राजपथ - जनपथ

फर्जी और कारोबारी कॉल्स
रोजाना होने वाली साइबर ठगी की खबरें चारों तरफ छाई रहती हैं, और इस बीच भी कम से कम टेलीफोन कंपनियां रात-दिन लोगों का जीना हराम करती हैं, सच्चे या झूठे कॉल्स टेलीफोन और इंटरनेट की नई-नई स्कीम के लिए आते ही रहते हैं। सुबह से किसी और का फोन आए या न आए, टेलीफोन कंपनियों का फोन जरूर आ जाता है।
मोबाइल फोन पर कुछ ऐसे एप्लीकेशन भी हैं जो कि अनजाने नंबरों से आने वाले टेलीफोन पहचान कर पहले से बता देते हैं कि क्या ये कोई स्पैम कॉल है। ट्रूकॉलर जैसा एप्लीकेशन यह भी बता देता है कि पहले के लोगों ने इस नंबर की कॉल्स को ब्लॉक करते हुए इसे किस कंपनी का बताया था। यह एप्लीकेशन यह भी बता देता है कि इस नंबर से पिछले साठ दिनों में कितनी कॉल की गई है, कितने फीसदी लोगों ने इसे स्पैम बताया है, और आमतौर पर इस नंबर से कितने बजे से कितने बजे तक फोन आता है। जिन लोगों को ट्रूकॉलर जैसे एप्लीकेशन के इस्तेमाल में कोई खतरा नहीं दिखता है, उन्हें ऐसे नंबर ब्लॉक करते चलना चाहिए। ये नंबर सचमुच ही टेलीफोन कंपनियों के हों, या फिर फर्जी हों, इन्हें ब्लॉक करना चाहिए। ट्राई के नियमों के मुताबिक जब तक किसी टेलीफोन नंबर का मार्केटिंग नंबर के रूप में रजिस्ट्रेशन न हो, उसका इस्तेमाल इस काम के लिए नहीं किया जा सकता, ट्राई को ऐसे नंबरों की शिकायत करने का तरीका आसान करना चाहिए, ताकि लोगों के पास फिजूल के कारोबारी, या फर्जीवाड़े वाले लोग कॉल्स न कर सकें, या उनका नाम लिखा हुआ दिखे ताकि लोग ऐसी कॉल्स को काट सकें। फिलहाल लोग अगर ऐसे नंबरों की कॉल्स को ब्लॉक भी करते चलते हैं, और उसे स्पैम रिपोर्ट करते हैं, तो भी कम से कम और लोगों को तो इन नंबरों से राहत मिलती रहेगी। यह एक अलग बात है कि टेलीफोन कंपनियों के पास ऐसे अंतहीन नंबर रहते हैं, और वे एक नंबर के बहुत ज्यादा ब्लॉक हो जाने पर दूसरे किसी नंबर से कॉल करना शुरू कर देंगे, और आखिर में तो ट्राई की रोक ही कोई फर्क पैदा कर सकती है।
एनडीटीवी में डायरेक्टर...
छत्तीसगढ़ में पिछली सरकार में सबसे ताकतवर अफसर रहे अमन सिंह और पिछले दोनों मुख्यमंत्रियों के साथ काम कर चुके सुनील कुमार कल एनडीटीवी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में मनोनीत किए गए, तो यह उन्हें जानने वाले लोगों के बीच खुशी फैलाने वाली बात थी। अमन सिंह तो रमन सिंह सरकार के जाने के बाद दिल्ली की एक बड़ी कंपनी में एक बड़े ओहदे पर काम करने लगे थे, और कुछ हफ्ते पहले वे अदानी में एक बड़े ओहदे पर अहमदाबाद चले गए थे। अब छत्तीसगढ़ से जुड़े इन दोनों भूतपूर्व अफसरों को एनडीटीवी में महत्वपूर्ण भूमिका मिलने से इस टीवी चैनल के प्रति इस राज्य के लोगों की उत्सुकता थोड़ी सी और बढ़ी रहेगी। सुनील कुमार की दोस्ती देश के दर्जनों बड़े-बड़े पत्रकारों से रही है, और मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जनसंपर्क विभाग का काम देखते हुए, केन्द्र सरकार में अर्जुन सिंह और कपिल सिब्बल के साथ बरसों काम करते हुए उनके संपर्क का दायरा बहुत बड़ा है, और अब यह देखना है कि उनके तजुर्बे का एनडीटीवी कोई फायदा उठा सकती है या नहीं।
रास्ता मयखाने का..
शायद देश का पहला इंजीनियरिंग कॉलेज है, जिसके रास्ते में यह सुविधा मुहैया कराई गई है। (सोशल मीडिया से)
प्रवासियों के वोट की कीमत
श्रम विभाग के आंकड़ों पर जाएं तो दूसरे राज्यों में मजदूरी के लिए जाने वाले मतदाताओं की संख्या कुछ हजार तक ही पहुंच सकेगी, पर चुनाव के वक्त राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता गांव, वार्डों में घूमकर सूची निकालते हैं तो उन्हें असली तादात मालूम हो जाती है। छत्तीसगढ़ से कुछ वर्षों के भीतर आईटी सेक्टर और दूसरे प्रोफेशन में युवाओं ने बड़ी संख्या में जॉब हासिल किया है। वे महानगर अथवा विदेशों में रहते हैं। अनेक महिलाएं विवाह के बाद ससुराल की मतदाता सूची में नाम नहीं जुड़वा पाती हैं, मायके की सूची में ही रह जाता है। पढ़ाई और प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए भी नये मतदाता बड़ी संख्या में बाहर जाते हैं। इन सब पर मजदूरों की संख्या भारी है। कोविड काल के समय जब देशभर में अचानक तालाबंदी की गई थी तो करीब 7 लाख मजदूर छत्तीसगढ़ वापस लाए गए थे। इसके अलावा हजारों लोग नहीं भी आए। यह संख्या किसी भी चुनाव के नतीजे को प्रभावित करने की ताकत रखती है। अब चुनाव आयोग ऐसे मतदाताओं के लिए रिमोट ईवीएम सिस्टम पर काम शुरू करने की योजना पर काम कर रहा है। 20 जनवरी को सभी राजनीतिक दलों के सामने इसका प्रदर्शन किया जाएगा। यदि यह लागू हो गया तो प्रवासी मजदूरों की पूछ-परख बढ़ेगी। चुनावों में राजनीतिक दल घोषणा करते हैं कि पलायन रोकेंगे, पर ऐसा कभी नहीं हो पाया। यह छत्तीसगढ़ की हकीकत है कि मजदूर अतिरिक्त कमाई के लिए प्रदेश के बाहर निकलते हैं। इनमें आदिवासियों की संख्या भी बड़ी है, अनुसूचित जाति के लोग तो अधिकतर हैं ही। बाहर जाने वाले मजदूरों को आए दिन बंधक बनाने, प्रताडि़त करने, मजदूरी नहीं देने, शोषण करने, पुनर्वास अधिनियम के तहत लाभ नहीं मिलने जैसी कितनी ही समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है। यदि रिमोट वोटिंग सिस्टम लागू हो गया तो मुमकिन है इनकी समस्याओं पर कुछ गंभीर आश्वासन राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र का हिस्सा बने।
पीएम आवास पर नाम का संकट
प्रधानमंत्री आवास योजना पर पूरे चार साल हंगामे और मंत्री सिंहदेव के इसी मुद्दे पर विभाग छोडऩे के बाद अब जाकर एक हिस्सा राज्य सरकार ने जारी कर दिया है। यह रकम 1290 करोड़ बताई गई है। इस राशि से सन् 2018 से 2020 तक के अधूरे पीएम आवास पूरे किए जाएंगे। वे हजारों हितग्राही जिनका घर चार साल से अधूरा पड़ा है, जरूर इससे खुश हो रहे हैं लेकिन कुछ बदकिस्मत भी हैं। पंचायतों के अधिकारी अधूरे आवासों का भौतिक सत्यापन करने के लिए जा रहे हैं तो पता चल रहा है कि कई अधूरे घर इतने जर्जर हो चुके हैं कि पूरा नए सिरे से तैयार करना होगा। कई लोग गांव छोडक़र जा चुके हैं। वे या तो अपने किसी रिश्तेदार के पास चले गए या प्रदेश से ही बाहर चले गए। अपने घर का सपना देखते-देखते कई लोगों की मौत भी इस बीच हो गई। राज्य सरकार की ओर से जारी रकम अधूरे आवासों के लिए है। नए स्वीकृत आवासों के लिए नहीं। उसकी स्वीकृति तो केंद्र ने वापस भी ले ली है।
राज्य सरकार की मुख्य आपत्ति इस बात पर है कि जब इस योजना में राज्य का हिस्सा 40 प्रतिशत है तो योजना प्रधानमंत्री के नाम पर क्यों? राज्य सरकार की ओर से अधूरे आवासों के लिए रकम जारी कर एक पहल की गई है। छत्तीसगढ़ भाजपा पीएम आवास के ही मुद्दे पर राज्य सरकार के खिलाफ एक बड़ा प्रदर्शन जनवरी में करने जा रही है। यह अनुरोध भी साथ-साथ किया जा सकता है कि 40 फीसदी हिस्सा देने वाले राज्य को योजना का नाम बदलने की छूट दी जाए।