राजपथ - जनपथ
चुनाव के पहले पुलिस में तबादले
बस्तर में कुछ सरकारी विभागों के अधिकारी-कर्मचारी नक्सलियों के सीधे निशाने में नहीं होते। बहुत से काम कागजों में ही हो जाते हैं। ऐसे अफसर वहीं ठिकाना बना लेते हैं, लौटना नहीं चाहते। पर पुलिस महकमे के साथ यह बात नहीं है। यहां पदस्थ जवान और अफसर अपनी मियाद पूरी कर मैदानी इलाकों में वापस आना चाहते हैं। पर बरसों गुजारिश के बाद भी उन्हें मौका नहीं मिलता। सरकार ने एक नीति भी बनाई कि 55 साल से अधिक उम्र होने पर उन्हें बस्तर रेंज के जिलों में नहीं रखा जाएगा। कई केस हाईकोर्ट भी पहुंचते रहते हैं जिनमें बस्तर से हटाने की फरियाद होती है। चुनाव एक मौसम होता है, जिसमें बाहर आने के इच्छुक पुलिसकर्मियों को मौका मिल जाता है। बीते 21 दिसंबर को चुनाव आयोग ने एक परिपत्र जारी कर प्रदेश में 3 साल से अधिक एक ही स्थान पर अथवा गृह जिले में पदस्थ पुलिस कर्मचारी, अधिकारियों के स्थानांतरण का आदेश दिया। आदेश का पालन तो हुआ लेकिन 100 से अधिक थानेदार, उप-निरीक्षक और दूसरे अधिकारी कर्मचारी ऐसे थे, जिन्हें बस्तर रेंज के ही एक स्थान से हटाकर दूसरे जिलों में भेज दिया गया। इनमें अधिकांश ने 3 साल की मियाद पूरी कर ली है। इनका कहना था कि हमें बस्तर से बाहर भेजो। मैदानी इलाके के अधिकारी-कर्मचारियों को भी यहां सेवा करने का मौका दो। अब निर्वाचन आयोग ने पीएचक्यू को फिर लिखा है कि तबादले का मतलब एक थाने से दूसरे थाने में कर देना नहीं है, बल्कि उन्हें रेंज से ही निकालिए। इसका एक मतलब यह भी है कि कोरबा, रायपुर, बिलासपुर जैसी सहूलियत वाली जगहों पर पदस्थ अधिकारियों को बस्तर भेजना होगा। स्थिति यह है कि सिफारिशों और पहुंच के चलते इन स्थानों के कई अधिकारी एक बार भी नक्सल इलाकों में नहीं गए। लोकसभा, विधानसभा चुनाव के दौरान भी वे मैदानी जिलों में घूमते रहे हैं। अब देखना यह है कि आयोग के निर्देश के बाद बस्तर पुलिस में कितना बदलाव आता है।
तालमेल से बना बजट
विष्णुदेव साय सरकार के पहले आम बजट को खूब सराहा जा रहा है। विपक्ष ने भी विरोध में ज्यादा कुछ नहीं कहा। बजट के लिए वित्त मंत्री ओपी चौधरी ने वित्त सचिव अंकित आनंद के साथ आधी रात तक बैठकें करते थे। दोनों के बीच इतना बढिय़ा तालमेल रहा कि बजट बहुत अच्छे से तैयार हो पाया।
कानपुर आईआईटी से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में स्नातक अंकित अपने मातहतों पर निर्भर नहीं रहते थे, और वो मंत्री से चर्चा कर बजट प्रस्तावों का ज्यादातर हिस्सा खुद ही अपने लैपटॉप में टाइप कर लेते थे। बजट को विशेष रूप से लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर तैयार किया गया, और कड़े फैसले लेने से परहेज किया गया।
दूसरी तरफ, भूपेश सरकार के समय से राज्य पर कर्ज का बोझ काफी बढ़ा है। ऐसे में सरकार को वित्तीय अनुशासन बनाए रखने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ रही है। वित्त मंत्री ओपी चौधरी को विजनरी माना जाता है, और कलेक्टर रहते उनके द्वारा किए गए काम इसका उदाहरण भी है। अब अंकित के साथ रहने से कुछ अलग हटकर काम की उम्मीदें भी हैं। देखना है आगे क्या कुछ करते हैं।
चुनाव से पहले खर्च का मीटर
भाजपा सभी 11 सीटों को अपने कब्जे में करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रही है। पार्टी ने अभी टिकट घोषित नहीं किए हैं, लेकिन सभी लोकसभा क्षेत्रों में चुनाव कार्यालय खुल गए हैं। सभी जगह प्रभारी नियुक्त कर दिए गए हैं, और कार्यालयों में कार्यकर्ताओं की भीड़ देखी जा सकती है।
सबसे बेहतर कार्यालय महासमुंद का है, जो कि पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर के देखरेख में तैयार हुआ है। हालांकि कई जगहों पर खर्चे को लेकर किचकिच हो रही है। कुछ जगहों पर स्थानीय सांसद को खर्चा उठाने के लिए कहा गया है। ये अलग बात है कि उनकी टिकट अभी पक्की नहीं हुई है।
एक लोकसभा क्षेत्र में तो दो-तीन संपन्न पदाधिकारियों को कार्यालय का जिम्मा दिया गया। सांसद महोदय भी संपन्न पदाधिकारियों को देखकर खर्च को लेकर आश्वस्त भी थे। पिछले दिनों सांसद महोदय, कार्यालय पहुंचे तो पदाधिकारियों ने उनका खूब आवभगत किया। भोज भी कराया। ऐसा इंतजाम देखकर सांसद महोदय खुश भी हुए। पदाधिकारियों के काम की उन्होंने सराहना भी की। बाद में उनकी खुशी उस वक्त काफूर हो गई, जब तमाम खर्चों का बिल पहुंचा। टिकट से पहले ही खर्चों का मीटर घूमना शुरू हो गया।
दुर्ग से कौन से साहू को टिकट?
चर्चा है कि पूर्व सांसद ताम्रध्वज साहू दुर्ग सीट से चुनाव लडऩा चाहते हैं। मगर पूर्व सीएम भूपेश बघेल की राय अलग है। वो दुर्ग से केंद्रीय जिला सहकारी बैंक के पूर्व अध्यक्ष राजेन्द्र साहू को टिकट देने के पक्ष में हैं।
कहा जा रहा है कि ताम्रध्वज दुर्ग सीट से टिकट नहीं मिलने पर राजनांदगांव सीट का विकल्प रखा है। इसके लिए वहां के दो विधायक भोलाराम साहू, और दलेश्वर साहू के संपर्क में भी है। हालांकि पार्टी के स्थानीय नेता किसी बाहरी को टिकट देने के खिलाफ हैं। विधानसभा चुनाव में राजनांदगांव शहर की सीट पर गिरीश देवांगन को उतारने का खामियाजा पार्टी भुगत चुकी है। भूपेश बघेल के पूरी ताकत झोंकने के बावजूद गिरीश रिकॉर्ड वोटों से चुनाव हारे। देखना है कि ताम्रध्वज के मामले में पार्टी क्या कुछ फैसला लेती है।
उलझता जा रहा रेत का मामला
नई सरकार बनने के बाद गौण खनिज पर नई नीति बनाने की घोषणा की गई है। इसके चलते रेत घाटों की नीलामी नहीं हुई है। रेत खनन और परिवहन की क्या प्रक्रिया होगी, यह नीति आने के बाद मालूम होगा। पंचायतों को फिर से अधिकार देने की बात हो रही है। दूसरी ओर विधानसभा में सवाल उठने के बाद रेत गाडिय़ों की चेकिंग बढ़ गई है। जब खदानों की नीलामी ही नहीं हुई है तो रेत कहां से निकाले जा रहे हैं, यह कोई रहस्य की बात नहीं है। खनन अवैध रूप से हो रहा है। इस समय भवन निर्माण का काम तेजी से चल रहा है। बारिश के बाद यह काम रुक जाएगा और घाट भी बंद हो जाएंगे। इसके अलावा मार्च के पहले सप्ताह में लोकसभा चुनाव की आचार संहिता भी लग सकती है। मौजूदा स्थिति में रेत के कारोबार से जुड़े और भवन बना रहे लोग, दोनों ही चिंता में हैं।
खतरनाक मगर शर्मीला कबरबिज्जू...
कबरबिज्जू एक ऐसा जीव है जो प्राय: कब्रगाह में पाया जाता है। जमीन के भीतर रहता है, यह मुर्दों को खाता है। आवाज ऐसी होती है कि अक्सर लोग जब कब्रिस्तान के पास से गुजर रहे होते हैं तब प्रतीत होता है कि कोई इंसान शोर कर रहा है। इसके नाखून और दांत बेहद मजबूत होते हैं, जिसके चलते कठोर मिट्टी और शवों की भी चीरफाड़ कर लेता है। मगर, यह शर्मीला भी होता है। भिलाई के पास उतई में जब एक मादा और दो बच्चे दिखे तो लोगों ने वन विभाग को सूचना दी। टीम पहुंची तो मां वहां से बच निकली। वन अमले को यकीन था कि वह अपने बच्चों से मिलने फिर पहुंचेगी। और ऐसा ही हुआ। दोनों बच्चों को मां के साथ पकड़ लिया। इनको लेकर अंधविश्वास और टोने-टोटके की कथाएं चलती हैं। खुले घूमने के दौरान इन पर आफत आ सकती थी। फिलहाल मैत्री बाग में ये सुरक्षित हैं।