राजपथ - जनपथ

छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : बापू की कुटिया...
22-Feb-2020
 छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : बापू की कुटिया...

बापू की कुटिया...

पिछली भाजपा सरकार के दौरान रायपुर के बहुत से बगीचों में एक उत्साही कलेक्टर ने बापू की कुटिया बनवा दी थी। कलेक्टरों के पास जिला खनिज निधि का बहुत सा पैसा मर्जी से खर्च करने के लिए रहता था, जिसमें अब कलेक्टरों की मर्जी काफी कम कर दी गई है। उस वक्त छह या आठ कोने के ऐसे कमरे बगीचों में बनवाए गए थे जो सिर्फ बुजुर्गों के बैठने के लिए रखे गए थे। उनमें टीवी भी लगाया गया था, और जूते-चप्पल बाहर उतारकर आने के नोटिस भी लगाए गए थे। पता नहीं बुजुर्गों को यह रास नहीं आया, या फिर जूते-चप्पल बाहर चोरी होने का खतरा था, ये उजाड़ पड़े हुए हैं, और अब पता चल रहा है कि म्युनिसिपल इन्हें महिलाओं को किटी पार्टी जैसी जरूरतों के लिए किराए पर देने के लिए ठेकेदार तय कर रहा है। अगर पार्टी की बाजारू जगह ही बनानी थी, तो हरियाली की जगह पर नियम तोड़ते हुए क्यों ऐसे निर्माण किए गए? बगीचों का ऐसा इस्तेमाल पूरी तरह नियमों के खिलाफ रहेगा। म्युनिसिपल के अफसरों और नेताओं ने यह भी कोशिश नहीं की कि बापू की कुटिया की जगह बा की कुटिया नाम करके देखा जाता कि क्या महिलाएं वहां बैठने में दिलचस्पी लेती हैं? आम महिलाएं बैठ सकें इसके बजाय अब महंगा भाड़ा देकर पार्टी रखने वाली, और गंदगी फैलाने वाली खास महिलाओं के लिए ये ढांचे अब रह गए हैं। म्युनिसिपल को इनका बाजारू इस्तेमाल करने के बजाय किसी और तरह का सामाजिक उपयोग करना चाहिए क्योंकि ये सामाजिक पैसे से सामाजिक जगह पर बने हुए ढांचे हैं। 

बगीचे और शऊर 
छत्तीसगढ़ के अधिकतर शहरों में बाग-बगीचों में म्युनिसिपलों ने कसरत करने के लिए मशीनें लगाई हैं। किसी भी जगह एक किस्म की एक ही मशीन है, और उस पर एक या दो लोग ही कसरत कर सकते हैं। आठ-दस किस्म की मशीनें, और उस पर दर्जन भर लोगों की गुंजाइश, क्योंकि महिलाओं और आदमियों का आमने-सामने एक ही मशीन पर कसरत करने का यहां के बाग-बगीचों में चलन है नहीं। ऐसे में किसी एक मशीन पर दो महिलाएं बैठकर कमर पर जोर डालने के बजाय जब गप्पें मारने लगती हैं, तो फिर बाकी लोगों का वह कसरत करना हो नहीं पाता। अभी राजधानी रायपुर के ऐसे ही एक बगीचे में दो लड़कियां आमने-सामने जम गईं, एक अपने हाथ में चिप्स के पैकेट से एक-एक चिप्स निकालकर उसके बारे में देर तक घूरते हुए यह सोच रही थी कि मार दिया जाए, या छोड़ दिया जाए। पैकेट खत्म होने के पहले तो उसका वहां से हिलने का सवाल नहीं था, और हर चिप्स उसके सामने जीवन का सबसे बड़ा धर्मसंकट खड़ा करते दिख रहा था कि खाऊं या न खाऊं। उसके ठीक सामने बैठी लड़की मोबाइल फोन पर कुछ देखे जा रही थी, और आधा घंटा गुजर जाने पर भी उसका देखना जारी था। उस मशीन पर कसरत करने की हसरत रखने वाले एक-दो लोग पास की मशीनों पर खड़े उन्हें घूर रहे थे, लेकिन इस जोड़े की एकाग्रता पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। बाद में बगल से निकलते हुए एक आदमी ने इस लड़की के फोन की स्क्रीन पर एक नजर डाली, तो उस पर बिना कपड़ों की एक लड़की की तस्वीर दिख रही थी। यह तुलना करना मुश्किल था कि एक लड़की की देह में एकाग्रता अधिक गहरी थी, या उसके सामने चिप्स में एकाग्रता। जो भी हो, हिन्दुस्तानियों को इतना सलीका और शऊर सीखना चाहिए कि कसरत की मशीनें बैठने की बेंच-कुर्सी नहीं होती हैं। राजधानी के अफसरों की समझ का यह हाल है कि जिन जगहों पर पैदल घूमने या कसरत करने को बढ़ावा देना चाहिए, वहां पर वे मुफ्त का वाईफाई देकर चर्बी को बढ़ावा दे रहे हैं।  ([email protected])

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