राजपथ - जनपथ

रमन सिंह के सहयोगी
विधानसभा चुनाव नजदीक हैं तो पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह के विश्वासपात्र अफसर, और कर्मचारी भी सक्रिय दिख रहे हैं। इनमें पूर्व संयुक्त सचिव विक्रम सिसोदिया, अरूण बिसेन, और ओपी गुप्ता प्रमुख हैं। रमन सरकार में तीनों की तूती बोलती थी।
विक्रम, रमन सिंह के सीएम बनते ही साथ आए थे। वे कस्टम्स विभाग में पदस्थ थे और प्रतिनियुक्ति पर रमन सिंह के ओएसडी बनाए गए। बाद में उन्होंने केंद्र सरकार की नौकरी छोड़़ दी, और फिर सीएम ऑफिस में संविदा पर संयुक्त सचिव के पद पर रहे।
विक्रम सिसोदिया, सीएम ऑफिस में नौकरशाह-कारोबारियों और खिलाडिय़ों के लिए पुल का काम करते रहे हैं। वो मिलनसार हैं। रमन सिंह के पद से हटने के बाद भी साथ नहीं छोड़ा। और मौलश्री विहार में पूर्व मंत्री प्रेमप्रकाश पांडेय का बंगला किराए पर लेकर रहते हैं। यह बंगला, रमन सिंह बंगले के ठीक पीछे है।
पिछले दिनों एक टीवी चैनल में छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव के ओपिनियन पोल में भाजपा की स्थिति में काफी सुधार बतायी गई, तो चर्चा है कि विक्रम ने शहर के प्रतिष्ठित लोगों को ओपिनियन पोल का लिंक भेजकर यह बताने की कोशिश की, कि छत्तीसगढ़ में भाजपा की वापिसी हो सकती है। इससे परे रमन सिंह के दूसरे कार्यकाल में सीएम ऑफिस में आए अरुण बिसेन, उनके पुत्र अभिषेक सिंह के सहपाठी हैं।
हालांकि अरुण के व्यवहार और काम को लेकर कई तरह की शिकायतें भी आई लेकिन वो रमन सिंह के विश्वासपात्र बने रहे। अरुण बिसेन शहर की पॉश कॉलोनी स्वर्णभूमि के आलीशान बंगले में रहते हैं। वो वर्तमान में पूर्व सीएम का ऑफिस संभाल रहे हैं। जबकि रमन सिंह के एक अन्य ओपी गुप्ता को गहरी राजनीतिक समझ वाला माना जाता है। विक्रम और अरुण बिसेन से परे ओपी गुप्ता स्थानीय हैं, लेकिन सेक्स स्कैंडल में फंसने के बाद उन्होंने रमन बंगले से थोड़ी दूरी बना ली है, लेकिन जरूरी पडऩे पर उनकी सेवाएं ली जाती हैं।
चर्चा तो यह भी है कि नंदकुमार साय के भाजपा छोडऩे की खबर मिलने के बाद पार्टी के बड़े नेताओं ने सबसे पहले ओपी गुप्ता से संपर्क किया था और उन्हें ही साय को मनाने की जिम्मेदारी सौंपी थी। ओपी गुप्ता, नंदकुमार साय के भी निज सचिव रह चुके हैं। ओपी गुप्ता ने अपनी तरफ से थोड़ी बहुत कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे। अब ये तीनों अपनी पुरानी भूमिका में आने के लिए भरसक कोशिश भी करते दिख रहे हैं। देखना है कि वो सफल रहते हैं या नहीं।
ढेबर पैनल में है या नहीं?
कांग्रेस में विधानसभा टिकट के दावेदारों के पैनल पर विवाद खड़ा हो गया है। रायपुर की सीटों को लेकर यह खबर उड़ी कि मेयर एजाज ढेबर का नाम दक्षिण और उत्तर सीट के पैनल में नहीं रखा गया है, तो उनके समर्थक गुस्से में आ गए। एजाज ने दोनों सीटों से टिकट के लिए आवेदन किया है। गुस्से की एक और बड़ी वजह यह थी कि रायपुर दक्षिण के पैनल में सभापति प्रमोद दुबे का नाम रखा गया है, जो कि लोकसभा चुनाव में न सिर्फ बुरी तरह हारे थे बल्कि अपने मोहल्ले के बूथों से पीछे रह गए थे।
प्रमोद दुबे का नाम पैनल में पहले नंबर पर रखे जाने की खबर आई, तो बाकी दावेदारों का भड?ना स्वाभाविक था। एजाज मेयर कांफ्रेंस के सिलसिले में विदेश प्रवास पर हैं। और रायपुर शहर जिला अध्यक्ष गिरीश दुबे को सभापति प्रमोद दुबे का करीबी माना जाता है। खैर, बाद में गिरीश दुबे की तरफ से यह कहा गया कि अभी ब्लॉकों से नाम नहीं आए हैं। इसलिए पैनल तैयार नहीं किया गया। एक दो दिनों में प्रक्रिया पूरी कर ली जाएगी। न सिर्फ रायपुर बल्कि कई और जगहों पर जिला अध्यक्ष निशाने पर हैं। दो-तीन जगहों पर तो जिला अध्यक्ष अपना ही नाम पैनल में डाल दे रहे हैं। हालांकि चुनाव समिति के सदस्यों ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि पैनल से परे नामों पर भी विचार किया जाएगा। इसके लिए पार्टी ने सर्वे भी कराया है। बावजूद इसके कई जिलों में विवाद थमता नहीं दिख रहा है।
विजय बघेल ने कब कांग्रेस छोड़ी?
भाजपा के अग्रिम पंक्ति के नेताओं में शामिल हो चुके विजय बघेल कभी कांग्रेस में थे। वे दुर्ग जिले में युवक कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। किस्सा यह है कि बात बिगड़ी सन् 2000 में, जब उन्होंने चरौदा नगरपालिका अध्यक्ष पद के लिए कांग्रेस से टिकट मांगी। उनको भरोसा था कि तब के दिग्विजय सिंह सरकार में मंत्री चाचा भूपेश बघेल उनके नाम को आगे करेंगे। मगर, विजय बघेल को टिकट नहीं मिली। चाचा ने अपने चाचा (स्व.) श्यामाचरण बघेल को टिकट दिला दी। विजय बघेल मैदान पर निर्दलीय उतरे और कांग्रेस-भाजपा के प्रत्याशियों को हराकर बड़े अंतर से जीत गए। उन्होंने पाटन में भूपेश बघेल के खिलाफ एक बार जीत हासिल की है, सन् 2008 में। जीत का अंतर 7200 वोटों का था। सन् 2019 में उन्होंने कांग्रेस की प्रतिमा चंद्राकर को 3 लाख 90 हजार मतों के विशाल अंतर से हराया। जब यह तय माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री अपनी सीट नहीं बदलेंगे और पाटन में उनका ही सामना करना पड़ेगा, विजय बघेल निश्चिंत दिखाई दे रहे हैं। घोषणा पत्र समिति के अध्यक्ष जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी उनके पास है। इस सिलसिले में वे प्रदेशभर के दौरे पर हैं। आज भी वे अकलतरा में हैं।
जशपुर, गुमला में फिर नक्सली
उत्तर छत्तीसगढ़ इलाके में माओवादी हिंसा की गतिविधियों पर लगभग लगाम लग चुकी है। पीएलएफआई और पीडब्ल्यूजी ग्रुप यहां लंबे समय तक सक्रिय रहे हैं। कभी इनकी संख्या 5 हजार पहुंच चुकी थी। एक बार इनके हमले में तत्कालीन सरगुजा आईजी बीएस मरावी घायल भी हो गए थे। बाद में इसमें शामिल पांच नक्सली गिरफ्तार भी किये गए थे। ये नक्सली जशपुर, वाड्रफनगर, बलरामपुर और उससे लगे झारखंड के गुमला में आवाजाही करते थे। लंबे समय से यहां शांति बनी हुई है। पर, अब पुलिस को जानकारी मिली है कि विधानसभा चुनाव के पहले इनकी सक्रियता फिर से बढ़ रही है। सीमावर्ती गांवों में इनकी आमद रफ्त हो रही है। इसी को देखते हुए कुछ दिन पहले जशपुर कलेक्टर के कार्यालय में झारखंड के गुमला और जशपुर जिले के पुलिस अधिकारियों की बैठक भी हुई। दोनों जिलों के अधिकारियों ने संयुक्त अभियान चलाकर नक्सल गतिविधियों पर लगाम लगाने की रणनीति बनाई है।
प्रमोशन के बाद टीचर नहीं
यह पदोन्नति के बाद पदस्थापना में हुए भ्रष्टाचार की खबरों से अलग है। लोरमी ब्लॉक के साल्हेघोरी के बच्चे सडक़ पर हैं। रोजाना वे स्कूल आते हैं, मगर टीचर ही नहीं हैं। जो थे उनका पदोन्नति के बाद तबादला कर दिया गया। बदले में किसी को भेजा नहीं। एक प्रभारी प्राचार्य हैं, जो प्राचार्य होने के नाते पढ़ाने की जिम्मेदारी नहीं लेते हैं। पर बच्चों का कहना है कि यदि वे पढ़ाने भी लग जाएं तो कितने विषयों को पढ़ाएंगे। दो सौ बच्चे हैं। गणित, विज्ञान, हिंदी, सबके लिए अलग-अलग शिक्षक चाहिए। एसडीएम और ब्लॉक शिक्षा अधिकारी को ज्ञापन सौंपा। कोई नतीजा नहीं निकला तो सडक़ पर बैठकर प्रदर्शन कर रहे हैं।