राजपथ - जनपथ

छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : पुरानी पेंशन का पेंच
14-Dec-2022 4:02 PM
छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : पुरानी पेंशन का पेंच

पुरानी पेंशन का पेंच

छत्तीसगढ़ पुरानी पेंशन योजना असमंजस बना हुआ है। राज्य सरकार ने योजना को बहाल तो कर दिया है, लेकिन पेंच एनपीएस की राशि को लेकर फंसा हुआ है। राज्य सरकार एनपीएस की राशि लौटाने के लिए लगातार केन्द्र सरकार पर दबाव बनाए हुए है और केन्द्र सरकार नियमों का हवाला देकर पैसा लौटाने से इंकार कर रही है। जाहिर, दोनों तरफ से जमकर सियासत हो रही है, लेकिन परेशान कर्मचारी हो रहे हैं। उन्हें अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि कौन सी स्कीम लागू है और कौन सी नहीं। कर्मचारियों की स्थिति इसलिए भी खराब हो गई है, क्योंकि उनकी बरसो पुरानी मांग को राज्य सरकार ने पूरा कर दिया। इस साल मार्च में सरकार ने जब इसकी घोषणा की थी कर्मचारियों ने खूब जश्न भी मनाया था और सरकार के मुखिया का स्वागत सत्कार भी किया था, लेकिन साल बीतने को है और उनकी पेंशन योजना पर अंतिम फैसला नहीं हो पाया है। सरकार ने अप्रैल 2022 से एनपीएस में अंशदान जमा करना भी बंद कर दिया गया है। अब मुख्यमंत्री ने अधिकारियों को निर्देश दिए हैं कि कर्मचारी संगठनों से चर्चा कर इसका हल निकाला जाए। कर्मचारी भी जानते हैं कि नियमानुसार एनपीएस का पैसा राज्य सरकार को नहीं दिया जा सकता, लेकिन जिसकी उन्होंने मांग की थी और मांग पूरा होने पर उस पीछे हटना भी मुश्किल है। ऐसे में अब केन्द्र सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। अभी तक इस मामले में राज्य और केन्द्र सरकार के बीच तकरार की स्थिति थी, लेकिन अब राज्य कर्मचारी भी कूदने की तैयारी में है। कांग्रेस इस मसले को चुनावी रंग देने की तैयारी में है। हिमाचल प्रदेश के चुनाव में कांग्रेस ने इसे घोषणा पत्र में रखा था। संभव है कि साल 2024 के लोकसभा चुनाव में पुरानी पेंशन योजना बड़ा मुद्दा बन जाए। ऐसे में कांग्रेस-भाजपा सियासी नफा-नुकसान के आधार पर कोई फैसला लेगी, लेकिन कर्मचारियों को इसका लाभ मिलेगा या नहीं, यह कहना मुश्किल है, लेकिन इतना तो तय है कि कर्मचारी दो सरकारों के बीच फंसती नजर आ रही है।

आईएएस अफसरों की चिंता

छत्तीसगढ़ में पेंशन योजना के अलावा कर्मचारियों का केन्द्र के बराबर महंगाई भत्ते की मांग चुनावी साल में तेज होने की संभावना है। हालांकि राज्य सरकार ने दीवाली से पहले महंगाई भत्ते में 5 फीसदी बढ़ोतरी का फैसला लिया था, लेकिन फिर भी केन्द्र के कर्मचारियों की तुलना में राज्य कर्मचारियों को महंगाई भत्ता कम मिल रहा है और उनको एरियर्स का भुगतान भी मनमाफिक नहीं मिल रहा है। दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ के आईएएस को बिन मांगे ही मिल रहा है। उनको समयमान वेतनमान से लेकर महंगाई भत्ते की राशि के लिए मांग तक नहीं करनी पड़ती। वैसे भी अधिकारियों को अपने किसी भी काम के लिए कर्मचारियों की तरह संघर्ष तो करना नहीं पड़ता। इसमें कोई आश्चर्य की बात होनी भी नहीं चाहिए। आखिर फाइल पर चिडिय़ा तो वे ही बिठाते हैं, लेकिन इस मसले की चर्चा उस समय हो रही थी, जब छत्तीसगढ़ में ईडी की छापेमारी और धरपकड़ जोरों पर है। आईएएस समेत बड़े अधिकारियों की संपत्ति और नगदी उजागर हो रही है। ऐसे में कुछ आईएएस अधिकारियों ने संघ के पदाधिकारियों को सुझाव दिया कि महंगाई भत्ता और एरियर्स की मांग को लेकर सरकार से पत्राचार तो कम से कम करना ही चाहिए। ऐसा नहीं करने से संदेश जा सकता है कि राज्य के आईएएस अफसरों की ऊपरी कमाई इतनी ज्यादा हो गई है कि उन्हें वेतन भत्तों की फिक्र ही नहीं है। अब उन्हें कौन समझाए कि जो संदेश जाना था, वो तो जा चुका है। फिर भी कोशिश करने में तो कोई बुराई नहीं है।

हिमाचली सेबों की लाली

हिमाचल चुनाव के नतीजों के बाद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल एक अभूतपूर्व ताकत लेकर उभरे दिखते हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पिछले कुछ महीनों से भूपेश के राजनीतिक सलाहकार विनोद वर्मा हिमाचल चुनाव अभियान में लगे हुए थे, और वहां प्रियंका गांधी के साथ उनकी टीम में काम कर रहे थे। बिना किसी औपचारिक ओहदे के विनोद वर्मा ने वहां सतह के नीचे और पर्दे के पीछे रहकर मेहनत की, और जो भी नतीजे आए उनमें उनका योगदान भी रहा। और जैसा कि पिछले चार बरस के देश के किसी भी चुनाव में होते आया है, छत्तीसगढ़ से इस चुनाव में भी खर्च का कुछ या काफी हिस्सा गया ही होगा। भूपेश बघेल वहां सबसे अधिक प्रचार करने वाले कांग्रेस नेताओं में से एक रहे, और हिन्दीभाषी प्रदेश होने की वजह से उनका असर भी रहा। ऐसा भी लगता है कि हिमाचल का कांग्रेसी घोषणापत्र बनाने में भूपेश और विनोद का खासा योगदान रहा क्योंकि यहां की कई बातें वहां भी लागू करने का वायदा किया गया है। एक तरफ राज्य के भीतर ईडी की कार्रवाई से मुख्यमंत्री भूपेश बघेल परेशानी झेल रहे थे, लेकिन ऐसी विपरीत परिस्थिति में हिमाचल के नतीजों ने उन्हें कांग्रेस का एक सबसे लड़ाकू योद्धा बनाकर पेश किया है। ऐसा लगता है कि पार्टी के स्तर पर अब भूपेश बघेल के किसी विकल्प के बारे में तब तक कुछ सोचने की जरूरत नहीं रहेगी जब तक कि कोई बिजली ही न गिर जाए। भूपेश के चेहरे पर तनाव के बीच भी जितना आत्मविश्वास दिख रहा है, वह हिमाचली सेब की अच्छी फसल से आया हुआ दिखता है। कुछ लोगों का यह याद दिलाना भी जायज है कि हिमाचल तो हर पांच बरस में वैसे भी सत्तारूढ़ पार्टी बदलने का आदी रहा है, लेकिन अब तो मोदी और शाह ने चुनाव के सारे नियम बदल दिए हैं, और कुछ राज्यों में कई तरह चुनावी परंपराएं पलटकर रख दी हैं, ऐसे में हिमाचल में कांग्रेस का लौटना महज परंपरा मान लेना ठीक नहीं है।

मौत की वजह बताने की गलती

उच्चाधिकारियों के लिए जरूरी हो जाता है कि वे बोलते समय सावधानी बरतें ताकि उसका ऐसा मतलब न निकले जो सरकार के लिए परेशानी का कारण बने। उदयपुर के कोसाबाड़ी जंगल में एक वृद्धा की जीर्ण-शीर्ण अवस्था में लाश मिली। जांच से पता चला कि कई दिन पहले यह मौत हो चुकी है। अंबिकापुर एसपी भावना गुप्ता ने पोस्टमार्टम रिपोर्ट का हवाला देते हुए मीडिया से कह दिया कि भूख से मौत होने की आशंका है। पर जैसे ही लगा कि इस पर शोर मच सकता है, उन्होंने दुबारा बयान दिया- सामान्य मौत है। मृतका की उम्र 65 साल की थी, भीख मांगकर गुजारा करती थी। एसपी यदि भूख से हुई मौत को लेकर टिकी रहतीं तो भाजपा इसे मुद्दा बना लेती और जिला प्रशासन को एसपी और डॉक्टरी रिपोर्ट को गलत साबित करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ता।

एनएच भी हो कैटल फ्री

छत्तीसगढ़ की शहरी सडक़ और राजमार्गों में आवारा पशुओं के जमे रहने के कारण दुर्घटनाएं बढ़ रही हैं। पर इनको हटाना आसान नहीं है। मवेशियों को पकडऩे के लिए कर्मचारी लगाना, वाहन में ढोकर लाना, कांजी हाउस में लाकर रखना, उनके चारे-पानी की व्यवस्था करना और तब तक रखना जब तक उसका असली मालिक लेकर न चला जाए, बड़ा खर्चीला काम है। ज्यादातर ऐसे पशुओं की नीलामी ही नहीं होती, क्योंकि ताजा हालात में दूसरे राज्यों में परिवहन करना, मतलब जान जोखिम में डालना है। सडक़ों पर घूमने वाले ज्यादातर पशु वे ही होते हैं जिन्हें मालिक जानबूझकर छोड़ देते हैं क्योंकि वे उनके काम के नहीं रह जाते हैं। दुधारू और उपयोगी पशुओं के लिए नगर-निगम क्षेत्रों में अलग नगर बसाया गया है तो गांवों में भी गौठान योजना चल रही है। पर, आवारा पशुओं की समस्या बनी हुई है। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने भी सडक़ों पर आवारा घूम रहे पशुओं पर कई बार चिंता जताई है और निर्देश भी दिए हैं। रायपुर-बिलासपुर हाईवे और ठीक हाईकोर्ट के सामने की सडक़ पर भी समस्या है। शहरों की प्रमुख सडक़ों में से कुछ को पशुओं से मुक्त करने का काम देशभर की स्मार्ट सिटी परियोजना में शामिल किया जा रहा है। रायपुर शहर का गौरव पथ अब कैटल फ्री है। पर ज्यादातर शहरों में, स्टेट हाईवे, नेशनल हाईवे पर चलने वालों को इनसे छुटकारा दिलाने के लिए किसी ठोस योजना पर काम नहीं हो रहा है।

न्यू ट्रांसपोर्ट नगर का किसको लाभ?

कोरबा में कांग्रेस और भाजपा के बीच नया ट्रांसपोर्टनगर किस जगह पर हो, इसे लेकर बयानबाजी हो रही है। इसके लिए बरबसपुर की जमीन भाजपा के समय ही तय की जा चुकी थी और अब टेंडर की प्रक्रिया हो रही है। जिला प्रशासन ने इस जगह को फिर बदलने की योजना बनाई तब मंत्री जयसिंह अग्रवाल ने अधिकारियों को फटकार लगाई। भाजपा नेताओं का बयान आ गया कि चूंकि बरबसपुर में कांग्रेस नेताओं ने जमीन खरीदी है, इसलिए मंत्री इसी जगह के लिए दबाव डाल रहे हैं। जवाब में कांग्रेस ने 11 भाजपा नेताओं की सूची जारी कर दी, जिन्होंने योजना घोषित होने के ठीक पहले वहां जमीन खरीदी। प्रस्तावित स्थल पर नया ट्रांसपोर्ट नगर बसेगा तो जाहिर है लाभ उन्हें मिलेगा। लोग अब यह सवाल कर रहे हैं कि जब भाजपा के नेताओं को भी बरबसपुर में ट्रांसपोर्टनगर बसाने का लाभ मिलना है तो उनकी ही पार्टी के कुछ नेता इसके विरोध में क्यों आ गए?

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