राजपथ - जनपथ
जनता की अदालत में मुकदमा
कल दंतेवाड़ा की एक महिला पटवारी का वीडियो वायरल हुआ, जिसमें एक व्यक्ति मनुहार करते हुए रिश्वत की रकम कितना दिया जाए, पूछता है। महिला कहती है जो ठीक लगे दे दो। उसे रुपए मिलते हैं। उसे पहले अपनी टेबल पर छिपाती है और फिर बैग में रख लेती है। सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल होने के बाद उसे सस्पेंड कर दिया गया है। कुछ दिन पहले मस्तूरी के नायब तहसीलदार को घूस के बतौर शराब की बोतल मांगते वीडियो सामने आने पर सस्पेंड किया गया। बिल्हा में एक हवलदार का वीडियो शूट कर सोशल मीडिया पर डाला गया, वह भी नप गया।
तीनों मामलों में एक बात समान दिखी कि रिश्वत देने वाले और पाने वाले के बीच बातचीत बड़ी विनम्रता से हो रही है। यानि सरकारी दफ्तरों में रिश्वत की मांग होती है तो कोई हंगामा नहीं करता, इसे सामान्य आचरण, या कहें शिष्टाचार माना जाता है। पर कोई भी व्यक्ति अपनी खुशी या मर्जी से अपने किसी जायज काम के लिए घूस नहीं देता। कुछ ज्यादा पीडि़त लोग एंटी करप्शन ब्यूरो में शिकायत करते हैं और लंबी प्रक्रिया से गुजरने के बाद घूसखोर को रंगे हाथ पकड़ा दिया जाता है।
लेकिन गोपनीयता के साथ रिश्वत देते समय का वीडियो बना लेना और फिर उसे वायरल कर देना अब तेजी से लोकप्रिय होता जा रहा है। रिश्वत लेने का वीडियो एक पल में सोशल मीडिया के जरिए हजारों लोगों के बीच चला जाता है और अपनी नाक बचाने के लिए ऊपर के अफसरों को कार्रवाई करनी पड़ती है। ये एक ऐसा मुकदमा है जिसके तथ्यों, सबूतों के लिए वकील की जरूरत नहीं पड़ती, न ही लंबे कानूनी दांवपेंच की।
हो यह रहा है कि जो कर्मचारी पकड़ा जाता है, बस उसी के खिलाफ छड़ी घुमाई जा रही है। मलाई वाले विभागों में तो ऊपर तक हिस्सा पहुंचाए बिना कोई टिक नहीं सकता। क्यों न जिस विभाग के अदने कर्मचारी पकड़े जाते हैं उनके विभाग प्रमुख से भी जवाब लिया जाए कि किसकी शह पर ये सब गोरखधंधा चलता है।
हावड़ा ब्रिज पर गुटखे का वार..
कोलकाता पोर्ट अथॉरिटी की हाल की रिपोर्ट में कहा गया है कि गुटखा खाकर थूकने की वजह से हावड़ा ब्रिज की मजबूती को खतरा हो गया है। लोगों को समझाने के लिए बोर्ड लगाए गए हैं, पर उसका कोई असर नहीं हो रहा है। अपने यहां सार्वजनिक भवनों को इस हमले से बचाने के लिए दीवारों पर देवी-देवताओं की तस्वीरें बना दी जाती है। कुछ हद तक इस प्रयोग से कामयाबी भी मिलती है। हावड़ा ब्रिज की देखभाल करने वाले इंजीनियरों को शोध करना चाहिए कि यह तरीका इस पिलर में भी अपनाया जा सकता है।
दो पाटों के बीच पिसते ग्रामीण
बीते सप्ताह अबूझमाड़ से ग्रामीणों का एक समूह नारायणपुर निकला, चिलचिलाती धूप में पैदल-पैदल। जिला मुख्यालय पहुंचकर कलेक्टर एसपी को ये ग्रामीण बताना चाहते थे कि नक्सलियों ने उनका जीना दूभर कर दिया है। वे गांव पहुंचते हैं, बंदूक दिखाकर चावल मांगते हैं। विकास कार्य और फोर्स का विरोध करने के लिए दबाव बनाते हैं। मगर, इन ग्रामीणों को बीच रास्ते में पुलिस ने रोक लिया और चार लोगों को हिरासत में ले लिया। कलेक्टर, एसपी से मुलाकात के लिए निकले ग्रामीणों को अपने साथियों को छुड़ाने के लिए थाने में डेरा डालना पड़ा। यह बड़ी अजीब स्थिति है कि बस्तर से ग्रामीण अगर समूह में कहीं भी निकले तो पुलिस को उनसे खतरा दिखने लगता है। ये ग्रामीण नक्सलियों से नाराजगी मोल कर उनकी शिकायत करने के लिए निकले थे, पर उन पर माओवादी होने का संदेह किया गया। अक्सर नक्सली उन्हें पुलिस का मुखबिर समझ कर प्रताडि़त करते हैं और पुलिस उन्हें माओवादियों का समर्थक मान लेती है। अविश्वास इस माहौल में नक्सल समस्या का अंत कैसे हो?