राजपथ - जनपथ
आखिर इतनी बड़ी रकम जाती कहां है?
दंतेवाड़ा में बस्तर विकास प्राधिकरण की बैठक के दौरान मौजूद एनएमडीसी के अधिकारियों के सामने जगदलपुर के विधायक ने प्रस्ताव रखा कि वे विश्वप्रसिद्ध दशहरा के लिये 10-20 लाख रुपये की मदद कर दिया करें। हर साल कर्ज लेकर काम निपटाना पड़ता है। एनएमडीसी के अफसरों ने जो जवाब दिया उससे सब चौंक गये। उन्होंने कहा कि हम तो हर साल 50 लाख और चित्रकोट महोत्सव के लिये 10 लाख रुपये देते हैं। बैठक में प्रभारी मंत्री कवासी लखमा, प्राधिकरण के अध्यक्ष लखेश्वर बघेल, दो तीन सांसद, विधायक, कलेक्टर चंदन कुमार सभी बैठे थे, यानि एनएमडीसी के अधिकारियों ने पूरी जवाबदारी के साथ बयान दिया होगा। पर ये पैसा जाता किसके पास है और खर्च कौन करता है? मंत्री, विधायक को ही इस बारे में पता नहीं है फिर किसे पता होगा? बैठक में दूसरे मुद्दे उछल गये और बात अधूरी रह गई
उद्योगों का मजदूरों से बदला...
उद्योगों में स्थानीय लोगों को तकनीकी पदों पर बिठाने या स्थायी रोजगार देने के बारे में तो अब सोचा भी नहीं जाता। पर इतनी उम्मीद तो होती है कि कम से कम उन्हें मजदूर की हैसियत से ही काम पर दे दिया जाये। खासकर, जब किसी फैक्ट्री को मजदूर की जरूरत पड़ रही हो। दुर्ग जिले के रसमड़ा में करीब दर्जन भर उद्योग स्थापित हैं। यहां के ग्रामीणों से एक अजीबोगरीब और गंभीर किस्म का बर्ताव हो रहा है। ये बताते हैं कि यहां स्थापित उद्योगों में रखने के लिये पहले आधार कार्ड दिखाने के लिये कहा जाता है और जब पता चलता है कि वे रसमड़ा के रहने वाले हैं तो उन्हें काम देने से मना कर दिया जाता है। इनमें से अधिकांश वे ग्रामीण हैं जो पहले किसान थे और इन्हीं उद्योगों के लिये अपनी जमीनें दी हैं। इन्हें रोजगार में प्राथमिकता देने की बात कही गई थी पर उद्योगों के गार्ड इनका पहचान-पत्र देखते ही गेट से दूर भगा देते हैं। ग्रामीणों के मुताबिक यह बदले की कार्रवाई लगती है क्योंकि वे नियमों के उल्लंघन के कारण पर्यावरण प्रदूषण से त्रस्त हैं। उनकी सेहत पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। घरों और खेतों में कालिख पुत रही है। इसकी शिकायत वे अधिकारियों से करते आ रहे हैं।
ग्रामीणों ने डिप्टी कलेक्टर के माध्यम से सीएम को चि_ी लिखी है और इस पक्षपात को बंद कर भुखमरी, बेरोजगारी से बचाने के लिये काम मांगा है।
सूखे की आहट और पलायन की शुरुआत
स्थिति तब और साफ होगी कि जब आने वाले एक पखवाड़े के भीतर बारिश नहीं होगी। अभी आंकड़ा है कि प्रदेश के 178 में से 100 तहसीलों में औसत से कम बारिश हुई है। 30 तहसील ऐसी हैं जहां 70 फीसदी से कम पानी गिरा है। बस्तर के कई तहसील सूखे की चपेट में हैं। सभी कलेक्टरों से आपदा प्रबंधन विभाग ने सितम्बर के पहले सप्ताह तक फसल की स्थिति पर रिपोर्ट मांगी है। उसके बाद योजना बनेगी रोजगार, अनुदान, बीमा भुगतान, मोटर पम्पों और उसके लिये बिजली की मंजूरी। मैदानी इलाकों से तो लोग फसल की बोनी का काम खत्म होने के बाद ही प्रवास पर निकल जाते हैं और फसल कटाई के वक्त लौटते हैं। पर बस्तर से जो खबरें आ रही हैं वह साधारण नहीं है। कोंडागांव जिले के फरसगांव इलाके की रपट है कि इस धुर नक्सल इलाके में लोगों के पास कोई काम नहीं है। न वनोपज का और न ही मनरेगा का। मनरेगा के काम का भुगतान पाने के लिये ये बार-बार बैंकों का चक्कर भी नहीं लगा पा रहे हैं, क्योंकि इसमें भी आने वाला खर्च नहीं उठा पा रहे। ये लोग बड़ी संख्या में तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना यहां तक कि बिहार, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश का रुख कर रहे हैं। इनमें नाबालिग और युवतियां भी हैं। बस लेकर दलाल किसी अंदरूनी गांव में खड़े होते हैं और ठूंसकर ले जाते हैं। सूखे का जब तक आकलन होगा और प्रशासन इनकी सुध लेने के लिये कदम उठायेगा, तब तक अधिकांश उनके घर खाली हो चुके होंगे।