राजपथ - जनपथ

राजपथ-जनपथ : दिग्गजों के भी पाँव उखड़ गए
07-Sep-2023 4:06 PM
राजपथ-जनपथ : दिग्गजों के भी पाँव उखड़ गए

दिग्गजों के भी पाँव उखड़ गए 

भाजपा में पिछले चुनावों में टिकट बंटवारे में कुछ नेताओं की खूब चलती थी। इन नेताओं की पसंद पर आसपास की टिकटें तय होती थीं। मगर इस बार ऐसे नेताओं की खुद की टिकट खतरे में पड़ गई है। 

एक दिग्गज नेता ने तो टिकट कटने की आशंका के चलते अपने समर्थकों को कुशाभाऊ ठाकरे परिसर में भेजकर शक्ति प्रदर्शन तक कराया। एक अन्य नेता को पता चला कि उनका नाम पैनल में नहीं है, तो उन्होंने बड़े नेताओं को भला-बुरा कहना शुरू कर दिया है। दिलचस्प बात यह है कि प्रदेश की कोर कमेटी के सदस्य भी किसी को आश्वस्त करने की स्थिति में नहीं है। 

भाजपा प्रत्याशियों के चयन में इस दफा पार्टी हाईकमान सीधी दखल दिखा रही है। कम से कम पहली सूची से तो यही अंदाजा लगाया जा रहा है। पार्टी के कुछ नेता मानते हैं कि अभी तक तो ज्यादा कुछ हुुआ नहीं है, लेकिन मैदानी इलाकों की सीटों के प्रत्याशी घोषित होने के बाद कई प्रमुख नेता सार्वजनिक तौर पर अपना गुबार निकाल सकते हैं। देखना है आगे क्या होता है। 

सोनवानी का तूफानी कार्यकाल 

पीएससी के चेयरमैन टामन सिंह सोनवानी का कार्यकाल 9 तारीख को खत्म हो रहा है। सोनवानी के रहते पीएससी की साख पर जो असर पड़ा है, उसकी भरपाई करना सरकार के लिए आसान नहीं है। सोनवानी के चेयरमैनशिप के आखिरी दिनों में जिस तरह हड़बड़ी में राज्य सेवा परीक्षा के नतीजे घोषित हुए, और इंटरव्यू के तत्काल बाद रिजल्ट घोषित हुए, उसकी देश में दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल है।

आम तौर पर मेन्स की परीक्षा के नतीजे घोषित होने के पखवाड़े भर बाद इंटरव्यू की प्रक्रिया शुरू होती है। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ, और हफ्तेभर के भीतर ही इंटरव्यू शुरू हो गए, और चेयरमैन के रिटायरमेंट के पहले ही नतीजे भी घोषित हो गए। सोशल मीडिया पर पीएससी की कार्यप्रणाली को लेकर काफी कुछ कहा जा रहा है। 

सोनवानी के रहते पीएससी पर आरोप लगे हैं, उसकी एक बड़ी वजह ये भी है कि संवैधानिक पद पर आने से पहले मनरेगा घोटाले में उनके खिलाफ आरोप सिद्ध पाए गए थे। अब जब पीएससी परीक्षाओं में गड़बड़ी के आरोप लग रहे हैं, तो आरोपों को खारिज करना आसान नहीं हो जाता है। 

नोटा बना बसपा का वोट बैंक

छत्तीसगढ़ सहित जिन राज्यों में नवंबर-दिसंबर में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, राजनीतिक दलों के साथ-साथ चुनाव आयोग की तैयारी भी तेज हो गई है। मतदाता जागरूकता अभियान भी वह चला रहा है। स्कूल-कॉलेजों में कार्यक्रम हो रहे हैं, लोगों से वोट देने और मतदाता सूची में नाम जुड़वाने की अपील की जा रही है। इस अभियान में बिना भय या प्रलोभन के, अपनी पसंद के उम्मीदवार को वोट देने का आग्रह होता है। इसके बावजूद बड़ी संख्या में लोग वोट देने नहीं जाते। इसकी एक वजह होती है कि चुनाव में खड़ा होने वाला कोई भी प्रत्याशी उसे पसंद नहीं होता। ऐसी स्थिति को देखते हुए नोटा ( इनमें से कोई नहीं) का विकल्प चुनाव आयोग ने शुरू किया। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय का आदेश था, जिसका पालन किया गया। देश में पहली बार छत्तीसगढ़ के ही स्थानीय चुनावों में सन् 2009 में नोटा का विकल्प दिया गया था। इसके बाद चुनाव आयोग ने सन् 2014 के राज्यसभा चुनाव से इसकी शुरूआत की। अब लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा- विधान परिषद् और स्थानीय चुनाव, सभी में नोटा विकल्प मिलता है।

चुनाव आयोग का प्रयास सिर्फ इतना होता है कि ज्यादा से ज्यादा पात्र लोग मतदाता सूची में नाम जुड़वा लें और सब मतदान केंद्र पहुंचें। कोई नोटा में भी वोट डाल रहा तो तब भी वह मतदान प्रणाली की सफलता है। मगर, उत्तरप्रदेश के घोसी विधानसभा चुनाव में नोटा का इस्तेमाल एक अलग मकसद से किया गया। पांच सितंबर को यहां वोट डाले गए। कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को समर्थन दिया था। यहां मुकाबला सीधे भाजपा और सपा के बीच रह गया। यह ऐसी सीट है जहां से बहुजन समाज पार्टी दो बार चुनाव जीत चुकी है, पर इस बार उसने अपना उम्मीदवार किसी कारण से खड़ा नहीं किया। इस स्थिति में बसपा सुप्रीमो ने अपने समर्थक मतदाताओं से अपील की कि वे नोटा में वोट डालें।

नतीजा आने पर पता चलेगा कि उनके मतदाताओं ने ऐसा किया या नहीं, पर यह अपील उन्होंने अपने वोटों को समाजवादी पार्टी या भाजपा में शिफ्ट होने से बचाने के लिए की। भविष्य में जब उनकी पार्टी मैदान में उतरे तो उनके वोट उनके ही पास नोटा के बैंक में जमा रहे।

इसी साल अप्रैल में चुनाव आयोग ने तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी और सीपीआई से राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा छीन लिया था। बसपा का अभी बरकरार है। राजनीतिक दल कई सीटों पर उम्मीदवार इसीलिए उतारते हैं ताकि उन्हें मिला राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दर्जा बरकरार रहे। बसपा ने एक नया प्रयोग किया, जिसमें वह मैदान में न होने पर  अपने वोटों को नोटा के जरिये सुरक्षित रखने की कोशिश की। अभी तक नोटा किसी मतदाता की निजी पसंद का मामला रहा है।   

तंदरुस्त रेलवे में बदहाल यात्री

इस साल अप्रैल में दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे, जिसका मुख्यालय बिलासपुर है, ने एक प्रेस नोट जारी कर बताया था कि उसने रेलवे बोर्ड की ओर से दिए गए 202.24 मिलियन टन लदान के लक्ष्य से आगे जाकर 202.64 मिलियन टन लदान किया। यह अब तक का सर्वाधिक लदान है। इससे रेलवे ने 18 हजार 225.47 करोड़ रुपये का राजस्व जुटाया, जो 2021-22 यानि एक साल पहले के 16 हजार 350.56 करोड़ से 11.46 प्रतिशत अधिक है। पूरे भारतीय रेल का आंकड़ा भी कुछ ऐसा ही है। माल ढुलाई से 2022-23 में उसे 2.44 लाख करोड़ की आमदनी हुई है। यह 2021-22 के मुकाबले 27.75 प्रतिशत अधिक है जब 1.91 लाख करोड़ कमाई दर्ज की गई थी।

इतना फलते फूलते रेलवे ने यात्री ट्रेनों की दुर्दशा बना रखी है। ट्रेनों के अचानक रद्द होने से लोग हलकान हैं। चाहे त्यौहार हो या छुट्टियों का मौसम इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कोविड महामारी के बाद से स्थिति चरमराई हुई है। पैसेंजर, लोकल ट्रेन ही नहीं, एक्सप्रेस ट्रेनों का भी कोई भरोसा नहीं। लोग रिजर्वेशन कराते समय सशंकित रहते हैं कि कहीं अचानक ट्रेन कैंसिल न हो जाए। एक जानकारी आई है कि एसईसीआर से शुरू होने या गुजरने वाली 3800 ट्रेनों के फेरे एक साल में कैंसिल किए हैं। करीब 40 लाख यात्रियों को अपनी यात्रा कैंसिल करनी पड़ी। रेलवे को कैंसिल टिकट के 59 करोड़ रुपये लौटाने पड़े। यात्री टिकटों को तो रेलवे आमदनी में गिनती ही नहीं, वह तो बार-बार बताती है कि यात्री परिवहन में उसे 49 प्रतिशत का नुकसान होता है। इसलिये एक साल में 40 लाख यात्रियों का बोझ उठाने से वह बच गई।

अंग्रेजों के जमाने में जब देश में रेल पांत बिछाये गए तो उसका मुख्य उद्देश्य यही था कि बंदरगाहों तक भारत के उत्पादों का परिवहन हो और विदेश भेजा जा सके। पर, यात्री सुविधा का भी तब से ही ख्याल रखा जा रहा है। यात्रियों को ढोने से रेलवे को भले ही नुकसान होता हो, पर इस आवाजाही से देश की अर्थव्यवस्था में, रोजगार, उद्योग में सहायक ही है। सबसे ज्यादा कमाई वाले बिलासपुर जोन में तो रेलवे को टिकटों की बिक्री से होने वाली मुनाफे या नुकसान के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए। छत्तीसगढ़ के सांसदों को इसकी फिक्र ही नहीं है। वे तो उन स्टेशनों पर हरी झंडी दिखाकर खुश हैं, जहां कोविड काल के बाद से बंद स्टापेज फिर शुरू किए जा रहे हैं।  

आंगनवाड़ी में बस का आनंद

आंगनवाड़ी, मिनी आंगनवाड़ी केंद्र ग्रामीण व शहर के पिछड़े इलाकों के छोटे बच्चों के शारीरिक, बौद्धिक विकास में बहुत महत्व रखते हैं। छत्तीसगढ़ में भी 43 हजार से अधिक आंगनवाड़ी केंद्र और 6500 मिनी आँगनवाड़ी केंद्र हैं। बच्चे यहां प्रारंभिक शिक्षा लेने पौष्टिक आहार लेने पहुंचे, इसके लिए जरूरी है कि यहां का माहौल उन्हें आकर्षक लगे। यह तेलगांना राज्य का एक मिनी आंगनबाड़ी केंद्र है, जिसकी दीवार को इस खूबसूरती के साथ रंगा गया है कि यह केंद्र एक यात्री बस की तरह दिखाई दे रहा है। 

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