राजपथ - जनपथ
रायबरेली सबपे भारी
रायबरेली के संस्कृत शोध संस्थान के प्रमुख रहे डॉ. शिव वरण शुक्ल को छत्तीसगढ़ निजी विश्वविद्यालय विनियामक आयोग को अध्यक्ष का दायित्व सौंपा गया है। डॉ. शुक्ल पिछले पांच साल से आयोग के सदस्य के रूप में काम कर रहे थे, उन्हें पिछली सरकार में तत्कालीन राज्यपाल बलरामजी दास टंडन यहां लेकर आए थे। डॉ. शुक्ल को आरएसएस का करीबी समझा जाता है।
हालांकि अध्यक्ष पद पर डॉ. शुक्ल सिर्फ डेढ़ साल ही रह पाएंगे, क्योंकि अध्यक्ष पद पर अधिकतम तीन साल या 70 वर्ष की आयु, जो भी पहले हो, तक रह सकते हैं। डॉ. शुक्ल के 70 वर्ष पूरे होने में डेढ़ साल बाकी हैं। मगर उन्हें मौजूदा सरकार में अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी गई, तो कानाफूसी शुरू हो गई।
सुनते हैं कि अध्यक्ष पद की दौड़ में पांच-छह शिक्षाविद थे। चूंकि डॉ. शुक्ल सोनिया गांधी के निर्वाचन क्षेत्र के रहवासी हैं, इसलिए सब पर भारी पड़ गए। चर्चा है कि डॉ. शुक्ल के नाम की सिफारिश कांग्रेस के एक राष्ट्रीय नेता ने की थी। वैसे भी सरकार सोनिया के क्षेत्र के आरएसएस समर्थक को भी नजरअंदाज नहीं कर सकती थी। ऐसे में स्वाभाविक है कि शुक्लजी के नाम पर मुहर लगनी ही थी। संघ के नाम पर राज्यपाल, और रायबरेली के नाम पर मुख्यमंत्री, दोनों सहमत !
बस्तर और बिहार
बिहार भाजपा के उपाध्यक्ष राजेन्द्र सिंह दो दिन पहले लोक जनशक्ति पार्टी में शामिल हो गए। आप सोच रहे होंगे कि राजेन्द्र सिंह का यहां जिक्र क्यों किया जा रहा है। दरअसल, राजेन्द्र सिंह छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में बस्तर भाजपा के प्रभारी थे। वे सौदान सिंह के बेहद करीबी माने जाते रहे हैं। बस्तर में राजेन्द्र सिंह की काफी धमक रही है। वे बिहार से पूरी टीम लेकर आए थे। और प्रचार खत्म होने तक डटे रहे। प्रत्याशियों को चुनावी फंड भी राजेन्द्र सिंह की निगरानी में बंटता था।
पार्टी के एक नेता याद करते हैं कि आमतौर पर पार्टी दफ्तर में आगन्तुकों के लिए शाकाहारी भोजन का इंतजाम किया जाता है, लेकिन बिहार से राजेन्द्र सिंह संग आए नेताओं ने कांकेर में चिकन की मांग कर दी। इस पर स्थानीय नेताओं के साथ काफी वाद विवाद भी हुआ था। चुनावी नतीजे का हाल यह रहा कि बस्तर में भाजपा का सफाया हो गया। सिर्फ किसी तरह दंतेवाड़ा सीट जीत पाई थी। अब सौदान सिंह, बिहार में पार्टी का चुनाव अभियान संभाल रहे हैं, तो उनके करीबी राजेन्द्र सिंह साथ छोड़ गए हैं। सौदान सिंह अपने करीबी को पार्टी छोडऩे से नहीं रोक पाए, इसकी पार्टी के अंदरखाने में काफी चर्चा हो रही है।
चाय-पानी में भी आना-कानी !
नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक काफी समय बाद बस्तर के दौरे पर निकले। बस्तर में नक्सल घटना में बढ़ोत्तरी और पीडीएस में गड़बड़ी पर लोगों का ध्यान आकृष्ट कराना उनका मुख्य ध्येय था। वे स्थानीय कार्यकर्ताओं से रूबरू हुए, लेकिन ज्यादातर नेता प्रदेश भाजपा की नई कार्यकारिणी से खुश नहीं थे। इसलिए उन्होंने नेता प्रतिपक्ष के दौरे को महत्व नहीं दिया। कांकेर में तो हाल और बुरा था।
पार्टी संगठन को सूचना देने के बाद कौशिक कांकेर पहुंचे, तो कुछ पदाधिकारी मिलने पहुंच गए। मगर जिलाध्यक्ष ने तो मेल मुलाकात करने में रूचि तक नहीं दिखाई। थके हारे कौशिक ने स्थानीय नेताओं से कॉफी पीने की इच्छा जताई। दो-तीन बार कहने के बाद उनके लिए कॉफी तो नहीं आई, किसी तरह काली चाय का इंतजाम किया गया। प्रदेश में सरकार थी, तो सारा इंतजाम पहले से ही हो जाता था। अब हाल यह है कि कार्यकर्ता चाय-पानी का इंतजाम करने में भी आना-कानी करने लगे हैं।
अब तक हुई 1769 निर्दोष आदिवासियों की हत्या!
उत्तर पूर्व और कश्मीर में जब उग्रवाद और आतंक की घटनायें होती हैं तो बड़ी सुर्खियां बनती है पर बस्तर में होने वाली हिंसक घटनाओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है। बस्तर आईजी ने एक बयान में बताया है कि राज्य बनने के बाद से अब तक बस्तर में माओवादियों ने 1796 निर्दोष ग्रामीणों की हत्या कर दी है। इनमें बस्तर में तैनात सुरक्षा बलों का आंकड़ा शामिल नहीं है। अपने प्रधानमंत्रित्व काल में मनमोहन सिंह ने एक बार सही कहा था कि आतंकवाद से ज्यादा बड़ी समस्या बस्तर की हिंसा की है। जिन आदिवासियों के हित और अधिकारों की लड़ाई लडऩे की बात माओवादी करते हैं, उन्हीं के बीच से इतनी हत्यायें हैरान करने वाली हैं। कारण कुछ भी बताया जा सकता है, जैसे पुलिस की मुखबिरी करना, गोपनीय सैनिक होना। बीते कुछ दिनों से राष्ट्रीय स्तर पर चलने वाली किसी बड़ी घटना को अंजाम नहीं दिया है पर हत्यायें आये दिन हो रही हैं। दो तीन दिन पहले ही दो लोगों की हत्या कर दी गई थी। ताजा खबर है कि बीजापुर में नक्सलियों ने अपने ही पांच साथियों की हत्या कर दी जिन्होंने अपने लीडर की बात मानने से मना कर दिया था। आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, यहां तक कि मध्यप्रदेश में भी नक्सल हिंसा पर काफी हद तक नियंत्रण पाया जा चुका है। छत्तीसगढ़ में लम्बे समय तक बड़ी हिंसक घटना नहीं होती तो लगता है उनका खात्मा हो रहा है पर एकाएक बड़ी वारदात हो जाती है जो भ्रम तोड़ देती है।
कैसा होगा छत्तीसगढ़ का अपना कृषि कानून
केन्द्र सरकार के कृषि बिल का कांग्रेस पूरे प्रदेश में विरोध कर रही है। हाथरस के मामले में भी धरना प्रदर्शन हो रहा है। माहौल अच्छा है। कांग्रेसियों को आंदोलन करने का बीते 15-20 सालों का अनुभव रहा है, वह काम आ रहा है। छत्तीसगढ़ सरकार ने केन्द्र के कृषि बिल को प्रदेश में लागू नहीं करने का फैसला लिया है। यह कहा है कि वह अपना नया कानून बनायेगी। संविधान को समझने वाले बताते हैं कि खेती राज्य का विषय है। केन्द्र को इस पर कानून नहीं बनाना चाहिये। विरोध का एक बड़ा कारण यह भी है। छत्तीसगढ़ में समर्थन मूल्य पर धान भी खरीदा जायेगा, सहकारी समितियों और मंडियों की व्यवस्था भी बनी रहेगी। पर नया कानून कैसा हो इस पर कांग्रेस के धरना आंदोलनों में बात नहीं हो रही है। जब नया कानून बन ही रहा है तो कई परेशानियों को हल किया जाना चाहिये, जो खासकर सीमांत और मंझोले किसान दशकों से झेल रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि बीते एक दशक में 12 फीसदी किसान घट गये। इनमें 90 फीसदी किसान वे हैं जिनके पास खेत का छोटा सा ही टुकड़ा था। शादी, ब्याह, बीमारी, छत, उधारी का बड़ा कोई खर्च आया, बंटवारा हुआ तो खेत बिक गया। अब वे या तो खेतिहर मजदूर बन गये, शहर आकर इमारतें बनाने लगे या फिर दूसरे प्रदेशों में कमाने-खाने चले गये। प्रदेश में 37 लाख 46 हजार किसान हैं जिनमें से 30 लाख सीमांत किसानों की संख्या है यानि उनके पास 2 एकड़ से कम जमीन है। छत्तीसगढ़ कृषि भूमि के व्यापक व विविधतापूर्वक व्यावसायिक उपयोग की जागरूकता नहीं है। 90 फीसदी किसान दो बार फसल नहीं ले पाते। इन 20 सालों में सिंचाई का रकबा 32 प्रतिशत तक जा पहुंचा है जो पहले 19 था, सिंचाई क्षमता में अपेक्षित विस्तार नहीं हुआ पर बारिश अच्छी होती है, लगभग 1200 मिमी हर साल। धान की कीमत पर सरकारी बोनस ने उन्हें बाकी लाभदायी फसलों को लेने के लिये उत्सुक नहीं हैं। ऐसे बहुत से सवाल है। जिस तरह सरकार ने प्रदेश की औद्योगिक नीति उद्योगजगत के लोगों से मशविरा लेकर तैयार किया था, कृषि विशेषज्ञों की सलाह लेनी होगी, जिसमें सबसे निचले स्तर के किसान की राय को भी सुना जाये।