राजपथ - जनपथ

विष्णुदेव साय की दूसरी पारी
वैसे तो आधा दर्जन नेता प्रदेश भाजपा संगठन के मुखिया बनने की होड़ में हैं, लेकिन पूर्व केन्द्रीय मंत्री विष्णुदेव साय का नाम तकरीबन तय होने का हल्ला है। साय से परे, लोकसभा चुनाव में प्रदेश से सर्वाधिक वोटों से जीतकर आए दुर्ग सांसद विजय बघेल का नाम प्रमुखता से उभरा है। तेज तर्रार और साफ छवि के विजय को अग्रिम बधाई भी मिल रही है। मगर पार्टी के अंदरूनी सूत्र बता रहे हैं कि विजय बघेल को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की चर्चा सिर्फ मीडिया तक ही सीमित है। यह बात सर्वविदित है कि विजय ने पार्टी की राष्ट्रीय महामंत्री सरोज पाण्डेय से संगठन चुनाव के दौरान सीधी टकराहट मोल ले ली थी। सरोज का दिल्ली में असर बरकरार है। ऐसे में अब कहा जा रहा है कि विजय का प्रदेश अध्यक्ष बनना तो दूर, वे अपनी पसंद से भिलाई-दुर्ग में जिलाध्यक्ष ही बना पाते हैं, तो काफी होगा।
सुनते हैं कि विष्णुदेव साय के नाम पर बड़े नेताओं में सहमति बन गई है। उनका नाम आगे करने में पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह, सौदान सिंह की अहम भूमिका रही है। विष्णुदेव साय एक बार प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं। केन्द्रीय मंत्री रहनेे के बावजूद उन्हें लोकसभा चुनाव में टिकट नहीं दी गई। हालांकि अभी भी पार्टी के कई नेताओं को उम्मीद है कि पार्टी किसी तेज-तर्रार नेता को आगे बढ़ाएगी। कुछ इसी तरह की उम्मीद नेता प्रतिपक्ष के चयन के दौरान भी रही है। ऐन वक्त में प्रदेश अध्यक्ष रहते धरमलाल कौशिक को नेता प्रतिपक्ष का भी दायित्व सौंपा गया था। ऐसे में अब सीधे-साधे विष्णुदेव साय को मुखिया बनाया जाता है, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कुल मिलाकर माहौल यह दिख रहा है कि रमन सिंह से परे के कोई नेता छत्तीसगढ़ भाजपा में अभी महत्व पाते नहीं दिख रहे हैं।
जात में क्या रक्खा है, या सब रक्खा है?
शराब के खिलाफ आंदोलन करने वाले रायपुर के एक सामाजिक कार्यकर्ता निश्चय वाजपेयी ने फेसबुक पर लिखा है-आज अश्वनी साहू भाई के साहू भोजनालय कुम्हारी मे खाना खाया। भाई ने ब्राह्मण को भोजन कराया है यह बोलकर पैसा नहीं लिया। भुगतान करने के मेरे सारे प्रयास असफल हुए। रामजी भाई के व्यापार मे दिन दूनी-रात चौगनी बढ़ोत्तरी दें। भाई का बहुत आभार एवं धन्यवाद।
अब इस पर यह चर्चा चल रही है कि एक संपन्न ब्राम्हण को खिलाने से भी पुण्य मिल सकता है, या इसके लिए ब्राम्हण का विपन्न होना जरूरी है? या फिर जाति देखे बिना सिर्फ विपन्न को खिलाना बेहतर है?
दरअसल हिन्दुस्तानी समाज में जाति इतने गहरे बैठी हुई है कि उससे परे कुछ सोच पाना मुश्किल रहता है। किसी ट्रेन या बस में सफर करते हुए बगल के मुसाफिर से बात करने के पहले लोग उसके धर्म, और उसकी जाति का अंदाज बिना किसी कोशिश के लगाने लगते हैं। पहरावे से, धार्मिक प्रतीकों से तो धर्म और जाति का अंदाज लगता ही है, नाम सुनने पर नाम के साथ उपनाम से भी जाति का अंदाज लग जाता है। यह एक अलग बात है कि छत्तीसगढ़ में एक अनुसूचित जाति और ब्राम्हणों के बीच बहुत से उपनाम एक सरीखे हो गए हैं, तो उससे धोखा भी हो सकता है। फिर हिन्दुस्तान में जाति के संदर्भ में अगर कोई अपमानजनक बात कही जाती है तो भी उसमें कुछ मामलों में एक कानून लागू होता है, और अपमान खतरनाक हो सकता है।
दिक्कत वहां पर अधिक होती है जहां लोग जातिसूचक उपनाम नहीं लिखते हैं, और केवल नाम का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में अगल-बगल के मुसाफिरों को यह शक होता है कि यह किसी नीची समझी जाने वाली जाति का ही होगा, तभी जाति को छिपा रहा है।
दिलचस्प बात यह है कि एक जाति के होने की वजह से एक-दूसरे को बचाने की उम्मीद ऊंची समझी जाने वाली जातियों में कुछ अधिक होती है। कोई एक कानूनी दिक्कत में है, तो उसकी दूसरों से उम्मीद रहती है कि वे अगर उसकी जाति के हैं, तो उसकी मदद करेंगे ही करेंगे, या करें ही करें।
खैर, आधे मजाक और आधी गंभीरता से शुरू यह बात बहुत लंबी चल सकती है, बाकी अगली बार कभी। (rajpathjanpath@gmail.com)