राजपथ - जनपथ

जितनी दौलत, उतनी जुबान
जिन लोगों को दुनिया की सबसे बड़ी इलेक्ट्रिक कार कंपनी, टेस्ला, के मालिक एलन मस्क के ट्विटर खरीदने पर लग रहा था कि अब वहां आजादी बढ़ जाएगी, तो आज से वह ‘आजादी’ बढ़ गई है। बीती रात ट्विटर ने यह घोषणा की कि अब भुगतान करके ट्विटर पर नीले रंग का अकाउंट पाने वाले लोगों के लिए शब्द सीमा बढ़ा दी गई है। यानी जो लोग आठ डॉलर हर महीने किस्म का भुगतान कर सकते हैं, वे लोग अब ट्विटर पर दो गुना या चौगुना अधिक लंबा लिख सकते हैं। जिस सोशल मीडिया को लोग लोकतांत्रिक मानते थे, उस पर अब मनरेगा मजदूर को एक वोट का अधिकार जारी है, और अदानी को उस पर मानो आठ वोट देने का हक मिल जाएगा। सोशल मीडिया भी पूंजीपतियों के हाथ लगकर अब अपना लोकतांत्रिक चरित्र खो रहे हैं, और वहां पर भी भुगतान करने वाला एक संपन्न तबका बन रहा है। अब पैसे वाले अपनी अधिक बात रख सकते हैं। आगे-आगे देखें, होता है क्या।
एक नाटक होने वाला है...
छत्तीसगढ़ के पहले और सबसे बड़े विश्वविद्यालय, पं.रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय में नए कुलपति की नियुक्ति होनी है। यहां के लोगों ने राज्यपाल को लिखा है कि छत्तीसगढ़ के ही किसी प्राध्यापक को कुलपति बनाया जाए। राज्यपाल की ओर से ही लोगों से आवेदन बुलवाए गए हैं, और ऐसा माना जाता है कि उन्हें राज्यपाल बनाने वाली सोच के प्रति निष्ठा रखने वाले किसी व्यक्ति को ही कुलपति बनाया जाएगा। अब छत्तीसगढ़ के लोग कुछ भी सोचते रहें, बाहर से लाकर उन पर कुलपति थोपने का सिलसिला भी चल रहा है, और एक खास विचारधारा के लोगों को भी पांच बरस के लिए शैक्षणिक संस्था पर लाद दिया जा रहा है, ताकि इतने बरस वहां पर जो बाकी नियुक्तियां हों, वे भी इसी विचारधारा के मुताबिक हों। राजभवन इस काम में निष्ठा दिखाते हुए छत्तीसगढ़ के प्रति किसी लगाव का नाटक भी नहीं करता है, और स्थानीय लोगों को खुलकर खारिज किया जा रहा है। इस बार भी सुनते हैं कि परिवार ने दूसरे राज्य के किसी को छांट रखा है, और उस नाम की घोषणा तक चयन समिति की बैठक नाम का एक नाटक भी खेला जाएगा।
सडक़ की दवा दुकान
साप्ताहिक हाट-बाजारों में ये जड़ी-बूटियां तो बिकती हैं ही, इन दिनों मेलों का मौसम है, तो वहां भी ये दिखाई दे रही हैं। ये करगीरोड कोटा की तस्वीर है। अमरकंटक की तराई में बसे आदिवासी ग्रामीण जंगलों से जाते हैं और स्थानीय व्यापारियों को बेच देते हैं। कोई तय कीमत नहीं और किसी की उपयोगिता का कोई परीक्षण नहीं। अनेक की पहचान खरीदने वाले कर नहीं पाते। असली है भी या नहीं, इसका भी पता नहीं। जड़ी-बूटियों के साथ ही यह छूट है। इनमें से किस जड़ी की प्रजाति विलुप्त हो रही है, किसे सहेजने, संरक्षित करने की जरूरत है-इस पर वन विभाग का कोई काम नहीं चल रहा है। अभी तो बेलगाम दोहन हो रहा है। अचानकमार की बात करें तो यहां के अतरिया में एक औषधि प्लांटेशन है और अभयारण्य के बाहर एक दो दुकानें हैं, जहां छत्तीसगढ़ हर्बल के नाम पर दवाएं बिकती है। बाकी खुली बिक्री होती है, कोई मानक नहीं। सैलानी इसे शौकिया तौर पर खरीद लेते हैं। वैसे वनस्पति विज्ञानियों ने बताया है कि देशभर में मिलने वाली 1100 प्रकार की जड़ी-बूटियों में से 300 तो इसी जंगल में उपलब्ध हैं। पर इन्हें सहेजने, विलुप्त होने वाली जड़ी बूटियों की पहचान कर उन्हें संरक्षित करने का काम नहीं हो रहा है।
अब वो शीतलता कहां
मैनपाट में सरकारी प्रबंध से मनाए जाने वाले महोत्सव और पर्यटन के रिजार्ट बनने से पहले भी सैलानी यहां जाते रहे हैं। ठंड में यहां बर्फ की चादर दिखाई देती है पारा शून्य से नीचे चला जाता है। इस बार भी एक दो दिन के लिए ऐसी स्थिति बनी थी। मगर बीते कुछ सालों में गर्मी से राहत पाने के इस ठिकाने पर पहुंचने वालों को निराशा हो रही है। आज गुरुवार को जिस वक्त राजधानी रायपुर जैसे व्यावसायिक, औद्योगिक और भीड़-भाड़ वाले इलाके में तापमान 24 डिग्री सेल्सियस था, मैनपाट में पारा 19 डिग्री सेल्सियस था। पिछले साल अप्रैल महीने में यहां का तापमान 42 डिग्री तक गया। राहत की उम्मीद में गए लोग पसीने से तरबतर थे। दरअसल, पिछले कुछ सालों से यहां बाक्साइट उत्खनन गतिविधियों का काफी विस्तार हुआ है। केसरा में बालको का खदान बंद है जबकि छत्तीसगढ़ खनिज विकास निगम का एक नया खदान पथराई में शुरू हो गया है। इसके अलावा एक और खदान इस समय संचालित हैं। इन खदानो के लिए हजारों पेड़ काट दिए गए। खनिज परिवहन के लिए सडक़ें भी बनाई तो प्रकृति का नुकसान हुआ। खेती के लिए भी पेड़ काटे गए। यहां की घुनघुट्टा नदी में भी अब पानी का स्त्रोत पहले जैसा नहीं रहा। इसी से अंबिकापुर को पेयजल की सप्लाई भी होती है, जो आने वाले दिनों में नया संकट खड़ा करेगा। 60 के दशक में शरणार्थी तिब्बतियों ने इस जगह को यहां के अनुकूल पर्यावरण और तापमान को देखकर चुना था। उन्हें भी तब और अब में बड़ा फर्क महसूस होता है। लोग मैनपाट को छत्तीसगढ़ का शिमला कहते हैं, लेकिन आगे शायद यह पहचान बची नहीं रह जाएगी।
शंकराचार्य के बयान और बीजेपी
जैसा शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने खुद बताया है कि वे एशिया को सनातनी सभ्यता का वाहक बनाने के उद्देश्य से पिछले 17 माह से विभिन्न देशों का भ्रमण कर रहे हैं। उन्होंने कहा- भारत का क्या पूरा महाद्वीप एक दिन हिंदू राष्ट्र होगा। उन्होंने धर्मांतरण करने वाले आदिवासियों पर भी सवाल दागा कि ऐसा कर रहे हैं, इतिहास उन्हें नहीं मालूम। यह भी कहा कि आदिवासी हिंदू हैं। जीवन से लेकर मृत्यु तक उनके सभी संस्कार हिंदुओं की तरह हैं। उनको आदिवासी कहे जाने को भी गलत बताया और वनवासी शब्द को सही बताया। शंकराचार्य के इन विचारों को लोगों ने पहली बार जाना ऐसी बात नहीं है। वे पहले भी कई बार इसी तरह की राय रख चुके हैं। बस बात यह है कि यह सब उन्होंने जगदलपुर में रखी गई धर्मसभा में कही। मंत्री कवासी लखमा सहित अनेक कांग्रेस नेता उनके पास पहुंचे हैं। आदिवासियों के हिंदू नहीं होने का लखमा का बयान हाल ही में आया था। सर्व आदिवासी समाज ने भी उनके इस राय का समर्थन किया था। जंगल में रहने वाले समुदाय को वनवासी कहा जाना उनका अपमान है, ऐसा भी कांग्रेस का ही मत है। शंकराचार्य के उपरोक्त सभी बयान कांग्रेस के दृष्टिकोण के विपरीत है तथा आरएसएस और भाजपा के अनुकूल। बस्तर में अपनी खोई सीटें 2023 में वापस पाने के लिए संघर्ष कर रही भाजपा को शंकराचार्य के बयानों से जाने-अनजाने ताकत ही मिली है।