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-पराग छापेकर
फ़िल्म 'बधाई दो' में राजकुमार राव और भूमि पेडनेकर के किरदार दुनिया की नज़र में पति पत्नी होते हैं, पर वे हैं समलैंगिक.
"आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूँ". फिल्म 'पहचान' के लिए जब गोपालदास नीरज ने ये गाना लिखा था तो उनके लिए आदमी का मतलब इंसान था लेकिन मज़ाक-मज़ाक में इसे समलैंगिकता से जोड़कर खूब चुटकियाँ ली गईं. ज़माना बदला और एलजीबीटीक्यू पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद समलैंगिकों को लेकर मुँह दबाकर हंसने वाला सिनेमा अब कुछ हद तक सीरियस हो गया है.
पिछले एक दशक में समलैंगिकता के मुद्दे पर कई फिल्में बनीं और पसंद भी की गईं. समय के साथ इन फिल्मों को अब 'ए' ग्रेड कमर्शियल आर्टिस्ट भी संजीदगी से लोगों के सामने पेश करने लगे हैं.
हाल ही में आई हर्षवर्धन कुलकर्णी की 'बधाई दो ' इसका ताजा उदाहरण है. इस फ़िल्म में राजकुमार राव और भूमि पेडणेकर मुख्य भूमिकाओं में हैं.
समलैंगिकों का तिरस्कार और उनका मज़ाक उड़ाने की परम्परा अब तक पूरी तरह से बंद तो नहीं हुई है लेकिन गंभीरता नज़र आने लगी है.
यहाँ ग़ौर करने वाली एक दिलचस्प बात ये भी है कि ये ऐसे समय में हो रहा है जबकि धार्मिक, जातीय और सांस्कृतिक मामलों में सिनेमा में दिखाए जाने वाले दृश्यों को लेकर लगातार हंगामा होता रहा है. पिछले कुछ सालों में 'पद्मावत' जैसी फ़िल्म से लेकर 'जश्न-ए-रिवाज़' वाले विज्ञापन तक लगातार विवाद सामने आते रहे हैं.
हिंदी फिल्मों में जब भी दो पुरुषों की नज़दीकियों की बात आती तो ...'चल हट..मैं वैसा नहीं हूँ'... कहकर किरदार उस पर नाक-भौं सिकोड़ लेता और बात हंसी में उड़ जाती.
फिर वो चाहे फिल्म 'कल हो ना हो' में सैफ औऱ शाहरूख के बीच की नजदीकी पर कांता बेन का कन्फ्यूज़न हो या दोस्ताना में अभिषेक बच्चन और जॉन अब्राहम का साथ.
मधुर भंडारकर की 'पेज थ्री' और 'फ़ैशन' में समलैंगिकता के कुछ दृश्य दिखे थे. फिल्मों में दो महिलाओं के प्यार को मज़ाक में उड़ाने की जगह उसका ज़ोरदार विरोध हुआ है.
दीपा मेहता की 'फायर' की शूटिंग के दौरान बनारस सहित देश के कई हिस्सों में जो हंगामा हुआ था, वो किसी से छिपा नहीं है. फ़िल्म के प्रदर्शन के दौरान देश के कई हिस्सों में तोड़फोड़ की घटनाएँ भी हुई थीं.
करण राजदान की फिल्म 'गर्लफ्रेड' को लेकर भी जमकर विवाद हुआ था क्योंकि कहानी दो महिला समलैंगिक किरदारों के प्यार की थी जो रोल ईशा कोप्पिकर और अमृता अरोड़ा ने निभाया था. साल 2004 में तब आई इस फिल्म को लेकर कई लोग सदमे में थे.
करण कहते हैं, "भले ही विरोध में मेरे पुतले जले हों लेकिन मैंने अपनी बात पहुंचा दी थी. मेरी फिल्म में यातनाएँ झेल रहा ईशा का वो किरदार इस बात को बताता है कि समाज और कानून उसे स्वीकार कर ले. गर्लफ्रेंड के बाद होमोसेक्शुआलिटी को लेकर खुलापन आने लगा, थोड़ी स्वीकार्यता दिखने लगी और धीरे-धीरे तो कुछ वेबसीरिज़ में उन्हें आम जिंदगी की तरह इसे दिखाना शुरू किया. कुछ लोगों ने इसे मज़ाकिया बनाया, कुछ ने घिनौने तरीके से भी दिखाया. और ये दोनों ही ग़लत है. जो नेचर ने बनाया है उसे आप ग़लत कैसे ठहरा सकते हैं. लोगों की निजी पसंद को तो आपको मान्यता देनी ही होगी."
सीरियस सिनेमा
बीते दशकों में समलैंगिकता को लेकर सीरियस बहस छेड़ने वाली कई फिल्में बनी हैं.
ओनीर की 'माई ब्रदर निखिल', संजय शर्मा की 'डोंट नो वाई', फिल्म 'बॉम्बे टॉकीज़' में करण जौहर की कहानी में रणदीप हुड्डा और साकिब सलीम का प्रसंग, 'कपूर एंड सन्स' में फव्वाद ख़ान का किरदार, कल्कि की 'मार्गरीटा विद स्ट्रॉ' सहित कई फिल्मों में रिश्तों को गंभीरता से दिखाया गया.
सोनम कपूर और रेजिना कसान्ड्रा की लेस्बियन लव स्टोरी 'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा' में इस रिश्ते को लेकर स्पष्टता और निडरता दिखी. आयुष्यमान खुराना और जितेन्द्र कुमार की 'शुभ मंगल ज्यादा सावधान' भी इसी दिशा में एक कदम आगे रही.
साल 2015 में आई मनोज बाजपेयी की अलीगढ़ ने समलैंगिकता पर चल रही बहस को न सिर्फ एक नया मोड़ दिया बल्कि यह इस मामले में सिनेमा के सीरियस हो जाने की दिशा में एक बड़ा कदम था.
प्रोफ़ेसर रामचंद्र सिरस के किरदार में मनोज बाजपेयी का अभिनय काफ़ी चर्चित रहा था.
मनोज बाजपेयी मानते हैं कि "अलीगढ़ जैसी फिल्म ने इस बहस को छेड़ा और सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट में भी अलीगढ़ का ज़िक्र आया है. जब अलीगढ़ जैसी फिल्म ऐसी बहस को छेड़ती है तो राजनीति और कानून वापस देखने को मजबूर होते हैं समाज के इस नजरिये को."
पर क्या ऐसी फिल्मों से ही समाज बदल रहा है, इस पर मनोज बाजपेयी कहते हैं, "मैं ये मानता ही नहीं कि सिनेमा समाज को बदलता है . समाज अपने हिसाब से बदलाव करता है. मेरा सारा ज्ञान , शिक्षा इस बात की गवाही ही नहीं देते. समाज अब उस जगह आ चुका है कि वो बदलाव को स्वीकार कर रहा है. ये इसकी प्रकृति में आ चुका है. लेकिन होता क्या है कि राजनीति और समाज को हम समझ नहीं पाते और उसे समझने में थोड़ा समय लगता है."
उनका कहना है, "कानून बदलना या राजनीति का रुख़ बदलने का ये मतलब नहीं है कि समाज सिनेमा के ज़रिए बदलता है. सिनेमा के ज़रिए दर्शक यदि किसी मुद्दे को स्वीकारते हैं तो उसका एकमात्र कारण होता है कि आपने उस मुद्दे को कैसे दिखाया. दर्शक मनोरंजन चाहते हैं. जब वो सिनेमा हॉल में या ओटीटी के सामने बैठते हैं तो वो एंटरटेन होना चाहते हैं. और जब वो कहानी उसको बांधती है तभी वो मुद्दा असर करता है या वो उस पर बात करते हैं. कहानी खराब होगी तो मुद्दे का नुकसान होगा."
मनोज बाजपेयी एक और दिलचस्प बात कहते हैं, "अगर आप ग्रामीण भारत में जाएँ तो समलैंगिकता को लेकर वहाँ के लोगों का रुख़ शहरियों के मुकाबले बहुत प्रोग्रेसिव है. मैं अपने ही गांव की बात करूँ तो हमारे यहां नटुआ नाच होता है . पुरुष महिलाओं के कपड़े पहनकर नाचते हैं, इसे गलत नहीं माना जाता. अलीगढ़ जैसी फिल्म आई तो इस मुद्दे पर बहस आगे बढ़ी."
एक बात तो तय है कि समलैंगिकता को लेकर हटी कानूनी कठोरता ने इन रिश्तों को लेकर संजीदगी से फिल्मों को बनाने की झिझक खत्म कर दी है.
फ़िल्म 'बधाई दो' के डायरेक्टर हर्षवर्धन कुलकर्णी कहते हैं, "सोसाइटी मैच्योर हुई है. जब समाज ऐसे विषयों पर इनटालरेन्ट हो जाता है ऐसे जोक्स उन्हें ही पसंद नहीं आते और फिर वो इस तरह के जोक्स बंद कर देते हैं. समाज को बदलाव में टाइम लगता है लेकिन जब हो जाता है तो इसका असर दिखने लगता है."
आपस में शादी कर चुकी जोड़े की रिलेशनशिप को दिखाने वाले हर्षवर्धन कहते हैं , "यंग जनरेशन में स्वीकार्यता है. उनके दोस्त जो पहले बंद दरवाजों में रहते थे. लोग उनका मजाक उडाते थे. लेकिन अब इतना बड़ा बदलाव आया है कि हम जैसे हैं वैसा संजीदगी से दिखा सकते हैं. अगर हम अब इस समाज के लोगों को साइड कैरेक्टर या जोक्स के रूप में दिखाएँ तो लोग गुस्से में आ सकते हैं."
उनका कहना है , "आर्टिकल 377 हटने के बावजूद अब भी बहुत संघर्ष बाकी है. कई स्टोरीज़ आ रही हैं और जैसे-जैसे हम फिल्मों के ज़रिए इन कहानियों को लोगों के बीच ले जाएँगे, उतना ज्यादा हम नॉर्मल होने की तरफ़ बढ़ते जाएँगे." (bbc.com)