राजपथ - जनपथ

राजपथ-जनपथ : कमजोर जगहों पर मेहनत
16-Apr-2024 4:24 PM
 राजपथ-जनपथ : कमजोर जगहों पर मेहनत

कमजोर जगहों पर मेहनत 

वैसे तो भाजपा के रणनीतिकार सभी 11 सीटों पर जीत को लेकर आश्वस्त हैं। मगर दो-तीन सीटों पर अतिरिक्त प्रयास की जरूरत बताई गई है। संगठन के प्रमुख नेता रोजाना फीडबैक ले रहे हैं। 

चर्चा है कि पिछले दिनों तो संगठन के एक प्रमुख नेता अपनी कार के बजाए बस से कांकेर गए, और जिले की विधानसभा क्षेत्रों में जाकर पार्टी प्रत्याशी का हाल जाना। 

पार्टी के पास खुफिया एजेंसियों के अलावा निजी सर्वे एजेंसियों से फीडबैक आ रहे हैं। बावजूद इसके प्रमुख नेता खुद जाकर जमीनी हकीकत का जायजा ले रहे हैं। यानी प्रयासों में किसी तरह की कोई कमी नहीं दिख रही है। नतीजे उम्मीद के मुताबिक आते हैं या नहीं, यह देखना है। 

कांग्रेस की जीत? 

कांग्रेस के रणनीतिकार मानते हैं कि प्रदेश में पार्टी इस बार पांच सीटें जीत सकती है। हालांकि कई लोगों को यह अनुमान ज्यादा लग रहा है। वजह यह है कि राज्य बनने के बाद सबसे बेहतर प्रदर्शन 2019 के लोकसभा चुनाव में रहा है, तब पार्टी की सरकार होने के बाद भी मात्र दो सीट जीत पाई थी। 

इस चुनाव में पिछले चुनाव की तुलना में प्रयास कम दिख रहा है। वजह यह है कि प्रदेश में पार्टी की सरकार नहीं है। फिर भी दो-तीन सीटों पर पार्टी प्रत्याशी कांटे की टक्कर देते दिख रहे हैं। इसकी प्रमुख वजह पार्टी प्रत्याशी की व्यक्तिगत छवि भी है। इन सीटों पर पार्टी प्रत्याशी साधन-संसाधनों में भाजपा प्रत्याशी से पीछे नहीं है। देखना है कि चुनाव नतीजे 2019 से बेहतर रहते हैं अथवा नहीं। 

सबसे तजुर्बेकार उम्मीदवार 

पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ रहे स्कूल शिक्षा मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने चुनाव की बागडोर खुद ही संभाल रहे हैं। इससे पहले 7 बार रमेश बैस के चुनाव संचालक थे। और फिर सुनील सोनी के चुनाव संचालक रहे। 

बृजमोहन ने इस बार मंडलों की बैठक भी खुद ले रहे हैं। इससे पहले तक न तो बैस, और न ही सुनील सोनी मंडलों की बैठक में गए थे। रायपुर लोकसभा में 36 मंडल आते हैं, और पहली बार बृजमोहन ने मंडलों की बैठक में जाकर कार्यकर्ताओं से रूबरू हुए। 

यही नहीं, हर गांव में पार्टी के शक्ति केन्द्रों की बैठक में भी वो पहुंच रहे हैं। बृजमोहन और उनके लोगों ने देश में सबसे ज्यादा लीड से जीतने की कोशिश में लगे हैं। खुद सीएम विष्णुदेव साय ने बृजमोहन की नामांकन रैली में सबसे ज्यादा वोटों से जीताने का आव्हान किया है। वाकई रिकॉर्ड बनेगा या नहीं, यह तो चुनाव नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा। 

न एडवांस वापस, न काम

प्रशासनिक गलियारे में एक दो अफसरों को लेकर यह चर्चा है कि उन्होंने कांग्रेस की सरकार में वापसी की उम्मीद से कुछ ठेकेदारों से एडवांस में पैसे लेकर पार्टी फंड में मदद की थी। अब इन अफसरों की मुश्किलें बढ़ती जा रही है। कांग्रेस की सरकार बनती तो कुछ अच्छी पोस्टिंग मिलती। सरकार तो चली गई और उल्टे ठेकेदार पीछे पड़ गए हैं। काम मिलना तो दूर पैसे भी वापस नहीं मिल रहे। अफसर किसी तरह यह बात छिपाना चाह रहे हैं, ताकि सत्ता पक्ष तक बात न पहुंचे। लेकिन ठेकेदारों ने तो अपना दर्द जगह-जगह बयां कर दिया है। बेचारे अफसर यह नहीं समझ पा रहे कि इसे कैसे मैनेज करेंगे।

अब चुनावी रोजगार पर खतरा..

आर्टिफिशियल इंटिलेंस ( एआई ) को लेकर दुनियाभर में एक तरफ रोमांच है तो दूसरी ओर चिंता है कि इससे बेरोजगारी बढ़ेगी। दूसरे क्षेत्रों के अलावा पांच साल में एक बार आने वाले चुनाव पर भी इसका असर दिख रहा है। पश्चिम बंगाल में सीपीआई (एम) ने आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करने वाली भाजपा, कांग्रेस, टीएमसी से आगे जाकर एआई एंकर को चुनाव प्रचार में उतार दिया है। एक वीडियो में समता नाम की एंकर संदेशखाली हिंसा और गार्डन रीच में निर्माणाधीन कॉम्पलेक्स के ढह जाने पर 12 लोगों की मौत हो जाने के मुद्दे पर टीएमसी और भाजपा को घेरा है। यू-ट्यूब, फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर इसे लाखों लोगों ने देखा है। टीएमसी और भाजपा दोनों ने ही एआई के जरिये प्रचार करने के फैसले की आलोचना की है। टीएमसी का कहना है कि तीन दशक तक बैंकों और एलआईसी में कम्प्यूटर का विरोध करने वाली सीपीआई (एम) आज कार्यकर्ताओं की कमी से जूझ रही है, जिसके चलते उसे एआई की मदद लेनी पड़ रही है। वैसे तेलंगाना के विधानसभा चुनाव में के चंद्रशेखर राव व तमिलनाडु में करुणानिधि का एआई अवतार पहले उतारा जा चुका है, जिसमें वे वोटों के लिए अपील करते हुए दिखे हैं। पर एआई एंकर के चुनावी भाषण का यह पहला प्रयोग है।

मगर, सोचिये छोटे दल और निर्दलीय जिनके पास सचमुच कार्यकर्ता और फंड नहीं हैं, उनको अपनी बात एआई के जरिये पहुंचाने में कितनी मदद मिल सकती है? दिक्कत तो उन मजदूरों और युवाओं की है, जिनको झंडा उठाने, बैनर लगाने, रैली में भीड़ बढ़ाने के दिनों में बड़े दलों से कुछ दिन रोजगार मिल जाता है। आने वाले सालों में एआई उनसे यह काम कहीं न छीन ले।

प्रवासी की झोपड़ी में आग

मैनपाट के पास बरिमा गांव में तीन बच्चों की जल जाने से हुई मौत के दर्दनाक हादसे ने अंतिम छोर पर योजनाओं का लाभ पहुंचाने के सरकारी दावों की कलई खोल दी है। महिला अपने तीन मासूम बच्चों के साथ घर पर रहती थी और पति कमाने-खाने के लिए बाहर गया था। यह मांझी परिवार है, जिसे अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला है। पहले आदिवासी परिवार कमाने खाने के लिए प्रवास पर नहीं जाते थे। वे अपनी आजीविका की तलाश वन और गांवों में ही करते थे। घर के मुखिया का प्रवासी होना यह बताता है कि यहां उसे वन विभाग से या मनरेगा से काम नहीं मिल रहा था। मिला भी हो तो इतना कम कि परिवार चलाना मुश्किल रहा हो। आग लगने के बारे में कहा जा रहा है कि अंगीठी जलती छोडक़र महिला अपने सोते हुए बच्चों को छोडक़र पड़ोस में चली गई। छप्पर से अंगीठी में घास फूस गिरा और झोपड़ी में आग लग गई। इसका मतलब यह है कि उसे पक्का मकान बनाने की किसी सरकारी योजना से लाभ नहीं मिला। मां को अनहोनी की आशंका होती तो शायद अंगीठी बुझाकर पड़ोस में जाती। या फिर वहां खाना खाने के लिए नहीं ठहर जाती। तीनों बच्चों की जान तब बच सकती थी। सरगुजा कलेक्टर ने मौके पर जाकर परिवार को ढाढस बंधाया और 12 लाख की मदद करने की घोषणा की है। पर सरकार क्या इस बात को मानेगी कि उनके लोकलुभावन कार्यक्रमों का जरूरतमंदों तक लाभ नहीं पहुंच रहा है।

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