राजपथ - जनपथ

पुलिस की भाषा
पुलिस की कानूनी कामकाज की भाषा बड़ी दिलचस्प होती है। और फिर पुलिस के मामलों की रिपोर्टिंग करने वाले जूनियर रिपोर्टरों की मेहरबानी से वह भाषा खबरों में ज्यों की त्यों आकर लोगों तक भी पहुंचने लगती है। फिर धीरे-धीरे अखबारों के पाठक पुलिस और अदालत की खबरों को उसी भाषा में बेहतर और आसानी से समझने भी लगते हैं। तब यह समझ पड़ता है कि इस भाषा को बोलचाल की आम भाषा बनाने पर तो लोगों को समझने में दिक्कत होने लगेगी।
अब आज ही का छत्तीसगढ़ पुलिस का एक प्रेसनोट है जो लिखता है- ‘दिनांक 10.2.2022 के 14.30 (ढाई बजे) से 10.2.2023 तक आरोपी ने प्रार्थिया से शादी करने का प्रलोभन देकर लगातार शारीरिक संबंध बनाया, और बाद में शादी करने से इंकार कर दिया’।
अब पुलिस के एफआईआर करने में वारदात का समय भी लिखा जाता है, उसे लिखे बिना कानूनी औपचारिकता पूरी नहीं होती है, इसलिए साल भर तक चले शारीरिक संबंधों की शुरुआत का एक वक्त भी रिपोर्ट में डाला गया है, तारीख के साथ-साथ। हो सकता है कि शिकायतकर्ता ने संबंध शुरू होने और खत्म होने की तारीखों का जिक्र न किया हो, और सिर्फ साल भर कहा हो, लेकिन पुलिस को वारदात की तारीख भी लिखनी होती है, इसलिए ऐसे शारीरिक संबंधों की पुख्ता तारीख भी पुलिस ने लिख दी है।
भारत में अदालत और पुलिस की भाषा में कई कानूनी शब्द उर्दू के चले आ रहे हैं, और जो बोलचाल में नहीं हैं, सिर्फ पुलिस और कानूनी कार्रवाई में ही इनके दर्शन होते हैं। किसी से किसी सामान को जब्त करने को सामान जब्त करना नहीं लिखा जाता, उसे जब्त मशरूका लिखा जाता है, जब्त मशरूका की कुल कीमत है लगभग 55 हजार रूपये। लेकिन एक वक्त नाबालिग मुजरिम लिखना आम बात थी, जो अब कई बरस से बदलकर ‘विधि के साथ संघर्षरत बालक/बालिका’ कर दिया गया है, क्योंकि अब नाबालिग को मुजरिम नहीं माना जाता, और कानून और अदालत ने अपनी भाषा बदल दी है, जो कि पुलिस के प्रेसनोट और मीडिया के समाचारों में भी झलकने लगी है।
पुलिस को अदालत में कोई मामला साबित करने के लिए कुछ किस्म के तथ्यों की जरूरत पड़ती है, और रिपोर्ट दर्ज करते हुए भी इन तथ्यों को जोड़ दिया जाता है। पुलिस का एक प्रेसनोट कहता है- ‘आरोपी एक राय होकर प्रार्थी को अश्लील गालियां देकर जान से मारने की धमकी दे रहे थे’। अब एफआईआर में इस भाषा का इस्तेमाल इसलिए होता है कि अदालत में इन लोगों को एक साथ एक गिरोह की तरह, या सामूहिक अपराध करते हुए दिखाया जा सके। असल जिंदगी में तो किसी को अश्लील गालियां देने के पहले गालियां देने वाले राय-मशविरा करते नहीं होंगे।
अब जिन रिपोर्टरों को वक्त नहीं रहता है, या अधिक मेहनत करने की आदत नहीं रहती है, वे पुलिस की पूरी भाषा को अपने पाठकों के सिर पर दे मारते हैं, और जो मेहनतकश या जिम्मेदार रिपोर्टर रहते हैं, वे पाठक की जरूरत की भाषा में चुनिंदा तथ्यों को लेकर पूरी बात साधारण तरीके से भी लिख देते हैं।
राजा और साजा की चिंता
छत्तीसगढ़ के एक वरिष्ठ मंत्री की परेशानी यह है हर छोटे-बड़े मुद्दों पर मीडिया के सामने उनको आगे कर दिया जाता है। टीवी चैनलों को बाइट देने से उनकी दिनचर्या की शुरूआत और अखबारों को वर्जन देने से समाप्त होती है, अब आपको लग सकता है कि इसमें परेशानी क्या है? बल्कि ये तो अच्छी बात है, क्योंकि राजनीति से जुड़े लोगों के लिए तो मीडिया में सक्रिय रहना बेहद जरूरी है। मंत्री जी को तो बिना कुछ किए मीडिया में फुटेज मिल रहा है। अब मंत्रीजी को कौन समझाए कि मीडिया में बने रहने के लिए सियासतदारों को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं। खैर, मंत्रीजी को लगता है कि मीडिया में व्यस्त रहने के कारण विभाग और विधानसभा क्षेत्र को समय नहीं दे पा रहे हैं, लेकिन मंत्रीजी की इस पीड़ा पर एक कांग्रेसी ने टिप्पणी कि वे तो केवल राजा और साजा की चिंता करते हैं। अब समझने वालों के लिए इशारा पर्याप्त है।
अधिवेशन और राजस्थान मसला
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का बड़ा कार्यक्रम होने जा रहा है। इस कार्यक्रम पर देशभर की नजर है और छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी इस आयोजन को बड़ी उपलब्धि मानते हुए जोर-शोर से तैयारियों में जुटे हैं, लेकिन राष्ट्रीय मीडिया में इस आयोजन से ज्यादा राजस्थान में बदलाव की चर्चा हो रही है। राजस्थान में पायलट गुट के नेताओं ने यह हवा फैला दी है कि अधिवेशन के ठीक बाद सत्ता परिवर्तन तय है। वहां विधानसभा चुनाव में 8 महीने से भी कम समय बचा है, फिर भी पायलट समर्थकों ने आस नहीं छोड़ी है, जबकि कांग्रेस का पंजाब में मुखिया बदलने का फार्मूला बुरी तरह से फ्लाप हुआ था, लेकिन पायलट समर्थक दावा कर रहे हैं कि बदलाव होने से राजस्थान में हर पांच साल में सत्ता परिवर्तन का मिथक टूट सकता है। ऐसे में रायपुर के अधिवेशन में राजस्थान में बदलाव का मसला तूल पकड़ सकता है, क्योंकि दिल्ली के पत्रकार यहां पहुंचेंगे तो मसाला और ब्रेकिंग की तलाश तो होगी ही।
गरीब रेलवे का सफेद हाथी
बिलासपुर-नागपुर के बीच वंदेभारत ट्रेन को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हरी झंडी दिखाकर रवाना किया तो इसे छत्तीसगढ़ और विदर्भ की बहुत बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश किया गया। जिस दिन नागपुर से ट्रेन रवाना हुई, हर एक लोकसभा क्षेत्र में रुकी और गाजे-बाजे से स्वागत हुआ। सांसदों ने यात्रा की और इस ‘सौगात’ के लिए लोगों ने उन्हें बधाई दी गई, मालाएं पहनाईं गई। राजनांदगांव में भाजपा नेताओं की मांग पर अंतिम समय में ठहराव दिया गया। सांसद गोमती साय इस ट्रेन को रायगढ़ से चलाने की मांग रख दी। ट्रेन शुरू होने के कुछ दिन बाद यात्री तस्वीरें खींचकर सोशल मीडिया पर डालने लगे कि किस तरह पूरी बोगी खाली जा रही है। अब जो रिपोर्ट आई है वह रेलवे को सता रही है। वह यह कि पूरे देश में चल रही वंदेभारत ट्रेनों में सबसे कम रिस्पांस बिलासपुर-नागपुर वाली ट्रेन में ही है। पिछले सप्ताह खबर आ गई थी कि इसमें सिर्फ 55 प्रतिशत यात्री सफर कर रहे हैं। यानि लगभग आधी सीटें खाली जा रही हैं। सबसे ज्यादा 126 प्रतिशत यात्री मुंबई और गांधीनगर के बीच चलने वाली वंदेभारत में है। अपने ट्रेन की नागपुर से वापसी का समय लगभग वही है, जो जन शताब्दी एक्सप्रेस का है। यह ट्रेन अब वंदेभारत की वजह से जगह-जगह रोकी जा रही है। शाम के वक्त रायपुर से रायगढ़ तक कई और ट्रेनें चलती हैं, पर वंदेभारत के चलते उनका भी टाइम टेबल बिगड़ गया है। वंदेभारत का सबसे बड़ा आकर्षण इसका समय पर चलना है। नागपुर-बिलासपुर के बीच की दूरी लगभग 5 घंटे में तय करने का दावा है, पर आए दिन यह ट्रेन भी गंतव्य तक देर से पहुंच रही है। हालांकि यह देरी 15-20 मिनट की ही है, पर दूसरी ट्रेनों को घंटों लेट करने की कीमत पर। काम धंधे के लिए रोजाना आना-जाना करने वाले अपनी ट्रेनों में हो रही देरी के चलते नाराज चल रहे हैं। इस नाराजगी का रेलवे को कोई मुनाफा भी नहीं हो रहा है। कोरोना काल में हुए नुकसान की भरपाई अब तक की जा रही है। आमदनी बढ़ाने के लिए तमाम तरह की टिकटों पर रियायतें खत्म कर दी गई हैं। प्लेटफॉर्म टिकट, पार्किंग जैसी साधारण सेवाओं पर भी रेलवे ने शुल्क कई गुना बढ़ा दिया है। छोटे स्टेशनों पर स्टापेज नहीं देने के लिए टिकटों की न्यूनतम बिक्री का नया नियम लागू कर दिया है। पैसेंजर ट्रेनों में भी साधारण श्रेणी का किराया एक्सप्रेस की तरह लिया जा रहा है। और, इन सब के बावजूद सुकून से सीट नहीं मिलती है। दूसरी तरफ वंदेभारत ट्रेन सिर्फ पर्याप्त यात्री मिलने के बावजूद गरीब मध्यम वर्ग के आम यात्रियों की आह लेते हुए दौड़ाई जा रही है।
अब और पोलिटेक्निक क्यों?
कुछ दिन पहले खबर आई थी राजधानी के गर्ल्स पोलिटेक्निक के आर्किटैक्ट संकाय में केवल एक छात्रा ने एडमिशन लिया है और उसे चार टीचर्स पढ़ा रहे हैं। यह स्थिति तब है जब लड़कियों की ट्यूशन फीस माफ है। जब राजधानी के कॉलेज में, जहां प्रदेशभर से पढऩे के लिए युवा आते हैं, यह हालत है तो दूसरे स्थानों पर क्या स्थिति होगी अनुमान लगाया जा सकता है। जिस तरह से इंजीनियरिंग की तरफ युवाओं का रुझान घटता गया, वही हाल पोलिटेक्निक में भी दिखाई दे रहा है। राज्य में 32 सरकारी और 14 प्राइवेट पोलिटेक्निक संस्थान हैं। एक विश्वविद्यालय भी है। इनकी कुल 8664 सीटों में केवल 22 प्रतिशत ही इस साल भर पाई। इसके बावजूद कि इसमें प्रवेश के लिए पीईटी दिलाने की अनिवार्यता हटा दी गई है।
इन आंकड़ों के बीच राज्य के मरवाही, पथरिया, बगीचा, चिरमिरी और थान-खम्हरिया में अगले शिक्षा सत्र से पांच और पोलिटेक्निक खुल जाएंगे। एक पोलिटेक्निक का खर्च 12-15 करोड़ तो बैठेगा ही। बिल्डिंग, प्रिंसिपल, व्याख्याता की रेगुलर तनख्वाह अलग से। नए शिक्षण संस्थान खोलने का फैसला कई बार राजनीतिक कारणों से लिया जाता है। जिन स्थानों पर खुल रहे हैं वहां के जनप्रतिनिधियों की मांग रही होगी। वे इसे क्षेत्र के विकास के रूप में गिना सकेंगे। पर, इतना तो किया ही जा सकता है कि चालू पोलिटेक्निक संस्थानों में जिस ट्रेड की मांग न के बराबर है, उनकी बजाय नए में ऐसे ट्रेड जिनमें अब भी युवा रूचि ले रहे हैं, चालू किए जाएं।
एक तरीका टिकट के दावे का
इस पोस्टर को इन दिनों रायगढ़ में जगह-जगह देखा जा सकता है। कांग्रेस के विधायक से विपक्ष भाजपा के नेता सवाल तो करें, इसमें गलत क्या है? कुछ भी नहीं, बस यह दर्शाता है कि कांग्रेस की तरह अब ‘पार्टी विथ डिफरेंस’ में भी टिकट की दावेदारी सार्वजनिक अभियान चलाकर की जा सकती है। वैसे 2018 के चुनाव में कांग्रेस के जिन लोगों ने इसी तरह के नारे, पोस्टर सडक़ और सोशल मीडिया पर फैलाकर अपनी दावेदारी की थी, सबसे पहले उनके ही नाम सूची बनाते समय काटे गए थे।