राजपथ - जनपथ

राजभवन से अब क्या?
छत्तीसगढ़ विधानसभा से पारित आरक्षण विधेयक राजभवन में पिछली राज्यपाल के समय से पड़ा हुआ है, और वह सरकार और राजभवन के बीच एक बड़ा टकराव बना हुआ था, शायद अब भी बना हुआ है। लेकिन पिछली राज्यपाल के मणिपुर भेजे जाने को लेकर ये अटकलें लगती रहीं कि क्या भूपेश सरकार से आरक्षण विधेयक पर उनके आमने-सामने के टकराव की वजह से उन्हें हटाया गया था? लेकिन ऐसे लोग यह जानकारी नहीं रखते हैं कि राज्यपाल व्यक्तिगत स्तर पर कोई टकराव नहीं ले सकते हैं, और वे केन्द्र सरकार के फैसलों को ही लागू करते हैं। अब नए राज्यपाल इस टकराहट को किस तरह घटाते हैं यह देखने की बात है क्योंकि आरक्षण थम जाने से इस राज्य में भाजपा को भी राजनीतिक नुकसान हो रहा है, क्योंकि ऐसी तस्वीर बन गई है कि केन्द्र की भाजपा सरकार और उसके मनोनीत राज्यपाल ने आरक्षण रोक रखा है। ऐसी जनधारणा भाजपा का भी नुकसान कर रही है, और कांग्रेस इसके खिलाफ बोल तो रही है, लेकिन उसे भी मालूम है कि इस विधेयक को मंजूरी मिलने में जितनी देर होगी, उतना कांग्रेस को राजनीतिक फायदा मिलेगा।
अब नए राज्यपाल को यह भी देखना है कि वे अपने किसी निजी सहायक को राजभवन न चलाने दें, और अपने अमले को काबू में, और उनकी औकात में रखें।
कोयले की पूछताछ जारी
छत्तीसगढ़ के कोयला उगाही मामले की जांच में लगी ईडी अगर कोई छापेमारी नहीं करती है, तो लोगों को लगता है कि वह कोई काम नहीं कर रही है। जबकि हकीकत यह है कि दो छापों के बीच के हफ्तों या महीनों में ईडी के दफ्तर में खूब पूछताछ, कागजात की जांच, और अलग-अलग लोगों को बुलाकर उनकी गवाही का काम चलता है। इन दिनों नागपुर से लेकर कोलकाता तक में बसे हुए अरबपति उद्योगपतियों को बुलाकर कड़ाई से पूछताछ हो रही है कि उन्होंने कोयला ट्रांसपोर्ट पर भुगतान किया है या नहीं? वहां से निकलकर एक उद्योगपति ने कहा कि इधर कुआं, और उधर खाई वाली नौबत है, हम तो खरबूज हैं, जिस चाकू पर गिरेंगे, कटेंगे तो हम ही।
फिलहाल यह मामला भी एक रहस्य बना हुआ है कि कोरबा और रायगढ़ की कलेक्टर रही हुई रानू साहू के सरकारी कलेक्टर बंगले पर ईडी ने छापा तो मारा था, कई बार बयान दर्ज करने की खबर भी है, लेकिन अब तक अदालत में उनके किसी बयान का इस्तेमाल हुआ नहीं है, लोग यह सोच रहे हैं कि उनके बयान का, या उनका कब और क्या होगा?
सरकारों को तौलने की जरूरत
तमिलनाडु में मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन ने कुछ ऐसे काम किए हैं जो उन्हें एक क्रांतिकारी मुख्यमंत्री साबित कर रहे हैं। उन्होंने नियम बनाकर मंदिरों में दलित, आदिवासी, और ओबीसी के पुजारी बना दिए। एक महिला और बच्चे को जाति की वजह से एक बड़े मंदिर में प्रसाद नहीं दिया गया, तो मुख्यमंत्री ने अपने एक मंत्री और संभाग के कमिश्नर को भेजकर इस महिला के लिए पूरा भोज करवा दिया। अब देश के बाकी मुख्यमंत्रियों को यह सोचना है कि क्या उनके राज्य में ऐसे सामाजिक न्याय की जरूरत है या नहीं? कड़े दिल का ऐसा फैसला लेना आसान नहीं होगा, लेकिन अगर दलित-आदिवासी, और ओबीसी तबके ऐसे समाज सुधार के मुद्दे पर अड़ जाएंगे तो देश में आधे से अधिक आबादी तो इन्हीं तबकों की है, आधे वोट इन्हीं लोगों के हैं, बाकी राज्यों में भी इनको अपनी ताकत और सरकार की हिम्मत आजमा लेना चाहिए।
सामाजिक बहिष्कार पर कानून चुप
दो भाइयों के बीच जमीन विवाद चल रहा था। मामला समाज के बीच पहुंचा। बड़े भाई पर सामाजिक बैठक में 10 हजार रुपए जुर्माना लगाया गया, उसने पटा दिया। दोबारा फिर 5 हजार रुपए का दंड दिया गया। इसे वह किसान दे नहीं सका तो उसे समाज से बहिष्कृत कर देने की धमकी देकर प्रताडि़त किया गया। किसान के सब्र का बांध टूट गया और उसने अपने खेत में ही जहर खाकर जान दे दी। घटना महासमुंद जिले के दाबपाली गांव की है।
इधर गरियाबंद जिले यह खबर बीते सप्ताह सामने आई थी जिसमें फुलकर्रा गांव के 36 ग्रामीण परिवारों के पौने दो सौ लोगों को एक साथ बहिष्कृत कर दिया गया है। पहले मामले में आत्महत्या की घटना हुई थी, इसलिए पुलिस ने आईपीसी की धारा 306 के तहत अपराध दर्ज कर चार आरोपियों को जेल भेजा। पर, दूसरे मामले में कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं हुई है।
दरअसल,छत्तीसगढ़ में ऐसे मामलों पर कोई विशिष्ट अधिनियम नहीं है। पुलिस कभी-कभी धारा 151 के तहत कार्रवाई कर देती है और कई बार हस्तक्षेप अयोग्य अपराध बताकर छुट्टी पा लेती है। प्रदेश में सामाजिक बहिष्कार के हर साल हजारों मामले होते हैं। बहिष्कृत परिवारों को धार्मिक, सामाजिक, परिवारिक कार्यक्रमों में आने-जाने में रोका जाता है। परिवारों से रिश्ता नहीं होता और अंतिम संस्कार की जगह नहीं मिलती।
पिछले साल सितंबर में गुरु घासीदास सेवादार संघ की ओर से हाईकोर्ट में एक याचिका लगाई गई थी, जिसमें बताया गया था कि क्षेत्र के 6 जिलों में ताजा-ताजा सामाजिक, आर्थिक बहिष्कार से संबंधित 15 मामले दर्ज हुए हैं। इन्हें रोजगार से वंचित किया और हुक्का पानी बंद कर दिया गया है। याचिका में ऐसे मामलों के लिए असरदार कानून की मांग की गई है। हाईकोर्ट ने तब चीफ सेक्रेटरी, होम सेक्रेट्री, डीजीपी और संबंधित जिलों के कलेक्टर-एसपी को नोटिस जारी कर जवाब मांगा था। इस मामले की सुनवाई अभी चल रही है। करीब 6 साल पहले सन् 2017 में छत्तीसगढ़ सरकार ने छत्तीसगढ़ सामाजिक बहिष्कार प्रतिषेध विधेयक का मसौदा तैयार किया था जिसमें दोष सिद्ध होने पर 7 साल की सजा और 5 लाख रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान था। सरकार बदल जाने के बाद इस पर कोई काम नहीं हुआ है। महाराष्ट्र में सन् 2017 से विधानसभा में सर्वसम्मति से पारित ऐसा ही कानून लागू है। छत्तीसगढ़ एक ऐसा राज्य है जहां ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त टोनही प्रताडऩा रोकने को लेकर कानून बहुत पहले बना लिया गया, पर दूसरी कुरीति, सामाजिक बहिष्कार जो गांवों में अधिक सामूहिकता के साथ देखी जा रही है, उसे दूर करने के लिए कोई पहल नहीं हो रही है।