राजपथ - जनपथ
स्काईवॉक और अंडरग्राउंड नाली
राज्य के दो बड़े शहरों की दो बड़ी परियोजनाएं अरबों रुपये फूंकने के बाद भी अधूरी है। पूर्ववर्ती भाजपा सरकार के दो तत्कालीन मंत्रियों के ये ड्रीम प्रोजेक्ट थे। दोनों ने ही वादा किया था कि भाजपा की सरकार दोबारा बनी तो अधूरा काम पूरा कराया जाएगा, मगर अभी हालात बदले हुए से हैं।
बात रायपुर के स्काई वॉक और बिलासपुर के अंडरग्राउंड सीवरेज परियोजना की है। स्काईवॉक पर करीब 45 करोड़ रुपये तो सीवरेज पर करीब 400 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं। सन् 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने इन दोनों योजनाओं में भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया था। मगर, कांग्रेस की सरकार पूरे पांच साल रही, किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। बिलासपुर की सीवरेज परियोजना पर तो हाईकोर्ट ने कुछ आईएएस अधिकारियों सहित 13 अफसरों के खिलाफ जांच कर कार्रवाई का आदेश दिया था। मगर सरकार बदलने के बाद भी किसी का बाल बांका नहीं हुआ। पूरे पांच साल कांग्रेस विचार करती रही कि रायपुर का स्काई वाक पूरा किया जाए, या ढहा दिया जाए। मुद्दा सुलगा हुआ था तो सरकार का कार्यकाल खत्म होने के आखिरी साल में एसीबी को भ्रष्टाचार के जांच की जिम्मेदारी दी गई। अभी कुछ दिन पहले विधानसभा में यह जवाब आ गया है कि किसी पर कोई कार्रवाई नहीं होगी, कोई भ्रष्टाचार नहीं पाया गया है, जांच की फाइल कुछ दिन पहले बंद कर दी गई है।
रायपुर में लोक निर्माण विभाग के पूर्व मंत्री राजेश मूणत ने और बिलासपुर में नगरीय प्रशासन विभाग के पूर्व मंत्री अमर अग्रवाल ने अपनी चुनावी सभाओं में बार-बार कहा कि वे अपनी इन दोनों परियोजनाओं को सरकार बनने के बाद तत्काल पूरा कराएंगे। स्काई वाक के संबंध में विधानसभा में मूणत के ही सवाल पर उपमुख्यमंत्री अरुण साव ने बताया था कि एक समिति ने स्काई वाक को पूरा करने की सिफारिश की है। इधर अग्रवाल ने भी कहा था कि 6 माह के भीतर शहर की जनता सीवरेज प्रोजेक्ट को चालू देखेगी।
दोनों नेताओं ने इन योजनाओं को शुरू करने का का श्रेय खुद लिया था। अब सरकार बन गई तो योजना पूरी कराना भी उनकी प्रतिष्ठा का सवाल है। मगर, कौन जानता था कि सरकार बनेगी तो दोनों को मंत्रिमंडल में मौका नहीं मिलेगा। ऐसा होता तो वैसा हो जाता।
श्रमिक बस्तियों से ठेके की दूरी
स्कूल, अस्पताल व धार्मिक स्थलों से शराब दुकानों की दूरी पहले 50 मीटर थी अब विधानसभा में की गई घोषणा के मुताबिक यह दूरी कम से कम 100 मीटर कर दी जाएगी। ऐसा हाईकोर्ट के आदेश के आधार पर किया जा रहा है। मगर, एक बड़ा फैसला और लिया गया है कि श्रमिक बस्ती और अनुसूचित जाति के 100 से ज्यादा घर हों तो वहां पर भी दुकान नहीं खोली जाएगी। अक्सर देखा गया है कि संभ्रांत कॉलोनियों, पूजा स्थलों और स्कूलों के पास दुकान खोलने के बाद आंदोलन शुरू हो जाता है। इन का प्रशासन पर दबाव होता है तो दुकान खिसकाकर निचली बस्तियों में ही ले जाई जाती है। रोज कमाने-खाने वाले मजदूर परिवारों में इतनी ताकत या हैसियत नहीं होती कि इसके खिलाफ आंदोलन करने के लिए सडक़ पर आ जाएं। यदि प्रदेश में गिनती की जाए तो आधी दुकानें ऐसी बस्तियों के आसपास नजर आएंगीं। इन बस्तियों से लगी शराब दुकानें पारिवारिक कलह कई गुना बढ़ा देती हैं। बच्चों और महिलाओं की स्थिति दयनीय हो जाती है। कई घरेलू अपराध इसी वातावरण के कारण बढ़ जाते हैं। क्या इन शराब दुकानों को हटाने के सरकार के फैसले को प्रशासन कितने प्रभावी तरीके से अमल में ला सकेगा? ऐसी बस्तियों में देशी शराब के कोचिये फलते फूलते हैं, जिनके बारे में पुलिस और आबकारी दोनों को पता होता है। शराब की दुकान दूर होने से कोचियों की ज्यादा कमाई के रास्ते भी खुलने की आशंका है।