राजपथ - जनपथ
प्रदेश की सेहत पर सवाल...
कोराना विशेषकर रायपुर में बेकाबू हो गया है। इससे निपटने के तौर-तरीकों से चिकित्सा जगत के लोग नाखुश हैं। स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव को शालीन और संवेदनशील राजनेता माना जाता है, मगर अब हाल के दिनों में उनका ग्राफ तेजी से गिरा है, और उनकी कार्यक्षमता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। पहली बार मंत्री पद की जिम्मेदारी संभाल रहे सिंहदेव के खिलाफ लोगों का गुस्सा सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों के जरिए सामने आ रहा है। शहर के एक प्रतिष्ठित चिकित्सक ने सिंहदेव की समीक्षा बैठक को एक वाट्सएप ग्रुप में साझा करते हुए लिखा-तंत्र का आतंक इतना होता है कि कोई मंत्रीजी को ठीक से मास्क का उपयोग भी नहीं बताता, नो सोशल डिस्टेंन्सिग!
स्वास्थ्य विभाग की कार्यप्रणाली पर बारीक नजर रखने वाले एक चिकित्सक ने नाम न छापने की शर्त पर यहां तक कहा कि इस महामारी के रोकथाम के विभाग की तैयारी नहीं थी। कोरोना जैसी महामारी सौ साल में एक बार आती है। और विभाग का हाल यह था कि मार्च के महीने में सरकार के एक भी अस्पताल में उपचार की सुविधा नहीं थी। स्वास्थ्य विभाग सरकारी खर्च पर एक निजी अस्पताल में कोराना के इलाज के लिए सुविधाएं मुहैया कराने में जुटा था। बाद में सीएम की फटकार के बाद मेकाहारा को तैयार किया गया।
चिकित्सक मानते हैं कि यदि एम्स न होता तो प्रदेश की दुर्गति हो गई थी। बात यहीं खत्म नहीं होती। कोराना के भयावह दौर में डायरेक्टर महामारी का पद दो महीने खाली रहा। कुछ दिन पहले ही एक नेत्र चिकित्सक की इस पद नियुक्ति की गई। कभी भी न तो आईएमए और न ही नर्सिंग होम संचालकों से सुझाव लिए गए। और तो और पिछले डेढ़ साल से स्वास्थ्य मंत्री की विश्वासपात्र जिस महिला अफसर निहारिका बारिक सिंह की अगुवाई में कोरोना के खिलाफ अभियान चल रहा था वे इस नाजुक दौर में दो साल की छुट्टी पर चली गईं।
एक रिटायर्ड अफसर इस पर हैरानी जताते हुए कहते हैं कि आखिर ऐसे गंभीर हालत में स्वास्थ्य सचिव को क्यों जाने दिया गया? जबकि कुछ साल पहले पोस्टिंग के बाद भी प्रमुख सचिव स्तर की अफसर निधि छिब्बर को प्रदेश में अफसरों की कमी बताकर केन्द्रीय प्रतिनियुक्ति पर जाने से रोक दिया गया था। मगर यह स्वास्थ्य मंत्री की दरियादिली से संभव हो पाया। शुरुआती दौर में जब कोरोना के मामले नहीं थे तब सिंहदेव राष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां बटोर रहे थे और वे यह कहने से नहीं थकते थे कि राहुल गांधी के मार्गदर्शन के चलते छत्तीसगढ़ में कोरोना नियंत्रित है।
मौजूदा जमीनी हालात यह है कि स्वास्थ्य मंत्री के गृह जिले अंबिकापुर के सरकारी अस्पताल में आईसीसीयू की दुर्दशा है। रायपुर की बात करें तो एक प्रशासनिक अफसर यह कहते सुने गए कि वे पिछले चार दिनों में 167 शव गिन चुके हैं। जबकि स्वास्थ्य विभाग अब तक कोरोना से सिर्फ 154 मौतों की पुष्टि कर रहा है। मगर सरकार खामोश है।
अस्पताल बदनाम करने से पहले...
रायपुर के एक सबसे सुविधा-संपन्न निजी अस्पताल, रामकृष्ण केयर हॉस्पिटल के खिलाफ गुमनाम वीडियो अभियान चल रहा है। अनजाने चेहरे, या किसी और प्रदेश के किसी अस्पताल की बदहाली का वीडियो इस अस्पताल का नाम लगाकर फैलाया जा रहा है। अब निजी या सरकारी, मुफ्त या महंगी फीस वाले, हर किस्म के अस्पताल में काम करने वाले लोगों का हाल बहुत खराब है। रामकृष्ण में डॉक्टर और कर्मचारी मरीजों के साथ रहते हुए खुद भी कोरोना पॉजिटिव हो रहे हैं, उन्हें ड्यूटी से अलग किया जा रहा है, उनका इलाज हो रहा है, और वे ठीक होकर फिर ड्यूटी पर आ रहे हैं। लेकिन ऐसे में उनके खिलाफ कोई सच्चा वीडियो होता, तो भी कोई बात होती, झूठा वीडियो लोगों के दिल को तोडऩे वाला रहता है। फीस तो हर अस्पताल अपनी सहूलियतों के हिसाब से लेता ही है, कोई कम सहूलियतों वाला रहता है, और फीस भी कम रहती है, कहीं पर सुविधाएं अधिक रहती हैं, और फीस भी। आज कोरोना के खतरे के बीच काम करने वाले सरकारी या निजी, किसी भी अस्पताल के नाम से फैलते हुए वीडियो की सच्चाई को पहले परख लेना चाहिए, तभी आगे बढ़ाना चाहिए। वरना खुद को उस अस्पताल में जाने की जरूरत पड़ी तो पता लगेगा कि वहां नाराज लोग तोडफ़ोड़ में अस्पताल बर्बाद कर गए हैं, या ऐसे मौके पर डॉक्टर-नर्स काम छोड़ गए हैं। जो लोग जिंदगी बचाने में लगे हैं उनको इतना तबाह भी नहीं करना चाहिए कि वे काम करने लायक न रह जाएं।
नंबर तो रॉंग है, पर मत मिटाएं!
लोगों के पास अब आसानी से फोन आ गए हैं। एक वक्त था जब पांच-पांच साल की कतार लगी रहती थी, और अधिक पहुंच वाले लोग केन्द्रीय संचार मंत्री के कोटे से टेलीफोन कनेक्शन पाते थे, जब घर पर फोन का बक्सा लगता था, तो दो दिन पहले कोई तार खींचने आते थे, फिर बक्सा लगाने, फिर लाईन शुरू करने, और आखिर में बख्शीश लेने। इसके बाद लोग उससे फोन लगाकर रिश्तेदारों को बताते थे कि फोन शुरू हो गया है। दूसरे शहर फोन लगाना रहता था, तो टेलीफोन एक्सचेंज से कॉलबुक करके दो-चार दिन तक इंतजार करना पड़ता था, तब कहीं बात हो पाती थी। अब सडक़ किनारे रंगीन छतरियां लगाकर छोकरे मोबाइल के सिमकार्ड बेचते हैं, और सडक़ पर खड़े-खड़े फोन कनेक्शन शुरू हो जाता है। लेकिन लोगों के पास फोन तो आ गए, फोन पर बात करने का सलीका नहीं आया।
कुछ लोग फोन लगाते हैं, और उठाने वाले से पूछते हैं कि वे कौन बोल रहे हैं। जिसने फोन लगाया है वे अपना नाम बताएं, यह सलीका होना चाहिए, लेकिन लोगों को जवाब मांगने की आदत पड़ी रहती है। अभी इस अखबारनवीस को कई बरस बाद एक परिचित महिला पत्रकार की एक अच्छी रिपोर्ट पढऩे मिली, तो उसे फोन लगा लिया। फोन किसी अनजानी आवाज ने उठाया, तो पता लगा कि यह नंबर कई बरस से किसी दूसरी महिला के पास आ गया है। माफी मांगते हुए फोन काटने की कोशिश की, तो उस महिला ने बड़ी उत्सुकता से और कई जानकारियां पूछीं, कौन हैं, क्या करते हैं, किस शहर में रहते हैं वगैरह-वगैरह। उन्हें कहा कि यह नंबर बदल जाने की खबर नहीं थी, अब फोनबुक से इस नंबर को हटा देते हैं। इस पर उस महिला ने हड़बड़ाकर कहा- नहीं-नहीं, ये नंबर रखे रहिए, आपके पास ये नंबर रहेगा, तो कभी मेरी कोई जरूरत रही, तो आप काम आ जाएंगे।
अब एक रॉंग नंबर लगने से, एक ही कॉल में बात बढ़ते-बढ़ते आगे मददगार बनने तक आ गई, ऐसे में वह नंबर मिटाया जाए या न मिटाया जाए?
अभी एक कार्टूनिस्ट कीर्तिश भट्ट ने फेसबुक पर लिखा- महिला को विभाजी से बात करनी थी, मैंने कहा- ये विभाजी का नंबर नहीं है, तो मुझसे ही पूछ रही थी- तो ये क्या रॉंग नंबर है क्या सर? दुनिया में कैसे गजब के मासूम लोग होते हैं...
अब हो भी क्या सकता है, फोन को इस्तेमाल करने का तरीका तो दुकानदार सिखा देते हैं, सिम को इस्तेमाल करने का तरीका मोबाइल कंपनी के लोग या उसके सेल्समैन सडक़ किनारे सिखा देते हैं, लेकिन बात कैसी करें इसे तो कोई सिखाता नहीं।
झामसिंह के परिवार को न्याय मिलेगा?
मध्यप्रदेश पुलिस ने छत्तीसगढ़ की सीमा में घुसकर दो आदिवासियों पर गोली चला दी। झामसिंह धुर्वे और उसके चचेरे भाई नेमसिंह को नक्सलियों की टोह लेने के लिये गश्त लगा रही एमपी पुलिस ने ललकारा। दोनों घबरा गये और भागने लगे थे। गोली लगने से झामसिंह की मौत हो गई। घटना कवर्धा इलाके के बालसमुंद गांव की है जो वन एवं विधि विभाग के मंत्री मो. अकबर का क्षेत्र है। छत्तीसगढ़ सरकार ने तथ्य जुटाए हैं कि इन दोनों का किसी नक्सली गतिविधियों में हाथ नहीं रहा। वे मछली मारने गये थे और पुलिस को देखकर डर गये थे। छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से मध्यप्रदेश सरकार से कई बार इस दोषी पुलिस कर्मियों पर कार्रवाई के लिये कहा जा चुका है। अब इस मामले में छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनुसूईया उइके भी मध्यप्रदेश की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल से बात करने वाली हैं। हो सकता है कि छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश में विरोधी दलों की सरकारें होने के कारण जांच और कार्रवाई प्रतिष्ठा का सवाल बन गया हो। सरकारें एक हों- फिर भी, यूपी की तरह तो मध्यप्रदेश में नहीं होना चाहिये। गलती हुई है तो मान ली जाये और दोषियों पर कार्रवाई हो।