राजपथ - जनपथ
दोनों के बड़े-बड़े दावे
विधानसभा चुनाव के पहले चरण की 20 सीटों पर मतदान के बाद बढ़-चढक़र दावे हो रहे हैं। पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह ने मतदान के तुरंत बाद मीडिया से चर्चा में 15 से 18 सीट जीतने का दावा किया। सीएम भूपेश बघेल ने सीटों को लेकर कोई दावे तो नहीं किए, लेकिन उन्होंने एक्स पर अपनी भावनाओं को इजहार किया।
उन्होंने ट्वीट किया कि प्रदेशभर से प्रथम चरण के मतदान के बाद जो सूचनाएं आ रही हैं, जनता का जो उत्साह दिख रहा है वो अद्भुत है। सीएम ने आगे कहा कि आपने इस बार वो कसर भी पूरी कर दी है, जो 2018 में थोड़ी सी रह गई थी।
पहले चरण की 20 सीटों में से 19 सीटें कांग्रेस के पास हैं। पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह की राजनांदगांव सीट कांग्रेस जीत नहीं पाई थी। सीएम के करीबियों का दावा है कि इस बार राजनांदगांव सीट पर कांग्रेस का कब्जा हो जाएगा। यहां से सीएम के दोस्त गिरीश देवांगन चुनाव मैदान में थे।
दोनों दलों के नेताओं के दावे चाहे कुछ भी हो, लेकिन कई लोगों का अंदाजा है कि भाजपा को पहले चरण में फायदा जरूर होगा। इसकी वजह यह है कि भाजपा के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। भाजपा के रणनीतिकारों का मानना है कि बस्तर में भाजपा को भारी सफलता मिली है। भाजपा नेता बस्तर की 12 में से 6 से 8 सीट जीतने का दावा कर रहे हैं। इनमें से कवर्धा सीट ऐसी है, जहां कोई स्पष्ट तौर पर कोई कुछ कहने से बच रहे हैं। यहां से परिवहन मंत्री मोहम्मद अकबर, और प्रदेश भाजपा के महामंत्री विजय शर्मा के बीच कड़ा मुकाबला है। कवर्धा में आप के उम्मीदवार खडक़राज सिंह को मिले वोट ही जीत-हार का फैसला कर सकते हैं।
मतदान के तुरंत बाद कांग्रेस ने खडक़राज सिंह के भाई और कवर्धा रियासत के मुखिया पूर्व विधायक योगीराज सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। अब योगी राज ने बागी तेवर से कांग्रेस को कवर्धा में कितना नुकसान होता है, यह तो चुनाव नतीजे आने के बाद पता चलेगा।
पुराने नेता घर बैठे, गांधीजी का भरोसा
राजधानी के पड़ोस की विधानसभा के एक बड़े दल के दावेदार अपनी जमा पूंजी का बटुआ खोल चुके हैं। यह मजबूरी भी है, क्योंकि वो गृह क्षेत्र से टिकट मांग रहे थे। पार्टी ने कर्म क्षेत्र से भी नहीं पड़ोस से दिया। इलाके के सभी दावेदार, पूर्व विधायक सभी नाराज हैं। इसी नाराजगी में जहां दर्जन भर बागी, निर्दलीय खड़े हो गए हैं। और बचे खुचे घर बैठ गए हैं। अब कॉलेज के कुछ दोस्तों, परिजनों, कलाकारों और गांधी जी के भरोसे मैदान में डटे हैं। यह तो गांधी जी का ही जलवा है जो नेताजी दर्जन भर निर्दलीयों को नाम वापसी में सफल रहे। इस प्रयास में नेताजी पांच, छह पेटी से उतर गए हैं। साथी कह रहे पार्टी ने कुछ नहीं दिया। प्रोफेशन से जो कमाया वह निकल गया । मगर सच्चाई तो संगठन जानता होगा। खैर , क्षेत्र में घूम रहे दोस्तों में ही जीत को लेकर दावे, प्रतिदावे हो रहे हैं।
सर्च किट बैग रेडी रख अलर्ट रहें
केंद्रीय गृह मंत्रालय और वित्त मंत्रालय ने छत्तीसगढ़ में तैनात ईडी और आयकर अफसरों को हाई अलर्ट पर रखा है। सोमवार से लेकर दीपावली बाद दो सप्ताह तक सबकी छुट्टियां कैंसिल करते हुए मुख्यालय न छोडऩे का आदेश दिया गया है। इतना ही नहीं घंटे दो घंटे के लिए पड़ोस को शहर भी जाने से इंकार कर रहे हैं। सभी से अपना सर्च किट बैग भी रेडी रखने कहा है। संकेत हैं कि आने वाले दिनों में बड़ी कार्रवाई की तैयारी है। इसके लिए दिल्ली मुख्यालय के अधिकारी भी अलर्ट मोड पर रखे गए हैं । हमारे सूत्रों ने कुछ चौंकाने वाले नाम का उल्लेख किया है, लेकिन कहा जाता है कि आईटी, ईडी की तीसरी आंख होती है, वह तिरछी नजर से देखकर कार्रवाई करते हैं। यानी सूत्रों ने जो नाम बताए हैं, वो न होकर कोई तीसरा होगा।
सूचना आयोग पर सुप्रीम कोर्ट
दो दिन बाद यानी 10 नवंबर को ठीक एक साल पूरा हो जाएगा जब राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त एमके राउत सेवानिवृत हो गए थे। तब से यह पद रिक्त है। अभी आयोग में मनोज कुमार त्रिवेदी और धनवेंद्र जायसवाल दो आयुक्त ही काम कर रहे हैं। इनकी नियुक्ति से पहले भी ये दोनों पद कई महीनों से खाली थे। इनका कार्यकाल 3 साल का है, जो अगले साल 15 मार्च तक जारी रहेगा। देश में काम करने वाली एक एनजीओ सार्थक ने? एक रिपोर्ट तैयार की है जिसमें बताया गया है कि देशभर में 6 मुख्य सूचना आयुक्तों के पद खाली हैं। इनमें एक छत्तीसगढ़ है। इस तरफ गौर करने की वजह यह भी है कि 6 नवंबर को केंद्र में मुख्य सूचना आयुक्त के रूप में हीरालाल सामरिया ने शपथ ली। केंद्र सरकार ने 30 अक्टूबर को आए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के परिपालन में यह नियुक्ति की है। अगस्त महीने में केंद्रीय सूचना आयोग में मुख्य सूचना आयुक्त की नियुक्ति के लिए कार्मिक एवं लोक शिकायत मंत्रालय ने विज्ञापन तो निकाला था लेकिन नियुक्ति आदेश जारी नहीं किया। यह भी ध्यान देने की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने अकेले केंद्र सरकार के लिए निर्देश नहीं दिया, बल्कि कहा था कि केंद्र और राज्य सरकारें सूचना आयुक्तों के रिक्त पदों को भरने के लिए कदम उठाएं। ऐसा नहीं होने पर सूचना का अधिकार कानून निष्प्रभावी हो जाएगा। इसका मतलब यह है कि यह आदेश छत्तीसगढ़ के लिए भी है। पर यहां अभी चुनाव का माहौल है। अब उम्मीद यही है कि नई सरकार के मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली समिति आवेदनों पर विचार करेगी।
यह भी एक चुनाव प्रचार
किसी खास दल का विरोध करने के लिए चुनाव आचार संहिता के शिकंजे में आए बिना भी काम किया जा सकता है। ऐसा विरोध प्रतिद्वंद्वी को लाभ तो पहुंचाएगा लेकिन चुनाव प्रचार की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। यह तस्वीर मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा की एक पान दुकान की है। दुकानदार ने उधारी देने से तब तक रोक लगा रखी है, जब तक राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री नहीं बन जाते। पिछले दशक में जब अमेरिका में 9/11 का आतंकी हमला हुआ तब दुनिया भर में लादेन की तलाश होने लगी। अपने भी देश के कई दुकानदारों ने लिख रखा था कि जब तक लादेन नहीं मारा जाता, उधारी बंद। और आखिर एक दिन लादेन मारा गया। उसके बाद उधारी तो शुरू नहीं हुई, पोस्टर गायब हो गए।
बस्तर की भागीदारी कम क्यों रही?
पहले चरण में जिन 20 विधानसभा सीटों पर मतदान हुआ, उनमें सन् 2018 के चुनाव के मुकाबले इंतजाम बेहतर थे। इन 5 सालों में नक्सली वारदातों में कमी का दावा किया गया। मुठभेड़ और हताहतों के आंकड़े भी ऐसा कहते हैं। सुरक्षा बलों ने इस बीच 65 नए कैंप खोले। यह बताता है कि नक्सलियों का दबदबा घटा है। बस्तर संभाग में 126 ऐसे गांव थे, जहां पहली बार मतदान केंद्र बनाए गए। इन गांवों के मतदाताओं को वोट देने के लिए नक्सलियों की धमकी के बीच घने जंगल से गुजरने की नौबत नहीं आई। मतदाताओं की मदद के लिए संगवारी स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं की ड्यूटी लगाई गई। कई मतदान केदों को मॉडल स्वरूप देकर आकर्षक ढंग से सजाया गया। पहली बार दिव्यांगों और 80 साल के अधिक उम्र के बुजुर्गों को उनके घर पहुंचकर मतदान की सुविधा दी गई। प्रदेश के अन्य हिस्सों की तरह बस्तर में भी स्वीप अभियान तो चला ही है।
5 साल पहले इन्हीं सीटों पर मतदान का प्रतिशत 76.95 यानी करीब 77 प्रतिशत था। इस बार यह सिर्फ 70.87 प्रतिशत रहा। अंतिम गणना के बाद इसमें थोड़ा बहुत बदलाव दिख सकता है फिर भी सन् 2018 के आंकड़ों को छूने की कोई संभावना नहीं है।
मतदान का कम होना केवल सुरक्षा संबंधी मामला है या कुछ और? कई बार जब बहुत ज्यादा वोटिंग को परिवर्तन की लहर के रूप में भी देखा जाता है। कम मतदान का एक मतलब यह भी लगाया जाता है कि मतदाता बदलाव का इच्छुक नहीं है। दूसरी ओर इन 20 सीटों के प्रमुख उम्मीदवारों के बीच कड़े संघर्ष की रिपोर्ट भी है।