राजपथ - जनपथ
सवाल सिर्फ आत्मानंद स्कूलों का?
स्वामी आत्मानंद स्कूलों के छात्रों को एक ही दुकान से मनमाने भाव में स्टेशनरी और दूसरी सामग्री खरीदने की बाध्यता नहीं है। इस बारे में खबर वायरल होने पर प्रमुख सचिव ने आदेश जारी कर दिया है। यह तो अच्छी बात हुई। पर प्रदेश के सभी निजी स्कूलों के मुकाबले सरकारी स्वामी आत्मानंद स्कूल में पढऩे वाले छात्र-छात्राओं की संख्या होगी कितनी? दो-चार प्रतिशत भी नहीं। आत्मानंद स्कूलों के बारे में तो सख्त निर्देश निकाला गया पर प्रदेश के प्रायमरी से लेकर 12वीं तक के सैकड़ों निजी स्कूलों का क्या? उनके लिए कोई सख्ती, कोई निर्देश जारी नहीं किए गए हैं।
ज्यादातर निजी स्कूलों की ऊपरी कमाई का यह पुराना धंधा है। जिन खास दुकानों से स्टेशनरी, जूते, यूनिफॉर्म खरीदे जाते हैं, उन पर 50-60 प्रतिशत तक का कमीशन स्कूलों को मिलता है। सिलेबस बदल दिये जाते हैं ताकि पुरानी किताबें काम न आ सके, नई खरीदें। यूनिफॉर्म बदल दी जाती है ताकि पिछले साल वाली न पहनें।
यह नए शिक्षा सत्र में भी हो रहा है। अभिभावक हैं कि दो साल बाद स्कूलों में पढ़ाई शुरू होने के कारण बच्चों को निराश नहीं करना चाहते। भले ही बढ़ती महंगाई के बीच यह भारी बोझ भी उन्हें उठाना पड़ रहा है। फीस के निर्धारण के लिए पालकों, शिक्षा अधिकारियों के साथ निजी स्कूलों की समितियां बनाई गई हैं। इस समिति की अनुशंसा के बिना फीस नहीं बढ़ाने का आदेश शासन ने पिछले सत्र से जारी कर रखा है। पर इसके बिना भी स्कूलों ने फीस बढ़ा दी है। ट्यूशन फीस पर रोक है तो दूसरे किसी मद में वसूली हो रही है। डीजल के दाम में वृद्धि के नाम पर कई जगह स्कूल बस का किराया भी ड्योढ़ा से अधिक कर दिया गया है। शिक्षा विभाग की ऐसी खामोशी संदेह पैदा करती है कि स्कूल प्रबंधकों की पहुंच बहुत ऊपर तक है।
खैरागढ़ में बहिष्कार के पोस्टर
कांग्रेस के कई नेता सोशल मीडिया पर एक तरह की खास तस्वीरें पोस्ट कर रहे हैं। खैरागढ़ विधानसभा क्षेत्र के किसी-किसी गांव में बैनर लगे हुए हैं, जिनमें कहा गया है कि जिला बनाने का विरोध करने वाले भाजपाईयों का गांव में प्रवेश मना है। वाकई जिला बनने का सपना तो खैरागढ़, गंडई के लोग कब से देख रहे हैं। इसका विरोध कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है। अब कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में इस मांग को पूरा करने का निर्णय लिया है। एक तरह से इसे कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक कह सकते हैं, जिसका सीधे विरोध करते भाजपा को नहीं बन रहा है। पर, सवाल कांग्रेस की नीयत पर वह उठा रही है। प्रलोभन देने, वोटों का सौदा करने की बात कर रही है। पर, इस तरह के बैनर से ऐसा लगता है कि भाजपा को जिला बनने का विरोध है, जो शायद सही नहीं है। ध्यान से देखें तो इस बैनर में किसी गांव का नाम नहीं है। यानि यदि इसे थोक में तैयार कराए गए हों तो किसी भी गांव में लटकाया जा सकता है। ग्रामवासी यह काम न भी करें तो कांग्रेस के प्रचार में लगे पार्टी कार्यकर्ता ही ऐसा कर सकते हैं। इसे सीधे-सीधे चुनाव प्रचार सामग्री भी नहीं मान सकते, इसलिये आचार संहिता उल्लंघन का भी कोई संकट नहीं है। वैसे, मतदाता चाहे जिसे पसंद करे- पर भाजपा या किसी भी दल को कहीं भी प्रचार करने से रोका जाना ठीक नहीं है। यदि ऐसा कोई करता, कहता है तो भी चुनाव आयोग के ध्यान में बात होनी चाहिए। यह भी पता लगाना जरूरी है कि ये बैनर लगाने वाले वास्तव में ‘समस्त ग्रामवासी’ ही हैं या और कोई।
बस्तर में वाटर हाईवे!
दक्षिण बस्तर के कोंटा नगर से शबरी और सिलेरू नदी बहती है। 20 किलोमीटर दूर कुन्नावरम में दोनों जाकर गोदावरी नदी में मिल जाती हैं। यदि सब कुछ ठीक रहा तो आने वाले दिनों में शबरी नदी की अलग पहचान बनेगी। दरअसल नदियों के जरिए परिवहन का क्षेत्र देश के 24 राज्यों में फैला हुआ है। यह 14000 किलोमीटर के वाटर हाईवे को जोड़ता है। इनमें छत्तीसगढ़ की कोई भी नदी शामिल नहीं है। कोंटा नगर और शबरी नदी आंध्र प्रदेश उड़ीसा और तेलंगाना से जुड़ा है, जहां वाटर हाईवे बनाने की घोषणा की गई है। इधर राष्ट्रीय जलमार्ग प्राधिकरण ने कुछ दिन पहले शबरी नदी की स्थिति का सुकमा तक पहुंच कर जायजा लिया। बताते हैं अफसरों ने भद्राचलम, राजमुंद्री सब वाटर हाईवे से शबरी नदी को जोडऩे की संभावनाएं तलाशी। एक व्यापक सर्वेक्षण अभी और होगा। रिपोर्ट सकारात्मक हुई तो आने वाले दिनों में छत्तीसगढ़ का बस्तर भी वाटर हाईवे के राष्ट्रीय नक्शे से जुड़ जाएगा।
वैसे आपको याद होगा, बीते साल सितंबर महीने में कोरबा जिले के हसदेव नदी में सी प्लेन उतारने की संभावनाओं को लेकर एक सर्वेक्षण हुआ था। केंद्र के विमानन विभाग ने जिला प्रशासन से तकनीकी जानकारी मांगी थी। प्रशासन ने यहां की वाटर बॉडी को सी प्लेन के लिए तय किए गए मापदंडों के लिए उपयुक्त पाया था। इस योजना के आकार लेने से पर्यटन के नक्शे में हसदेव नदी के सतरेंगा की अलग पहचान बन जाएगी। कोंटा की योजना ने मूर्त रूप लिया तो पर्यटन के साथ साथ व्यावसायिक परिवहन भी हो सकता है। दोनों ही योजनाएं अभी प्रारंभिक अवस्था में हैं। इन्हें अमल में लाने के लिए राज्य के संबंधित विभागों को भी दिलचस्पी लेने की जरूरत है।
यह कैसा कैलेंडर
अब स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत नगर निगमों में एक अलग मद में इतना पैसा आ जाता है कि जिसे खर्च करना एक समस्या रहती है। यह एक अलग बात है कि स्मार्ट सिटी के फैसले लेने में निर्वाचित नगर निगम की कोई भूमिका नहीं रहती और पूरी तरह से अलोकतांत्रिक यह काम अभी तक छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में थम नहीं पाया है। अब खर्च का हाल यह है कि रायपुर नगर निगम की तरफ से जो कैलेंडर छपा है, उसका खर्च हो चाहे जिस माध्यम से दिखाया गया हो, उसमें अप्रैल के महीने में 19 तारीख ही गायब कर दी गई है। अब इसके साथ साथ दिन भी गड़बड़ हुए होंगे। इस तरह की गलती तो पहली बार ही देखने में आई है, कभी किसी कैलेंडर में नहीं दिखी थी। इसकी तरफ ध्यान खींचते हुए पिछले मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह के ओएसडी रहे उज्जवल दीपक ने ट्विटर पर यह लिखा है कि अगर यह कैलेंडर सही है तो यह उनके खिलाफ साजिश है क्योंकि उनका जन्मदिन 19 अप्रैल को ही है।