राजपथ - जनपथ

छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : एक चिठ्ठी से गड़बड़ हुआ मामला
21-May-2020
छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : एक चिठ्ठी से गड़बड़ हुआ मामला

एक चिठ्ठी से गड़बड़ हुआ मामला

सरकारी पत्र व्यवहार में कभी-कभी जरूरत से ज्यादा शालीनता भी  भारी पड़ जाता है। कई अफसर बुरा मान जाते हैं और काम रूक भी जाता है। ऐसा ही एक प्रकरण आईएएस सुश्री रीना बाबा साहेब कंगाले से भी जुड़ा है। सचिव स्तर की रीना बाबा साहेब कंगाले वर्तमान में राज्य चुनाव आयोग में पदस्थ हैं। उनके पास आदिमजाति कल्याण मंत्रालय के साथ-साथ जीएसटी कमिश्नर का प्रभार था।

सरकार ने जब आयोग में मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी सुब्रत साहू की जगह रीना बाबा साहेब की पोस्टिंग के लिए अनुशंसा की गई, तो साथ ही साथ केन्द्रीय चुनाव आयोग से आग्रह किया गया था कि रीना को आयोग के साथ-साथ जीएसटी कमिश्नर के पद पर काम करने की अनुमति दे दें। वैसे भी चुनाव के समय को छोड़ दें, तो बाकी समय में आयोग में कुछ  ज्यादा काम नहीं होता है, ऐसे में मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी को अतिरिक्त जिम्मेदारी संभालने की अनुमति मिल जाती है। सुब्रत साहू भी लोकसभा चुनाव निपटने के बाद आयोग की अनुमति  से मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी के साथ-साथ पंचायत विभाग का दायित्व संभाल रहे थे।

सुनते हैं कि केन्द्रीय मुख्य चुनाव आयुक्त को लिखे पत्र में एक शब्द ऐसा था, जो कि मुख्य चुनाव आयुक्त को पसंद नहीं आया। चर्चा है कि पत्र में मुख्य चुनाव आयुक्त को रिस्पेक्टेड सर की जगह डियर सर संबोधित किया गया था। जिसको लेकर वे काफी खफा हो गए और उन्होंने सरकार के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। हालांकि सरकार की तरफ से अफसरों की कमी को देखते हुए एक सीनियर अफसर ने व्यक्तिगत तौर पर चर्चा की, मगर वे नहीं माने। आखिरकार रीना बाबा साहेब की जगह जीएसटी कमिश्नर के पद पर रमेश शर्मा की पोस्टिंग करनी पड़ी। चर्चा है कि मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त के रिटायर होने के बाद ही रीना को अतिरिक्त पद पर काम करने की अनुमति मिल सकती है।

शुरुआती हड़बड़ी के बाद अब...

अलग-अलग प्रदेशों से मजदूरों की आवाजाही उम्मीद से अधिक बढऩे वाली नहीं है, उम्मीद से अधिक घटने वाली है। कई अलग-अलग राज्यों से आ रही खबरें बताती हैं कि जहां-जहां काम शुरू हो गए हैं, मजदूर वहां से अपने गृह प्रदेश लौटने का इरादा छोड़ रहे हैं। एक तो उन्हें मालिक या ठेकेदार से बकाया वसूलना है, और दूसरी बात यह कि आगे काम भी तो करना है। अपने प्रदेश लौटकर, गांव पहुंचकर किसी काम के मिलने की गारंटी तो है नहीं। इसलिए कई प्रदेशों की ट्रेनें पर्याप्त मुसाफिर नहीं पा रही हैं। उन प्रदेशों को छोडक़र लोग जरूर जा रहे हैं जहां पर कोरोना का प्रकोप बहुत अधिक है। यह जाना बीमारी के डर से अधिक है, भूख और बेरोजगारी से कम। इसलिए तमिलनाडू या महाराष्ट्र जैसे भारी कोरोनाग्रस्त इलाकों से तो मजदूर लौटते रहेंगे, लेकिन बाकी इलाकों में वे काम जारी रख सकते हैं। छत्तीसगढ़ से ही देहरादून लौटने के लिए तय की गई ट्रेन रायपुर स्टेशन पर खाली खड़ी रही, रजिस्ट्रेशन कराने वाले उत्तराखंडी भी नहीं पहुंचे, और ट्रेन रद्द करनी पड़ी।

किसी भी बड़ी बात का ऐसा ही असर होता है। शुरू में भयानक माहौल बनता है, और बाद में वह ठंडा पड़ जाता है। छत्तीसगढ़ में शराब दुकानें खुलीं, तो लाठीचार्ज की नौबत आ गई, अब हाल यह है कि वैसी भीड़ खत्म हो चुकी है, और अधिकतर शराब दुकानों पर लोग धक्का-मुक्की नहीं झेल रहे। राजधानी रायपुर के एक सबसे व्यस्त इलाके, पंडरी की शराब दुकान दोपहर को एक वक्त में बस एक-दो ग्राहक पा रही थी। शुरुआती हड़बड़ी के बाद ऐसा लगता है कि जो मजदूर अब तक लौट नहीं चुके हैं, वे एक बार और सोचेंगे कि अभी लौटें, या काम के इन महीनों में काम में लगें।

मुसीबत में मजे भी कम नहीं है..

मुसीबत का कोई भी दौर सरकार में काम करने वालों के लिए मजे का भी होता है। खतरे और परेशानी के माहौल में किस रेट पर क्या काम करवाया जा रहा है, किस रेट पर कितनी खरीदी हो रही है इसका पता नहीं चलता। कितने फूड पैकेट बांटे गए, कितने जूते-चप्पल बंटे, इसका भी पता नहीं चल रहा है। ओडिशा चूंकि हिन्दुस्तान में समुद्री तूफान झेलने वाला हमेशा ही पहला राज्य रहता है, इसलिए वहां सरकारी मशीनरी को बचाव और राहत के काम में अतिरिक्त खर्च करने का लंबा तजुर्बा। लेकिन सिर्फ इतना नहीं होता, जो अंतरराष्ट्रीय समाजसेवी संगठन ऐसी प्राकृतिक विपदा में काम करते हैं वे भी एयरपोर्ट से तबाही के रास्ते पर सबसे पहले दिखना चाहते हैं ताकि वहां आने वाले मीडिया को भी वे सबसे पहले दिखे, और उन्हें चंदा भी मिले। आज पूरे देश में मजदूरों को राहत में जो अनाज दिया जा रहा है, वह बहुत सी जगहों पर इतना सड़ा हुआ है कि उसको जानवर को भी नहीं खिलाया जा सकता। कर्नाटक में तो मजदूरों को मिले चावल में इल्लियां घूम रही थीं, और उनकी बदबू बर्दाश्त करना भी मुश्किल था। आज यूपी की एक तस्वीर आई है जिसमें राहत में मिले अनाज के चनों पर फफूंद लगी हुई है, और उन्हें जानवरों को भी नहीं खिलाया जा सकता।

बच्चों की पढ़ाई बंद, डॉक्टरों की शुरू

पिछले कुछ दिनों इस अखबार में कई बार यह छपा कि लॉकडाऊन के इस दौर में कैसे लोग अपने आपको बेहतर बना सकते हैं, और कैसे कोई नया हुनर भी सीख सकते हैं। अभी पता लगा कि छत्तीसगढ़ के शिशु रोग विशेषज्ञों की एक संस्था ने ऐसा ही किया। उन्होंने इंटरनेट पर एक एप्लीकेशन के माध्यम से ऐसी वीडियो कांफ्रेंस कराई जिसमें देश के सबसे उम्दा शिशु रोग विशेषज्ञों, और सर्जनों के व्याख्यान करवाए, उनसे सवाल-जवाब का मौका भी शायद मिला ही होगा। इसमें देश-विदेश से कई जगह संपर्क हुआ, और बिना मरीजों के या कम मरीजों के साथ बैठे हुए डॉक्टरों को नया सीखने का मौका मिला, उनका ज्ञान बढ़ा।

एक तो लोग कुछ दहशत में हैं कि वे बिना बहुत जरूरी हुए डॉक्टरों के पास जाना नहीं चाहते, और कुछ तो लोगों के लगातार घर में रहने से उनका किसी भी किस्म का संक्रमण का शिकार होना भी घट गया है। लोग मोटेतौर पर डॉक्टरों की नौबत तक पहुंचना न चाह रहे हैं न पहुंच रहे हैं। ऐसे में खाली बैठे हुए डॉक्टरों ने अपना मेडिकल ज्ञान बढ़ाना तय किया, तो टेक्नालॉजी ने उसके लिए रास्ता खोल दिया। जहां चाह, वहां राह। अभी कल-परसों में ही हमने इस अखबार के संपादकीय में सुझाया था कि जिनकी नौकरी जाने का खतरा हो, या जिनकी नौकरी लगी न हो, उन्हें अपने काम को बेहतर बनाना चाहिए, या कोई नया हुनर सीखना चाहिए। एक बुरा वक्त एक अच्छा अवसर बनकर भी आता है।

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