राजपथ - जनपथ

राजपथ-जनपथ : वक्त के पहले का नुकसान
11-Sep-2023 4:34 PM
राजपथ-जनपथ : वक्त के पहले का नुकसान

वक्त के पहले का नुकसान 

पहली सूची जारी होने के बाद भाजपा नेतृत्व की स्थिति हवन करते हाथ जले जैसी हो गई है। पार्टी ने अधिसूचना के दो माह पहले 21 प्रत्याशी घोषित कर कांग्रेस को पटखनी देने का प्रयास किया था। मेसेज भी अच्छा गया। कांग्रेस भी सक्रिय हुई, अब-तब में पहली सूची आ सकती है । लेकिन भाजपा कुछ सीटों पर  बूमरेंग झेलने की स्थिति में खड़ी हो गई है। 

पार्टी ने सोचा था कि पहले घोषित कर उस नाम पर होने वाला विरोध सम्हाल लेगी। लेकिन सभी जगह विरोध बना हुआ है। समझाइश के लिए भेजे जा रहे अरुण जामवाल, पवन साय, धरमलाल कौशिक जैसे नेताओं को बैरंग लौटना पड़ रहा। हार चुके दावेदार मान रहे हैं कि अभी एक माह है विरोध जारी रहा तो बी- फार्म बदल जाएगा। इसे देखते हुए पार्टी ने आगे के 69 टिकट पुराने पैटर्न पर बांटने पर विचार मंथन कर रही। यानि नामांकन के अंतिम दिन से एक या दो दिन। ऐसे में कुछ  चूके चौहान विरोध घर बैठ जाएंगे बस। और कार्यकर्ता को बरगला नहीं पाएंगे ।

जो सत्ता से बाहर वे अब क्या बांटेंगे?

जिन पांच राज्यों में नवंबर-दिसंबर में विधानसभा चुनाव होने हैं, उनमें से छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में सत्ता के लिए कांग्रेस-भाजपा के बीच अमूमन सीधा मुकाबला है। चुनाव कार्यक्रम घोषित होने के पहले तीनों ही राज्यों की मौजूदा सरकारों ने मतदाताओं को रिझाने के लिए घोषणाओं की झड़ी लगा रखी है। मध्यप्रदेश में तो घोषणाओं का सैलाब दिख रहा है। सन् 2018 में यहां जनादेश कांग्रेस को मिला और उसकी सरकार बनी, लेकिन माधवराव सिंधिया और उनके समर्थक विधायकों के टूट जाने के बाद शिवराज सिंह सरकार दोबारा सत्ता में लौट गई। यहां पिछले आठ-दस माह से हवा बनने लगी थी कि भाजपा दोबारा नहीं लौटेगी। बीच में यह भी चर्चा हुई कि मुख्यमंत्री बदल दिया जाएगा। इसके बाद से ही शिवराज सरकार रोज एक के बाद एक ऐसी घोषणाएं कर रहे हैं जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शब्दावली में रेवड़ी कहते हैं। उज्ज्वला गैस सिलेंडर 450 रुपये में, 60 प्रतिशत से अधिक नंबर पाने वाले 12वीं के छात्रों को भी लैपटॉप देने, टॉपर तीन को स्कूटी देने की अभी-अभी घोषणा की है। बाकी वे सब घोषणाएं हैं जिनमें आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का मानदेय बढ़ाना, महिलाओं को नगद राशि देना दूसरे राज्यों की तरह शामिल ही हैं। किसानों की कर्ज माफी, मुफ्त बिजली और कर्मचारियों को पुरानी पेंशन स्कीम में लाने की घोषणा भी उन्होंने कर दी है। इस तरह की मुफ्त योजनाओं का भी भाजपा विरोध करती आ रही है। इधर छत्तीसगढ़ और राजस्थान में ऐसी ही तमाम घोषणाएं की हैं। दोनों कांग्रेस की सरकारों ने इन पर अमल भी शुरू कर दिया है। यदि सरकार किसकी है यह भूल जाएं तो तीनों ही राज्यों में आम लोगों को रियायत देने के फैसले एक जैसे ही हैं। छत्तीसगढ़ में अभी रियायती गैस सिलेंडर पर फैसला नहीं हुआ है, सीएम भूपेश बघेल ने इस बारे में संकेत दे दिया है कि इसे भी घोषणा पत्र में शामिल किया जाएगा।

अब एमपी में पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ की अगुवाई में फिर से सरकार बनाने की कोशिश कर रही कांग्रेस के लिए संकट खड़ा हो गया है कि चुनावी घोषणा पत्र को आखिर और कितना लुभावना बनाया जाए, रेवड़ी और कितनी बांटी जाए। ठीक यही स्थिति सत्ता से बाहर छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा की है।

क्या फायरिंग हर बार जरूरी है?

बस्तर में होने वाली मुठभेड़ों के बाद प्राय: उठने वाले सवाल बीते कई वर्षों से कायम है। प्रदेश में कांग्रेस का और केंद्र में भाजपा का एक और कार्यकाल खत्म होने जा रहा है। छत्तीसगढ़ सरकार का दावा है कि नक्सल हिंसा नाम-मात्र हो रही है, उधर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह यहां से घोषणा करके गए हैं कि सन् 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले नक्सलियों का सफाया हो जाएगा।

पुलिस का दावा है कि 5 सितंबर को दो नक्सलियों को उसने मार गिराया, जिन पर एक-एक लाख रुपये का इनाम था। कोंटा के पूर्व विधायक मनीष कुंजाम ने आरोप लगाया है कि दोनों बेकसूर थे। इनमें से एक किसान था, दूसरा गांव में ही किराने की दुकान चलाता था। सोढ़ी कोवा और रवा देवा, ये दोनों तिम्मापुरम गांव में अपने रिश्तेदारों से मिलकर बाइक से लौट रहे थे। पुलिस फोर्स ने रोक लिया और उन्हें गोलियों से भून दिया। घटना के बाद उनकी बाइक भी गायब कर दी गई। आईजी पी. सुंदरराज ने इसके जवाब में कहा कि दोनों नक्सली थे, एक शिक्षा दूत, एक उप सरपंच और एक अन्य ग्रामीण की हत्या में ये शामिल थे।

वे नक्सली थे या नहीं इसका जवाब ठीक-ठीक, जल्दी नहीं मिलने वाला है। पर कुंजाम का और ग्रामीणों का सवाल जायज है कि यदि उन्हें फोर्स ने नक्सली ही मान लिया तो क्या गोलियां चलाना ही एकमात्र विकल्प था। मुठभेड़ होते तो ग्रामीणों ने कहीं देखा नहीं। क्या उन्हें गिरफ्तार कर पूछताछ नहीं की जा सकती थी?  दो साल पहले मई महीने में बीजापुर के सिलगेर में पुलिस कैंप खोलने के विरोध में प्रदर्शन कर रहे ग्रामीणों पर गोलियां चलाने से तीन ग्रामीणों की मौत हो गई थी, बाद में एक ने और दम तोड़ दिया था। जब पुलिस ने मारे गए लोगों को नक्सली बताया तो यह सवाल उठा कि भीड़ में फायरिंग करनी पुलिस को कैसे पता चल सकता है कि गोली नक्सलियों को ही लगेगी। पिछले साल जनवरी में मानूराम नुरेटी को नारायणपुर पुलिस ने नक्सली बताकर मार डाला था। जांच-पड़ताल से पता चल गया कि उसे हमनाम होने के कारण अपनी जान गंवानी पड़ी,  मारे गए युवक ने खुद जिला पुलिस बल में शामिल होने के लिए आवेदन किया था। क्या फोर्स बिना सावधानी और जिम्मेदारी के किसी भी संदिग्ध पर गोली चलाने में भरोसा कर रही है?

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