राजपथ - जनपथ

छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : बृजमोहन के विरोध का राज
02-May-2020
छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : बृजमोहन के विरोध का राज

बृजमोहन के विरोध का राज

पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल का शुक्रवार को जन्मदिन था। वैसे तो हर साल बृजमोहन के जन्मदिन पर प्रदेशभर में जलसा होता है। मगर इस बार कोरोना प्रकोप के चलते बृजमोहन ने जन्मदिन नहीं मनाने का निर्णय लिया था। वे होम आइसोलेशन में हैं। और उन्होंने अपने समर्थकों को हिदायत भी दी थी कि वे घर न आएं, लेकिन तमाम हिदायतों के बाद भी बड़ी संख्या में समर्थक बंगले में जुट गए। बस फिर क्या था कांग्रेस प्रवक्ता विकास तिवारी को मौका मिल गया और उन्होंने रेड जोन में होने के बाद भी मंत्री समर्थकों द्वारा लॉकडाउन का उल्लंघन करने पर सोशल मीडिया में जमकर खिंचाई की।

विकास तिवारी पिछले कुछ समय से बृजमोहन के खिलाफ आक्रामक अभियान चला रहे हैं। आमतौर पर कांग्रेस के लोग बृजमोहन के खिलाफ कुछ बोलने से बचते हैं। वजह यह है कि पिछले 15 सालों में सरकार में रहते हुए बृजमोहन ने कांग्रेसी मित्रों का पूरा ख्याल रखा और उनकी निजी जरूरतों को हर संभव पूरा करने की कोशिश की। हालांकि विकास तिवारी भी भाषा पर संयम रखते हुए बृजमोहन के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। वैसे उनका यह अभियान पार्टी से परे, कुछ निजी भी है।

 सुनते हैं कि ब्राम्हणपारा वार्ड में विकास की पत्नी चुनाव मैदान में थी। विकास की पत्नी की जीत सुनिश्चित लग रही थी, तभी बृजमोहन की ब्राम्हणपारा वार्ड में इंट्री हुई और भाजपा की बागी पूर्व पार्षद प्रेम बिरनानी की पत्नी ने अधिकृत प्रत्याशी के पक्ष में नाम वापस ले लिया। बृजमोहन ने यहां रोड शो और डोर-टू-डोर प्रचार किया। इन सबके चलते विकास की पत्नी चुनाव जीतने से रह गईं। चूंकि बृजमोहन ने यहां अतिरिक्त मेहनत कर दी है, तो विकास भी उनके खिलाफ दिन-रात एक कर रहे हैं।लेकिन एक बात और है, राजधानी रायपुर में कांग्रेस के हर नौजवान की हसरत रहती है कि पार्टी उसे बृजमोहन के खिलाफ चुनाव लडऩे का मौका दे. यही हसरत लिए हुए कई नौजवान बूढ़े भी हो गए. इसलिए भी कई कांग्रेसी बृजमोहन के मुकाबले खुद को पेश करने में लगे रहते हैं. चुनाव के वक्त सुना है कि यह बड़े फायदे का भी होता है।

कोटा के बच्चों को प्राथमिकता का कोटा !

राजस्थान के कोटा से हजारों बच्चों को छत्तीसगढ़ सरकार तो लेकर आ गयी, लेकिन समाज के बहुत से तबकों ने सवाल उठाये कि वे वहां पढ़ाई तो नहीं कर रहे थे, वे तो आगे के बड़े कॉलेजों में दाखिले के मुकाबले के लिए कोचिंग ले रहे थे. इस कोचिंग की फीस और वहां रहने का खर्च ही कम से कम लाख रूपये सालाना होता है. ऐसे में सरकार क्यों उनको लाने का खर्च करे? सरकार के लोगों का कहना है कि करीब सौ बसों को हजार किलोमीटर भेजना, वापिस लाना, पुलिस और स्वास्थ्य कर्मचारियों को साथ भेजना, रास्ते के खाने का इंतजाम, और अब 14 दिनों के क्वॉरंटीन का खर्च, कोटा पर राज्य सरकार का एक करोड़ से अधिक का खर्च आ रहा है।

अब लोगों का यह कहना है कि जो मां-बाप लाख रूपए सालाना या और अधिक खर्च करके बच्चों को कोटा में कोचिंग दिला रहे हैं, उन्हें खुद होकर सरकार को यह लागत चुकानी चाहिए। लेकिन अब तक खबरों में हजारों मां-बाप में तो दो-चार की भी मुख्यमंत्री राहत कोष में कोई रकम देने की खबर भी नहीं आई है। सरकारी खजाना तो सभी का होता है, और छत्तीसगढ़ की गरीब आबादी का हक उस पर अधिक है, ऐसे में लोगों को लग रहा है कि गरीब के हक की रकम संपन्न बच्चों पर खर्च की गई, और ये बच्चे कोटा की कोचिंग से लौटकर दूसरे गरीब बच्चों को इन्ट्रेंस एग्जाम में पीछे छोड़ेंगे। लेकिन सरकार का काम इसी तरह चलता है, और उसमें राजनीतिक-न्याय अधिक होता है, सामाजिक-आर्थिक न्याय कम। अब अगर कोटा में पढ़ रहे कुछ हजार बच्चों के समाज में बेहतर हालत वाले मां-बाप की तरह प्रवासी मजदूरों के लिए कहने वाले भी कुछ वजनदार लोग होते तो हो सकता है कि पहली बारी उन लोगों की आती जो कि सडक़ किनारे, बेघर, बेसहारा, बेरोजगार पड़े हुए हैं। अब जब ट्रेन से मजदूरों को उनके इलाकों में पहुंचाने की बात शुरू हुई है, तो केन्द्र और राज्यों के बीच यह बहस भी चल रही है कि ट्रेन का खर्च कौन उठाए। केन्द्र सरकार अगर राज्यों को उसके मजदूरों को पहुंचाने का बिल वसूलने का सोच रही है, तो यह बहुत ही शर्मिंदगी की बात होगी। इस बीच छत्तीसगढ़ में जहां कोटा से लौटे हुए बच्चों को रखा गया है, वे खाना खराब मिलने की शिकायत कर रहे हैं, कई बच्चे और उनके मां-बाप कमरों के एसी न होने की बात कह रहे हैं, कुछ का कहना है कि उन्हें पश्चिमी शैली का शौचालय ही लगता है, और अधिकतर बच्चों ने गद्दे नापसंद कर दिया है। सडक़ किनारे मजदूर इनमें से किसी बात की शिकायत नहीं कर रहे, क्योंकि इनमें से खाना छोड़ उन्हें और कुछ भी नहीं मिल रहा है, और खाने के बारे में अधिकतर जगहों का यह कहना है कि दिन में एक वक्त मिल जाए तो भी बहुत है, और उससे एक वक्त का पेट भी भर पाए तो भी बहुत है। कोटा न हुआ, प्राथमिकता का कोटा हो गया। ऐसे तमाम बच्चों के मां-बाप मुख्यमंत्री राहत कोष में कम से कम 25-25 हजार रूपए तो दें। सरकार तो इन बच्चों के साथ कोटा में अगर मां-बाप भी रह रहे थे, तो उनको भी साथ लेकर आई है, और उनको भी क्वॉरंटीन में ठहराया है।

अकेले भूपेश मैदान में ?

केन्द्र सरकार ने लॉकडाऊन-3 शुरू करते हुए जो निर्देश जारी किए हैं, उनमें 65 बरस से अधिक और 10 बरस से कम उम्र के लोगों को घर से बाहर न निकलने की कड़ी सलाह दी गई है। कहा गया है कि केवल मेडिकल जरूरत पर ही वे बाहर निकलें। अब छत्तीसगढ़ सरकार में एक दिलचस्प तस्वीर बन रही है। विधानसभा अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत, स्वास्थ्य मंत्री टी.एस. सिंहदेव, और गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू सभी 65 बरस से अधिक के बताए जा रहे हैं, और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल इन सबके बीच अकेले हैं जिनका यह पूरा कार्यकाल भी उन्हें 65 तक नहीं पहुंचाएगा। सरकार में ऊंचे ओहदे पर बैठे एक आदमी ने मजाक किया, भूपेश मोदी सरकार के चाहे कितना टकराव मोल लेते हों, मोदी सरकार ने राज्य में अकेले उन्हीं को काम करने का मौका दिया है, बाकी सभी को घर बैठना है।  

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