राजपथ - जनपथ
संजय शुक्ल और हुडको
पीसीसीएफ स्तर के अफसर संजय शुक्ला केन्द्र सरकार में प्रतिनियुक्ति पर जा सकते हैं। राज्य सरकार की सहमति के बाद उन्होंने हुडको चेयरमैन के लिए आवेदन दिया है। 87 बैच के आईएफएस अफसर संजय शुक्ला हाऊसिंग बोर्ड के 4 साल कमिश्नर रहे हैं। वे लंबे समय तक आवास-पर्यावरण विभाग के सचिव भी रहे। कुल मिलाकर संजय हुडको चेयरमैन के लिए सारी जरूरी योग्यता को पूरी करते हैं। हुडको चेयरमैन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर आवेदन बुलाए गए थे।
अब संजय हुडको चेयरमैन बन पाएंगे अथवा नहीं, इस पर प्रशासनिक हल्कों में चर्चा हो रही है। दरअसल, कुछ साल पहले यूपीए सरकार में पी जॉय उम्मेन ने सीएस रहते हुडको चेयरमैन के लिए आवेदन किया था। वे एनआरडीए के चेयरमैन भी थे। सारे समीकरण उनके पक्ष में थे। उस वक्त यूपीए सरकार की ब्यूरोक्रेसी में केरल लाबी का दबदबा भी था। कहा जाता है कि तत्कालीन रक्षामंत्री एके एंटनी ने भी उम्मेन को हुडको चेयरमैन बनाने की सिफारिश भी की थी। उनका नाम पैनल में भी था।
बावजूद इसके वे हुडको चेयरमैन नहीं बन सके। पिछले सालों के अनुभवों को देखकर यह जरूर कहा जा सकता है कि संजय के लिए हुडको चेयरमैन की राह आसान नहीं है। मगर मुश्किल भी नहीं है। मोदी सरकार ने तो चीफ इलेक्शन कमिश्नर पद पर इतिहास में पहली बार आईआरएस अफसर सुशील चंद्रा की नियुक्ति की है। ऐसे में हुडको चेयरमैन पद पर आईएफएस अफसर की नियुक्ति हो जाती है, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
भाजपा और भूपेश
कोरोना वैक्सीनेशन पर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष विष्णुदेव साय के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल ने सीएम से रू ब रू बातचीत के लिए समय मांगा, तो सीएम ने उन्हें वर्चुअल बैठक के लिए समय दिया। इसके लिए भाजपा नेता तैयार नहीं हुए, और उन्होंने सीएम के साथ वर्चुअल बैठक करने का प्रस्ताव अमान्य कर दिया। भाजपा के कुछ नेता साय से इस बात को लेकर खिन्न थे कि उन्होंने सीएम से चर्चा के लिए समय ही क्यों मांगा?
अंदर की खबर यह है कि साय ने पार्टी हाईकमान के कहने पर ही सीएम से मिलने का समय मांगा था। चर्चा है कि राष्ट्रीय महामंत्री (संगठन) बीएल संतोष ने प्रदेश के नेताओं के साथ कोरोना संक्रमण-वैक्सीनेशन पर चर्चा की थी, और उन्होंने कहा था कि पार्टी के प्रतिनिधि मंडल को सीएम से मिलना चाहिए, और वैक्सीनेशन बेहतर ढंग से हो सके, इसको लेकर पार्टी की तरफ से सुझाव देना चाहिए। अब रू ब रू बैठक नहीं हुई, तो पार्टी नेताओं ने मीडिया के माध्यम से खीझ निकालते हुए कुछ सुझाव दे दिए।
देबू की जमीन हमें भी लौटा दो....
देश में जब आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ, तब बहुत सी विदेशी कंपनियों ने यहां निवेश किया। कोरबा जिले के रिस्दी ग्राम में दक्षिण कोरियाई कंपनी देबू ने पॉवर प्लांट लगाने के लिए जमीन खरीदी। यह सन् 1998 की बात है। उसके बाद समय का चक्र कुछ ऐसा फिरा की देबू के मालिक किम वू चोंग दिवालिया हो गए। 18 महीने जेल में बिताये। एक वक्त अरबों के मालिक रहे चोंग को एक छोटे कमरे में सीलिंग फैन व एक पलंग के सहारे सजा काटते हुए तस्वीर भी उस वक्त खूब छपी थी। बाद में वहां के राष्ट्रपति ने उन्हें क्षमा याचना दी। फिर दो साल पहले उनकी मौत भी हो चुकी है। देबू की परियोजनाओं में देश की कई कंपनियों ने पैसे लगाये। बैंकों का कई हजार करोड़ कर्ज भी रह गया। देश के कई भागों में कम्पनी की जमीन नीलाम करने की प्रक्रिया भी या तो पूरी हो गई है या फिर चल रही है।
उपरोक्त परिस्थितियों के बीच बीते 23 साल में रिस्दी गांव में पॉवर प्लांट की एक ईंट भी नहीं रखी जा सकी। लोगों ने अपनी जमीन पर फिर काबिज होना, खेती करना मकान बनाना शुरू किया। अब वह जमीन के पुराने मालिकों से फिर आबाद हो गई है। पर, दो दिनों से यहां बड़ी हलचल हो रही है। राजस्व अधिकारियों ने अचानक यहां पहुंचकर जमीन की नाप-जोख शुरू कर दी है। ग्रामीण घबराये हुए हैं कहीं उन्हें बेदखल तो नहीं किया जा रहा है? राजस्व अधिकारी कह रहे हैं कि देबू की जमीन के अलावा कुछ सरकारी जमीन भी यहां है शिकायत मिली है कि देबू की आड़ में उस पर भी कब्जा कर लिया गया है। सच यही है या फिर किसी नीलामी की तैयारी हो रही है?
रिस्दी के ग्रामीणों का कहना है कि बस्तर में पांच साल तक प्लांट शुरू नहीं करने वालों की जमीन भूपेश सरकार ने वापस दिलाई है। यह चुनावी वादा भी था। फिर कोरबा जिले में सरकार ऐसा क्यों नहीं कर सकती? वैसे भी कंपनी ने पक्की नौकरी, पक्का मकान और मुआवजा देने का अपना वादा पूरा नहीं किया।
कोरोना को भगाने अस्पताल में हवन
अपने धर्मपरायण देश में यज्ञ हवन से लाभ के वैज्ञानिक तर्क दिये जाते हैं। हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय यज्ञ दिवस पर कई आध्यात्मिक, धार्मिक संगठनों ने यज्ञ कुंड बनाकर हवन का आयोजन किया। लॉकडाउन के दौरान, दावा है इससे कोरोना वायरस को भगाने में मदद मिलेगी। कुछ लोगों ने इसे यज्ञोपैथी नाम भी दिया है। यह नया नाम लग रहा है। हवन के धुएं से प्रकृति और वातावरण को किसी तरह का लाभ होता है या नहीं, इस पर तो शोध करने वाले लोग ही बता सकेंगे, लेकिन किसी डॉक्टर को तो अपनी उसी पद्धति पर विश्वास रखना चाहिये जिस पर उनकी पढ़ाई हुई है। पर कांकेर जिले के एक ग्राम पंचायत में सरकारी आयुर्वेदिक डॉक्टर की अगुवाई में अस्पताल के भीतर ही हवन का आयोजन किया गया। गांव के लोग इसमें कथित रूप से सोशल डिस्टेंस का पालन करते हुए शामिल हुए। बाद में डॉक्टर ने इसका ‘महत्व’ भी मीडिया को बताया। लोगों में कोरोना का भय व्याप्त है। किसी भी चिकित्सा पद्धति में अब तक इसका रामबाण इलाज नहीं आने के कारण लोगों का विश्वास वैसे भी डगमगा रहा है। ऐसी स्थिति में क्या यह यह डॉक्टर ठीक कर रहे हैं, कह रहे हैं?
गांवों में डॉक्टरों की कमी का हल
कोरोना संक्रमण के दौर में चिकित्सा सेवा के लिए मानव संसाधन की बड़ी कमी महसूस की जा रही है। इन दिनों ग्रामीण क्षेत्रों में संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं तो दूसरी ओर टीकाकरण की गति भी धीमी है। शिक्षक, पंचायत प्रतिनिधि, स्वास्थ्य कार्यकर्ता, मितानिन के ऊपर नीम हकीम और झाड़-फूंक करने वाले भारी पड़ रहे हैं। सर्दी बुखार के मरीजों को वे अपने हिसाब से दवाएं दे रहे हैं। इससे ग्रामीणों की जान जोखिम में तो है ही, महामारी के सही सही आंकड़े भी सामने नहीं आ पा रहे हैं।
राज्य के पहले मुख्यमंत्री स्व. अजीत जोगी ने ग्रामीण क्षेत्रों की आम बीमारियों को ध्यान में रखते हुए सहायक चिकित्सकों का एक तीन साल का पाठ्यक्रम शुरू किया था। इसका एक बैच निकला ही था कि डॉक्टरों का संगठन इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चला गया। इस पर रोक लग गई। तब छत्तीसगढ़ में इस पाठ्यक्रम के लिए खोले गए कॉलेज भी बंद हो गये। उसके बाद केंद्र सरकार ने एक नया मिलता-जुलता पाठ्यक्रम बैचलर ऑफ कम्युनिटी मेडिसिन तैयार किया। इस डिग्री के धारक गांव में दवाएं देने, इंजेक्शन लगाने और थोड़ी बहुत चीर-फाड़ कर सकत हैं, भले ही उन्हें डॉक्टर नहीं कहा जायेगा।
यह कोर्स छत्तीसगढ़ में दुबारा न तो भाजपा के समय शुरू हो पाया न ही अब। एक वर्ग का मानना है कि गांवों की आम बीमारियों को ठीक करने में ये बैचलर डिग्री होल्डर बहुत काम आ सकते हैं। इससे गांवों में एमबीबीएस डॉक्टरों की कमी काफी हद तक दूर की जा सकेगी। जटिल बीमारियों में तो मरीज को शहर या सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र भेजा ही जायेगा। इसका लाभ यह भी होगा कि लोग झोलाछाप डॉक्टरों या दवा दुकानदारों के सुझाए हुए दवाओं से बचेंगे। भविष्य के टीकाकरण जैसे अभियानों में ग्रेजुएट की मदद मिलेगी। अब तक के एकमात्र बैच में निकले सहायक चिकित्सक अलग-अलग जिलों के गांवों में रहकर काम कर भी रहे हैं। यह विषय इसलिये फिर चर्चा में है कि महामारी के संदर्भ में विधायक डॉ. रेणु जोगी ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन को पत्र लिखकरर यह पाठ्यक्रम शुरू करने की मांग की है। हो सकता है कि इस पाठ्यक्रम में कुछ कमियां हों, जैसा कि एमबीबीएस डॉक्टर्स बताते हैं, पर मौजूदा परिस्थितियों ऐसी है कि इस विषय पर विचार तो करना ही चाहिये।