राजपथ - जनपथ

हटाए जाने के हफ्ते भर बाद!
छत्तीसगढ़ की पिछली राज्यपाल अनुसुईया उईके ने कल अपने कार्यकाल के आखिरी दिन प्रदेश के सबसे पुराने विश्वविद्यालय, पं.रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय का अगला कुलपति नियुक्त किया है। राज्यपाल को बदलने का केन्द्र सरकार का फैसला कई दिन पहले सामने आया था। वह खबरों में भी आ गया था, और प्रदेश के अनगिनत लोग जाकर राज्यपाल को बिदाई देकर भी लौट रहे थे। ऐसे में यहां से हटने का फैसला सामने आ जाने के बाद किसी राज्यपाल को कोई फैसला नहीं लेना चाहिए था। लेकिन अनुसुईया उईके ने उत्तरप्रदेश के अयोध्या के विश्वविद्यालय के एक विज्ञान प्राध्यापक सच्चितानंद शुक्ला को कुलपति नियुक्त किया है। एक तो वैसे भी प्रदेश में उनसे यह मांग की गई थी कि वे राज्य के ही किसी विद्वान को कुलपति बनाएं, लेकिन उम्मीद यही थी कि केन्द्र सरकार की सोच वाले किसी प्राध्यापक को ही छत्तीसगढ़ पर लादा जाएगा। और वही हुआ। अब सवाल यह उठता है कि जाते-जाते आखिरी दिन ऐसा फैसला करना किस तरह से सही कहा जा सकता है? जब किसी का तबादला हो जाता है, या उन्हें हटाने का आदेश आ जाता है, तो उसके बाद ऐसे लोगों को किसी भी फैसले लेने का नैतिक अधिकार नहीं रहता है। लेकिन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल राज्यपाल अनुसुईया उईके के साथ चल रहे तमाम किस्म के तनाव को अनदेखा करते हुए बिदाई में जिस तरह का शिष्टाचार निभाते रहे हैं, उसे देखकर अब लगता नहीं है कि उनकी कांग्रेस पार्टी इसे अधिक मुद्दा बनाएंगी। हालांकि नए राज्यपाल से मांग की जा रही है कि नियुक्ति रद्द किया जाए। अब देखिए नए राज्यपाल कांग्रेसियों की कितनी सुनते हैं ? फिलहाल तो राज्य के किसी एक प्राध्यापक का हक मारा गया। अनुसुईया उईके के साथ यह इतिहास दर्ज हो जाएगा कि उन्हें छत्तीसगढ़ से हटाने का आदेश आने के हफ्ते भर बाद उन्होंने कुलपति चयन का यह काम किया।
ईडी की वक्र दृष्टि
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन की तैयारियां अंतिम चरण में है, लेकिन प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी की कांग्रेस नेताओं पर छापेमारी से अधिवेशन से ज्यादा छापे की चर्चा है। राजीव भवन से लेकर नवा रायपुर आयोजन स्थल पर हर कोई छापे की बात कर रहे हैं। मीडिया में छापे की खबरें ही सुर्खियां बनी हुई है। सब की जुबां पर क्या मिला और अगला किसका नंबर है, जैसे विषयों पर ही चर्चा हो रही है। कुछ लोग इसे अंक गणित से जोड़ रहे हैं। कहा जा रहा है कि साल 2023 फल नहीं रहा है। नए साल की शुरूआत से ही परेशानी बढ़ रही है। पंडितों और ज्योतिषों की पूछ-परख बढ़ गई है। कुल मिलाकर ईडी की वक्र दृष्टि से बचने के उपाय खोजे जा रहे हैं।
चंदन यादव मिलें, तो उनसे पूछें...
लोगों के मन में उन जानवरों के लिए बड़ा सम्मान रहता है जिनसे सिवाय मौत कुछ हासिल नहीं होता। जंगलों के मांसाहारी जानवर सिंह को भारत का राजकीय चिन्ह बनाया गया है, और शेर को राजकीय पशु। इन दोनों से इंसानों को सीधे-सीधे कुछ हासिल नहीं होता, जब कभी इनकी खबर आती है, इनके हाथों इंसानों के मरने की खबर ही रहती है। लेकिन आज प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ करनी हो तो भी उनके समर्थक उनके लिए खरीदे गए हजारों करोड़ के नए विमान के बारे में यही कहते हैं कि शेर पालना सस्ता नहीं होता है। लेकिन क्या सचमुच शेर पालना चाहिए?
लेकिन शेर को लेकर लोगों के मन में सम्मान बहुत है। अभी छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का अधिवेशन होने जा रहा है, और बिहार के कांग्रेस नेता चंदन यादव छत्तीसगढ़ के कांग्रेस प्रभारी सचिव भी हैं। उन्होंने अभी कल ही विश्व मातृभाषा दिवस पर पोस्ट किया है- मातृभाषा शेरनी का दूध है जिससे वंचित हो जाने पर मनुष्य का संपूर्ण व्यक्तित्व खंडित हो जाता है।
अब शेरनी का दूध पीने वाले उसके बच्चे तो हिन्दुस्तान में गिने-चुने हैं, और वे तो कभी अपनी मातृभाषा से वंचित हो नहीं सकते, वे न तो अंग्रेजी पढ़ते हैं, न हिन्दी, और न ही भारत की कोई क्षेत्रीय भाषा। ऐसे में मातृभाषा के महत्व को बताने के लिए उसे शेरनी का दूध करार देना, और उसके बिना मनुष्य का व्यक्तित्व खंडित हो जाना कहना कुछ अटपटा है। भला कौन से ऐसे मनुष्य हैं जो शेरनी का दूध पीकर बड़े होते हैं? फिलहाल चंदन यादव कुछ दिन रायपुर में रहेंगे, और उनसे मिलने वाले मीडिया के लोग उनसे शेरनी के दूध का महत्व समझ सकते हैं।
हम पहले भी इस बात को उठाते आए हैं कि शेर को भारत का राजकीय पशु क्यों बनाना चाहिए क्योंकि अधिकतर हिन्दुस्तानी तो गाय का दूध पीकर बड़े होते हैं, या गोमांस खाने वाले लोग गाय का मांस खाकर बड़े होते हैं। ऐसे में राजकीय पशु तो गाय को बनाना चाहिए जिससे मिलता ही मिलता है, और जो आमतौर पर तो सींग भी नहीं मारती है।
अब मिड डे मील पर डेटा संकट
केंद्र सरकार का नया फरमान है कि हर सरकारी और सहायता प्राप्त स्कूलों में मध्यान्ह भोजन की संख्या का मासिक अपडेट आधार कार्ड के आधार पर दर्ज कर पोषण ट्रैकर पोर्टल में अपलोड किया जाए। हाल ही में इसी तरह की प्रक्रिया मनरेगा मजदूरी भुगतान के लिए अपनाने की घोषणा की जा चुकी है। बीते एक साल से 6 वर्ष तक के बच्चों को आंगनबाड़ी केंद्रों में दिए जाने वाले आहार को पोषण पोर्टल में दर्ज किए जाने का आदेश जारी हो चुका है। ये तीनों योजनाएं ग्रामीण इलाकों में सबसे अंतिम पंक्ति के परिवारों को बचाने की है। केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर अरबों रुपए इनमें खर्च करती हैं। पर इन योजनाओं में भ्रष्टाचार भी बहुत अधिक है। मुमकिन है कि डिजिटल एंट्री से इस पर कुछ लगाम लगे और निगरानी करने वाले अधिकारियों को ऊपरी कमाई का रास्ता निकालने में कुछ वक्त लगे। पर मैदानी कर्मचारियों पर जिम्मेदारी डालकर सब कुछ फूल प्रूफ कर लेने की कवायद सफल हो जाने की उम्मीद कम है। छत्तीसगढ़ में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता जिन 6 मांगों को लेकर आंदोलनरत हैं उनमें एक पोषण ट्रैकर का विरोध भी है। ऐप का इस्तेमाल करने के लिए न तो उनको मोबाइल फोन दिया जा रहा है और न ही यह बताया जा रहा है कि डेटा पैक का खर्च कौन उठाएगा। फोन खरीदने की बात पर आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के घरों में झगड़े होने की खबरें भी आ चुकी हैं। सरकारी नीतियों की समीक्षा करने वाले विशेषज्ञ और सामाजिक कार्यकर्ता इस बात का विरोध कर रहे हैं कि बच्चों के पोषण आहार, मध्यान्ह भोजन और ग्रामीण रोजगार की योजना पर इतने कड़े कदम ना उठाए जाएं। ऐसा करने से करोड़ों लोग भोजन से वंचित रह जाएंगे। भ्रष्टाचार रोकने के लिए विकल्प अपनाए जाएं। छत्तीसगढ़ की बात करें तो यहां के 19 हजार 567 में से 18 हजार गांवों तक मोबाइल नेटवर्क पहुंचने का दावा किया जाता है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट स्पीड बहुत खराब है। ज्यादा खराब नेटवर्क आदिवासी इलाकों में है, जहां ऐसी सरकारी योजनाओं की ज्यादा जरूरत है।
जिंदा बताने की जद्दोजहद
भेंट मुलाकात के सिलसिले में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल जहां-जहां जा रहे हैं, राजस्व विभाग के खिलाफ शिकायतें ज्यादा मिल रही हैं। जशपुर जिले का भी उन्होंने दौरा किया। ग्रामीणों से सीधी बातचीत से उन्हें एक तहसीलदार की लापरवाही का पता चला तो उसे सस्पेंड भी किया। कई जगह पर उससे नीचे के अधिकारी कर्मचारियों पर भी गाज गिर रही है, मगर सारी दहशत सीएम के आने से पहले और लौट जाने तक ही रहती है। फिर दफ्तरों में कामकाज का वही पुराना ढर्रा दिखाई देता है।
बगीचा तहसील के सरधापाठ गांव की 70 साल की वृद्धा कंदरी बाई बीते कई दिनों से एसडीएम के दफ्तर के चक्कर लगा रही है। उनके ससुर को धारा 170 ख के तहत 8 एकड़ जमीन देने का आदेश सन् 1982 में पारित हुआ था। उनके जीते जी तो यह हुआ नहीं, अब बहू अपने नाम पर जमीन चढ़ाने के लिए भटक रही है। इस महीने 9 तारीख को अपने केस के बारे में पता लगाने के लिए जब एसडीएम दफ्तर गई तब पता चला कि उसका मृत्यु प्रमाण पत्र जमा कर दिया गया है। जो जमीन 40 साल तक पेशी दर पेशी के बावजूद ससुर और उसके नाम पर नहीं चढ़ा था, एक मृत्यु प्रमाण पत्र मिलते ही किसी दूसरे के नाम पर चढ़ा दी गई। अब वह तहसील और एसडीम ऑफिस जाकर गुहार लगा रही है कि मैं जिंदा हूं। कोई सुनवाई नहीं हो रही है।
विलुप्त होता रामफल
छत्तीसगढ़ में फलों की जो प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं, उनमें से एक रामफल भी है। करीब 7-8 साल पहले उद्यानिकी विभाग ने जिन फलों को बचाने की जरूरत महसूस की थी, उनमें यह भी शामिल है। बैकुंठपुर के भाड़ी स्थित आश्रम में इसकी खेती की जाती है। यह तस्वीर बिलासपुर से रतनपुर जाने वाले रास्ते के एक बगीचे की है।