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राजद्रोह कानून हटाने के लिए जरूरी है सुप्रीम कोर्ट का फैसला
15-Jul-2021 7:28 PM
राजद्रोह कानून हटाने के लिए जरूरी है सुप्रीम कोर्ट का फैसला

राजद्रोह के कानून की समीक्षा करने की सुप्रीम कोर्ट की घोषणा का स्वागत किया जा रहा है लेकिन इस मामले में कोर्ट की कथनी और करनी में फर्क है. कानून की समीक्षा के लिए कोर्ट को अपने ही एक ऐतिहासिक फैसले के परे देखना होगा.

 डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट- 

भारतीय सेना के एक सेवानिवृत्त मेजर जनरल की याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अंग्रेजों के जमाने में बनाया गया राजद्रोह का कानून "कोलोनियल (उपनिवेशीय)" है. कोर्ट ने कहा कि यह सोचने की जरूरत है कि आजादी के 75 साल बाद आज भी इस कानून की जरूरत है या नहीं. अदालत ने इस कानून को संस्थानों के लिए एक गंभीर खतरा बताया और कहा कि ये सरकार को बिना जवाबदेही के इसके गलत इस्तेमाल की "अत्याधिक शक्ति" देता है.

अदालत ने कहा कि वो राजद्रोह के कानून की वैधता का फिर से निरीक्षण करेगी. उसने केंद्र सरकार को आदेश भी दिया कि वो मेजर जनरल एसजी वोमबत्केरे की याचिका पर अपनी प्रतिक्रिया दे. याचिका में कहा गया है कि इस कानून का अभिव्यक्ति पर "डरावना असर" होता है और यह मुक्त अभिव्यक्ति पर एक अनुचित प्रतिबंध है. राजद्रोह के खिलाफ इस समय सुप्रीम कोर्ट में और भी याचिकाएं लंबित हैं और अदालत ने कहा है कि वो सब पर एक साथ ही सुनवाई करेगी. अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थक लंबे समय से इस कानून का विरोध करते आए हैं.

151 साल पुराना कानून

राजद्रोह भारत की दंड दंहिता (आईपीसी) की धारा 124ए के तहत एक जुर्म है. इसे अंग्रेज अपने शासन के दौरान 1870 में लाए थे. फिर 1898 और 1937 में इसमें संशोधन किए गए. आजादी के बाद 1948, 1950 और 1951 में इसमें और संशोधन किए गए. दशकों पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट और पंजाब हाई कोर्ट ने अलग अलग फैसलों में इसे असंवैधानिक बताया था, लेकिन 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने ही अपने ''केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य' नाम के  फैसले में इसे वापस ला दिया. हालांकि इसी फैसले में अदालत ने कहा कि इस कानून का उपयोग तभी किया जा सकता है जब "हिंसा के लिए भड़काना" साबित हो.

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी साफ किया था कि सरकार की आलोचना करने या फिर प्रशासन पर टिप्पणी करने से राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता. राजद्रोह का मामला तभी बनेगा जब किसी वक्तव्य के पीछे हिंसा फैलाने की मंशा साबित हो. जून 2021 में इसी फैसले का एक बार फिर हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकार विनोद दुआ पर एक मामले में लगे राजद्रोह के आरोपों को खारिज कर दिया. अदालत ने कहा कि 1962 में राजद्रोह को परिभाषित करने वाले 'केदार नाथ सिंह फैसले' के तहत हर पत्रकार को सुरक्षा मिलनी चाहिए.

लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि राजद्रोह के कानून का ना सिर्फ सरकारें धड़ल्ले से इस्तेमाल कर रही हैं बल्कि सुप्रीम कोर्ट में भी इसके खिलाफ कई याचिकाएं लंबित पड़ी हैं. 11 जुलाई को हरियाणा पुलिस ने कम से कम 100 किसानों के खिलाफ राजद्रोह के आरोपों के तहत एफआईआर दर्ज की. किसान पिछले साल लाए गए नए कृषि कानूनों का विरोध कर रहे थे और इसी विरोध के तहत उन्होंने हरियाणा विधान सभा के उप-सभापति की गाड़ी पर हमला कर दिया.

हाल में आया उछाल

हाल ही में वरिष्ठ पत्रकार शशि कुमार ने भी राजद्रोह कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दर्ज की, जिसमें उन्होंने बताया कि 2016 के बाद से राजद्रोह के तहत लोगों के खिलाफ दर्ज किए जाने वाले मामलों में नाटकीय उछाल आया है. उनकी याचिका में दावा किया गया है कि राजद्रोह के तहत 2016 में 35 के मुकाबले 2019 में 93 मामले दर्ज किए गए. इन 93 मामलों में से महज 17 प्रतिशत मामलों में चार्जशीट दायर की गई और अपराध सिद्धि तो सिर्फ 3.3 प्रतिशत मामलों में हुई.

याचिका में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों का हवाला देते हुए यह भी बताया गया कि 2019 में 21 मामलों को कोई सबूत ना मिलने की वजह से रद्द करना पड़ा, दो मामले झूठे साबित हुए और छह दीवानी के विवाद पाए गए. लेकिन यह दिलचस्प है कि इस कानून की समीक्षा की बात सुप्रीम कोर्ट खुद कर रही है क्योंकि इस कानून की की अभी तक की पूरी यात्रा में सर्वोच्च अदालत की ही बड़ी अजीब भूमिका रही है. फरवरी 2021 में ही अदालत ने इस कानून की समीक्षा के लिए वकीलों के एक समूह द्वारा दायर की गई याचिका को खारिज कर दिया था.

विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में वरिष्ठ रेजिडेंट फेलो आलोक प्रसन्ना का कहना है कि ऐसे कई मामले हैं जिनमें सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह का आरोप झेल रहे लोगों की याचिकाओं को या तो सुना ही नहीं या बहुत देर से सुना. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि अदालत ने उच्च न्यायालयों को राजद्रोह के मामले खारिज करने का भी निर्देश नहीं दिया है. आलोक का मानना है कि सवाल सिर्फ एक कानून का भी नहीं है, बल्कि भारत के न्याय तंत्र की मानसिकता का है और उसी में असल बदलाव की जरूरत है. (dw.com)

 

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