राजपथ - जनपथ

सलाह महंगी पड़ी
महापौर एजाज ढेबर पर महापौर बंगले में एक ट्रक चावल उतरवाना मंहगा पड़ गया. चावल बांटना तो था जरूरतमंदों में ही , लेकिन सरकारी इंतजाम में ही बांटना था. किसी ने सलाह दे दी कि महापौर बँगला खाली पड़ा है, वहां से भी आस-पास के गरीब लोगों को बंट जायेगा, तो खाली बंगले में एक ट्रक चावल भेज दिया गया. अब इस अख़बार में खबर छपने के बाद एज़ाज़ को समझ आया कि सलाह गलत थी. जिसके घर इनकम टैक्स एक ट्रक नोट मिलने की उम्मीद में आया था, उसे अपने इलाके में एक ट्रक चावल खाली पड़े महापौर बंगले से बंटवाने का मोह नहीं पालना था। सत्ता पर बैठे लोगों का ईमानदार होना ही काफी नहीं होता, उन्हें ईमानदार दिखते भी रहना चाहिए.
नाम में क्या रक्खा है? बहुत कुछ....
कल एक खबर आई। कोरोना की दहशत के बीच पैदा हुई जुड़वां बच्चों के नाम मां-बाप ने कोविद और कोरोना रख दिए। मां का कहना है कि लॉकडाउन के बीच वह एम्बुलेंस से सरकारी अस्पताल ले जाई गई थी और आज सबके मन में कोरोना की दहशत छाई हुई है इसलिए उसने बेटे का नाम कोविद और बेटी का नाम कोरोना रखना तय किया। खबर दिलचस्प थी, दुनिया में और कहीं से ऐसी खबर सुनाई नहीं पड़ी थी, इस अखबार ने भी उसे पहले पन्ने पर लिया और सोशल मीडिया पर भी अखबार से लोगों ने उसे पढ़ा। माँ की दोनों बच्चों के साथ तस्वीर भी छपी, बहुत से लोगों ने उसे अप्रैल फूल की गढ़ी हुई खबर मान लिया। खैर रात होते-होते एक पत्रकार साथी ने फोन करके संपादक से इस बात का जमकर विरोध किया कि पहले तो मां-बाप ने ऐसे अटपटे और नकारात्मक नाम रखकर गलती की, और उससे भी बड़ी गलती इस खबर को फोटो सहित छपना रहा। उनका कहना था कि ऐसे नामों की वजह से यह बच्चे पूरी जिंदगी शर्मिंदगी उठाएंगे, और साथ के बच्चे उनका मखौल उड़ाते रहेंगे। उनका तर्क सही था, ऐसी नौबत तो किसी दिन आ सकती है। खबरों के सैलाब के बीच यह तो मुमकिन नहीं होता कि हर खबर तो उसके ऐसे असर के लिए, तौला जाए, और फिर यह माँ-बाप का अपना फैसला भी था, उनका यह भी सोचना था कि इससे कोरोना, कोविड शब्दों से दहशत कम होगी, उनके सोचने को चुनौती देना खबर के वक्त मुमकिन भी नहीं होता। खैर, हमारे अखबारनवीस दोस्त की यह बात सही है कि ऐसे नामों की वजह से इस बच्चों को आगे चलकर, पूरी जिंदगी शर्मिंदगी झेलनी पड़ सकती है, उन्होंने बच्चों के माँ-बाप से परिचय होने के कारण उन्हें खूब डांटा भी है। अभी गोरखपुर से एक खबर आई है कि वहां पैदा हुए एक बच्चे का नाम लॉकडाउन रखा गया है।
ऐसा हिंदुस्तान में कई मौकों पर होता है। छत्तीसगढ़ में अकाल के बरस पैदा होने वाले बहुत से बच्चों का नाम अकालू, या अकालिन बाई रखा जाता था। लगातार दो साल अकाल पड़े तो पैदा होने वाले बच्चों का नाम दुकालू, या दुकालिन बाई पड़ जाता था। अच्छी फसल वाले साल की बच्चों की पैदाइश सुकालू या सुकालिन कहलाती थी। एक वक्त था जब लोगों के बच्चे एक के बाद एक मर जाते थे, तो उन्हें बुरी नजर से बचाने के इरादे से लोग उनके नाम बहुत अटपटे या खराब रखते थे कि वे बुरी नजरों से बच तो जाएँ। फकीरचंद, भिखारीदास जैसे कई नाम उसी सोच की उपज रहे।
हिंदी वालों के बीच कुछ नाम पता नहीं क्या सोचकर रखे गए, जैसे- अतिरिक्त, निराशा वगैरह। कुछ लोगों का मानना है कि कुछ नाम आखिरी संतानों के लिए अधिक इस्तेमाल होते हंै, जैसे संतोष, तृप्ति, इति, सम्पूर्ण, मतलब कुनबा पूरा हो गया, या मां-बाप की तृप्ति हो गई।
लेकिन यह बात सही है कि नकारात्मक अर्थ या सन्दर्भ वाले नामों से लोग कतराते हैं। गाँधी हत्या के बाद पता नहीं कोई बच्चे का नाम नाथूराम रखते भी हैं? राम को वनवास सुनाने वाली कैकेयी के नाम पर भी शायद लोग नाम ना रखते हों। रावण और विभीषण, दुर्योधन सुनाई तो पड़ते हैं, लेकिन वे क्या सोचकर रखे गए होंगे पता नहीं। फिलहाल यही है कि लोग बच्चों के नाम ऐसे ही रखें कि उन्हें आगे चलकर शर्मिंदगी ना झेलनी पड़े।
अमरीका के कुछ राज्यों में हिटलर या दूसरे नाजी शब्दों पर बच्चों के नाम रखे जा सकते हैं, लेकिन कुछ राज्यों में इन्हें नहीं रखा जा सकता। सऊदी अरब में मलिका, और माया जैसे करीब 50 नामों पर सरकारी रोक है। पुर्तगाल में निर्वाण नाम नहीं रखा जा सकता, मैक्सिको में फेसबुक, रेम्बो या बैटमैन नाम नहीं रखे जा सकते। स्वीडन में सुपरमैन और एल्विस जैसे कई नामों पर रोक है। नॉर्वे जैसे सबसे उदार देश में भी कई नामों पर रोक है, डेनमार्क में प्लूटो नाम पर भी रोक है। स्विट्जऱलैंड में किसी का नाम पेरिस नहीं रखा जा सकता, न मर्सिडीज़। जर्मनी में अडोल्फ हिटलर, या ओसामा बिन लादेन नामों पर कानूनी रोक है। फ्रांस में मिनी कूपर, नूट्रेला, स्ट्रॉबेरी, जैसे नाम नहीं रखे जा सकते। (rajpathjanpath@gmail.com)