राजपथ - जनपथ
पार्टी में नाराज का क्या इलाज?
भाजपा के वरिष्ठ नेता, यहां तक कि प्रदेश प्रभारी भी इन दिनों परंपरागत समस्या से जूझ रहे हैं। अब काम करना है तो सुनना ही पड़ेगा। यह समस्या 85 की सूची जारी होने के बाद से बढ़ गई है। टिकट से चुके जिस दावेदार को चुनावी कार्य के सिलसिले में ठाकरे परिसर या एकात्म परिसर बुलाओ,पहले तो वह दो घंटे बाद आएगा। और आया तो दो घंटे का लेक्चर पिलाएगा। यह कहते हुए कि जिसे टिकट दी गई वो कितना सक्रिय रहा, मैं कितना, यह देख से। 20-30-40 से संगठन में सक्रिय हूं पार्टी ने मुझे क्या दिया। पार्षद की टिकट भी नहीं दी आदि-आदि। बड़े नेताओं को सुनना पड़ता है। मन रखने बोल भी देते हैं मैने तो पैनल में रखा था, लेकिन डॉ.साहब,प्रदेश अध्यक्ष, संगठन के फलां,ढिंका नहीं चाहते थे। बहुत मुश्किल से ऐसे लोगों का मन एकात्म हो पाता। ठीक है भाई साब,आप कह रहे हैं तो काम करता हूं वर्ना...! इसके बाद कार्यालय से जो निकले फिर नहीं आते। ऐसी ही समस्या या तोड़ कांग्रेस के राष्ट्रीय मुख्यालय ने निकाला है। कुछ हद तक पीसीसी ने भी अपनाया है। यानी पार्टी दफ्तर में वैतनिक कर्मचारी (पेड एंप्लाई) नियुक्त हैं। भाजपा को भी अनुसरण करना चाहिए।
शेर के सामने सोच समझकर बकरी
लगता है भाजपा इस चुनाव को हिंदुत्व के मुद्दे पर लडऩा चाहती है। तभी तो कांग्रेस सरकार के कद्दावर मंत्री के सामने बहुत सामान्य प्रत्याशी ईश्वर साहू को उतार दिया है, जिसका कोई राजनीतिक अनुभव नहीं है। उसकी पहचान इतनी ही है कि वह बिरनपुर घटना में मारे गए भुनेश्वर साहू का पिता है।
ऐसे में कहा जा रहा है शेर के सामने बकरी को बांध दिया है। जब चैनलों के पत्रकारों ने प्रत्याशी ईश्वर साहू से यह सवाल पूछा तो उसने बड़ी सहजता से पत्रकारों को ही निरुत्तर कर दिया। उसने कहा कि शेर के सामने बकरी को चरवाहा तभी बांधता है, जब उसे पिंजरे में पकडऩा होता है। चरवाहा चतुर होता है, कमजोर देखकर शेर लालच में आ जाता है। हमारे चरवाहा ने भी रणनीति बनाई है।
घोषणा पत्र में अपने भविष्य का ख्याल
बात 2013 के चुनाव की है। झीरम घाटी की घटना के बाद कांग्रेस में नेतृत्व का संकट था, तब घोषणा पत्र बनाने की जिम्मेदारी एक कद्दावर नेता की मिली थी, जो अल्पसंख्यक हैं। जब सारे देश में ध्रुवीकरण का माहौल बन रहा था, तब उन्हें अपनी हार का आभास हो गया था। लिहाजा भविष्य में मंत्री पद पाने के लिये बैकडोर एंट्री का इंतजाम एमएलसी के रूप में कर लिया था।
उस समय उन्होंने एक घोषणा शामिल की थी, प्रदेश में विधान परिषद बनाने का। यह मुद्दा जनता की ओर से नहीं आया था और न ही इसकी कभी आवाज उठी थी। नेताजी ने इसे प्रमुखता से शामिल करा लिया। कुछ बड़े नेता इससे नाखुश थे, पर कुछ नहीं कर पाए। खैर कांग्रेस की सरकार ही नहीं बनी और विधान परिषद भी नहीं।
अगली बार राजा साहब को घोषणा पत्र बनाने की जिम्मेदारी मिली, उन्होंने विधान परिषद को घोषणा पत्र में कोई महत्व नहीं दिया। अब इस बार का चुनाव आ गया है और अल्पसंख्यक नेता पावरफुल मंत्री हैं, उन्हें फिर से घोषणा पत्र बनाने का जिम्मा दे दिया गया है। अब फिर से बिना किसी मांग के विधान परिषद घोषणा पत्र में शामिल हो जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
सरकारें अलग, आरोप एक जैसे...
राज्य में भू-माफिया, शराब माफिया, रेत माफिया, यहां तक कि शिक्षा माफिया को पनपने दिया जा रहा है। परीक्षाएं समय पर नहीं होती हैं, परिणामों में देरी होती है, अनगिनत घोटाले हो रहे हैं। व्यापमं, शिक्षक, पुलिस, नर्सिंग, पटवारी, कांस्टेबल के पद 8 लाख से 15 लाख रुपये में बेचे गए हैं।
उपरोक्त पंक्तियों से हमें लगेगा कि यह भाजपा का छत्तीसगढ़ सरकार के खिलाफ आरोप है। मगर, यह कांग्रेस का आरोप है, मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार पर। वहां कांग्रेस की प्रवक्ता शोभा ओझा ने भर्तियों में गड़बड़ी और बेरोजगारों से छलावे के कई गंभीर आरोप एक प्रेस कांफ्रेंस में लगाए।
छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश दोनों ही जगह पर कांग्रेस और भाजपा हमेशा की तरह आमने-सामने हैं। मगर, दोनों के खिलाफ आरोप एक जैसे हैं। कहने का मतलब यह है कि भ्रष्टाचार विपक्ष में रहते हुए ही दिखाई देता है। सरकार में बने रहने पर आरोप निराधार लगते हैं।
बस्तर की एक पारंपरिक बाड़
इसका चलन अब कम हो गया है। नाम है- अडग़ेड़ा। अड़ यानी कि आड़ा और गेड़ा यानी कि मोटा डंडा। जोहार एथनिक रिसोर्ट कोण्डागांव में इसे प्रदर्शित किया गया है, जहां से तस्वीर ली है अशोक कुमार नेताम ने। इसे अब भी कुछ मुरिया जनजाति के घरों के आंगन पर देखा जा सकता है। दोनों खंभों में बराबर ऊंचाई पर लगभग 5 से.मी. व्यास के गोल छेद बने होते हैं। छेद की संख्या 5 या 6 होती है। दोनों खंभों के मध्य गेड़ा यानी कि मोटा डंडा फंसाकर गेट बंद किया जाता है। गेट खोलते समय गेड़ा को किनारे सरका दिया जाता है। बस्तर के छेरछेरा पर्व में इससे संबंधित एक गीत भी गया जाता है।
छठ पूजा और मतदान
राज्य के कई जिलों में भोजपुरी समाज के लोग बड़ी संख्या में हैं। इनमें से कई परिवारों का पैतृक निवास बिहार और यूपी के गांवों में है। छत्तीसगढ़ से इस मौके पर बिहार-यूपी जाने वालों की संख्या इतनी अधिक है कि रेलवे को स्पेशल ट्रेन भी चलानी पड़ती है। जो लोग नहीं जाते, वे यहां खरना के दिन से उपवास शुरू करते हैं, जो करीब 36 घंटे चलता है। इस बार खरना 17 नवंबर को है और इसी दिन राज्य में दूसरे चरण का मतदान भी होना है। ऐसे में भोजपुरी समाज की ओर से मतदान की तिथि बदलने की मांग उठने लगी है। बिलासपुर के अरपा नदी में एक बड़ा छठ घाट है, जहां हजारों भोजपुरी समाज के लोग त्यौहार मनाने के लिए एकत्र होते हैं। भिलाई, रायगढ़, खरसिया, अंबिकापुर, कोरिया आदि के औद्योगिक क्षेत्रों में भी ये बड़ी संख्या में निवासरत हैं। अब इन्हें चिंता सता रही है कि उपवास रहते हुए वे पूजा-पाठ करें या मतदान के लिए कतार में लगें। उनकी ओर से मांग उठ रही है कि मतदान की तारीख बदली जाये।
23 नवंबर को एकादशी है। इस दिन राजस्थान में बड़ी तादात में विवाह होते हैं। इसे देखते हुए वहां मतदान की तारीख चुनाव आयोग ने दो दिन आगे बढ़ाकर 25 नवंबर कर दी है। एक बार चुनाव की तारीखें घोषित होने के बाद आयोग प्राय: उसमें फेरबदल नहीं करता। पर राजस्थान के मामले में उसे रिपोर्ट मिली कि विवाह के कारण प्रशासन को वाहनों और कर्मचारियों की व्यवस्था करने में भी दिक्कत आ सकती है। छत्तीसगढ़ में देखना होगा कि आयोग क्या निर्णय लेता है।
भाजपा प्रत्याशियों के बाद अब तक का बड़ा प्रदर्शन ठाकरे परिसर में देखने को मिला है। जशपुर से रायमुनी भगत को बदलने पूर्व मंत्री गणेश राम भगत के समर्थन में राशन पानी लेकर कार्यकर्ता डेरा जमा चुके हैं। गणेश राम इतने व्यथित हैं कि रायमुनी का नाम घोषित होते ही अपने आंसु नहीं रोक पाए।