राजपथ - जनपथ
नागों ने अब अपना चेहरा बदल लिया...
कभी नागपंचमी पर दंगल होते थे, पर अब अखाड़ा-कुश्ती का नहीं, जिम का दौर है। फूड सप्लीमेंट पर अधिक ध्यान दिया जाता है। खेतों में कीटनाशकों ने नाग और सर्पों का बड़ा विनाश किया है। नाग अब गांव-देहात में नहीं शहरों में, रूप बदल कर रहते हैं। लेकिन आस्तीन के सांप सर्वत्र मिल जाते हैं।
कहते हैं नाग खजाने की रक्षा करता है। पर अब ये नाग जमाखोरी, कालाबाजारी, रिश्वतखोरी या फिर काले-पीले धंधे से सात पीढिय़ों के लिए धन अर्जित करते हैं और उस पर कुंडली मार कर बेहद कंजूसी से जीते हैं। उनका धन समाज या उनके लिए नहीं, दीमक के काम आएगा।
दहेज का नाग बहुत जहरीला है। जाने कितने घरों में इसके दंश से हर साल महिलाएं शिकार बन रही हैं या फिर बेटियां घर में सहमी हैं।
इच्छाधारी नागों ने अब बहुतेरे रूप ले लिए हैं। कई सर्प नफरत का जहर मीडिया के माध्यम बांट रहे हैं। कुछ नाग बाबा अपनी की काली करतूतों की वजह जेल में हैं या विदेश भाग गए। वापस बिल में आने को तैयार नहीं। (प्राण चड्ढा/फेसबुक से)
हाथियों ने बदल दी दिनचर्या
कोरबा व कटघोरा वन मंडल हाथियों से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्रों में शामिल है। यहां अब से 21 वर्ष पहले 20 हाथियों का झुंड आया था। तीन चार गांवों में ही इसका असर था। अब इनकी संख्या कई गुना बढ़ चुकी है जो कोरबा, कटघोरा, गौरेला-पेंड्रा-मरवाही क्षेत्र में विचरण करते हैं। जिन 50-60 गांवों में हाथी आये दिन हमला करते हैं वहां के निवासियों को अपनी दिनचर्या में बदलाव लाना पड़ा है। वे मिट्टी के घरों में रहने के आदी रहे हैं, जिसमें वे अपने को प्रकृति के ज्यादा करीब पाते हैं, पर अब शाम होते ही उन्हें पक्के घरों में जाना होता है। यह स्कूल, पंचायत भवन या किसी का निजी मकान होता है। महुआ आदिवासियों के खान-पान का एक अंग है, उनका रोजगार भी इससे जुड़ा है पर अब घरों में वे महुआ बीज एकत्र करके नहीं रखते। या तो इसे वे पक्के घरों में रखते हैं या फिर एकत्र लेने के तुरंत बाद बाजार ले जाते हैं। ग्रामीणों ने अपनी बस्तियों में लगे कटहल के पेड़ भी काट डाले हैं क्योंकि हाथी इन्हें खाने के लिये भी पहुंचते रहते हैं। फसल की रखवाली के लिए खेतों के पास तेज बल्ब जलाये जाते हैं। रोशनी के चलते हाथी पास नहीं फटकते। कई गांवों में मचान बना लिये गये हैं, जहां से हाथियों के मूवमेंट का पता चल जाता है। यह वही इलाका है जहां लेमरू एलीफेंट रिजर्व बनाये जाने की बात कही जा रही है पर सरकारी योजना जमीन पर अभी उतरी नहीं है। जीने के तरीके में बदलाव लाने के बाद ग्रामीण अपने घरों और फसलों को बचाने में काफी हद तक सफल हो रहे हैं।
रेलवे किराया और सांसदों की खामोशी
कोरोना की दूसरी लहर के बाद अब प्राय: हालात सामान्य हो चुके हैं और सभी व्यावसायिक गतिविधियां रफ्तार पकड़ रही है। पर रेलवे के लिये ऐसा नहीं है। अब भी जिन बंद की गई ट्रेनों को दोबारा चलाने का निर्णय लिया जा रहा है उनको स्पेशल का नाम दिया जा रहा है। स्पेशल होने के कारण इनमें बढ़ा हुआ किराया वसूल किया जा रहा है। नौकरी और रोजगार के लिये रोजाना हजारों यात्री रायपुर, दुर्ग, कोरबा, रायगढ़ आदि से सफर करते हैं पर इन्हें किराये में बड़ी रकम खर्च करनी पड़ रही है क्योंकि एमएसटी शुरू नहीं की गई है। जबकि महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में लोकल ट्रेन शुरू हो चुकी है और मासिक सीजन टिकट भी जारी किया जा रहे हैं। केन्द्र में छत्तीसगढ़ से 9 लोकसभा सदस्य भाजपा से हैं पर यहां हो रहे भेदभाव की ओर उनका ध्यान नहीं जा रहा है।
खेल मैदान बदनामी के स्मारक न बन जाएं ?
छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल सरकार के बारे में कहा जाता है कि सरकार विलासितापूर्ण और चकाचौंध भरी गैरजरूरी निर्माण के पक्ष में नहीं है, बल्कि सरकार परंपराओं और संस्कृति के सम्मान वाले विकास को प्राथमिकता देती है। ऐसे में जब राजधानी के खेल मैदानों के ओर देखते हैं, तो ये बातें धरातल में दिखाई नहीं देती। शहर के सबसे पुराने और ऐतिहासिक सप्रे शाला मैदान का उदाहरण हमारे सामने है। यह मैदान केवल खेल गतिविधियों के कारण नहीं, बल्कि आजादी की लड़ाई से लेकर परंपराओं-सांस्कृतिक और एतिहासिक गतिविधियों का साक्षी है। लेकिन जिस तरह से खेल मैदानों की बरबादी और व्यावसायिक उपयोग की खुली छूट दी जा रही है, उसके बाद ऐसा नहीं लगता कि सरकार में बैठे लोगों को संस्कृति और परंपराओं के मान-सम्मान की फिक्र है। वाकई ऐसा होता तो मैदान धीरे-धीरे सिकुडक़र खत्म होने की कगार पर नहीं होते। सप्रे और दानी स्कूल के मैदान की जमीन पर पिकनिक स्पॉट और अप्पू घर जैसा हो गया है। मैदान के चारों ओर ठेले-गुमटियों की भीड़ हो गई है। सकरी सडक़ को शायद बड़ी-बड़ी गाडिय़ों की पार्किंग के लिए चौड़ा किय़ा गया हो, ऐसा लगता है। थोड़ी बहुत जगह जो बची है, उस पर कब भी कांक्रीट का जाल खड़ा हो सकता है, क्योंकि यहां शॉपिंग मॉल बनाने की प्लानिंग की चर्चा सुनाई देती रहती है। इसी तरह गॉस मेमोरियल और बीटीआई मैदान साल भर मेले-ठेले और सार्वजनिक आयोजन के उपयोग भर के लायक रहे गए हैं। राजधानी का हिंद स्पोर्टिंग मैदान जहां राष्ट्रीय स्तर की फुटबॉल प्रतियोगिताएं होती थी, वहां अब गंदगी के साथ रेती-गिट्टी का ढेर दिखाई पड़ता है। साइंस कॉलेज का मैदान भी अब खेलने के लायक नहीं बचा है। यहां भी ऑडिटोरियम तन गया और बाकी स्थान दूसरे आयोजन के उपयोग में आता है। कुल मिलाकर परंपराओं और संस्कृति के सम्मान की बात करने वालों को इस बारे में सोचना होगा, वरना ये भी सरकारों की बदनामी के स्मारक के रूप में जाने जाएंगे।
तंबू से कोठियों तक पहुंचा अवैध कारोबार
गांजा, सट्टा के अवैध धंधे पर रोक लगाने की अक्सर बात होती है, लेकिन यह चर्चाओं से आगे नहीं बढ़ पाता। खानापूर्ति के लिए कभी-कभार कार्रवाई हो जाती है। छत्तीसगढ़ में कुछ दिनों पहले तो सूबे के पुलिस मुखिया ने सभी पुलिस अधीक्षकों को गांजा-सट्टा पर कार्रवाई करने के कड़े निर्देश दिए थे। उन्होंने पुलिस अफसरों को यहां तक कह दिया था कि तंबू लगाकर अवैध कारोबार चलता रहेगा और ऐसा हो नहीं सकता कि डीजीपी को इसके बारे में पता नहीं चलेगा। उन्होंने कुछ पुलिस अधीक्षकों के बकायदा नाम लेकर कहा था कि अगर आप लोग ऐसा सोचते हैं, तो बच्चे हैं, क्योंकि उन्हे यानी डीजीपी को सब पता है। इसके बाद भी किसी जिले से सट्टा और गांजा का अवैध कारोबार करने वालों पर कोई बड़ी कार्रवाई की गई होगी, ऐसा सुनाई में तो नहीं आया, उलटे लगता है कि अवैध काम ने और जोर पकड़ लिय़ा है। अब एक जिले में गांजा तस्करों को पैसा लेकर छोड़ दिया गया। इसमें पुलिस के अधिकारियों के साथ कई और लोगों के नाम सामने आए हैं। इस मामले में एक मीडिय़ाकर्मी का नाम भी लिया जा रहा है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अवैध धंधा बकायदा रैकेट बनाकर किया जा रहा है। अब डीजीपी साहब को कौन बताए कि तंबू वाले आलीशान कोठियों में पहुंच गए हैं।