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ईरान से कर्नाटक तक: हिजाब या महिलाओं की पसंद का है मामला?
26-Sep-2022 8:32 AM
ईरान से कर्नाटक तक: हिजाब या महिलाओं की पसंद का है मामला?

-इक़बाल अहमद

ईरान में महसा अमीनी की मौत के बाद पिछले नौ दिनों से विरोध प्रदर्शन जारी है. ये कहा जाए कि पूरा ईरान सड़कों पर है तो ग़लत नहीं होगा. 80 से ज़्यादा शहरों से विरोध प्रदर्शन की ख़बरें आ रहीं हैं. इस दौरान प्रदर्शनकारियों और सुरक्षाकर्मियों के बीच झड़पों में कम से कम 35 लोगों की मौत हो चुकी है और सैकड़ों सामाजिक कार्यकर्ता और राजनीतिक विरोधी गिरफ़्तार कर लिए गए हैं.

एक अमेरिकी संस्था के मुताबिक़ सोमवार से अब तक क़रीब 11 पत्रकारों को भी हिरासत में लिया गया है.

देश के कई इलाक़ों में इंटरनेट सेवाएं या तो धीमी कर दी गईं हैं या पूरी तरह बंद हैं.

22 साल की महसा अमीनी की शुक्रवार (16 सितंबर) को मौत हो गई. उससे पहले वो तीन दिनों तक तेहरान के एक अस्पताल में कोमा में थीं.

13 सितंबर को उन्हें पुलिस ने इसलिए हिरासत में ले लिया था क्योंकि पुलिस के अनुसार उन्होंने अपने सिर पर हिजाब को 'सही' तरीक़े से नहीं पहना था.

ईरानी क़ानून के अनुसार सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं का हिजाब पहनना अनिवार्य है. वो भी इस तरह से कि महिलाओं के सिर का एक बाल भी नहीं दिखना चाहिए.

महसा अमीनी ने हिजाब तो पहना था लेकिन उनके कुछ बाल दिख रहे थे. इसलिए पुलिस ने उन्हें हिरासत में ले लिया था.

ईरान की अपनी इस्लामी व्याख्या के पालन के लिए एक विशेष तरह का पुलिसबल मौजूद है जिसे 'गश्त-ए-इरशाद' कहा जाता है.

इस विशेष पुलिस बल का काम इन्हीं इस्लामी मूल्यों को सुनिश्चित कराना और उनकी परिभाषा के अनुसार 'अनुचित क़िस्म' के कपड़े पहने हुए लोगों को हिरासत में लेना है.

पुलिस का कहना है कि हिरासत में लेने के बाद उनको दिल का दौरा पड़ा जिससे तीन दिन बाद उनकी मौत हो गई लेकिन महसा अमीनी के परिजन का कहना है कि उन्हें पुलिस हिरासत में प्रताड़ित किया गया था जिनके कारण उनकी मौत हुई है.

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महसा अमीनी की मौत के बाद 19 सितंबर 2022 को हुए विरोध प्रदर्शन के दौरान सेंट्रल तेहरान में एक महिला ने कार के बोनट पर चढ़ कर अपने हिजाब को जलाया

हिजाब नहीं पहनने पर राष्ट्रपति का इंटरव्यू देने से इनकार
ईरान में महिलाएं जबरन हिजाब पहनने के क़ानून का विरोध करने के लिए अपने हिजाब को सार्वजनिक जगहों पर जला रहीं हैं.

विरोध प्रदर्शनों में दो नारे ऐसे हैं जो लगभग हर जगह सुना जा रहा है वो है 'ज़न (महिला), ज़िंदगी (जीवन) और आज़ादी' और अदालत (इंसाफ़), आज़ादी और हिज्ब-ए- इख़्तियारी (अपनी मर्ज़ी से हिजाब पहनने का अधिकार).

महसा अमीनी की मौत का असल कारण चाहे जो भी रहा हो लेकिन उनकी मौत पर पूरी दुनिया से प्रतिक्रियाएं आ रहीं हैं. सड़कों से लेकर सोशल मीडिया तक और संयुक्त राष्ट्र महासभा सेशन तक में उनका ज़िक्र हो रहा है.

जानी मानी पत्रकार क्रिश्चियन अमनपौर ईरान के राष्ट्रपति रईसी का न्यूयॉर्क में इंटरव्यू करने वाली थीं लेकिन उसे अंतिम समय में रद्द कर दिया गया क्योंकि राष्ट्रपति रईसी चाहते थे कि अमनपौर हिजाब पहनकर उनका इंटरव्यू करें. अमनपौर ने ऐसा करने से इनकार कर दिया और आख़िरकार इंटरव्यू नहीं हो सका.

जब दुनिया भर में इसे लेकर प्रतिक्रियाएं हो रहीं हैं तो ज़ाहिर है कि भारत अछूता कैसे रह सकता है.

भारत में भी इसे लेकर मीडिया और ख़ासकर सोशल मीडिया में ख़ूब बहस हो रही है.

भारत में यह बहस और भी महत्वपूर्ण हो गई है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में कर्नाटक हिजाब मामले की सुनवाई अभी हाल ही में ख़त्म हुई है और सभी फ़ैसले का इंतज़ार कर रहे हैं.

कर्नाटक में पिछले साल एक कॉलेज में मैनेजमेंट ने मुसलमान लड़कियों को हिजाब पहन कर क्लासरूम में दाख़िल होने से मना कर दिया था. छह लड़कियों ने इस फ़ैसले का विरोध किया और बिना हिजाब के कक्षा में जाने से मना कर दिया. उन्होंने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया लेकिन उन्हें कर्नाटक हाईकोर्ट से कोई राहत नहीं मिली.

मामला आख़िरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और अब सुनवाई के बाद सभी पक्ष फ़ैसले का इंतज़ार कर रहे हैं.

ईरान में महिलाओं के जबरन हिजाब के ख़िलाफ़ प्रदर्शन को भारत में ज़ोरदार समर्थन मिल रहा है. सोशल मीडिया पर लोग इस बारे में ख़ूब चर्चा कर रहे हैं.

और सबसे ख़ास बात यह है कि भारत में दक्षिणपंथी से लेकर वामपंथी तक, सभी ईरान में महिलाओं के इस विरोध प्रदर्शन का समर्थन कर रहे हैं.

हिजाब ज़बरदस्ती थोपने का विरोध
भारत में सोशल मीडिया पर सक्रिय मुसलमान भी खुलकर ईरान में महिलाओं का समर्थन कर रहे हैं.

दुनिया भर के शिया मुसलमानों का ईरान से ख़ास तरह का धार्मिक और वैचारिक लगाव है लेकिन भारत समेत दुनिया भर के शिया मुसलमान इस समय ईरान की सरकार के बजाए वहां के लोगों के इस जनआंदोलन का समर्थन कर रहे हैं.

भारत में किसी शिया धार्मिक गुरु या किसी शिया संगठन का इस मामले में कोई आधिकारिक बयान तो अब तक नहीं आया है लेकिन सोशल मीडिया पर सक्रिय शिया समुदाय के लोग ईरान में इस समय महिलाओं के साथ खड़े दिख रहे हैं.

यहां तक तो सब साथ हैं लेकिन जैसे ही ईरान के इस मौजूदा आंदोलन को कर्नाटक के हिजाब मामले से जोड़ा जाता है भारत में लोगों की राय अलग हो जाती है.

दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाली प्रोफ़ेसर ग़ज़ाला जमील कहती हैं कि ईरान और कर्नाटक दोनों जगहों पर सबसे बड़ा सवाल यही है कि महिलाओं की अपनी पसंद क्या है और स्टेट (सरकार) को इसे नियंत्रित करने का कोई अधिकार नहीं है कि कोई अपने फ़्रीज में क्या रखकर खा रहा है या कोई महिला क्या पहन रही है.

मैंने प्रोफ़ेसर जमील से पूछा कि भारत में पर्दा के ख़िलाफ़ आंदोलन का एक लंबा इतिहास रहा है और अक्सर उसे पिछड़ेपन और महिलाओं पर ज़ुल्म की तरह देखा जाता रहा है, इस पर वो कहती हैं, "ऐतिहासिक तौर पर देखा गया है कि हिजाब उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ एक महत्वपूर्ण सिंबल रहा है. इसलिए भारत के कर्नाटक में कुछ मुसलमान लड़कियों का हिजाब को पहनने की माँग करना या फिर ईरान में एक ख़ास क़िस्म के हिजाब को ज़बरदस्ती थोपने का विरोध करना दोनों सही है."

"कर्नाटक हिजाब मामले से सोच में आया बदलाव"
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर ग़ज़ाला जमील कहती हैं कि कल्चर पॉलिटिक्स में किसी भी कपड़े का सांकेतिक महत्व कभी भी निश्चित नहीं होता और वो समय के हिसाब से बदलता रहता है.

वे कहती हैं, "पश्चिमी महिला आंदोलन में इस बात को लेकर बहुत चर्चा होती है कि महिलाओं पर मोडेस्टस (शालीन) होने का बोझ क्यों डाला जाता है. पश्चिम में महिला आंदोलन का यह एक अहम हिस्सा होता है कि महिला को उनके हिसाब से अच्छी महिला होने के दबाव से मुक्त किया जाए. लेकिन भारत में एक तरफ़ तो आईपीसी की धारा 354 के तहत यह क़ानून है कि महिलाओं की लज्जा भंग दण्डनीय अपराध है, दूसरी तरफ़ दलित महिला के साथ रेप के मामले में ऐसे फ़ैसले भी हैं जिनमें जज यह कहते हुए पाए गए हैं कि यह हो ही नहीं सकता क्योंकि अभियुक्त उच्च जाति के ब्राह्मण हैं वो दलित महिला को छूएंगे ही नहीं."

प्रोफ़ेसर ग़ज़ाला जमील के अनुसार कर्नाटक हिजाब मामले ने भारत में महिला आंदोलन से जुड़े लोगों की सोच में भी बदलाव लाने का काम किया है.

वो कहती हैं, "भारत में महिला अधिकारों को लेकर जो सोच है वो रुकी हुई नहीं है. हमारे पास जैसी-जैसी नई चुनौतियां सामने आती हैं महिला आंदोलन से जुड़े लोग उसी हिसाब से ख़ुद को बदलते हैं. अगर किसी क़िस्म का कपड़ा महिलाओं की मोबिलिटी को रोकता है तो महिलाओं ने उसका विरोध किया लेकिन कर्नाटक में देखा गया है कि हिजाब लड़कियों को शिक्षा से रोक नहीं रहा बल्कि वो शिक्षा हासिल करने का ज़रिया बन रहा है. महिला आंदोलन से जुड़े लोगों ने अपनी सोच बदली और कहा कि अगर वो लड़कियां हिजाब पहनकर पढ़ना चाहती हैं तो ख़ाली कपड़े के पीछे नहीं पड़ना चाहिए."

"महिलाओं को एक होकर लड़ने की ज़रूरत है"
जानी मानी महिला अधिकार कार्यकर्ता और बरसों तक सीपीआई (एमएल) की पोलित ब्यूरो तथा केंद्रीय समिति की सदस्य रह चुकी (अब उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया है) कविता कृष्णन भी इसे ईरान का एक जन आंदोलन और जनक्रांति मानती हैं जिनका नेतृत्व महिलाएं कर रही हैं.

बीबीसी हिंदी से वो कहती हैं, "ईरान में इस्लाम के नाम पर जबरन हिजाब पहनाना और भारत में स्कूल यूनिफ़ॉर्म के नाम पर हिंदुत्ववादी शक्तियों के ज़रिए मुसलमान लड़कियों का जबरन हिजाब उतारने की कोशिश करना, सत्ता द्वारा महिलाओं को क़ाबू करने की कोशिश है. इसके ख़िलाफ़ महिलाओं को एक होकर लड़ने की ज़रूरत है."

कर्नाटक हिजाब मामले के बाद भारत में महिला आंदोलन का ज़िक्र करते हुए कविता कहती हैं, "महिला आंदोलन संदर्भ को समझता है. समुदायों में संस्कृति के नाम पर महिलाओं पर दबाव बनाया जाता है और इस दबाव का विरोध महिलाओं ने हमेशा किया है और इन सभी लड़ाइयों का हम दिल से समर्थन करते हैं. लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि एक हिंदू वर्चस्ववादी राजनीति अभी सत्ता में है और वो मुसलमान लड़कियों को हिजाब और स्कूल में से किसी एक को चुनने के लिए मजबूर कर रही है."

"दुनिया को पता चलना चाहिए कि महसा अमीनी की मौत कैसे हुई"
कविता कृष्णन के अनुसार वो बहुत सी मुसलमान महिलाओं को जानती हैं जो हिजाब पहनती हैं और नारीवादी कार्यकर्ता हैं और वो अपने अधिकारों और दूसरी महिलाओं के अधिकार के लिए लड़ती हैं.

कविता के अनुसार, "कुछ मुसलमान महिलाओं को लगता है कि इस समय बताना ज़रूरी है कि वो मुसलमान हैं क्योंकि इस समय यह राजनीति हो रही है कि पूरा मुसलमान समाज सार्वजनिक रूप से दिखे नहीं, कहीं वो छिपे रहे क्योंकि वो भारत में रहने के लायक़ नहीं हैं."

ईरान के इस आंदोलन को कुछ लोग अमेरिकी साज़िश भी क़रार दे रहे हैं. इस पर कविता कृष्णन कहती हैं, "अमेरिका जब कोई दमन करता है तो हम उसका विरोध करते हैं लेकिन जब ईरान का तानाशाह महिलाओं की हत्या करेगा उसके ख़िलाफ़ आंदोलन का हम क्या इस कारण साथ नहीं देंगे कि इससे अमेरिका भी ख़ुश हो सकता है. महिलाओं के अधिकारों के लिए लोगों की लड़ाई का साथ देना हमारा कर्तव्य होना चाहिए चाहे वो किसी भी देश में हो."

लेकिन कविता कृष्णन की इस बात पर प्रतिक्रिया देते हुए भारत में एक जाने माने अख़बार से जुड़े पत्रकार सैय्यद हसन (शिया मुसलमान) कहते हैं कि महसा अमीनी की मौत और उसके बाद विरोध प्रदर्शन में मारे गए लोगों की वो भरपूर निंदा करते हैं और यह भी माँग करते हैं कि ईरानी राष्ट्रपति के बयान (मौत की जाँच) पर अमल होना चाहिए ताकि दुनिया को पता चले कि आख़िर महसा अमीनी की मौत कैसे हुई.

बीबीसी से बातचीत में वो कहते हैं, "अमेरिका और इसराइल समेत विश्व की दूसरी बड़ी ताक़तों के रोल पर भी सवाल उठाया जाना चाहिए जो पिछले 40 सालों से ईरान को निशाना बना रहे हैं और कई बार ईरान में सत्ता परिवर्तन की कोशिश कर चुके हैं. ईरान में इंटरनेट की पाबंदी में ढील देने का अमेरिकी फ़ैसला बहुत कुछ बताता है. अगर अमेरिका को ईरान के लोगों की इतनी ही चिंता है तो उसे सबसे पहले दवाओं पर लगी पाबंदी हटानी चाहिए थी जब ईरान कोरोना महामारी से जूझ रहा था. ईरान को अस्थिर करने के लिए विश्व शक्तियों की मंशा पर सवाल उठाया जाना चाहिए क्योंकि ईरान फ़लस्तीन और सीरिया जैसे कई वैश्विक मुद्दों पर उनसे अलग राय रखता है."

कर्नाटक हिजाब मामले में जिन लड़कियों ने कोर्ट का रुख़ किया है, बीबीसी ने उनसे संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उनमें से कुछ ने कमेंट करने से मना कर दिया और कुछ से संपर्क नहीं हो पाया.

कर्नाटक हिजाब मामले में एक एनजीओ की तरफ़ से सुप्रीम कोर्ट में पेश होने वाली वकील शाहरुख़ आलम कहती हैं कि ईरान में जो हो रहा है उसमें हिजाब तो सिर्फ़ एक सांकेतिक मुद्दा है, अब यह पूरा मामला महिलाओं के अपने चुनने के अधिकार की लड़ाई हो गई है.

उनके अनुसार ईरान में जो महिलाएं हिजाब का विरोध कर रही हैं और भारत के कर्नाटक में जो लड़कियां हिजाब पहनना चाहती हैं, वो दोनों ही माँगें दरअसल एक ही है.

रोज़ का संघर्ष
सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान सरकार की तरफ़ से जो दलील दी गई उसका ज़िक्र करते हुए एडवोकेट शाहरुख़ आलम कहती हैं, "भारत सरकार कह रही है कि हिजाब पहनना पिछड़ेपन, रूढ़िवादी परंपरा या कट्टरवादी सोच की निशानी है. भारत सरकार यह मानने को तैयार ही नहीं कि यह किसी की अपनी निजी राय हो सकती है. ईरान की सरकार की भी यही सोच है कि आपको जो सरकार कहेगी वो करना ही होगा."

शाहरुख़ आलम के अनुसार भारत और ईरान दोनों जगहों पर निशाना महिलाएं हीं हैं क्योंकि बात सिर्फ़ हिजाब की हो रही है, इसमें दाढ़ी या टोपी की कोई बात नहीं हो रही है.

यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया की प्रोफ़ेसर सबा महमूद की मशहूर किताब 'पॉलिटिक्स ऑफ़ पाइटी: द इस्लामिक रिवाइवल एंड द फ़ेमिनिस्ट सब्जेक्ट' का हवाला देते हुए शाहरुख़ आलम कहती हैं कि मुसलमान महिलाएं सार्वजनिक जीवन में अपनी जगह बनाने के लिए हर रोज़ संघर्ष करती हैं और महिलाएं अब धर्म की व्याख्या भी अपने हिसाब से करने की कोशिश कर रही हैं. उनके अनुसार हिजाब का मुद्दा भी इसी का एक हिस्सा है. (bbc.com/hindi)

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