राजपथ - जनपथ
राजिम कुंभ के बाद...
सरकार बदलने के बाद राजिम कुंभ अब मेले में तब्दील हो गया है। पिछली सरकार में कुंभ के नाम पर पखवाड़ेभर रौकन रहती थी, और महाशिवरात्रि में अंतिम शाही स्नान के साथ कुंभ का समापन होता था। स्वाभाविक है कि मेले में पहले जैसी भव्यता नहीं रहती है। यद्यपि मेला ही मूलस्वरूप है।
राजिम कुंभ के आयोजन से पिछली सरकार को कोई फायदा हुआ हो या न हो, मगर बृजमोहन अग्रवाल को जरूर इसका फायदा हुआ। मेले को कुंभ का स्वरूप देने का श्रेय बृजमोहन को जाता है, और पिछले 15 साल में वे इस आयोजन के कर्ता-धर्ता रहे हैं। सरकारी खर्च में साधु संतों की खूब मेहमान नवाजी होती थी। उन्हें देश के अलग-अलग हिस्सों के कलाकार और साधु संत पहचानने लग गए थे।
एक दफा वे केदारनाथ गए, तो वहां उन्हें साधुओं ने पहचान लिया। और तो और उनके पीए मनोज शुक्ला गुजरात के जूनागढ़ गए, तो वहां साधु उनसे मिलने दौड़ पड़े कि देखो मंत्री का आदमी आया है। कुल मिलाकर राजिम कुंभ से बृजमोहन को पहचान मिली।
बैस का सर्वदलीय अभिनंदन
वैसे तो राज्यपाल की नियुक्तियां प्राय: राजनैतिक होती हैं, पर पद पर आसीन के बाद तटस्थ रहना जरूरी हो जाता है। प्रदेश की राजनीति में एक वक्त मुख्यमंत्री के दावेदार समझे जाने वाले रमेश बैस अब त्रिपुरा के राज्यपाल हैं। बैस 16 फरवरी को बलौदाबाजार पहुंच रहे हैं। यहां उनका नागरिक अभिनंदन किया जाना है। इसमें सभी राजनीतिक दलों के लोग शामिल होने वाले हैं। सर्वदलीय बैठक भी हो चुकी है। बैस की टिकट रणनीति के तहत बाकी सांसदों के साथ पिछले लोकसभा चुनाव में काट दी गई थी। तब उनके समर्थकों ने इसका खुलेआम विरोध भी किया था। हालांकि पूरे मसले पर बैस सहज सी प्रतिक्रिया देकर शांत ही रहे। बैस जब राजनीति में रहे तब भी विवाद में पडऩे से बचते रहे जो उनके प्रतिद्वन्दी नेताओं के लिये सुविधाजनक होता था। छत्तीसगढ़ के स्व. मोतीलाल वोरा सहित देश में अनेक राज्यपाल रहे हैं जो कार्यकाल खत्म होने के बाद फिर फ्रंटलाइन की राजनीति में आ गये। बैस का तो काफी समय बचा है पर सेवानिवृत्ति के बाद वे क्या ऐसा करेंगे, यह उनके विरोधी रहे लोगों को ज्यादा पता होगा।
मेडिकल कॉलेज का सरकारीकरण
सीएम भूपेश बघेल ने चंदूलाल चंद्राकर निजी मेडिकल कॉलेज को सरकारी करने की घोषणा से हर कोई भौचक्का रह गया। कॉलेज की माली हालत खराब है, और मान्यता भी खतरे में है। इससे विद्यार्थियों का भविष्य भी अधर में था। विद्यार्थियों और मेडिकल शिक्षा को लेकर तो यह ऐतिहासिक फैसला था, लेकिन इसके संचालकों के लिए फैसला शायद असहज हो।
सुनते हैं कि कॉलेज पर करीब सवा सौ करोड़ का कर्जा था। बैंक 90 करोड़ में सेटलमेंट के लिए तैयार है। चर्चा यह भी है कि भिलाई के ही एक और कॉलेज संचालक ने मेडिकल कॉलेज को खरीदने की तैयारी की थी, और कहा जाता है कि 30 करोड़ रूपए निवेश भी कर दिए थे। बाद में कॉलेज संचालक खुद दूसरे मामले में उलझ गए, और यह डील खटाई में पड़ गई। इसी तरह एक नर्सिंग होम संचालक ने भी कॉलेज खरीदने के लिए कुछ कोशिशें की थीं। उन्होंने भी कुछ खर्च किया था, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ पाई। अब सरकारीकरण का फैसला हो गया है, तो इन निजी निवेशकों का क्या होगा, यह सवाल अभी बाकी है।
चश्मदीद बालक की मुसीबत
खुड़मुड़ा (अमलेश्वर) में दिसम्बर माह में हुई सामूहिक हत्या का अब तक सुराग नहीं लगना पुलिस के लिये बड़ी समस्या बनी हुई है। जिन चार लोगों की हत्या हुई, वे सोनकर समाज के थे। सोनकर समाज ने आरोपियों का जल्द पता लगाकर गिरफ्तारी करने की मांग पर पिछले माह कई जगहों पर कैंडल मार्च भी निकाला था। इन सबके बीच घटना के एकमात्र चश्मदीद गवाह जीवित बच गये 11 साल के दुर्गेश की सामान्य दिनचर्या छिन गई है। उसकी समस्या भी पुलिस से कम नहीं। अपराधियों को पकड़े जाने से लेकर सजा दिलाने तक दुर्गेश की खास भूमिका रहने वाली है। इसलिये उसे पुलिस ने अपने पहरे में रखा है। सादी वर्दी में पुलिस वाले उनके साथ साये की तरह लगे हुए हैं। उसे ज्यादा मेल-जोल करने की इजाजत भी नहीं है। पुलिस को लगता है कि कोई नजदीकी रिश्तेदार भी घटना में शामिल हो सकता है, इसलिये उसे रिश्तेदारों से भी मिलने के दौरान निगाह में रखा जा रहा है। घटना को डेढ़ माह से ज्यादा बीत चुके हैं। अपराधी पकड़े जायें तो दुर्गेश को भी कुछ राहत मिले।
क्या सुधर पायेगी पुलिस की छवि
पुलिस महानिदेशक ने एक समाधान सेल बनाया है। इसके तहत कोई भी व्यक्ति थाने से राहत नहीं मिलने पर सीधे इस सेल में शिकायत कर सकता है। इसमें ऑनलाइन शिकायत और वाट्सअप मेसैज दोनों की सुविधा दी गई है। थानों में अक्सर लोगों की रिपोर्ट नहीं लिखे जाने की शिकायत आती है। रिपोर्ट लिखने के बाद हस्तक्षेप अयोग्य अपराध भी बता दिया जाता है। अब ऐसी शिकायतें समाधान सेल में आने पर सीधे सम्बन्धित जिलों के कप्तान के अलावा थाना प्रभारियों के पास भी भेजी जायेगी। जाहिर है, कोताही बरतने पर सर्विस रिकॉर्ड में भी यह दर्ज होगा। क्या यह मुमकिन है कि प्रदेशभर के थानों की सीधे मुख्यालय से निगरानी हो? शिकायतें आना और उन्हें वापस उसी जिले में फॉरवर्ड करने की प्रक्रिया कहीं खानापूर्ति बनकर ही न रह जाये।