राजपथ - जनपथ
कोयले से बड़ा महादेव?
एक-दो दिन की शांति के बाद आज फिर छत्तीसगढ़ में ईडी की हलचल दिखाई पड़ी है, और जिन अफसरों की जांच चल रही थी, उनके गांव-घर तक, गांव के बैंक तक, पटवारी तक ईडी का पहुंचना बाकी लोगों में भी हडक़म्प मचाने के लिए बहुत है। इसके साथ-साथ चूंकि ईडी की तरफ से अपनी कार्रवाई को लेकर कोई जानकारी दी नहीं जा रही है, इसलिए अफवाहों का बाजार गर्म है। लोग कई अफसरों के दिल्ली जाकर पूछताछ के लिए पेश होने की बात कह रहे हैं, तो कुछ दूसरे लोग यह शक जाहिर कर रहे हैं कि कौन-कौन से अफसर टूट सकते हैं, कौन से अफसर कमजोर कड़ी साबित हो सकते हैं। बीती रात एक खबर यह आई कि ईडी के सामने कोरबा कलेक्ट्रेट में पांच सौ करोड़ के डीएमएफ मामले में सवा सौ करोड़ का घोटाला सामने आया, लेकिन ईडी के अफसरों ने यह कहते हुए उसकी जांच से मना कर दिया कि वे हर तरह के भ्रष्टाचार की जांच के लिए नहीं आए हैं। कोरबा कलेक्ट्रेट की जांच में दिलचस्पी रखने वाले एक बड़े नेता ने इस पर कुछ लोगों को दिल्ली फोन करके नाराजगी भी जाहिर की है।
ऐसे छापों और जांच का दौर लोगों को एक मौका देता है कि किसके बारे में लिखकर उसके चमकाया जाए, किसे बदनाम करके कोई पुराना हिसाब चुकता किया जाए, और आज मीडिया और सोशल मीडिया में कई लोग इस काम में भी लग गए हैं। लेकिन ईडी की जांच के साथ-साथ एक और मामले में केन्द्र सरकार की एजेंसियों का दखल होते दिख रहा है, सट्टेबाजी के ऑनलाईन महादेव एप्लीकेशन पर। अभी तक इस महादेव की पूरी जानकारी लोगों के सामने नहीं आई है, और उस जानकारी के सामने कोयला और खनिज घोटाला छोटा लग सकता है।
बगल के आईजी का मैराथन रिकार्ड
मध्यप्रदेश के नक्सलग्रस्त बालाघाट रेंज के आईजी संजय सिंह देशभर के मैराथन में दौड़ लगाने के लिए जाने जाते हैं। हाल ही दिल्ली में हुए एक मैराथन में उन्होंने एक घंटा 56 मिनट में 21 किमी की दौड़ बिना रूके तय की। उनके नाम कई और भी रिकार्ड हैं। आईजी से पूर्व डीआईजी रहते बीएसएफ में चार साल की प्रतिनियुक्ति में संजय सिंह ने एक लंबी मैराथन में भाग लेकर युवा नौकरशाहों के सामने मिसाल पेश की। बताते हैं कि बीएसएफ में पदस्थ रहते हुए आईटीबीपी द्वारा आयोजित तीन दिन में 200 किमी की दूरी को सिंह ने दो दिनों में पूरा कर दिया। 2004 बैच के आईपीएस संजय सिंह अच्छे मेलजोल के लिए महकमे में जाने जाते हैं। बालाघाट में सीएसपी, एसपी रहे सिंह को आईजी के तौर पर कुछ महीनों पूर्व पदस्थ किया गया। उनकी शारीरिक बनावट बेहद लचीली है। दौड़ लगाने के लिए वह हमेशा तत्पर रहते हैं। आईजी की मैराथन के प्रति गहरे लगाव को देखकर उनके मातहत उम्रदराज और युवा अफसर भी कसरत करने के लिए प्रोत्साहित हुए हैं।
एक और यादगार रिकार्ड उन्होंने ग्वालियर से शिवपुरी के बीच 120 किमी का सफर साइकिल से तय करके बनाया था। श्योपुर और शिवपुरी एसपी रहने के बाद सिंह ने 2010 में बालाघाट की बागडोर सम्हाली थी। छत्तीसगढ़ में उनके बैचमेट में बगल के दुर्ग रेंज के आईजी बीएन मीणा हैं। उनकी मीणा से गहरी छनती है। संजय सिंह के फेसबुक और वाट्सअप स्टेट्स में मैराथन की कई तस्वीरें मौजूद हैं। उनकी शारीरिक बनावट मौजूदा दौर के युवाओं से काफी मेल खाती है। बढ़ती उम्र के साथ सिंह ने अपने शारीरिक कसावट को बनाए रखा। मैराथन में दौड़ लगाने के लिए वह देश के अलग-अलग इलाकों में आए दिन पहुंचते हैं।
हिंदी में मेडिकल पाठ्यक्रम
छत्तीसगढ़ सहित उत्तर भारत के अनेक राज्य ऐसे हैं जहां अंग्रेजी लिखने, बोलने का वातावरण नहीं है। अंग्रेजी माध्यम में पढऩे वालों की अंग्रेजी भी अपने स्कूल-कॉलेजों तक सीमित होकर रह जाती है। अंग्रेजी पर व्यक्तिगत अभ्यास से ही लोग पकड़ बना पाते हैं, चाहे स्कूलिंग अंग्रेजी की हो या न हो। गैर-हिंदी भाषा-भाषी के राज्यों के युवाओं को शीर्ष प्रशासनिक पदों पर पहुंचने की एक वजह यह भी मान ली जाती है कि विज्ञान, तकनीक, वाणिज्य, इंजीनियरिंग आदि पर ज्यादातर उत्कृष्ट किताबें अंग्रेजी में हैं। हिंदी के व्यापक प्रभाव को देखते हुए उसे राजभाषा का दर्जा तो दिया गया लेकिन सरकारी संस्थानों में खासकर केंद्र के विभागों, उपक्रम में हिंदी के जो शब्द गढ़े गए हैं वे आम बोलचाल के हैं ही नहीं। लोगों को लगता है कि इस हिंदी से तो बेहतर है, अंग्रेजी में ही बात समझ ली जाए। हिंदी पर बल देने के लिए हर साल पखवाड़ा मनाने के बावजूद इन दफ्तरों से ज्यादातर सर्कुलर अंग्रेजी में ही जारी होते हैं।
उत्तर प्रदेश के बाद मध्यप्रदेश में हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई की शुरूआत हो गई है। कुछ हिंदी किताबों का केंद्रीय गृह मंत्री ने विमोचन किया। छत्तीसगढ़ में भी आने वाले दिनों में पढ़ाई शुरू हो सकती है। केंद्र सरकार इस बारे में घोषणा कर चुकी है। सिम्स बिलासपुर का इसके लिए चयन किया गया है। मेडिकल पाठ्यक्रम में अधिकतर तकनीकी शब्द रोमन (लैटिन) भाषा से लिए गए हैं। अंग्रेजी की किताबों में इन्हें बिना फेरबदल लिए गए हैं। यदि इनका हिंदी अनुवाद राजभाषा की तरह क्लिष्ट होगा तो हिंदी से भी छात्रों का मोहभंग होने लगेगा। वैसे सरकार ने अनुवादकों से तकनीकी शब्दों में ज्यादा फेरबदल नहीं करने के लिए कहा है। कुछ जानकार इस पर भी सवाल कर रहे हैं कि हिंदी माध्यम के छात्र क्या अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रस्तुत करने के योग्य शोध-पत्र तैयार कर पाएंगे? क्योंकि कोर्स से बाहर की जानकारी जुटाने के लिए तो अंग्रेजी किताबों का विस्तृत अध्ययन करना होगा। दक्षिण में इस बात का विरोध हो रहा है कि केंद्र सरकार हम पर हिंदी लादने की कोशिश कर रही है। यह केंद्र के उस बयान पर है जिसमें सरकारी कामकाज का माध्यम पूरे देश में हिंदी को बनाने की बात की जा रही है।
आम लोगों को दवाओं के अंग्रेजी नाम को लेकर चिंता है। इसका फायदा उठाकर कई डॉक्टर मामूली पेन किलर या डिहाइड्रेशन की दवा भी लिखते हैं और उन्हें अस्पताल में भर्ती होने की सलाह दे देते हैं। दवा की पर्ची तो मेडिकल स्टोर वालों के अलावा कोई समझ ही नहीं पाता। मध्यप्रदेश में हिंदी में मेडिकल की पढ़ाई होने का असर कुछ डॉक्टरों पर तत्काल हुआ है। उन्होंने पर्ची के ऊपर आरएक्स की जगह श्री हरि लिखना शुरू कर दिया है। यह अलग बात है कि दवाओं के हिंदी नाम उन्हें अभी नहीं सूझ रहे हैं।
शॉपिंग मॉल के जूते
रायपुर के एक मीडिया कर्मी ने 9000 रुपये में रिबोक का ब्रांडेड जूता टिकाऊ समझकर खरीदा। उन्हें काफी दौड़-भाग करनी पड़ती है। मगर, कुछ ही दिन बाद जूते से रेशे निकलने लगे। मेगनेटो मॉल के शो रूम में वापस करने गए तो सेल्समैन ने बताया कि ऐसा शुरू में होता है, कुछ दिन में ठीक हो जाएगा। जूते पर तीन माह की गारंटी है, इंतजार तो करिये। अब जब जूते फटने लगे हैं तो सेल्समैन बात सुनने के लिए तैयार नहीं है। गारंटी तीन माह की ही है। उसके बाद खराब होने पर कंपनी किसी दावे को सुनेगी नहीं। सुनने में तो अभी भी वह टालमटोल कर रही है। सदरबाजार, मालवीय रोड की दुकानों में, जो कंपनियों की नहीं हों- शायद ऐसी परेशानी नहीं आती। अव्वल तो वह ब्रांडेड की जगह अपनी गारंटी पर कम कीमत में मजबूत जूता थमा देता। खराब निकल जाता तो दुकानदार जूते वापस लेकर कंपनी या डीलर को वापस भेज देता और ग्राहक बिगाड़ रहे हो- कहकर चार बातें सुना भी देता। फिलहाल, कंपनी को ग्राहक मीडियाकर्मी ने ट्वीट किया है। रुपये वापस करने या जूते बदलने की मांग की है। बात नहीं बनी तो कंज्यूमर फोरम भी जाना पड़ सकता है। इस तरह से उन्हें नुकसान की भरपाई तो हो सकती है पर इस चक्कर में जो परेशानी उठानी पड़ रही है उसका क्या?