगों ने आंदोलन किया, अधिकारियों से मुलाकात की कोशिश की तो वे अपने चेंबर से भी बाहर नहीं निकले और आरपीएफ को सामने कर दिया।
खुद रेलवे का रनिंग स्टाफ कहने लगा है कि इतने लंबे समय तक यात्री ट्रेनों की ऐसी दुर्दशा उन्होंने पहले कभी नहीं देखी। कहते हैं बीमारी दूर नहीं हो तो उसके साथ जीने की आदत डाल लेनी चाहिए। क्या रेलवे यही चाहता है?
ये वो पदयात्रा नहीं...
अखिल भारतीय आदिवासी महासभा ने 19 से 26 सितंबर के बीच सिलगेर से सुकमा तक पदयात्रा निकालने की घोषणा की लेकिन कलेक्टर ने इसकी मंजूरी नहीं दी। उन्होंने यह जरूर किया है कि सुकमा में सभा करने की अनुमति दे दी। पर इसमें भी शर्त यह जोड़ी गई है कि इसमें सिर्फ सुकमा के लोग शामिल हो सकेंगे। आयोजकों को इसका मतलब ही समझ में नहीं आ रहा है। पदयात्रा की मंजूरी सिलगेर के लोगों ने मांगी है, उनको ही सभा में शामिल होने से रोका जा रहा है। संयोजक पूर्व विधायक मनीष कुंजाम का कहना है कि यह मंत्री कवासी लखमा के इशारे हो रहा है, ऐसा नहीं चलेगा। वे उदाहरण दे रहे हैं कि राहुल गांधी खुद देश की पैदल यात्रा पर निकले हैं, फिर हमें क्यों रोका जा रहा? फिलहाल कलेक्टर के आदेश पर पुनर्विचार के लिए उन्होंने कमिश्नर से अपील की है। [email protected]