राजपथ - जनपथ
कांग्रेस के विकल्पहीन लोग...
प्रदेश कांग्रेस संगठन में थोड़ा बहुत बदलाव हो सकता है। खुद प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम कह चुके हैं कि संगठन में अहम पदों पर काबिज कुछ नेताओं को निगम-मंडलों में दायित्व सौंपा गया है। ऐसे नेताओं को संगठन के दायित्व से मुक्त कर किसी दूसरे को जिम्मेदारी दी जाएगी। वैसे तो मरकाम ने किसी का नाम नहीं लिया है, लेकिन पार्टी हल्कों में चर्चा है कि गिरीश देवांगन, रामगोपाल अग्रवाल और शैलेष नितिन त्रिवेदी का विकल्प ढूंढा जा रहा है। मगर वस्तुस्थिति इससे अलग है।
गिरीश खनिज निगम के चेयरमैन का दायित्व संभाल रहे हैं, साथ ही उन पर जिलों में पार्टी दफ्तर बनवाने की जिम्मेदारी भी है। उन्हें राजीव भवन बनवाने का अनुभव है। ऐसे में उनकी जगह किसी और को जिम्मेदारी दी जाएगी, इसकी संभावना कम है। कुछ इसी तरह की स्थिति रामगोपाल अग्रवाल की भी है। रामगोपाल पार्टी का कोष संभालते हैं और सबसे ज्यादा टर्नओवर वाले नागरिक आपूर्ति निगम के चेयरमैन भी हैं।
रामगोपाल की खासियत यह है कि विपरीत परिस्थितियों में भी पार्टी को संसाधनों की कमी नहीं होने दी। सुनते हैं कि एक बार विधानसभा चुनाव के ठीक पहले राहुल गांधी के दौरे के समय डेढ़ करोड़ की जरूरत पड़ गई थी। उन्होंने एक दूसरे राजनीतिक दल के दफ्तर से राशि मंगवाकर जरूरतों को पूरा किया। कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि रामगोपाल का विकल्प सिर्फ रामगोपाल ही हैं। कुछ इसी तरह की शख्सियत शैलेष नितिन त्रिवेदी की है। वे पाठ्य पुस्तक निगम चेयरमैन के साथ-साथ संचार विभाग का दायित्व बखूबी संभाल रहे हैं। ये अलग बात है कि कई और नेता उनकी जगह लेने को उत्सुक हैं, और इसके लिए भरपूर मेहनत भी कर रहे हैं। शैलेश ने कांग्रेस की विचारधारा को जितने अच्छे से समझा है, और जितने अच्छे से वे मीडिया के सामने बोल सकते हैं, वैसे लोग कम ही हैं।
दो दिन पहले संचार विभाग के ताला लगा हुआ दफ्तर का फोटो मोहन मरकाम को भेज दिया गया। उन्हें बताया गया कि मीडिया वाले बाइट लेने आने वाले हैं, लेकिन संचार विभाग के दफ्तर में ताला लगा हुआ है। मरकाम उस समय विधानसभा में थे। उन्होंने तुरंत शैलेष से बात की, शैलेष उस समय पापुनि दफ्तर में थे। शैलेष मीडियावालों के पहुंचने के पहले ही बाइट देने के लिए हाजिर हो गए। ऐसी तत्परता का विकल्प ढूंढना कठिन है।
डिमांड के पहले सप्लाई के खतरे...
सरकार के एक विभाग ने अपने यहां संचालित योजनाओं में पारदर्शिता के बढ़-चढ़कर दावे किए। अफसरों का सुझाव था, कि पारदर्शिता के लिए संस्थान के अधीन सरकारी दूकानों में कैमरे लगवाए जाने चाहिए। फिर क्या था, सप्लायर दौड़ पड़े। एक को काम मिल गया और उन्होंने सभी जगह कैमरे लगवा दिए और बिल पास होने की प्रत्याशा में साढ़े सात फीसदी राशि ऊपर छोड़ आए। बिल विभाग में पहुंचा, तो पता चला कि वर्क ऑर्डर ही नहीं किया गया है। फाइल ज्यों की त्यों पड़ी है, क्योंकि जिन्हें हिस्सा मिलना था वे अब इसमें रूचि नहीं ले रहे हैं। अब हाल यह है कि सप्लायर महीनेभर से इधर-उधर भटक रहा है, लेकिन अभी तक हाथ कुछ नहीं आया है।