राजपथ - जनपथ

छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : लंबी जांच के बाद पार्टी से बेदखल
28-Oct-2022 3:48 PM
 	 छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : लंबी जांच के बाद पार्टी से बेदखल

लंबी जांच के बाद पार्टी से बेदखल

खैरागढ़ उपचुनाव में भीतरघातियों को बाहर का रास्ता दिखाने से पहले भाजपा ने संगठन स्तर पर दो दौर की लंबी जांच की। उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी कोमल जंघेल की जीत को कठिनाई के रास्ते ले जाने की पार्टी के भीतर चली कतिपय भाजपा नेताओं की मुहिम पर पार्टी ने गंभीरता बरती। बताते हैं कि चुनाव प्रचार की कमान सम्हाले पार्टी के नेताओं ने निलंबित पदाधिकारियों की करतूतों को करीब से परखा। पार्टी के दिग्गज नेताओं की मौजूदगी की परवाह छोडक़र अंदरूनी तरीके से भीतरघात करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई थी। पार्टी ने पिछले दिनों लुकेश्वरी जंघेल, रावलचंद कोचर जैसे आधा दर्जन नेताओं को काफी जांच-पड़ताल के बाद संगठन से बेदखल कर दिया। बताते हैं कि कांग्रेस नेताओं के साथ कथित सांठगांठ के दौरान भीतरघातियों की मेल-मुलाकात और उनके द्वारा दिए गए तोहफों पर प्रमाणिक तौर पर संगठन को सबूत मिले हैं। रावलचंद कोचर नांदगांव के भाजपा नेता खूबचंद पारख के सगे साले हैं। वह पहले भी दो बार पार्टी से निलंबित हुए हैं। पार्टी ने राजेश मूणत, केदार कश्यप, धरमलाल कौशिक, शिवरतन शर्मा जैसे दिग्गजों से मिली रिपोर्ट के आधार पर जांच का सिलसिले को आगे बढ़ाया। वहीं राज्य संगठन से आए देवजी पटेल, किरणदेव, नवीन मार्कण्डेय समेत चार सदस्यीय टीम ने पार्टी कार्यालय में छानबीन की। दोनों जांच में भीतरघातियों की भूमिका संदेहास्पद मानी गई। इसके लिए पार्टी ने छह माह का वक्त लेकर सभी की संगठन से छुट्टी कर दी। सुनते हैं कि भाजपा को हुए नुकसान से प्रदेश नेतृत्व अब तक उबर नहीं पाया है। लिहाजा संगठन ने सख्ती बरतते हुए बाहर का रास्ता दिखाकर कार्यकर्ताओं को एक तरह से नसीहत दी है।

कई बरस गुजर गए, सवाल जिंदा

विधानसभा चुनाव में दस महीने बाकी रह गए हैं। लेकिन भाजपा में अभी भी पिछले चुनाव के रिजल्ट पर ही बात हो रही है। क्षेत्रीय महामंत्री (संगठन) अजय जामवाल ने गुरुवार को रायपुर की चारों सीटों की संगठनात्मक गतिविधियों पर चर्चा के बीच फिर वही पुराना सवाल उछाल दिया कि हमें क्यों हार का सामना करना पड़ा? यह सवाल पार्टी के राष्ट्रीय नेता यदा-कदा पूछते ही रहे हैं।

इस बार कार्यकर्ताओं का जवाब भी अलग नहीं था। रायपुर उत्तर सीट में हार पर कहा गया कि रायपुर उत्तर की टिकट सबसे आखिरी में डिक्लेयर की गई। पराजित प्रत्याशी श्रीचंद सुंदरानी का नाम लिए बिना कहा गया कि उन्हीं को ही प्रत्याशी बना दिया गया, जिसके खिलाफ सबसे ज्यादा नाराजगी थी। रायपुर ग्रामीण में हार पर एक कार्यकर्ता ने कहा कि कांग्रेस प्रत्याशी सत्यनारायण शर्मा की हर घर में पहुुंच है। वो (सत्यनारायण) हमारे घर भी तीन बार आ चुके थे। उनकी सक्रियता के आगे भाजपा प्रत्याशी नहीं टिक पाए।

रायपुर पश्चिम में हार पर राजेश मूणत की मौजूदगी में कार्यकर्ता सीधा कुछ कहने से बच रहे थे तो अजय जामवाल ने भांप लिया, और कहा कि आप सभी खुद  नेता हैं। संकेत साफ था कि किसी की टिकट पक्की नहीं है। इससे परे रायपुर दक्षिण के लिए जामवाल ने कहा कि जिन घरों में भाजपा का झंडा नहीं लगा हैं, वहां पहुुंच बनाना होगा। यानी पिछले चुनाव से ज्यादा मतों से जीत पर जोर दिया गया। खास बात यह रही कि करीब आठ घंटे चली बैठक में जामवाल ही बोले, बाकी जिले के बड़े नेताओं को अपना विचार रखने का मौका नहीं मिला।  

खाली ट्रेन में तत्काल टिकट...

कई बार ऐसा होता है कि जब रिजर्वेशन कराते हुए तो सीट वेटिंग में दिखाई देती है पर सवार होते हैं तो कोच खाली मिलती हैं। ऐसा कैसे हो जाता है? एक यात्री को भोपाल से हैदराबाद होते हुए गुलबर्गा का सफर करना था। संपर्क क्रांति एक्सप्रेस में जब उन्होंने लंबी प्रतीक्षा सूची देखी तो तत्काल श्रेणी की टिकट ले ली। उन्हें 500 रुपये अतिरिक्त किराया देना पड़ा। इधर, जब वे ट्रेन पर सवार हुए तो देखा कि पूरी कोच लगभग खाली है। यह स्थिति उनके सफर खत्म होने तक बनी रही। यानि ऐसा नहीं था कि आगे के स्टेशनों में बर्थ भरने वाली हो। थर्ड एसी ही नहीं, सेकेंड एसी में भी अधिकांश सीटें खाली थीं। यात्री को समझ नहीं आया कि रिजर्वेशन के दौरान वेटिंग किसलिए दिखाया जा रहा था। उन्होंने सोशल मीडिया पर सवाल उठाया है कि क्या रेलवे की साइट में गड़बड़ी की जाती है और लोगों को तत्काल टिकट लेने के लिए मजबूर किया जाता है? कभी-कभी ट्रेनों में अतिरिक्त कोच की व्यवस्था जरूर की जाती है, पर तभी, जब वेटिंग लिस्ट लंबी हो जाए।

पड़ताल ऑफलाइन, खरीदी ऑनलाइन

दीपावली के दौरान इलेक्ट्रॉनिक, इलेक्ट्रिक और मोबाइल की दुकानों में दूसरी दुकानों की तरह भीड़ तो उमड़ी, पर उसके मुकाबले बिक्री कम हुई। ये ऐसे उत्पाद हैं जो ऑनलाइन ज्यादा पापुलर हैं। दुकान जाने से पहले दाम को ग्राहक ऑनलाइन चेक कर लेता था। जैसे ही दुकानदार भाव बताता वे मोबाइल फोन निकालकर ऑनलाइन कीमत सामने रख देता था। कई दुकानदारों ने उसी दाम या उसके कम दाम पर बेचे पर बहुत ने मना कर दिया। कई ग्राहक इससे भी ज्यादा चतुर निकले। कोई सामान उन्हें ऑनलाइन पसंद तो आता था, पर खरीदने से पहले सरल हिंदी में उसकी खूबियां-कमियां जान लेना चाहते थे। सामान की मजबूती भी हाथ से छूकर परखना चाहते थे। वे बाजार निकल गए, सामान देखा, उसकी खूबी जानी और हाथ झाड़ते हुए- बाद में आता हूं कहकर निकल जाता था। दुकान से निकलकर उसी सामान को वह ऑनलाइन मंगा लेता था। एक इलेक्ट्रिकल शॉप के मालिक का तो कहना है कि उसने दीपावली पर 80 फीसदी केवल झालर बेचे हैं। बाकी सामान सजे रह गए। झालर ही एक ऐसी चीज थी जो ऑनलाइन नहीं मिल रही थी। कहीं मिल भी रही थी तो चेक करके खरीदने का ऑप्शन नहीं था। बाकी सामानों के सर्विस सेंटर तो शहर में मिल जाते हैं पर झालर में तो गारंटी भी नहीं दी जाती।

बस्तर को लेकर कांग्रेस की चिंता

बीते विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बस्तर की 12 में से 10 सीटें पहले ही जीत ली। बाद में भाजपा विधायक भीमा मंडावी के निधन और सांसद बनने के बाद खाली हुई दीपक बैज की सीट पर भी कांग्रेस ने जीत हासिल की। इस तरह से इस समय बस्तर की सभी 12 सीटें इस समय कांग्रेस के पास हैं। कांग्रेस का इन सीटों पर क्या वही प्रदर्शन रहेगा, जो पिछले चुनाव में था? 12 में से तीन सीट कोंटा, कोंडागांव और नारायणपुर ऐसी सीटें थीं,  जिनमें हार जीत का फासला अधिक नहीं था। पर भानुप्रतापपुर, बस्तर और बीजापुर की सीटों में जीत 20-25 हजार से अधिक का अंतर था। पिछली बार बदलाव की लहर थी, जिसमें भाजपा साफ हो गई। इस बार वैसा दोहराव न हो- इसलिए वह पहले से ही सक्रिय हो चुकी है। पिछले 6 माह से भाजपा यहां सक्रिय हो चुकी है। प्रदेश स्तरीय बैठकें रखी जा चुकी हैं। अब 28 अक्टूबर से कांग्रेस प्रभारी पीएल पुनिया और सप्तगिरी उल्का दौरे पर रहेंगे। प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम की सीट इसी संभाग से है तो वे तो रहेंगे। आदिवासी संगठन ग्रामीणों की हत्या और पेसा कानून में ग्राम सभाओं का अधिकार घटाने के विरोध में आंदोलन तो कर ही रहे थे, हाल के हाईकोर्ट के उस फैसले ने भी सत्तारूढ़ दल को चिंता में डाल दिया है जिसमें आदिवासियों का बढ़ा हुआ आरक्षण खत्म हो गया है। बस्तर का रुख 2018 वाला ही है या अब कुछ बदलने सा लगा है, इसका इशारा पुनिया और बाकी नेताओं को इस दौरे से मालूम हो जाएगा। 

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